शनिवार, 30 अप्रैल 2016

गुलजार और रवीन्द्रनाथ की कविताओं का अनुवाद






अरुण माहेश्वरी


गुलजार मूलत: हिंदी फिल्म जगत की एक उपज है, अर्थात, कहा जा सकता है, शुद्ध व्यवसायिक जगत की उपज। बौलीवुड के बारे में कहा ही जाता है कि यहां जो बिकता है, वही चलता है। यह सिनेमा से जुड़े रचनाशीलता के तमाम पक्षों पर बाजार के नियमों पर अमल का क्षेत्र है।


एक ऐसे जगत से आने वाले गुलजार की शायरी अपनी खास रंगत के कारण अक्सर अचंभित कर देने वाली होती है। शोर-शराबे से भरे ग्लैमर की दुनिया के बीच कैसे किसी आदमी की इतनी महीन, जहीन, नाजुक सी आवाज अपने को सुरक्षित रख पाती है, यह किसी के लिये भी एक रहस्य का विषय हो सकता है। उनकी एक शायरी की पंक्तियां है -


‘‘देखना, सोच-संभल कर जरा पांव रखना

जोर से बज न उठे पैरों की आवाज कहीं

कांच के ख्वाब हैं बिखरे हुए तन्हाई में’’


और


‘‘ख्वाब टूटे न कोई, जाग न जाए देखो

जाग जाएगा कोई ख्वाब तो मर जायेगा।’’


जागना ख्वाबों की मौत है और जाहिर है कि जगाना ख्वाबों की हत्या ! हेगेल ने लिखा है कि शब्द वस्तु की मृत्यु है और शब्द के साथ ही चेतना के, विचारों के संसार का प्रारंभ होता है। लेकिन चेतना (जागृति) ख्वाबों की हत्या करती है -उलट कर देखें तो बेहोशी के सुख का अवबोध - यह क्या कम महत्वपूर्ण है ! जब और कोई साधन नहीं होता तो जीने के लिये बेहोशी के फलसफे पर कम नहीं लिखा गया है !


बहरहाल, गुलजार हमारे सामने जो प्रश्न छोड़ते हैं वह यही है कि कैसे वे नीम बेहोशी के धुंधलके में लिपटे अपने नितांत निजीपन और ‘शो अभी भी जारी है’ के हंगामाखेज जीवन के बीच एक तालमेल बना कर चलते होंगे ? ‘‘आहिस्ता चलो, और भी आहिस्ता’’ की तरह की बिल्कुल खामोश सी अपनी कविता से व्यवसाय जगत की भागम-भाग का मेल कैसे बैठाते होंगे ?


गुलजार के फिल्मी गीतों के रेंज को देख कर कई मर्तबा तो घबड़ाहट सी होने लगती है।


‘‘जब भी यह दिल उदास होता है/जाने कौन आस-पास होता है/बेवजह जब करार मिल जाए/दिल बड़ा बेकरार होता है’’ की तरह की गालिब के अंदाज की शायरी से लेकर ‘‘बीड़ी जलइले जिगर से पीयां’’ की तरह का चवनिया लेखन। यह अनायास ही हमें ‘‘हम है मताए कूचए बाजार की तरह’’ से लेकर ‘‘रेशमी सलवार कुर्ता जाली का’’ तक के मकबूल शायर मजरूह साहब की याद दिला देती है।


इन्हीं उदाहरणों से हमारा ध्यान ‘उस्ताद की कलम’, उसके ‘अंदाज’ के विषय की ओर चला जाता है - ओरहन पामुक के उपन्यास ‘‘My Name is Red’’ का नक्काश उस्ताद कहता है कि ‘‘जिसे हम फनकार का अंदाज कहते हैं वह दरअसल उसका अधूरापन या ऐब होता है, जिससे मुजरिम का सुराग मिलता है।.. नुक्स से ही अंदाज पैदा होता है।’’


और, साथ ही उस्ताद का यह तंज भी है कि ‘‘अगर इंसान का ‘सरकंडा’ उसकी बीबी को खुश कर देता हो तो उसके फन का सरकंडा उतना असरदार नहीं होता।’’


बहरहाल, उस्ताद के अंदाज की ऐसी ही अनेक कौंध से भरी गुलजार की रचनाशीलता का हमें एक और नया परिचय मिला है, उनकी दो किताबों, ‘बागबान’ और ‘निदिया चोर’ से - रवीन्द्रनाथ की रचनाओं के संकलन ‘Gardner’ और ‘The Crescent Moon’ के गुलजार द्वारा किये गये उर्दू अनुवाद से। हार्पर पैरेनियल ने इनका इतना खूबसूरत प्रकाशन किया है कि किसी को भी इन्हें पाकर एक अलग सी खुशी का अहसास होगा।


हम सभी जानते हैं कि रवीन्द्रनाथ ने खुद ही अपनी इन बांग्ला कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद किया था। गुलजार ने इन संकलनों की कविताओं के बांग्ला और अंग्रेजी, दोनों रूपों की मदद लेकर देवनागरी लिपि में इनका उर्दू अनुवाद किया है।


अच्छे अनुवाद के बारे में कहा ही जाता है कि वह फूलदान की तरह की किसी भी जीवित कृति को तोड़ कर शुरू किया जाता है। रचना पहले टुकड़ों में बिखर कर अनुवादक के सामने आती है, और अनुवादक फिर इस फूलदान के टुकड़ों को जोड़ता है। फूलदान को तोड़ना ही अनुवाद के रूप में उसके नवनिर्माण की शर्त है। दुनिया की क्लासिकल कृतियां इसी तरह तमाम भाषाओं और कालों में पहले बिखर कर फिर पुनर्रचना के जरिये कालजयी बन कर सामने आया करती है।


इसमें शक नहीं है कि किसी भी क्लासिकल कृति में हस्तक्षेप करने के अपने तमाम जोखिम भी होते हैं। इनकी सफलता के कोई निश्चित नुस्खे नहीं होते। बल्कि अक्सर इसप्रकार के प्रयोगों की दुर्गतियां ही ज्यादा दिखाई देती हैं। लेकिन फिर भी हमेशा नहीं । इन सबके विपरीत सचाई यह है कि किसी भी क्लासिकल कृति के प्रति निष्ठापूर्ण रहने का मतलब ही है कि उसके साथ इसप्रकार का जोखिम उठाया जाना । कृति के पारंपरिक रूप और ढांचे से चिपके रहना क्लासिक की भावना के साथ विश्वासघात करने का सबसे सुरक्षित उपाय कहा जा सकता है।


रवीन्द्रनाथ की रचनाओं के हिंदी अनुवादों के मामले में इसप्रकार की लकीर की फकीरी के विध्वसंक परिणामों को हम लगातार देखते रहे हैं। खास तौर पर जिन लोगों ने रवीन्द्रनाथ के गीतों का रवीन्द्र संगीत की धुन को बनाये रखते हुए हिंदी में अनुवाद किया है, उन गीतों को सुन कर तो यह अनुमान लगाना भी कठिन होता है कि वे हिंदी में हैं या बांग्ला में या किसी और ही नयी, अबूझ सी भाषा में ! इस प्रकार के अनुवादों को हम ‘मच्छरमार अनुवाद’ कह सकते हैं, अर्थात ऐसा अनुवाद जिसमें मूल प्रति में किसी वजह से मरा हुआ मच्छर चिपका हो तो अनुवादक भी खोज कर वहां एक मच्छर को मार कर चिपका देता है।


ऐसे ‘मच्छरमार’ अनुवाद के बजाय, क्लासिकल कृति को जीवित रखने का एक मात्र तरीका उसे ‘खुला’ रखना है, भविष्य की ओर ले जाने वाला, काल को पार करने वाला खुलापन - एक ऐसी फिल्म बनाना जिसको विकसित करने का रसायन बाद में आता है !


गुलजार की कविता की एक पंक्ति है - ‘‘मैंने काल को तोड़के लम्हा लम्हा जीना सीख लिया।’’


रवीन्द्रनाथ के इन दो संकलनों का उनका अनुवाद भी ऐसा ही है, काल को तोड़ कर लम्हे-लम्हे को जीने के समान। रवीन्द्रनाथ के औपनिषदिक चिंतन के खोल को आसमान की तरह और खोल देने वाला, उसमें और भी रंगों को भरने की संभावनाएं पैदा करने वाला।


अपने इन अनुवादों में गुलजार ने अपनी सुविधा के अनुसार कहीं मूल बांग्ला की कविताओं को अपना अवलंब बनाया है तो कहीं रवीन्द्रनाथ के अंग्रेजी अनुवादों को। रवीन्द्र विशेषज्ञों की यह मान्यता रही है कि रवीन्द्रनाथ खुद अपनी कविताओं के अच्छे अनुवादक नहीं थे। गुलजार ने अच्छे-बुरे अनुवाद के इस पहलू की बिना कोई परवाह किये उनके ढांचे को तोड़ कर एक दूसरी भाषा के चौखटे में उतारने के लिये अपनी मर्जी से कविताओं के मूल बांग्ला या अंग्रेजी पाठों का अपनी सुविधा के अनुसार चयन किया है।


दरअसल, हिंदी की कथित साहित्य भाषा का रवीन्द्रनाथ की बांग्ला भाषा से काफी मेल है, क्योंकि कुछ ऐतिहासिक कारणों से ही यह भाषा मूलत: बांग्ला के प्रभाव के तहत ही विकसित हुई है। आलोक राय की पुस्तक ‘हिंदी नेशनलिज्म’ से हिंदी की 'साहित्यिक भाषा' के इस पहलू की सचाई को बखूबी जाना जा सकता है। उस किताब की भूमिका में निलाद्रि भट्टाचार्य ने इस भाषा को एक मृत भाषा भी कहा है - हिंदी भाषी जनता और कथित हिंदी साहित्य के बीच का एक बड़ा अवरोध। इस बात को रवीन्द्रनाथ की रचनाओं के हजारीप्रसाद द्विवेदी, अज्ञेय सहित साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित उनके रचना संचयन में शामिल किये गये हिंदी अनुवादों को देख कर और भी अच्छी तरह से जाना जा सकता है। ये अनुवाद कथित तौर पर प्रामाणिक होने पर भी रवीन्द्रनाथ की रचनाओं का जितना व्याप और गहरा असर बांग्ला भाषी लोगों पर पड़ता है, उसका एक प्रतिशत भी इन अनुवादों को पढ़ कर हिंदी भाषी जनता पर नहीं पड़ता।


इस लिहाज से देखने पर गुलजार का यह उर्दू अनुवाद, जिसे एक प्रकार से ‘हिंदुस्तानी’ में किया गया अनुवाद कहा जा सकता है, अब तक के उपलब्ध अनुवाद की कमियों को दूर करने संभावनाओं की ओर संकेत करता है।


रवीन्द्रनाथ की रचनाशीलता का एक प्रमुख उपादान उनमें गहरे तक पैठा हुआ उनका औपनिषदिक चिंतन और स्मृति ग्रंथों के वृत्तांतों का संस्कार रहा है। कहना न होगा, अपनी ही कविताओं के उनके अंग्रेजी अनुवादों में इस औपनिषदिक चिंतन की ध्वन्यात्मकता व्याहत हुई हैं। जाहिर है कि गुलजार ने भी जब उनकी अंग्रेजी कविताओं को अपना अवलंब बनाया है, उन अनुवादों को मूल बांग्ला से मिला कर देखने पर, कुछ वैसी ही कमियां इन अनुवादों में भी दिखाई देती है।


उदाहरण के तौर पर, रवीन्द्रनाथ की कविता है - दु:समय। गुलजार के अनुवाद में इसका शीर्षक - ‘पंछी’। इस कविता में एक जगह जंगल की अपनी एक ध्वनि की चर्चा है - ‘‘ए नहे मुखर वनमर्मर गुंजित/ ए जे अजगरगरजे सागर फूलिछे’’ - यह मर्मर गुंजन द्वारा मुखरित वन नहीं है। यह अजगर की फुफकार की तरह समुद्र के उफान की गूंज है। मूल कविता में जो फुफकार की ध्वनि का पक्ष है, वह अनुवाद में रवीन्द्रनाथ के अंग्रेजी पाठ को अवलंब बनाने की वजह से ही गायब हो गया है। रवीन्द्रनाथ ने अंग्रेजी में लिखा है -


That is not the gloom

of leavesof the forest,

that is the sea swelling

like a dark black snake


गुलजार ने इसका अनुवाद किया है -


‘‘ये जंगल में दरख्तों की उदासी भी नहीं है

समंदर में जवार उठी है, काले नाग के जैसे’’


बहरहाल, ऐसी चंद मामूली कमियों की बातों के बावजूद, रवीन्द्रनाथ की कविताओं का एक प्रकार से हिंदी में किया गया यह अनुवाद लंबे अर्से की उस कमी को पूरा करने की संभावना की ओर संकेत करता है, जिस दिशा में बढ़ कर रवीन्द्रनाथ की कविताओं के मर्म से, उनकी रचनाओं की शक्ति के स्पर्श से हिंदी के सामान्य पाठकों तक को लाभान्वित किया जा सकता है । अपने किस्म के इस दिशा दिखाने वाले काम के लिये गुलजार हार्दिक बधाई के पात्र हैं। और इसके साथ ही यह सवाल भी उठ जाता है कि जैसे पत्रकारिता लेखक की भाषा का लोकोन्मुखी परिमार्जन करती है, क्या अनुवाद में क्लासिकल काव्य की पुनर्रचना कर उसे कालजयी, नया जन्म देने की सामर्थ्य लोकप्रिय गीतकार बन कर ही अर्जित की जा सकती है ?



मंगलवार, 12 अप्रैल 2016

वामपंथी कांग्रेस = जनतांत्रिक वामपंथ !


अरुण माहेश्वरी

‘‘दर्शनशास्त्र विश्व के चिंतन के रूप में तब तक सामने नहीं आता है जब तक यथार्थ अपने बनने की प्रक्रिया को पूरा नहीं कर लेता, और खुद को तैयार नहीं कर लेता...जब दर्शनशास्त्र  विश्व की सचाई को हूबहू रखता है, जीवन का एक रूप वृद्ध हो चुका होता है, और इस वृद्धावस्था से उसे चंगा नहीं किया जा सकता है, बल्कि सिर्फ उसे जाना जा सकता है। स्वर्ग का उल्लू (Owl of Minerva) उसी समय उड़ान भरता है जब रात के रंग घने होने लगते हैं।’’
(Philosophy, as thought of the world, does not appear until reality has completed its formative process, and made itself ready...When philosophy paints its grey in grey, one form of life has become old and by means of grey it can not be rejuvenated, but only known. The owl of Minerva takes its flight only when the shades of night are gathering)
(Hegel, Philosophy of Right, Preface, marxist.org.)

हेगेल के इस कथन को हमने यहां सिर्फ इस सवाल को उठाने के लिये उद्धृत किया है कि विचारों, शोध और चिंतन की दुनिया में इस प्रकार की उक्तियों का क्या कोई महत्व है जब कहा जाए कि ‘‘Such a defence is open to the charge of being an after-the-event justification’’। ( इस प्रकार की दलील पर यह आरोप लगाया जा सकता है कि यह घटना के बाद में उसे उचित ठहराने की दलील है।)

सन् 1985 की इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस के अपने अध्यक्षीय भाषण में प्रो. बिपन चन्द्रा ने स्वतंत्रता आंदोलन में गांधीवादी नेतृत्व की संघर्ष की कार्यनीति को जब S-T-S (Struggle-Truce-Struggle), संघर्ष- समझौता - संघर्ष के सूत्र के रूप में व्याख्यायित करने की कोशिश की, उसका जिक्र करते हुए प्रो. इरफान हबीब ने बिपन चंद्रा के प्रति अपने श्रद्धांजलि लेख में लिखा है कि -
“It is clear he was here contesting the standard communist criticism of Gandhian leadership for its proneness to compromise. Bipan Chandra posited in defence of the latter, a hypothetical Gandhian strategy of S-T-S (Struggle-Truce-Struggle at higher level). Such a defence is open to the charge of being an after-the-event-justification”

इसके साथ ही अपने वाक्य को पूरा करते हुए उन्होंने यह भी लिखा कि “but as an actual listener to the address, I can testify that there was obvious sincerety in Bipan Chandra when he expounded it.”(Understanding India’s Freedom Struggle, obituaries to Bipan Chandra, Freedom Struggle Publication, page-3)

(यह साफ है कि वे गांधीवादी नेतृत्व की समझौता-परस्ती के बारे में कम्युनिस्टों की सर्वविदित आलोचना पर सवाल उठा रहे थे। बिपन चन्द्रा उसकी, संघर्ष-समझौता- संघर्ष की एक काल्पनिक गांधीवादी रणनीति की पैरवी कर रहे थे। इस प्रकार की दलील पर यह आरोप लगाया जा सकता है कि यह घटना के बाद में उसे उचित ठहराने की दलील है, लेकिन एक श्रोता के तौर पर मैं यह कह सकता हूं कि बिपन चन्द्रा पूरी ईमानदारी के साथ यह दलील दे रहे थे)

हमारे कहने का तात्पर्य यह है कि चिंतन की दुनिया के लिये इरफान हबीब की महत्वपूर्ण बात यह नहीं थी कि यह “after-the-event-justification” था, बल्कि महत्वपूर्ण बात बाद यह थी - “there was obvious sincerety in Bipan Chandra when he expounded it.”

खुद प्रो. हबीब ने अपने इसी श्रद्धांजलि लेख में माना था कि ‘‘1960 के पूरे दशक के दौरान बिपन चन्द्र ‘इंक्वारी’ पत्रिका की प्रमुख प्रेरणा थे, जिस पत्रिका ने मार्क्सवादियों के बीच तीव्र विभाजन के काल में कई विषयों को स्पष्ट करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी।’’
(Throughout the 1960s Bipan Chandra remained the main spirit behind the journal Enquiry, which, during a period of acute division among Marxists, played an important role in clarifying issues.)

हेगेल का ही एक प्रसिद्ध कथन है - ‘‘मिस्रवासियों की गोपनीय बातें खुद मिस्रवासियों के लिये भी गोपनीय होती है।’’ (The secrets of the Egyptians are also secrets for the Egyptians themselves)

यह सचाई हर किसी पर लागू होती है। अपने जीवन के दायरे की वे तमाम बातें जो किसी के लिये अति सामान्य (quite normal) होती है, प्रो. हबीब के शब्दों में ‘standard’, वे सभी उसके किसी काल्पनिक सत्य की प्रतीति (appearance) भर होती है। कह सकते हैं, उसकी विचारधारा का एक शुद्ध रूप। लेकिन जब भी उसे ठोस रूप देने की कोशिश होती है, वह पूरी तरह से एक विरूपित और विध्वस्त रूप में प्रकट होता है।


चीन ने साम्यवाद में ‘लंबी छलांग’ के अपने उन्माद में ‘सबसे उसकी क्षमता के अनुसार और सबको उसकी योग्यता के अनुसार’ के सामान्य सूत्र को रूपायित करने का निर्णय लिया और इसका परिणाम यह हुआ कि सर्वत्र पार्टी का नेतृत्व हर किसी की योग्यता और जरूरतों का निर्णायक बन गया। वहां के कृषि सहकारों में पूरे जीवन का सैन्यीकरण होगया। साम्यवाद रूपायित हुआ बेइंतहा गरीबी से भरे एक फौजी जीवन में ! अर्थात, हर महान विचार के रूपायन में इसप्रकार के उसके महापतन के बीज भी कहीं न कहीं सुप्त पड़े होते हैं। पाब्लो नेरुदा ने अपनी चीन यात्रा के समय वहां तमाम लोगों को एक ही नीले रंग की पोशाक में देखने के आंखों को चुभने वाले अनुभव का जिक्र किया है।

यहां हमारा संकेत सिर्फ इस बात की ओर है कि हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के गांधीवादी नेतृत्व के बारे में मार्क्सवादी विचारधारा में भी इसके चरम क्षुद्र ओर हास्यास्पद रूप में प्रकट होने की सारी संभावनाएं निश्चित तौर पर मौजूद थी। भारत की अलग-अलग मार्क्सवादी धाराओं ने लोहियावाद की तरह आजादी के बाद भी कभी अंध-कांग्रेस-विरोध की तरह की अंधता का भले ही परिचय न दिया हो, लेकिन उसके अंदर की अनेक ‘सामान्य’ (standard) धारणाओं में, ऐसे ही किसी क्षुद्र और विध्वंसक अंत की संभावनाएं न रही हो या आज भी नहीं है, यह नहीं माना जा सकता है।

अगर ऐसा न होता, तो इधर के ताजा उदाहरण ही लिये जाए, कभी भी ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने के प्रस्ताव को ऐसी दलीलों से नहीं ठुकराया जाता कि उससे एक सर्वहारा की पार्टी पूंजीवादी दलों के हाथ का कठपुतला बन कर रह जायेगी। और, न ही कभी यूपीए-1 सरकार से इसलिये समर्थन वापस लिया गया होता कि अमेरिका के साथ परमाणविक संधि से भारत पर ऐसा अमेरिकी वर्चस्व कायम हो जायेगा कि आगे वामपंथी आंदोलन के लिये कोई संभावना ही शेष नहीं रह जायेगी। पार्टी के ‘सर्वहारा चरित्र’ की शुद्धता की रक्षा की और समाज को ‘अमेरिकी प्रभाव’ से बचाने की बातें विचारधारा की शुद्धता के रूपायन की ही ऐसी छुद्र और आत्म-विध्वंसक परिणतियां हैं जिनकी हमने ऊपर चर्चा की है। सामान्य (standard) समझा जाने वाला विचारधारा का शुद्ध रूप, जिसे जब भी कोई ठोस आकार देने की कोशिश होती है, वह अपने पूरी तरह से विरूपित और विध्वस्त रूप में प्रकट होता है।

बहरहाल, यहां असल मसला भारत के स्वतंत्रता आंदोलन और उसके बारे में कम्युनिस्ट पार्टी के मूल्यांकन का है जिसके साथ प्रो. बिपन चन्द्रा एक मार्क्सवादी के नाते सारी जिंदगी किसी न किसी प्रकार से जूझते रहे थे। यह भारत के पूंजीपतियों के नेतृत्व में लड़ा गया भारत की आजादी का संघर्ष था, कम्युनिस्टों के बीच की इस ‘सामान्य’ बात के विपरीत, प्रो. बिपन चंद्रा भारत के स्वतंत्रता आंदोलन को रूस और चीन की समाजवादी क्रांतियों से कम अन्तरराष्ट्रीय महत्व की घटना और यहां के राष्ट्रीय आंदोलन के नेतृत्व को रूस और चीन के कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों से कम क्रांतिकारी नहीं मानते थे। इसीलिये उन्होंने संघर्ष-समझौता-संघर्ष के सूत्र से गांधीवादी नेतृत्व के संघर्ष की रणनीति को एक ऐसी क्रांतिकारी रणनीति के रूप में रखा जिसमें समझौतों के धागे से संघर्ष की कडि़यों को पिरोया जाता था। वह नेतृत्व वास्तव अर्थ मंा कभी भी संघर्ष के पथ से अलग नहीं हुआ था और इसीलिये अंत में देश को स्वतंत्र कराने में सफल भी हुआ।

इरफान साहब का इशारा है कि यह कोई पूर्व-नियोजित रणनीति नहीं थी। यहां हम सिर्फ यही कहेंगे कि क्रांति की तो अवधारणा ही कुछ भी पूर्व-नियोजित न होने की चमत्कारपूर्ण सचाई में निहित होती है !

जो भी हो, प्रो. बिपन चन्द्रा और उनके सहयोगियों ने अपनी महत्वपूर्ण किताब ‘India’s Struggle for Independence’ में एक पूरा अध्याय इस विषय पर शामिल किया है - भारतीय पूंजीपति और राष्ट्रीय आंदोलन (Indian Capitalists and the national movement) । वे तमाम तथ्यों के साथ यह बताते हैं कि राष्ट्रीय आंदोलन की रणनीति का लक्ष्य पूंजीपतियों का हित-साधन नहीं था, यह बात दीगर है कि अनेक बार भारत के पूंजीपतियों के हितों और उनकी मानसिकता से राष्ट्रीय आंदोलन के नेतृत्व के निर्णयों का मेल बैठ जाता था। प्रो. बिपन चन्द्रा और उनके सहयोगियों ने हमारे सामने इस प्रकार के साझा हितों की सचाई के इतिहास की एक संगतिपूर्ण गाथा पेश की है। तथ्यों की आधी-अधूरी जानकारी पर कैसे इतिहास के मनगढ़ंत किस्से और उनके आधार पर कथित तौर पर एक अलग विचारधारा का महल तैयार किया जाता है, बिपन चंद्रा और उनके साथियों ने इसके भी कई उदाहरण पेश किये हैं।

मसलन्, कांग्रेस के संस्थापक ए. ओ. ह्यूम और उनके हाथ लगी गृह विभाग की सात खंडों वाली गोपनीय रिपोर्टों की कहानी। कहा जाता था कि इन गोपनीय फाइलों से देश के कोने-कोने में जमा हो रहे गहरे जन-आक्रोश की सचाई को जानकर ही ह्यूम ने कांग्रेस के गठन का निर्णय लिया था ताकि वह इस जन-आक्रोश के लिये एक सेफ्टी वाल्व की तरह काम कर सके। कांग्रेस के गठन को महज एक सेफ्टी वाल्व मान कर इस पर न जाने कितनी क्रांतिकारी विचारधाराओं के महल तैयार किये गये हैं, कांग्रेस और उसके गांधीवादी नेतृत्व की भी ऐतिहासिक भूमिका को समझने से इंकार किया गया है !

बिपन चंद्रा और उनके साथियों ने इन गोपनीय रिपोर्टों के सात खंडों के रहस्य पर से पर्दा उठाया और गहरे शोध के आधार पर बताया कि जिन फाइलों की तलाश में सन् ‘50 के दशक तक ढेर सारे इतिहासकार जुटे हुए थे, उनका वास्तव में कभी कोई अस्तित्व ही नहीं था। लाला लाजपत राय ने विलियम वेड्डरबर्न की किताब ‘ऐलेन ओक्टावियन ह्यूम’ में से ह्यूम के एक ज्ञापन का लंबा उद्धरण देते हुए यह लिखा था कि ह्यूम ‘‘स्वतंत्रता प्रेमी थे और ब्रिटिश राज के तहत भारत की राजनीतिक आजादी चाहते थे’’, इसके बावजूद, सर्वोपरि वे ‘‘ एक अंग्रेज देशभक्त थे।’’ जब उन्होंने जान लिया कि ब्रिटिश शासन पर खतरा है, उन्होंने असंतोष के लिये एक सेफ्टी वाल्व तैयार करने का निर्णय लिया। लाला जी के इस उद्धरण को बाद में तमाम लोग बिना आगे-पीछे देखे दोहराते रहें। रजनी पाम दत्त ने तो उसमें अपने मन से और जोड़ दिया कि ‘‘अपनी सरकारी हैसियत की बदौलत ह्यूम की इन भारी-भरकम पुलिस रिपोर्टों तक पहुंच थी।’’

और, कहना न होगा, इसप्रकार, जन्म से ही कांग्रेस पर समझौता-परस्ती का लेबल लगा कर राष्ट्रीय नेतृत्व को गैर-क्रांतिकारी या क्रांति-विरोधी बताने का एक रिवाज चल पड़ा। रजनी पाम दत्त ने बाद में अपनी भूल को समझा था, लेकिन तब तक इस चलन ने एक प्रकार के ‘विश्वास’ का रूप लेना शुरू कर दिया था।

बिपन चंद्र और उनके साथियों ने वेड्डरबर्न के हवाले की पूरी जांच करके यह बताया कि वेड्डरबर्न जिन कागजातों का जिक्र कर रहे थे, वे कोई सरकारी फाइलें नहीं बल्कि किसी ‘त्रिकालदर्शी’ गुरू द्वारा ह्यूम को दिखाए गये उसके हजारों चेलों की गुप्त रिपोर्टों के सात खंड थे। यह भी बताया कि ह्यूम इस मामले में थोड़े अंधविश्वासी भी थे। (देखें, वही, ISI, पृष्ठ - 63-69)

और जहां तक आजादी के बाद के कांग्रेस शासन और उसके अंतर्गत तैयार हुए भारतीय पूंजीवाद के अनुभव के आधार पर राष्ट्रीय नेतृत्व के वर्गीय चरित्र के मूल्यांकन का सवाल है, आज तो यह बात और भी निरर्थक प्रतीत होती है। इस बिनाह पर तो अभी के एकध्रुवीय विश्व में चीन, वियतनाम और एक हद तक क्यूबा के कम्युनिस्ट नेतृत्व के वर्गीय चरित्र का मूल्यांकन भी राष्ट्रीय कांग्रेस के वर्गीय चरित्र से भिन्न नहीं होगा। और, जहां तक साम्राज्यवाद-विरोध का सवाल है, आज दुनिया को बहु-ध्रुवीय बनाने की कोई भी कोशिश सिर्फ कम्युनिस्ट पार्टियों और कथित समाजवादी देशों की बदौलत नहीं हो रही है। यहां तक कि हमारे यहां धर्म-निरपेक्षता की लड़ाई भी सिर्फ वामपंथियों और उसके यदा-कदा सामने आने वाले ‘तीसरे मोर्चे’ के वश में नहीं है। इस लड़ाई की आज भी सबसे प्रमुख शक्ति कांग्रेस ही है।

पिछली 28 मार्च 2016 को जेएनयू में हम जब बिपन चंद्रा की याद में मनाये जा रहे ‘जश्ने आजादी’ कार्यक्रम में प्रो. इरफान हबीब और अन्य वक्ताओं को सुन रहे थे, तभी ये सारे प्रसंग रह-रह कर हमारे जेहन में उठ रहे थे। अपनी फेसबुक वाल पर उसी दिन हमने लिखा - ‘‘आज जेएनयू के कन्वेंशन सेंटर पर प्रो. बिपन चन्द्रा की स्मृति में आयोजित 'जश्ने आजादी' कार्यक्रम में प्रो. इरफ़ान हबीब को सुनने का मौका मिला । उनके अलावा आदित्य मुखर्जी, मृदुला मुखर्जी और प्रभात पटनायक को भी सुना । इरफ़ान साहब भारत के राष्ट्रीय आंदोलन और उसके नेतृत्व के बारे में वामपंथियों के नज़रिये के प्रति बिपन चंद्रा से अपनी सहमति और किंचित विषयों पर मामूली असहमतियों का निस्पृह भाव के साथ ब्यौरा पेश कर रहे थे । इसमें जो सबसे उल्लेखनीय बात उभर कर सामने आई वह यह कि बिपन चंद्रा भारत के स्वतंत्रता संघर्ष को किसी  भी  मायने  में  रूस और चीन की समाजवादी क्रांतियों से कम अन्तरराष्ट्रीय महत्व की घटना नहीं मानते थे । वे महात्मा गांधी और नेहरू की तरह के राष्ट्रीय नेताओं की रणनीति और कार्यनीति को अधिक संजीदगी से समझने की ज़रूरत बल देते थे । इसे सिर्फ बुर्जुआ का नेतृत्व कह कर निपटाया नहीं जा सकता है । प्रो. मृदुला मुखर्जी ने आजादी की लड़ाई के मौखिक इतिहास के संदर्भ में देश के कोने-कोने से इकट्ठा किये गये उन लोगों के साक्ष्य का उल्लेख किया जिन्होंने बिना किसी बात की परवाह किये आजादी की लड़ाई में हिस्सा लिया था । इन साक्ष्यों से भी संघर्ष-समझौता-संघर्ष की श्रृंखलाओं से निर्मित उस पूरी लड़ाई की जो तस्वीर बनती है उसे कोरे स्वार्थ के किसी सिद्धांत से परिभाषित नहीं किया जा सकता है ।“

इसके दूसरे दिन हमने और एक पोस्ट लिखी - ‘बिपन चन्द्रा और इरफ़ान साहब’ ।

“जेएनयू में 'जश्ने-आजादी' कार्यक्रम में इरफ़ान साहब के भाषण का मैंने कल ही अपनी वाल पर उल्लेख किया था । वे आजादी की लड़ाई के बारे में बिपन चन्द्रा के विचारों का पूरी तरह से समर्थन करते हुए भी कुछ नुक़्तों पर अपनी असहमतियों को दर्ज तो करा रहे थे, लेकिन उन पर ऐसा कोई ज़ोर नहीं दे रहे थे कि जिनसे समझा जाए कि वे अपनी कुछ अलग बात कहना चाहते थे । इसीलिये हमने इरफ़ान साहब के पूरे भाव के साथ निस्पृहता का विशेषण जोड़ा था । सवाल है कि वह कौन सा बिंदु था, जिस पर इरफ़ान साहब बिपन चन्द्रा से असहमत होते हुए भी जैसे असहमत नहीं थे ? यह बिंदु था आजादी की लड़ाई के नेतृत्व के वर्ग चरित्र के मूल्याँकन से जुड़ा बिंदु । इरफ़ान साहब के अनुसार बिपन चन्द्रा उसकी चर्चा में जिस प्रकार कथित 'स्तालिनवादी' सोच का जिक्र करते थे, वे उसे उस प्रकार मान नहीं पाते हैं ।
“यह सच है कि 'स्तालिनवाद' क्या चीज़ है, इसे समझना कठिन है । इसीलिये इरफ़ान साहब की हिचकिचाहट को हम समझ पाते हैं । लेकिन इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता है कि सन् '50 के काल तक, जब तक सोवियत संघ और चीन की कम्युनिस्ट पार्टियों के बीच के मतभेद खुल कर सामने नहीं आए थे, सारी दुनिया की कम्युनिस्ट पार्टियाँ अपने को कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की सेना की एक अविभाज्य टुकड़ी ही मानती थीं । इंटरनेशनल के बाहर किसी कम्युनिस्ट पार्टी को कोई स्वीकृति नहीं थी । उसके बाहर की किसी भी समाजवाद पर आस्थावान पार्टी का कम्युनिस्ट जगत के लिये कोई अस्तित्व नहीं था । वे राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन की नेतृत्वकारी पार्टियाँ हो सकती थी, नहीं भी हो सकती थी, लेकिन ग़ैर-कम्युनिस्ट पार्टियां, कम्युनिस्ट इंटरनेशनल से निर्देशित न होने के नाते क्रांतिकारी नहीं कहला सकती थी । इस श्रेणी में हमारे देश की कांग्रेस और कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी ही नहीं, भगत सिंह की नौजवान भारत सभा आदि भी आ जाती थी - किसी न किसी रूप में बुर्जुआ के हितों से जुड़ी हुई पार्टियाँ !
“लेनिन की मृत्यु रूसी क्रांति के छ: साल बाद ही सन् 1924 के प्रारंभ में हो गई थी । उसके बाद लगभग तीन दशकों तक, 1953 में स्तालिन की मृत्यु तक सोवियत संघ और कम्युनिस्ट इंटरनेशनल पर स्तालिन के नेतृत्व का लगभग निर्विवाद वर्चस्व बना हुआ था । ऐसे में सन् '50 तक के आजादी की लड़ाई के बारे में कम्युनिस्टों के विश्लेषणों में अगर कोई स्तालिन की उपस्थिति को देखता है तो क्या उससे पूरी तरह से इंकार किया जा सकता है ? कम्युनिस्ट पार्टियों को आज भी अपने उन प्रारंभिक तीन दशकों की कुछ भ्रांतियों और इंटरनेशनल-प्रदत्त सांगठनिक ढाँचे की कमज़ोरियों के अवशेषों से अंतिम लड़ाई लड़ना बाक़ी है । इरफ़ान साहब की हकलाहट में हमें इसी सचाई की ध्वनियाँ सुनाई दे रही थी ।“

आज की दुनिया की परिस्थिति, भारत की सचाई और इसमें वामपंथी आंदोलन का हाल - इस पूरे परिप्रेक्ष्य में बिपनचंद्रा से होते हुए इरफान हबीब में भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के बारे में एक नये प्रकार के अवबोध के संकेतों ने अनायास ही हमारे सामने एक समझ के ढहते हुए इतिहास के बीच से एक नई समझ के बनते हुए नये इतिहास की घटना की जैसे एक झलक उपस्थित कर दी।

राष्ट्रीय कांग्रेस की विफलताओं ने धुर दक्षिणपंथी, सांप्रदायिक फासीवादी आरएसएस को केंद्र की सत्ता पर ला दिया है; कांग्रेस की विफलताओं से वामपंथ की जमीन तैयार नहीं हुई, बल्कि और भी ज्यादा संकुचित हो गई है। लगता है जैसे यह वामपंथ की जितनी अपनी विफलता है, उतनी ही आजादी की लड़ाई की उस विरासत की भी विफलता है जिसे किसी न किसी रूप में कांग्रेस के साथ ही भारतीय वामपंथ भी साझा करता रहा है। एक साझा विरासत की रक्षा करने और उसे आगे ले जाने वाली शक्तियों की कतार की कमजोरियों और उसमें पड़ी दरार ने ही सांप्रदायिक फासीवाद के लिये जमीन तैयार की है। बिपन चंद्र का राष्ट्रीय आंदोलन के बारे में सोच, और उससे मतभेद रखने वाले इरफान हबीब की आज की हकलाहट निश्चित तौर पर जैसे एक नये प्रकार के रसायन, एक नई सचाई के उदय की संभावना के संकेत दे रहे थे।

इसी जेएनयू में पिछले दिनों कन्हैया कुमार के जेल से आने के ठीक बाद दिये गये भाषण पर हमने अपने ब्लाग ‘चतुर्दिक’ में कुछ इसीप्रकार की एक टिप्पणी की थी - ‘‘जेएनयू के संघर्ष के जरिये भारत में एक नये जनतांत्रिक वामपंथ का बीजारोपण हुआ’’।

 
जीवन में जिसे हम घटना कहते हैं, वह अक्सर किसी चमत्कार की तरह ही, अचानक कुछ इस प्रकार प्रकट होती है, जिसका कोई एक कारण नहीं होता और न ही जिसका आसानी से कोई पूर्वानुमान किया जा सकता है। स्लावोय जिजेक लिखते हैं, ‘‘एक घटना में उसकी परिभाषा के अनुसार ही कुछ ‘चमत्कार’ होता है, हमारे दैनन्दिन जीवन से लेकर बिल्कुल सूक्ष्म चिंतन के स्तर तक में होने वाला चमत्कार, जिसमें ईश्वर से जुड़े विषय भी शामिल हैं। ईसाइयत की घटनामूलक प्रकृति इस तथ्य से पैदा होती है कि ईसाई होने के नाते आपको ईसामसीह की मृत्यु और उनके पुनर्जन्म की एक अकेली घटना पर विश्वास करना होगा। संभवत: विश्वास और विवेक के बीच का यह घुमावदार संबंध कहीं ज्यादा तात्विक है : हम यह नहीं कह सकते कि हम ईसामसीह पर आस्था रखते हैं, क्योंकि तर्क के जरिये हमने इस आस्था को अर्जित किया है। यही घुमावदार संबंध प्रेम पर लागू होता है : हम किसी खास कारण से (उसके होठ, उसकी मुस्कान ...के कारण से) किसी से प्रेम नहीं करते - हम चूंकि उससे पहले से प्रेम करते हैं, इसीलिये उसके होठ आदि हमें आकर्षित करते हैं। इसी कारण से प्रेम भी घटनामूलक होता है। यह एक प्रकार के घुमावदार ढांचे का रूप है जिसमें घटनामूलक प्रभाव पीछे घूम कर उसके कारणों अथवा तर्कों की खोज करता है। यही बात काहिरा में तहरीर स्क्वायर पर लंबे समय तक चले प्रतिवाद की तरह की राजनीतिक घटना पर भी लागू होती है, जिसमें मुबारक के शासन का अंत होगया : कोई भी आसानी से इस प्रतिवाद को मिस्र के समाज में चले आ रहे खास गतिरोधों ( भविष्यहीन बेरोजगार शिक्षित नौजवान, आदि) के जरिये व्याख्यायित कर सकता है, लेकिन, उनमें से किसी भी एक कारण को उस जबर्दस्त यौगिक शक्ति का वास्तविक कारण नहीं बताया जा सकता है, जिससे ऐसा घटित हुआ ।’’
[There is, by definition, something ‘miraculous’ in an event, from the miracles of our daily lives to those of the most sublime spheres, including that of the divine. The evental nature of Christianity arises from the fact that to be a Christian requires a belief in a singular event - the death and resurrection of Christ. Perhaps even more fundamental is the circular relationship between belief and its reasons : I can not say that I believe in Christ because I was convinced by the reasons for belief; it is only when I believe that I can understand the reasons for belief. The same circular relation holds for love: I do not fall in love for precise reasons (her lips, her smile…) - it is because I already love her that her lips, etc. attract me. This is why love, too, is evental. It is a manifestation of circular structure in which the evental effect retroactively determine its causes or reasons. And the same holds for a political event like the prolonged protests on Tahrir Squarein Cairo which toppled the Mubarak : one can easily explain the protests as the result of specific deadlocks in Egyptian society (unemployed, educated youth with no clear prospects, etc.), but, somehow, none of them can really account for the synergetic energy that gave birth to what went on.] (Slavoj Zizek, Event : Philosophy in Transit, Penguin Books, paperback, 2014, page - 2-3)

आज जब हम इन सब बातों को, आजादी की लड़ाई, कांग्रेस, वामपंथ, दोनों के परस्पर-संबंध, सांप्रदायिक फासीवाद और कांग्रेस और वामपंथ की साझा विरासत से जुड़ी इन सारी बातों को, एक जगह इकट्ठा कर रहे हैं और भविष्य के लिये जन-संघर्ष के किसी नये यौगिक विकल्प की शक्ति के उदय की कल्पना कर रहे हैं, तब इसी समय पश्चिम बंगाल में अपने प्रकार का एक अनोखा चुनाव चल रहा है। 34 सालों के वाममोर्चा के शासन के अंत और तृणमूल कांग्रेस के पांच साल के शासन में वामपंथियों तथा कांग्रेस सहित राज्य में पूरे विपक्ष की लगातार दुर्गति की पृष्ठभूमि में वहां विपक्ष के दलों का एक ऐसा मोर्चा तैयार हुआ है, जिसकी पहले कभी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। मुख्यत: वाममोर्चा और कांग्रेस के इस यौगिक गठबंधन से वहां जमीनी स्तर पर किस प्रकार की एक अनोखी राजनीतिक प्रक्रिया शुरू हुई है, उसे जानने के लिये पिछले दो दिनों (10 और 11 अप्रैल 2016) के ‘टेलिग्राफ’ में प्रकाशित इन दो रिपोर्टों को देखना ही हमारे लिये काफी होगा।



10 अप्रैल की रिपोर्ट देवदीप पुरोहित और अर्नब गांगुली की है, जिसका शीर्षक है - Doctor Gulps Doctor’s Pill । (डाक्टर ने डाक्टर की दवा खाई)। ये बंगाल की राजनीति के दो डाक्टरों के बारे में हैं - डा. सूर्यकांत मिश्र (सचिव, माकपा, पश्चिम बंगाल) और डा. मानस भुइयां ( पूर्व अध्यक्ष, प्रदेश कांग्रेस)। दोनों एक ही जिले, पश्चिमी मेदिनीपुर से चुनाव लड़ते रहे हैं और इस बार भी लड़ रहे हैं।
इस रिपोर्ट की शुरूआत इस प्रकार होती है - ‘‘पुराने कांग्रेसी नेता मानस भुइयां ने सीपीएम के राज्य सचिव सूर्यकांत मिश्र का हाथ पकड़ कर ऊंचा उठा कर फोटो खिंचवाया, एक ऐसा फोटो जिसमें विधानसभा के चुनाव प्रचार का एक निर्णायक क्षण बन जाने की शक्ति निहित है।’’

इसीमें आगे कहा गया है कि सबंग केंद्र से लगातार छ: बार चुनाव जीत रहे मानस भुइयां सीपीएम के बहुत ज्यादा खिलाफ रहे हैं और गठजोड़ संबंधी चर्चा में वाम, कांग्रेस के हाथ मिलाने का उन्होंने जोरदार विरोध किया था। इसीप्रकार मिश्रा के बारे में इसमें बताया गया है कि कैसे सीपीएम के अंदर भारी विरोध के बावजूद नारायणगढ़ के इस विधायक ने इस गठजोड़ को संभव बनाया।
‘‘आप देखिये, यह बक्श कांग्रेस का आदमी है, लेकिन ‘लाल सलाम’ बोल रहा है। इसीप्रकार, सीपीएम का नेता चन्दन पात्रा ‘वंदेमातरम्’ कह रहा है। कामरेड का मतलब होता है एक मित्र, एक सहयोगी’’, भुइयां ने कहा। ...
‘‘राजनीति समाज के लिये, जनता के लिये, देश के लिये है। 1952 के बाद जनता के हित में संविधान को 127 बार बदला गया है। राजनीतिक पार्टियों ने भी जनता की जरूरतों को पूरा करने के लिये अपने मत को बदला है,’’ भुइयां ने 5000 लोगों की जनसभा में कहा।’’
दूसरी ओर, नारायणगढ़ में हाल की एक सभा में मिश्रा ने भी ‘जनता की मर्जी’ पर बल दिया। ‘‘हम राजनीति में जनता के लिये हैं। हमें वह करना होगा, जो जनता चाहती है,’’ उन्होंने कहा।
नारायणगढ़ की एक सभा के शुरू होने के समय के कुछ पहले ही सूर्यकांत मिश्र सभा-स्थल पर पहुंच गये थे। बाद में लोगों के आने पर उन्होंने कहा, ‘‘ मैं थोड़ा जल्दी आगया और आप लोगों की प्रतीक्षा कर रहा था। जनता के बिना हम राजनीतिज्ञों का कोई अस्तित्व नहीं है। हमने कांग्रेस से हाथ मिलाया है क्योंकि आप चाहते थे।’’
इस रिपोर्ट का अंत इसप्रकार किया गया है, ‘‘ एक स्थानीय सीपीएम नेता की ओर इशारा करते हुए, जो पहले अकेले लड़ने के पक्ष में था, भुइयां ने कहा: ’’उस आदमी को देखों, वह पक्का सीपीएम का है। वह यहां हमारी सभाओं का कार्यक्रम तैयार कर रहा है। मैं आज का काम खत्म कर देना चाहता था, क्योंकि लगभग 18-20 किलोमिटर घूम चुका हूं। लेकिन वह नहीं छोड़ेगा क्योंकि लोग प्रतीक्षा कर रहे हैं। ऐसा अनुशासन मेरे लिए वरदान है।’’

दूसरी रिपोर्ट है 11 अप्रैल के ‘टेलिग्राफ’ में अनिंद्य सेनगुप्त की - Burdwan CPM joins alliance stride । इस रिपोर्ट में बताया गया है कि दो महीना पहले तक जिस वर्दवान की सीपीएम की मजबूत इकाई ने कांग्रेस के साथ गठबंधन का पार्टी में विरोध किया था और जो कल तक कांग्रेसजनों के साथ अपने को देखे जाने से परहेज करते थे, वे ही अभी अपनी सभाओं में कांग्रेस के लोगों को शामिल होने के लिये उत्साहित कर रहे हैं।

‘‘सीपीएम की लोकल कमेटी के सदस्यों को कांग्रेस की ब्लाक कमेटियों से, खास तौर पर रानीगंज, कुलटी और बारबनी में, समन्वय करके औद्योगिक इलाकों में सभाएं करने के लिए कहा गया है।’’
‘‘वर्दवान के कांग्रेस अध्यक्ष आभास भट्टाचार्य ने कहा, ‘‘सीपीएम हमारे साथ गठजोड़ को आगे ले जाने के लिये जिस प्रकार लगी हुई है वह आश्चर्यजनक है। वे हमें सभा-स्थलों के बारे में जानकारी देते रहते हैं। इन सभाओं में वे कांग्रेस के कितने लोगों के आने की उम्मीद करते हैं, इसके बारे में कहते रहते हैं। हमें किन इलाकों पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए, इसके बारे में भी बताते रहते हैं।’’

6 अप्रैल को वर्दवान शहर में सूर्यकांत मिश्र की एक सभा में बहुत से वामपंथी कार्यकर्ता कांग्रेस का झंडा लिए हुए थे। ‘‘सीपीएम के एक कार्यकर्ता ने कहा,‘‘हमारे नेताओं ने हमें सूर्यबाबू की सभा के लिये कांग्रेस के 100 झंडें खरीदने के लिये कहा हैं। उस सभा में लगभग 7000 लोग उपस्थित थे। अच्छी संख्या में कांग्रेस के कार्यकर्ता आए थे। उनमें से बहुतों ने हमसे कांग्रेस के झंडें लिये।’’
इसी रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि चुनाव में आपसी लड़ाई से बचने के लिये दुर्गापुर पश्चिम से सीपीएम के उम्मीदवार ने जानबूझ कर अपना नामांकन पत्र तब दाखिल किया जब उसके दाखिल करने की समय-सीमा खत्म हो गयी थी, ताकि उसका नामांकन पत्र खारिज हो जाए। और इसप्रकार, तृणमूल तथा कांग्रेस के बीच सीधी टक्कर को सुनिश्चित किया गया।
‘‘सीपीएम के जिला सचिव अचिंत मल्लिक ने कहा : ‘‘वर्दवान के हर कोने में हमारा गठजोड़ बन चुका है और कांग्रेस की उससे पूरी सम्मति है। अगर चुनाव के दिन चुनाव आयोग की कड़ी निगरानी रहती है, तो गठजोड़ की जीत को कोई नहीं रोक सकता है। ’’

इन दो रिपोर्टों से राज्य के दो जिलों की जमीनी सचाई के चित्र निकल कर आए हैं। यही कहानियां अभी पूरे राज्य में हर जगह लिखी जा रही है। कोई सूक्ष्म वैचारिक कार्यनीति या रणनीति नहीं, ‘भगवत-इच्छा’ की तरह ‘जनता की मर्जी’ का जाप चल रहा है। और इस जाप के साथ चल रहे कर्मयज्ञ के बीच से राजनीतिक शक्तियों का जो नया योग तैयार हुआ है, उसमें इसी बीच एक प्रकार की ऐसी चमत्कारी शक्ति के दर्शन होने लगे हैं, जो संभवत: भारतीय राजनीति की खुद में एक नई घटना का रूप लेने वाली है।

जहां तक इसके सैद्धांतिक पक्षों का सवाल है, यह खास-खास परिस्थिति में संयुक्त मोर्चा की एक सुविचारित, आजमाई हुई रणनीति के मानिंद नजर आती है, और इसीलिये किसी को इसमें आश्चर्यचकित होने जैसी कोई बात नहीं भी दिखाई दे सकती है। लेकिन पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और वामपंथ के बीच के संबंधों का जो इतिहास रहा है, (पिछले विधानसभा चुनाव तक कांग्रेस तृणमूल की सहयोगी पार्टी रही है) उसे देखते हुए इन दोनों दलों का एक समंजित गठजोड़ के रूप में चुनाव में उतर पाना बहुतों को असंभव जान पड़ता था। सीपीएम के सर्वोच्च नेतृत्व तक का एक हिस्सा भी संभवत: आज तक इसे स्वीकार नहीं पा रहा है। उसको इसमें बची-खुची पार्टी के भी अंत की आशंका दिखाई देती है।

इस पूरे प्रसंग में ‘जनता की मर्जी’ वस्तुत: आस्था का एक नया बिंदु है जिसे पूरी तरह से किसी सैद्धांतिक तर्क प्रणाली से अर्जित किया गया है, यह नहीं कहा जा सकता है। इसमें विश्वास और विवेक के बीच वही घुमावदार संबंध काम कर रहा है जिसकी हम पहले, जिजेक के हवाले से, ईसाई धर्म, प्रेम और तहरीर स्क्वायर के प्रतिवाद के संदर्भ में चर्चा कर चुके हैं। यह एक घुमावदार ढांचा है जिसमें चमत्कारी घटनामूलक परिणाम पीछे घूम कर उसके कारणों और तर्कों की खोज किया करता है। इसके एक नहीं, अनेक संशलिष्ट कारण होते हैं।

और, हम कहना चाहेंगे कि आस्था का यह नया बिंदु आज के जनतांत्रिक युग की आस्था का बिंदु है, पार्टी की नहीं, जनता की इच्छा के प्रति आस्था का बिंदु, जिसने कम्युनिस्ट पार्टी और कांग्रेस दोनों के एक ऐसे नये योग को संभव बनाया है जिसमें किसी चमत्कार की तरह की यौगिक शक्ति की संभावना दिखाई दे रही है। पश्चिम बंगाल की परिघटना के इस नये योग के सच को  किसी सरलीकृत समझ से कभी नहीं समझा जा सकता है । जैसे विज्ञान का एक प्रमुख सूत्र है कि किसी भी वस्तु के गुण-धर्म से उसके संघटक तत्वों के गुण धर्म को नहीं पहचाना जा सकता है, वैसे ही संघटक तत्वों के गुणधर्म से वस्तु की भी पहचान नहीं की जा सकती है ।

सीपीएम और कांग्रेस दोनों की ही पश्चिम बंगाल में अलग-अलग न कोई साख बची है और न ही कोई शक्ति । लेकिन इन दोनों के योग से बन रहे ‘जन मोर्चे’ का विकल्प ऐसा है जिसकी अपनी खुद की भारी साख और शक्ति पैदा हो गयी है और जो किसी बवंडर का रूप ले लेने की संभावनाओं का संकेत दे रहा है । इसके बारे में सीपीएम और कांग्रेस की स्वतंत्र स्थिति के आधार पर कोई सही राय नहीं बनाई जा सकती है ।

आज वामपंथ केरल में कांग्रेस के खिलाफ लड़ रहा है । वह शुद्ध रूप से एक राजनीतिक व्यावहारिकता का मसला है । वहाँ पक्ष और प्रतिपक्ष में इन दोनों के अलावा तीसरा कोई नहीं है । इसलिये इसके कोई अन्य सैद्धांतिक आयाम नहीं है । यह संसदीय जनतंत्र का अपना, प्रतिद्वंद्वितामूलकता का तर्क है । यहीं पर राजनीति मात्र की तात्विकता का भी एक पहलू सामने आता है। राजनीति का अर्थ कभी भी सिद्धांत बघारना नहीं होता है । यह एक व्यवहारिक कार्रवाई होती है जिसके ज़रिये जीवन की सचाई अपने को जाहिर करती है । विचार और व्यवहार में यह एक बुनियादी फर्क है। किसी भी नये चरण में प्रवेश करते वक्त विचार व्यवहार का पदानुसरण करते हैं, न कि व्यवहार विचार का।  जब सिद्धांत-चर्चा जीवन के यथार्थ से मेल नहीं खाती तो उसका राजनीति के लिये दो कौड़ी का दाम नहीं रह जाता - न तात्कालिक लिहाज़ से और न दूरगामी दृष्टि से । राजनीतिक दर्शन भी कोरी कल्पना को अपना अवलंब नहीं बना सकता है । वह भी हमेशा अपने समय के मुख्य अंतर्विरोधों पर ध्यान केंद्रित करने पर बल देता है ।

जिस वक़्त जनतंत्र  और खुद आपका भी अस्तित्व मात्र ख़तरे में हो, तब इनकी रक्षा भर करने के लिये व्यापकतम संयुक्त मोर्चा बनाने और उसकी सफलता को सुनिश्चित करने से अधिक सिद्धांतनिष्ठ दूसरा कोई फ़ैसला नहीं हो सकता है । ऐसा न करना कथित सिद्धांतवादिता की ओट में राजनीति के मूलभूत सिद्धांतों की ही तिलांजलि देना कहलाता है। फिर भले वह आस्था और विश्वास के किसी बिंदु से लिया गया निर्णय हो या किसी राजनीतिक विचारधारा की अपनी तर्क-परंपरा के अंदर से - इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।

वैसे, हमें तो यही लगता है कि पश्चिम बंगाल में न सिर्फ वामपंथी, बल्कि पूरी भारतीय राजनीति के एक ऐसे नये अध्याय का सूत्रपात हो रहा है, जो वामपंथ को उसकी अपनी अनेक पुरानी ग्रंथियों से मुक्ति का कारक बनेगा और स्वतंत्रता आंदोलन की मूलभूमि पर आगे की राजनीति का नया महल तैयार करेगा । इसीलिये बिपन चन्द्रा को केंद्र में रख कर हो रहे आधुनिक भारत के विमर्श की चर्चा के बीच हमें सीधे तौर पर आज पश्चिम बंगाल की राजनीति की नई परिघटना का तर्क और विवेक दिखाई देता है जो परवर्ती दिनों के घटनाक्रम को एक सैद्धांतिक ढंाचा प्रदान करेगा। इसीलिये लगता है जैसे उपरोक्त पूरा इतिहास-विमर्श और राजनीति का यह नया पश्चिम बंगाल अध्याय अपने अंदर भारत में एक नये जनतांत्रिक वामपंथ और जनोन्मुखी कांग्रेस दल के गठजोड़ की चमत्कारी शक्ति की संभावनाओं को छिपाये हुए हैं। इसी में संभवत: भारत का भविष्य है।









शुक्रवार, 8 अप्रैल 2016

इंद्रनाथ बंदोपाध्याय नहीं रहे



इंद्रनाथ बंदोपाध्याय नहीं रहे। 21 मार्च 2016 की बात है। तब हम इलाहाबाद और दिल्ली की यात्रा पर थे। खबर मिलने का कोई जरिया नहीं था। दो दिन बाद, फेसबुक पर मित्र ओम पारीक ने अपनी वाल पर उनकी मृत्यु की खबर लगाई थी। हमने तत्काल उनसे कुछ और विस्तृत जानकारी लेने की कोशिश की। फिर ‘गणशक्ति’ के वेबसाइट से इसकी पक्की जानकारी मिली। अच्छे-भले इन्द्रो दा को एक दिन पहले ही शाम को दिल का दौरा पड़ा और दूसरे दिन सुबह अस्पताल में ही वे चल बसे।

इसी 17 मार्च को इलाहाबाद के लिये ट्रेन पकड़ने के एक दिन पहले ही हमारी उनसे फोन पर बात हुई थी। चंद रोज पहले उनके चित्रों की एक एकल प्रदर्शनी लगी थी। इस प्रदर्शनी के लिये वे हमारे घर से अपने उन चित्रों को भी ले गये थे जिन्हें हमने सालों पहले उनसे प्राप्त किया था। प्रदर्शनी के खत्म होने के बाद, 16 मार्च को उन्होंने एक नये फ्रेम में जड़ कर उन चित्रों को हमें लौटाया था।

बहरहाल, इन्द्रो दा को सिर्फ निजी प्रसंगों में याद करना किसी भी मायने में उचित नहीं है। वे, एक पूरे काल के शानदार सांस्कृतिक आंदोलन के प्रतीक, पूरी तरह से सार्वजनिक व्यक्तित्व थे। सन् ‘71 और ‘72 के बाद, पश्चिम बंगाल में सिद्धार्थ शंकर राय के नेतृत्व में एक भयानक अद्‍​र्ध-फासिस्ट शासन की स्थापना हुई थी। ‘72 से ‘77 तक के इस दमनकारी शासन के खिलाफ सांस्कृतिक प्रतिरोध का जो आंदोलन तैयार हुआ था, इन्द्रो दा उसके एक केंद्रीय नेतृत्वकारी व्यक्ति थे। वामपंथी पार्टियों के दूसरे सांस्कृतिक जन-संगठन पहले से ही काम कर रहे थे। लेकिन अद्‍​र्ध-फासिस्ट शासन की उन खास परिस्थितियों ने जिस एक नये सांस्कृतिक संगठन को जन्म दिया, उसका नाम था ‘पश्चिमबंग गणतांत्रिक लेखक शिल्पी कलाकुशल संघ’- जनतंत्र की रक्षा के एकमात्र विषय पर केंद्रित पश्चिम बंगाल के संस्कृतिकर्मियों के एकजुट प्रतिरोध का व्यापक संगठन। और इस संगठन के सर्वप्रमुख व्यक्ति के रूप में पूरे पश्चिम बंगाल में जिस एक व्यक्ति की पहचान बनी थी, वे थे इन्द्रनाथ बंदोपाध्याय।

भले ही इस संगठन की नींव 1971 में ही डाल दी गयी थी। लेकिन 1975 में जब इंद्रनाथ बंदोपाध्याय ने महासचिव के रूप में इसकी कमान सम्हाली, तब से लेकर सन् 2014 तक, जब तक वे इस पद पर बने रहे, इन्द्रो दा और यह संगठन लगभग एक दूसरे के पर्याय के रूप में देखे जाते रहे। संगठन के नाम से जाहिर सांस्कृतिक जगत के बहुमुखी स्वरूप के अनुरूप ही इन्द्रो दा भी एक प्रभावशाली लेखक, चित्रकार, कलाकार, नाट्यकार, मंच सज्जाकार, स्तंभकार, गीतकार और संस्कृतिकर्मी के अलावा बेहद प्रभावशाली वक्ता के रूप में बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे। और इसी वजह से इस क्षेत्र के हर कोने तक उनकी अपने व्यक्तित्व के बदौलत ही गहरी पैठ थी।

पश्चिम बंगाल के वामपंथी सांस्कृतिक आंदोलन की एक प्रमुख हस्ती के नाते इन्द्रो दा का देश भर के वामपंथी जनवादी सांस्कृतिक आंदोलन के साथ काफी निकट का संबंध था। सन् 1981 में जनवादी लेखक संघ के स्थापना सम्मेलन से लेकर उसके कोलकाता राष्ट्रीय सम्मेलन तक, हर सम्मेलन में उन्होंने सक्रिय भागीदारी की थी। इन सभी सम्मेलनों के प्रतिनिधि उनके अनुभव-सिद्ध प्रेरणादायी भाषणों से प्रभावित होते थे।
एक सुदर्शन व्यक्तित्व और अच्छे स्वास्थ्य के धनी इन्द्रो दा इस प्रकार अचानक ही चले जायेंगे, यह विश्वास करना आज भी कठिन लगता है। वैसे यह सच है कि पश्चिम बंगाल के सांस्कृतिक आंदोलन में अपने लिये उन्होंने जिस भूमिका को अपनाया था, और जिसपर वे पूरी निष्ठा से हमेशा लगे रहे, उनका वह मिशन पहले ही पूरा हो चुका था। सन् 2014 में जब उन्होंने गणतांत्रिक लेखक शिल्पी संघ के महासचिव पद को छोड़ा, पश्चिम बंगाल में वामपंथी आंदोलन के उस दौर का पटाक्षेप हो चुका था, जिसमें उन्होंने एक खास भूमिका अदा की थी। उनके देहावसान से उस दौर के अवसान का एक प्रतीकात्मक संबंध भी जोड़ा जा सकता है।

इन्द्रो दा का न रहना हमारी निजी तौर पर एक भारी क्षति है। वे उन थोड़े से लोगों में एक थे, जिनसे हम मन खोल कर राजनीति और संस्कृति के दुनिया के नाना विषयों पर चर्चा किया करते थे, और हमारे सोच के तार भी अक्सर मिला करते थे। आज जब भारत का वामपंथी और जनतांत्रिक आंदोलन एक नई करवट लेने की तैयारी कर रहा है, ऐसे समय में इन्द्रो दा की तरह के निष्ठावान नेतृत्वकारी व्यक्तित्व की कमी हर किसी को खलेगी।
हम उनकी स्मृतियों को अपनी आंतरिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। उनकी पत्नी और बेटे के प्रति अपनी समवेदना प्रेषित करते हैं।