सोमवार, 28 दिसंबर 2015

विचार का एक प्रमुख विषय : जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद

संगठन के विषयों पर सीपीआई (एम) का महाधिवेशन


-अरुण माहेश्वरी

संगठन के सवालों पर सीपीआई(एम) का महाधिवेशन (27 दिसंबर-31 दिसंबर 2015) कोलकाता में चल रहा है।

इस महाधिवेशन में लिये गये संगठन संबंधी नीतिगत निर्णयों के बारे में सही ढंग से तभी कोई बात हो सकती है, जब इसमें अपनाये गये दस्तावेज हर किसी को विचार के लिये उपलब्ध होंगे। लेकिन सीपीआई(एम) के मुखपत्र गणशक्ति और यहां के दूसरे स्थानीय अखबारों से तथा पार्टी के नेताओं के संवाददाता सम्मेलनों से अब तक जो बात सामने आई है, उसमें यह साफ तौर पर कहा गया है कि नये सिरे से सीपीआई(एम) को एक जन पार्टी के रूप में तैयार किया जायेगा।

अगर यह सच है तो यह प्रकारांतर से इस बात की स्वीकृति है कि 1978 के सलकिया प्लेनम में जन-क्रांतिकारी पार्टी के निर्माण का जो नारा दिया गया था, उस पर अमल में अब तक पार्टी विफल रही है।

हम नहीं जानते, इस विफलता को किन तथ्यों और मानदंडों के आधारों पर आंका गया है। कम्युनिस्ट पार्टी के संचालन के सबसे पवित्र और अनुलंघनीय सिद्धांत के रूप में ‘जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद’ की दुहाई दी जाती रही है और जन-क्रांतिकारी पार्टी के निर्माण के लिये भी इससे भिन्न किसी दूसरे सांगठनिक सिद्धांत का रास्ता नहीं अपनाया गया है। फिर आखिर यह विफलता क्यों ? कैसे जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद सिर्फ यहीं पर नहीं, बल्कि सारी दुनिया की कम्युनिस्ट पार्टियों में कोरे केंद्रीयतावाद में तब्दील हो कर रह जाता है!

यह जितना सैद्धांतिक सवाल है, उतना ही एक दार्शनिक प्रश्न भी है। जनतंत्र की कोई भी प्रकृत अवधारणा उसे व्यापक जनता और समाज से काट कर कभी चरितार्थ नहीं हो सकती। विचार का कोई भी रूप जब व्यापक जनता से कट कर चंद चुने हुए लोगों के विशेषाधिकार का प्रश्न बन जाता है, वहीं से उसके जनतांत्रिक तत्व की हानि शुरू हो जाती है। पूंजीवादी जनतंत्र सच्चा जनतंत्र नहीं है, क्योंकि वह एक खास वर्ग के हितों से जुड़ा होता है।

जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद के ‘जनतांत्रिक पहलू’ की सुरक्षा की पहली शर्त यह है कि वह महज पार्टी का अंदुरूनी विषय बन कर न रहे। पार्टी के संगठन में व्यापक समाज की दखलंदाजी को सुनिश्चित करके ही जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद में जनतंत्र चरितार्थ हो सकता है।

लेकिन कम्युनिस्ट पार्टियों का अब तक का अनुभव काफी हद तक इसके विपरीत रहा है। जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद संगठन का कोई जैविक सिद्धांत न होकर उसके संचालन का महज एक यांत्रिक सिद्धांत रहा है। यह मुट्ठीभर पार्टी सदस्यों और नेताओं का निजी मामला रहा है। इसके जरिये पार्टी के संगठन में व्यापक समाज की दखल के रास्ते कभी नहीं खुल पाये हैं।
यह रोग सिर्फ कम्युनिस्ट पार्टियों में नहीं, भारत की दूसरी सभी राजनीतिक पार्टियों में भी समान रूप से बना हुआ है। ‘जनता के बीच सीधे अपनी बात न कह कर पार्टी फोरम पर बात करने’ की दलीलें हर पार्टी की ओर से बार-बार दोहराई जाती है।

जनतंत्र मात्र की क्रियाशीलता के अंदर के ऐसे अवरोधों को सारी दुनिया में महसूस किया जा रहा है और इसीलिये जनभागीदारी वाले जनतंत्र (Participatory Democracy) की अक्सर चर्चा की जाती है।

इस बीमारी को ठोस रूप में समझने के लिये एक इस तथ्य पर गौर किया जा सकता है कि पश्चिम बंगाल में लंबे काल से इतनी ताकतवर पार्टी होने के बावजूद उसका ‘जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद’ इसके सभी स्तरों पर नेतृत्व में अपराधियों और समाज-विरोधियों के प्रभुत्व को रोकने में विफल रहा है। अगर व्यापक जनता और समाज की पार्टी के संगठन में कोई सीधी दखल होती, तो गोपनीय ढंग से पार्टी में अपराधियों की पैठ कभी संभव नहीं हो सकती थी।

इसीलिये, जैसे जनतंत्र को उसके पूंजीवादी तानाशाही के रूप से मुक्त करने की जरूरत है, वैसे ही क्रांतिकारी पार्टी को संगठन को व्यापक समाज से अलग, चंद लोगों, अर्थात पार्टी सदस्यों और नेताओं की तानाशाही से मुक्त करने की जरूरत है। जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद में जनतंत्र के तत्व की हिफाजत व्यापक जनता और समाज के जरिये होगी, न कि पार्टी के अंदर की बहसों में अल्पमत पर बहुमत की राय को स्वीकार कर चलने की किसी यांत्रिक प्रक्रिया से।

यह तभी होगा, जब हर पार्टी सदस्य को, वह पार्टी के अंदर बहुमत में हो या अल्पमत में, व्यापक जनता के बीच जाकर सीधे अपनी बात रखने की बाकायदा इजाजत होगी। हर पार्टी सदस्य की जनता के बीच सीधे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में किसी भी प्रकार के अनुशासन की बाधा का कोई स्थान नहीं होगा।

हमारी राय में जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद में जनतंत्र के तत्व को इस प्रकार से सजीव बना कर न सिर्फ कम्युनिस्ट पार्टी अपने को वास्तव अर्थों में एक जनपार्टी बना पायेगी, बल्कि समाज के सामने राजनीतिक दलों के संगठन का एक प्रकृत जनतांत्रिक विकल्प पेश कर पायेगी। 

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2015

कन्वर्जेंस के समय में मीडिया

('तूफानी वर्ष 2014 और फेसबुुक की इबारतें' पुस्तक का प्राक्कथन)

‘‘ प्रिंट की दुनिया आज भी हमारे बीच साफ तौर पर मौजूद है। हम यह नहीं कह सकते कि उसे हम पीछे छोड़ आए हैं। यह और भी लंबे अर्से तक बनी रह सकती है। भारत या ब्रिटेन में कुछ ज्यादा ही। लेकिन मुझे लगता है कि हम मोटे तौर पर इसे जान चुके हैं, हम इसमें बहुत ज्यादा अब प्रयोग नहीं कर सकते। ...आप इसपर कई प्रकार से सोच सकते हैं। मैं नहीं मानता कि हम डिजिटल युग में जाने का जोखिम इसलिए नहीं उठाते क्योंकि हम समझते हैं कि प्रिंट ही अच्छा है। बल्कि पत्रकारिता के लिहाज से सोचने पर डिजिटल दुनिया ही कहीं ज्यादा बेहतर लगती है। मेरा अनुभव है कि डिजिटल दुनिया में आप एक बेहतर पत्रकार हो सकते हैं। अन्यथा, आपके पिछड़ जाने का खतरा है। ...सचमुच संपादन के दौरान ही मुझे लगा कि अब डिजिटल दुनिया में घुस जाना होगा। यदि मैं गलत साबित होता हूं और प्रिंट कुछ और सालों तक बना रह जाता है, तो कोई बात नहीं, उसमें काम करना तो हमे आता ही है। ’’

ये शब्द है एलन रसब्रिजर के। ‘फ्रंटलाईन’ पत्रिका के 7 अगस्त 2015 के अंक में ‘गार्जियन’ अखबार के पूर्व संपादक एलन रसब्रिजर के साथ शशिकुमार की एक लंबी बातचीत प्रकाशित हुई है। ‘गार्जियन’ के जीवन में रसब्रिजर का लगभग दो दशकों का काल एक बेहद घटना-बहुल काल माना जाता है, जब ‘गार्जियन’ ‘न्यूयार्क टाइम्स’ जैसे अखबार के टक्कर में वैश्विक स्तर पर सबसे बड़ा ऑनलाईन समाचारपत्र बन गया। इसी काल में ‘गार्जियन’ का प्रिंट रूप भी बदला और अंत में तो वह पूरी तरह से ऑनलाईन, सोशल वेब पर चला गया। दुनिया को चौका देने वाले जूलियन असांज के विकिलीक्स में ‘गार्जियन’ की भागीदारी रही। लगातार सात सालों की मेहनत के बाद निक डेवीज द्वारा संचार माध्यमों में रुपर्ट मर्डक की अनैतिक गतिविधियों के भंडाफोड़ में भी गार्जियन की एक बड़ी भूमिका थी। और अभी अंत में, एडवर्ड स्नोडेन द्वारा अमेरिकी सुरक्षा एजेंशी के भंडाफोड़ की वजह से तो ‘गार्जियन’ को जन-सेवा का पुलित्जर पुरस्कार मिला। गार्जियन की ये सारी उपलब्धियां एलन रसब्रिजर के काल की ही रही है। रसब्रिजर ‘गार्जियन’ से इसी जून महीने में स्वेच्छा से सेवानिवृत्त होगए और अभी एशियन कॉलेज आफ जर्नलिज्म (एसीजे) में विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में अध्यापन का काम कर रहे हैं।

‘गार्जियन’ के स्तर के एक अखबार के साथ प्रिंट से लेकर ऑनलाईन, वेब की डिजिटल दुनिया की लंबी यात्रा के साक्षी रसब्रिजर जब डिजिटल में पत्रकारिता के भविष्य को देखते हैं तो यह अनायास ही नहीं है। वे कहते हैं कि ‘‘डिजिटल सिर्फ समाचारों के वितरण का एक और माध्यम भर नहीं है। ...मैं एसीजे में अध्यापन का काम करता हूं। वहां का पूरा जीवन ही डिजिटल है। वहां के छात्र इसके अलावा कुछ जानते ही नहीं है। ... इस नए माध्यम में किसी को इस बात की रत्ती भर भी चिंता नहीं रहती है कि प्रिंट में क्या हो रहा है। तुलना तो सिर्फ प्रिंट जगत में डिजिटल से की जाती है। जाहिर है कि आगे ऐसे बहुत लोग होंगे जो प्रिंट के विचार से पूरी तरह मुक्त होंगे। प्रिंट कुछ मामलों में अतुलनीय है। लेकिन आने वाली दुनिया अलग होगी, जिसमें सिर्फ मीडिया नहीं, जीवन का हर क्षेत्र डिजिटल से प्रभावित होगा। इसीलिए इस पुरानी दुनिया से इस हद तक चिपके रहना कि कुछ भी क्यों न हो जाए, इस क्रांति के प्रभाव से पत्रकारिता बची रहेगी, मुझे भविष्य के बारे में कोई बुद्धिमत्तापूर्ण सोच नहीं लगता है।’’

शशिकुमार ने जब उनसे पूछा कि क्या इससे कहानी कहने के ढंग में बड़ा परिवर्तन नहीं आएगा ? रसब्रिजर का जवाब था - ‘‘मैं इसके किसी सीधे-सपाट जवाब के जाल में नहीं पड़ना चाहता। कोई कैसे कह सकता है कि एक सीधी-सादी कहानी के दिन नहीं रहे। ...हमारे सामने चुनौती सिर्फ यह है कि हम अब सब कुछ कर सकते हैं। आपके करने की संभावनाओं की कोई सीमा नहीं रही है। कुछ लोगों को गुटकों में सूचना चाहिए तो कुछ है जो सूचना की अनंत गहराई तक पहुंचना चाहते हैं। ... हम भविष्य को किसी माप के अनुसार देखना नहीं चाहते। लोगों की इच्छा के माप से भी हम संचालित नहीं हो सकते।’’

इसप्रकार बात यहां तक चली जाती है कि क्या किसी भी कहानी का विस्तार या उसकी गहनता उसके कहने के माध्यम पर निर्भर करती है ? और, रसब्रिजर का जवाब है, ‘‘जरूर। मसलन यदि आप एनिमेशन को आईफोन पर फ्लैश में लाना चाहते हैं तो वह इस बात पर निर्भर करेगा कि आप एनिमेशन के अनुसार फ्लैश का प्रयोग करते हैं या नहीं। यदि आप अफ्रीका में होंगे तो आपकी पत्रकारिता अलग होगी। वह संक्षिप्त पाठ पर आधारित होगी जिसमें कम से कम तस्वीरों का प्रयोग किया जायेगा, क्योंकि वहां इंटरनेट सुविधाओं में कमी के कारण डाउनलोडिंग में बहुत ज्यादा समय लग जाता है। ...अन्यथा मैंने स्मार्ट फोन पर लोगों को लंबे से लंबे लेखों को पढ़ते हुए देखा है।’’

“इसके अलावा, जिस माध्यम में संवाद की गुंजाइश नहीं होती, उसमें आप भाषण की तरह एकतरफा बोल सकते हैं। लेकिन इस डिजिटल माध्यम में तीखा लिखने पर तीखा प्रत्युत्तर भी तत्काल मिलेगा।“

रसब्रिजर इसी सिलसिले में बड़े निबंधकार साइमन जेन्किन का उल्लेख करते हैं। वे बताते हैं कि हम उनसे मांग करते हैं कि हमें बारह सौ के बजाय तीन सौ शब्दों में आपकी बात चाहिए, और दोपहर तक नहीं, सुबह-सुबह ; और यह भी जरूरी नहीं कि वह बहुत सुचिंतित हो। इसप्रकार, एक सवाल उठा कर उसपर बहस आमंत्रित करना भी एक प्रकार की पत्रकारिता है। इसका अपना एक अलग महत्व है। ‘‘कहने का अर्थ यह है कि एक पत्रकार को इन सब बातों के प्रति खुला नजरिया रखना होगा।’’

रसब्रिजर की यह बात कि ‘तकनीक और नयी संभावनाओं के प्रयोग को लेकर तमाम चीजों के प्रति एक बहुत ही खुले नजरिये’ की जरूरत है, वह प्रमुख बात है जिसे अपने प्रकार की इस फेसबुक डायरी की भूमिका में हम खास तौर पर रेखांकित करना चाहेंगे। लिखना लेखक की नैसर्गिकता है। लेकिन ऐसा करते हुए उसे हमेशा अपने समय की अनेक प्रकार की बाधाओं का मुकाबला करते रहना पड़ता है। लिखने की कई हसरतें पैदा होने के पहले ही खत्म हो जाती है। लोगों की पूरी जिंदगी गुजर जाती है, लेकिन वे यह नहीं जान पाते कि कैसे अपने लिखे को दूसरों के लिए प्रकाशित करें। अपने लेखन के प्रकाशन के लिए अब तक सिर्फ  लेखक होना ही यथेष्ट नहीं रहा है।

यह एक परिप्रेक्ष्य है, जिसमें फेसबुक की तरह के सामाजिक माध्यम अभिव्यक्ति के औजार के रूप में खास अर्थ रखते हैं। इसमें प्रश्न सिर्फ नई तकनीक के चयन का नहीं रहता है। यह लेखकीय अस्मिता से जुड़ा प्रश्न भी है। यद्यपि इन माध्यमों के प्रति भी सामाजिक-राजनीतिक सत्ताएं अभी जिसप्रकार सशंकित हैं और आए दिन इनपर लगाम कसने की उनकी चिंताएं सामने आती रहती है, इससे यही लगता है कि ये माध्यम भी क्रमश: एक निश्चित आम-सहमति की सीमा में ही काम करने का मंच प्रदान करेंगे। उन सीमाओं का उल्लंघन किसी को भी सामाजिक तिरस्कार से लेकर स्नोडेन की तरह सरकारी कोप का पात्र तक बना देगी। फिर भी, हमारे जैसे अभावों के समाज में आदमी की स्वतंत्रता भौतिक कारणों से ही जितनी सीमित है, उसमें फेसबुक की तरह के  खुले मंच से मिलने वाली प्रकाशन की सुविधा जैसे सालों की मुराद के पूरा होने की तरह महत्वपूर्ण हो जाती है।

खुद हमारा अनुभव है कि इस मंच का प्रयोग करके हम अनेक विषयों पर खुल कर अपने ऐसे विचारों को रख पाए हैं, जिनके लिए दूसरे परंपरागत माध्यमों पर जगह नहीं रह गयी है। इसकी साक्षी है यह फेसबुक डायरी भी।

इसके अलावा यह मंच अकेले व्यक्ति की मुखर सामाजिक भूमिका को सुनिश्चित करने वाला मंच है। सन् 2014 भारत में एक ऐसे लोकसभा चुनाव का समय रहा है जिसमें चुनावों के आज तक के इतिहास में सबसे ज्यादा रुपये खर्च किये गये थे। यह पत्रकारिता पर पेडन्यूज के पूर्ण ग्रहण का काल था। सत्ताधारी कांग्रेस दल और नरेन्द्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी के अलावा तीसरी किसी भी ताकत के लिए कहीं एक इंच जगह भी नहीं थी। खास तौर पर नरेन्द्र मोदी के भाजपा ने पानी की तरह अरबों रुपये बहा दिये थे। पूरा कॉरपोरेट जगत नग्न तौर पर नरेन्द्र मोदी के पक्ष में उतरा हुआ था और टेलिविजन के सारे चैनलों से सिर्फ मोदी-मोदी की रट लगाई जा रही थी। शुद्ध धन-बल से प्रचार की आंधी के मुकाबले में प्रतिवाद और प्रतिरोध की आवाज के लिये अगर कहीं कोई जगह बची थी तो वह एक हद तक सिर्फ फेसबुक की तरह के सोशल मीडिया में ही थी। हालांकि इस माध्यम पर भी ‘नमो’ समूह ने बेहद संगठित ढंग से हमला किया था, और विपक्ष की आवाज सिर्फ लोगों की व्यक्तिगत पहल तक सीमित थी। खास तौर पर, वामपंथी राजनीतिक पार्टियों के लिए तो यह माध्यम तब तक कोरा अजूबा ही बना हुआ था। लेकिन फिर भी, दक्षिणपंथ के संगठित और मुखविहीन हमलों के खिलाफ फेसबुक पर एक-एक आदमी के जवाबी लेखन का भी अपना एक स्वरूप इसी के बीच से सामने आ रहा था।

हमारे जैसे फेसबुक पर सक्रिय लेखक ने जब साल के अंत में पूरे साल की अपनी इन गतिविधियों पर नजर डाली तो एकबारगी लगा कि कई अर्थों में साल भर की इन पोस्टों से एक वैकल्पिक सोच का खाका उभरता हुआ दिखाई देता है। इसीलिए लगा कि फेसबुक की भीत पर लगभग प्रतिदिन लिख कर हमने जो साल भर की फेसबुक डायरी तैयार की है, उसे डिजिटल के साथ ही प्रिंट में भी लाया जा सकता है। और इसप्रकार, रसब्रिजर की तरह के तमाम लोग पत्रकारिता में प्रिंट और डिजिटल की दो अलग दुनियाओं को लेकर जो विमर्श कर रहे हैं, उसके साथ ही प्रिंट और डिजिटल के संयोग के भी एक नए विमर्श की जमीन तैयार हो सकती है। क्योंकि, उन्हीं के अनुसार भारत और ब्रिटेन की तरह के देशों में इन दोनों दुनियाओं का सह-अस्तित्व दूसरे विकसित देशों की तुलना में कहीं ज्यादा लंबे काल तक बना रह सकता है। यह, कन्वर्जेंस का यह एक और नया प्रयोग भी कहला सकता है।

बहरहाल, सारी दुनिया में फेसबुक पर आज करोड़ों लोग सक्रिय हैं। लेकिन अब तक हमारी नजर में ऐसी दूसरी किसी फेसबुक डायरी की मिसाल नहीं आई है। इसीलिये इस बात की आशंका बनी हुई है कि हमारा यह प्रयास पाठक समाज से कितनी स्वीकृति पायेगा ! इसके बावजूद, शायद हमारे खुद के लेखन की खास प्रकृति के चलते, क्योंकि हमने कभी भी माध्यम की सीमाओं और संभावनाओं को मद्देनजर रखते हुए लेखन नहीं किया, हमें लगता है कि प्रिंट के पाठकों को इस प्रयोग को अपनाने में ज्यादा कठिनाई नहीं होगी।

इस काम को संभव बनाने में अनामिका प्रकाशन के पंकज शर्मा जी ने जो भूमिका अदा की, उसके लिए मैं उनका आभारी रहूंगा। फेसबुक के उन सभी मित्रों और फॉलोअर्स के प्रति भी आभारी रहूंगा जिनके चलते हम फेसबुक की भीत पर नियमित लिखने का उत्साह पाते रहे हैं।

सितंबर 2015                                                                                                     अरुण माहेश्वरी








‘तूफानी वर्ष 2014 और फेसबुक की इबारतें’


फेसबुक के सभी मित्रों से अपनी यह खुशी साझा करना चाहता हूं - अगले हफ्ते तक हमारी नई किताब ‘तूफानी वर्ष 2014 और फेसबुक की इबारतें’ प्रकाशित हो जायेगी।

लगभग साढ़े चार सौ पृष्ठों की यह किताब शायद अपने प्रकार की एक बिल्कुल नई और अनोखी किताब होगी। फेसबुक पर रोज-रोज लिख कर हम किस प्रकार अपने समय का एक इतिहास दर्ज कर रहे होते हैं, इस किताब से पता चलेगा। इसका महत्व शायद इसलिये भी होगा कि यह उस वर्ष 2014 का रोजनामचा है, जो भारत की राजनीति के एक तूफानी वर्ष के तौर पर हमेशा याद किया जायेगा। रोजनामचे में लेखक की अपनी आत्मगत उपस्थिति तो अनिवार्यत: होती ही है !

अनामिका प्रकाशन के पंकज शर्मा जी ने ऐसी एक अभिनव पुस्तक के प्रकाशन में जिस प्रकार के उत्साह और तत्परता का परिचय दिया है, वह सचमुच सराहनीय है। यह हार्ड बाउंड के साथ ही पेपरबैक में भी आयेगी। इसमें आए संदर्भों की लगभग चौदह पृष्ठ की सूची से प्रकाशक ने इसे और भी महत्वपूर्ण बना दिया है। अभी तक उन्होंने इसके पेपरबैक की कीमत के बारे में कोई सूचना नहीं दी है। लेकिन पेपरबैक में जरूर ही किफायती मूल्य पर मिलेगी।

प्रकाशक का नाम व पता है :
Anamika Publishers and Distributors (Pvt) Ltd
4697/3, 21-A, Ansari Road,
Dariyaganj, New Delhi - 110 002
Phone : 011-23281655, 011-23270239
E Mail - anamikapublishers@yahoo.co.in

गुरुवार, 3 दिसंबर 2015

भाजपा के अनुसार भारत में जातिवाद का सच भी गढ़ा हुआ (manufactured) है

राज्य सभा का अधिवेशन आज भी रुका हुआ है। दो दिन पहले भारत के संविधान पर चल रही बहस के दौरान कांग्रेस नेता और पूर्वमंत्री कुमारी शैलजा ने समाज में जातिगत भेदभाव के सच को बताने के लिये गुजरात के एक मंदिर के अपने अनुभव को सदन में रखा था। सजल आंखों से उन्होंने बताया कि किस प्रकार द्वारका के एक द्वीप पर स्थित मंदिर में पूजा के वक्त पुजारी ने उनसे उनकी जाति के बारे में पूछा था। शैलजा ने कटाक्ष किया कि यह है -विकास का गुजरात मॉडल !
कुमारी शैलजा के बयान के दूसरे दिन ही मोदी सरकार के अति-उत्साही मंत्री अरुण जेटली सदन में कुछ कागजों के साथ हाजिर होगये। शैलजा के अनुभव को झुठलाते हुए उन्होंने द्वारकाधीश मंदिर की आगंतुकों की उस डायरी का उल्लेख करना शुरू कर दिया जिसमें खुद कुमारी शैलजा ने 23 जनवरी 2013 के दिन पुजारियों की प्रशंसा करते हुए लिखा था कि ‘‘उनका अहोभाग्य था कि उन्हें भगवान कृष्ण का आशिर्वाद मिला।’’ जेटली ने मंदिर के इस रेकर्ड को सदन में रखने की पेशकश भी की। 
कुमारी शैलजा ने तत्काल जेटली की इस उत्साही खोज को खारिज करते हुए बताया कि उन्होंने द्वारकाधीश मंदिर की बात नहीं कही थी। वे द्वारका के एक द्वीप पर स्थित एक मंदिर की चर्चा कर रही थी। भाजपा के एक सांसद ने उन्हें याद दिलाया कि वे शायद बैत द्वारका मंदिर की बात कर रही है तो कुमारी शैलजा ने कहा कि हां, उसी मंदिर की बात है। 
बेट-द्वारका ही वह जगह है, जहां भगवान कृष्ण ने अपने प्यारे भगत नरसी की हुण्डी भरी थी। यह मंदिर एक द्वारकाधीश मंदिर से तीस किलोमीटर दूर एक अलग टापू पर स्थित है जहां नौका से जाना पड़ता है। 
मजे की बात यह है कि अति-उत्साही जेटली के शिष्य, भाजपा के एक दूसरे मंत्री पियूष गोयल ने जेटली की इस अनुपम खोज पर उछल कर कहा कि ‘‘गढ़ी हुई अन्य समस्याओं और गढ़े गये भेद-भाव (Manufactured problems and manufactured discrimination) का यह एक और उदाहरण है। 
कुमारी शैलजा के बयान और उस पर वित्त मंत्री जेटली का रवैया यह दिखाने के लिये काफी है कि मोदी सरकार अपने विरोधियों को अपमानित करने के लिये किसी भी हद तक जा सकती है। उन्हें यह कहने में भी कोई हिचक नहीं है कि भारत में जातिवादी भेदभाव की बात करना सच नहीं, बल्कि एक गढ़ा हुआ सच है ! वे एक पूर्व मंत्री के पीड़ादायी अनुभवों को झुठलाने के लिये मंदिरों के भी झूठे-सच्चे रेकर्ड पेश कर सकते हैं। 
जेटली आज भी अपने झूठ के लिये खेद प्रकट करके माफी मांगने के लिए तैयार नहीं है। अब भाजपा वालों का कहना है कि शैलजा ने इसके साथ ‘विकास के गुजरात मॉडल’ का उल्लेख क्यों किया ! अर्थात्, आने वाले समय में मोदी के कथित ‘विकास मॉडल’ की आलोचना की भी मनाही होगी !
सचमुच, संसदीय जनतंत्र की नैतिकताओं के साथ भाजपा का मेल बैठना इस मोदी जमाने में अब मुश्किल हो रहा है। लेकिन संतोष की बात यही है कि दिल्ली, बिहार और अब गुजरात की जनता ने यह बता दिया है कि इनके उत्पात के अब गिने-चुने दिन ही शेष है। इनके भविष्य की इबारतें जनता के दिलों पर लिखी जा चुकी है।