गुरुवार, 30 जून 2016

सलमान खान से सफाई मांगना खुद भाषा के साथ एक बलात्कार से कम नहीं है

सलमान खान ने 'बलात्कृत महिला' वाले अपने कथन पर माफ़ी नहीं माँगी है । अब महिला आयोग विचार कर रहा है कि वह अपनी पहले की धमक पर क्या करें !

सलमान खान ने सही शब्दों का प्रयोग किया या नहीं किया, यह बिल्कुल अलग मसला है । लेकिन किसी की भी स्वाभाविक बोलचाल की भाषा और उसकी भाव-भंगिमाओं पर ऐसा बवाल बिल्कुल अस्वाभाविक और हास्यास्पद है । तब तो जीवन में सबसे पहले गालियों के प्रयोग पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया जाना चाहिए , बाक़ी बातें तो बहुत दूर की है । भाषा पर स्त्री के सतीत्व की तरह की सात्विक संवेदनशीलता खुद में एक बड़ा धोखा है ।
बलात्कार शब्द को इतना विशिष्ट बना देना कि इसका प्रयोग सिर्फ पीडि़त महिला के लिये ही किया जा सकता है, भाषा के साथ बलात्कार है। जब करों का चाबुक आम लोगों पर पड़ता है तो सामान्य तौर पर कहा जाता है कि यह सरासर जनता का बलात्कार है। बलात्कार शब्द का प्रयोग किसी दूसरे रूप में करना यदि पीडि़त महिला के अपमान की तरह का अपराध है तो क्या महिला आयोग को पागलों का समूह कहना पागलों का अपमान नहीं है ! या शासन में आज बौने लोग बैठे हैं, कहना क्या बौने लोगों का अपमान नहीं है !
यहां तक कि बलात्कृत महिला की पीड़ा भी उतनी विशिष्ट नहीं है कि उसकी आदमी की किसी भी दूसरी पीड़ा के संदर्भ में चर्चा ही नहीं की जा सकती है।

मंगलवार, 28 जून 2016

राजनीति और ‘सिद्धांतवादिता’



आज के ‘आनंदबाजार पत्रिका’ में शिवाजीप्रतिम बोस के लेख ‘बंगीय कामरेडरा बेक्सिट कोरबेन की’ (बंगाल के कामरेड क्या बेक्सिट करेंगे) पढ़ कर खूब हंसी आ रही थी। शिवाजी प्रतिम ने सीपीएम में हाल के जगमति प्रकरण को लेकर उठे चाय के प्याले (केंद्रीय कमेटी) में तूफान का मजा लेते हुए एस. ए. डांगे को याद किया है, जिनके काल में लोग सीपीआई को ‘कौशल (टेक्टिक्स) पार्टी आफ इंडिया’ कहने लगे थे।

किसी भी स्थिति के इतिहास लेखन की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह कितना भी पीछे जड़ों तक क्यों न चला जाए, कभी भी उसके गैर-ऐतिहासिक लोकोत्तर परम सत्य को उद्घाटित नहीं कर सकता है। और, कोरे लोकोत्तर विषयों का इतिहास-लेखन का अर्थ होता है सारे दुनियावी मामलों को किसी गहरी खाई में फेंक देना।

यह बात कितनी ही रुच्छ और आदर्श-विहीन क्यों न प्रतीत हो, राजनीति का परम सत्य है - सत्ता-प्राप्ति। यह सत्ता को भूल कर कभी नहीं चल सकती। इसे भूल कर चलना एक प्रकार का एनजीओवाद कहलायेगा। तमाम स्तरों पर की जाने वाली दूरगामी गोलबंदियों के बावजूद अर्जुन की नजर मछली की आंख पर ही टिकी होती है। लेनिन कहते थे कि ‘सिद्धांतवादियों’ को राजनीति से दूर रहना चाहिए।

आज की राजनीति की और भी बड़ी विडंबना है कि समसामयिकता के बिना वह बिल्कुल निरर्थक लगती है। पहले के युगों के फासले आज क्षणों में तय हो रहे हैं। इसमें आज अप्रासंगिक होकर कल प्रासंगिक होना असंभव है, क्योंकि कभी कोई स्थान रिक्त नहीं रहता है। ‘आज पराजित कल फतहयाब’ आज की राजनीति का आदर्श वाक्य नहीं हो सकता है।

हमारी किताब ‘सिरहाने ग्राम्शी’ में ग्राम्शी के इस कथन पर ही एक अध्याय है कि ‘बोल्शेविक क्रांति माक्‍​र्स की ‘पूंजी’ के खिलाफ क्रांति है।’ ‘पूंजी’ में निहित इतिहास के ‘परम विचार’ में तो ऐसी किसी कार्रवाई का कोई विशेष मायने नहीं होता है। अर्थात, लोकोत्तर विषयों के ठोस आख्यान नहीं हुआ करते।

तथापि, राजनीति के परम सत्य और उसके दुनियावी सत्य के बीच का फर्क किनारे बैठ कर उसका मुजाहिरा करने वालों के लिये आनंद के अनेक उपादान जरूर मुहैय्या करा सकता है। कहना न होगा, शिवाजीप्रतिम बसु ने भी उसीका आनंद लिया है।

http://www.anandabazar.com/editorial/bong-comrades-and-brexit-1.421797


सोमवार, 27 जून 2016

भारत के उबाऊ न्यूज़ चैनल


भारत के अधिकांश टेलिविज़न न्यूज़ चैनलों की रत्ती भर विश्वसनीयता नहीं रह गई है । इन पर प्रसारित होने वाली ख़बरें और इन पर होने वाली तमाम बहसें इतनी एक ही ढर्रे की प्रायोजित क़िस्म की हुआ करती हैं कि उनसे गहरी ऊब और वितृष्णा के अलावा और कुछ पैदा नहीं होते । इनसे सृजनात्मकता तो पूरी तरह से विदा हो चुकी है । अर्नब गोस्वामी नाम का सिर्फ चीख़ने वाला एक भोपूं इसका मुख्य प्रतीक है । रवीश कुमार की तरह की संयत आवाज इतनी दबती जा रही है जैसे अपनी भिन्न आवाज उनको ही रास नहीं आ रही है ! एनडीटीवी के अभिज्ञात तो पहले से ही धीमी गति के मंद एंकर बने हुए हैं । राज़दीप एक पुरानी प्रतिमा में जड़ है । करन थापर की समस्या है कि उन्हें बात करने लायक सही पात्र ही नहीं मिल रहे ।

सारे चैनल किसी न किसी बहाने उग्र राष्ट्रवाद और सांप्रदायिक विभाजन के काम में जुटे हुए लगते हैं, बहाना भले कश्मीर में उग्रवादियों या पंडितों का हो या चीन और पाकिस्तान का हो । हफ़्ते भर से ये बेबात कैराना का रेकर्ड बजा रहे हैं । गंदी से गंदी सांप्रदायिक घृणा की बातों को बेख़ौफ़ प्रसारित करते हैं । सब चैनलों पर संघी प्रचारकों का क़ब्ज़ा दिखाई देता है ।

हर मोर्चे पर विफल मोदी सरकार के दो साल पर भी सारे न्यूज़ चैनल सरकारी विज्ञापनबाजी ही करते रह गये । दुनिया शंकित है कि आज जब इतनी बदतर आर्थिक स्थिति है, तब आगे, जब इस सरकार को ऊँची दरों पर तेल ख़रीदना पड़ेगा, क्या दशा होगी ? मोदीजी की उद्देश्यहीन विदेश यात्राएँ भी इन्हें विदेश मामलों की गहराई से जाँच के लिये प्रेरित नहीं करती ।

ग़नीमत यही है कि ख़बरों पर अब टेलिविज़न की इजारेदारी नहीं बची है ।

टेलिविज़न आज भी मनोरंजन का साधन ज़रूर बना हुआ है । अच्छे-बुरे सीरियलों के साथ ही नाच-गाने के कार्यक्रमों और एपिक चैनल के तरह गंभीर डाक्यूमेंट्री और दूसरे प्रकार की चर्चाओं वाले चैनल से भारतीय टेलिविज़न थोड़ा बचा हुआ है । न्यूज़ चैनल तो उबाऊ सरकारी ढिंढोरची हैं ।

' ब्रेक्सिट'

ब्रिटेन में ' ब्रेक्सिट' की जीत के बाद ही एक गहरी आशंका और उदासी ने वहाँ के नागरिकों को घेरना शुरू कर दिया है । अभी से फिर एक बार जनमतसंग्रह की माँग उठने लगी है ।
जहाँ तक यूरोपियन यूनियन का सवाल है, ऐतिहासिक दृष्टि से इसके टूटने में कोई हर्ज नहीं है, बल्कि एक साम्राज्यवादी ब्लाक के टूटने में ही मानवता का मंगल है ।
लेकिन यहाँ मसला कुछ और ही है । इसके मूल में उस उग्र राष्ट्रवाद की वापसी है, जिसकी कोख से हिटलर-मुसोलिनी पैदा हुए थे । यह द्वितीय विश्वयुद्ध के तमाम अनुभवों और पिछले सत्तर साल की शांति, समृद्धि, जनतंत्र और मानव अधिकारों की उपलब्धियों का अस्वीकार है ।
ब्रिटेन के जो एनआरआई मोदी-मोदी चीख़ कर भारत में विभाजनकारी, सांप्रदायिक और नस्लवादी राजनीति को बढ़ावा दे रहे हैं, वे ही अब ब्रेक्सिट की जीत के बाद खुद उसी नस्लवादी नफ़रत का शिकार बन रहे हैं । ऐसे ही कुछ लोग शायद अमेरिका में भी ट्रम्प का झंडा उठाए हुए हैं । जैसे भारत में पत्रकार स्वपन दासगुप्ता है।
जो इतिहास की इन विडंबनाओं को न समझ कर हमेशा किसी 'अन्य' शत्रु की तलाश में लगे रहते हैं, वे नहीं जानते कि कब वे खुद 'अन्यों' की क़तार में डाल दिये जाते हैं ।

मंगलवार, 21 जून 2016

सीपीआई(एम) में यह क्या हो रहा है ?

सीपीआई (एम) में यह क्या हो रहा है ?

सीपीआई(एम) की केंद्रीय कमेटी ने पिछले चुनाव में पश्चिम बंगाल में अपनाई गई लाईन को पार्टी- विरोधी क़रार दिया है । इसके बावजूद केंद्रीय कमेटी की एक सदस्या ने यह कह कर पार्टी से इस्तीफ़ा देने की घोषणा कर दी कि केंद्रीय कमेटी की इतनी सी भर्त्सना काफी नहीं है । जगमति के इस एकतरफ़ा फ़ैसले का जो परिणाम निकलना था, वही निकला । पार्टी के एक सुचिंतित मत के खिलाफ उनकी इस सार्वजनिक घोषणा के साथ ही उन्हें पार्टी से निष्कासित कर दिया गया ।

फिर भी, सीपीआई(एम) में यह जो चल रहा है, बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है । थोड़ी सी गहराई से देखने पर ही कोई भी यह समझ सकता है कि पार्टी की केंद्रीय कमेटी में एक अजीबोग़रीब बहुमत और अल्पमत का खेल चल रहा है । इसके साथ पार्टी के विकास में साफ़ तौर पर दिखाई दे रहे गतिरोध को तोड़ने की कोई बहुत गंभीर चिंता नहीं जुड़ी हुई नहीं दिखाई देती है । जिस ढर्रे पर चल कर पार्टी अभी के गतिरोध में फँस गई है, उस पर केंद्रीय कमेटी का अभी का बहुमत विचार भी करने के लिये तैयार नहीं है ।

यह वही पुराना रोग है जिसके कारण ज्योति बसु, यूपीए -1, और सोमनाथ चटर्जी के सवालों पर भारी भूलें की गई और वामपंथी राजनीति को अंतहीन पतन की दिशा में धकेल दिया गया । जिस समय पार्टी के कार्यक्रम में संशोधन करके केंद्रीय सरकार तक में शामिल होने की संभावना को मान लिया गया, उस समय ज्योति बसु को प्रधानमंत्री न बनने देने के विषय की कोई समीक्षा नहीं की गई । जिस समय यूपीए-1 से समर्थन वापस लिया गया उस समय यूपीए-1 को समर्थन देने के कारणों को दरकिनार कर दिया गया । और अब, जब पश्चिम बंगाल में कांग्रेस के साथ किये गये गठबंधन के विषय में चर्चा की जा रही है, तब कौन सी परिस्थितियों में कांग्रेस से सीटों के बारे में समझौता करने और सभी जनतांत्रिक ताक़तों को एकजुट करने का केंद्रीय कमेटी ने निर्णय लिया था , उसे बिल्कुल भुला दिया जा रहा है । आज जो विचार किया जा रहा है, उसका कोई सैद्धांतिक आधार नहीं है, शुद्ध रूप से पश्चिम बंगाल का चुनाव परिणाम है ।

आगे भी इन बहुमतवादियों का यही खेल चलता रहेगा, जगमति की सार्वजनिक घोषणा इसी का एक उदाहरण है ।

श्रीमती जगमति की सबसे पहली समस्या तो यह है कि वे पार्टी की राजनीतिक- कार्यनीतिक लाईन को उसकी जान मानती है, जबकि उसमें हमेशा नयी- नयी परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन होता रहता है । इस प्रकार तो पार्टी रोज मरती है और फिर रोज एक नई जान में पैदा होती है !
उनकी दूसरी सबसे बड़ी समस्या है कि वे संगठन को महत्वहीन मानती है । पार्टी का सांगठनिक सिद्धांत उसकी राजनीतिक-कार्यनीतिक लाईन से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण रणनीतिक लाईन के समकक्ष होता है । बिना संगठन के और कुछ भी हो सकता है, पार्टी नहीं हो सकती । लाईन का राग अलापने वाले इस सबसे बुनियादी महत्व के विषय के प्रति पूरी तरह उदासीन या अनभिज्ञ होते हैं और इसीलिये सही ढंग से अपने क्षेत्रों में पार्टी नहीं बना पाते हैं ।

यह सारी दुनिया की कम्युनिस्ट पार्टियों के साथ जुड़ी बहुत बड़ी समस्या है क्योंकि उनके पास ग़ैर-क्रांतिकारी परिस्थिति में संगठन और उसके प्रभावशाली संचालन के सिद्धांतों संबंधी कोई अवधारणा नहीं है, जो पार्टी के विस्तार के रास्ते में हमेशा सहयोगी बने न कि बाधक । इसीलिये इसमें भी एक ऐसे लचीलेपन की ज़रूरत है जिससे व्यापकतम जनता के साथ पार्टी का बराबर संवाद बन सके । कथित क्रांतिकारियों की गिरोहबंदी का स्वरूप पार्टी के जनतांत्रिक विस्तार के रास्ते की सबसे बड़ी बाधा है । पार्टी में जनतंत्र जनता की भूमिका से परिभाषित होना चाहिए न कि मुट्ठी भर विशेषाधिकार- प्राप्त पार्टी सदस्यों से । इसी कमी की वजह से दुनिया में कम्युनिस्ट पार्टियाँ आज अस्तित्व की लड़ाइयां लड़ रही है । उसने संगठन के एक निश्चित लेकिन अचल सिद्धांत को उसी प्रकार अपना प्राण- तत्व मान लिया है, जैसे जगमति जी राजनीतिक- कार्यनीतिक लाईन को माने बैठी हुई है ,जबकि वे इस बात को जानती है कि अगली पार्टी कांग्रेस में ही यह कथित पार्टी लाइन उलट सकती है , अर्थात इसका प्राण निकल सकता है ।

हमें तो ऐसा लगता है जैसे सीपीआई(एम) में कुछ कठमुल्ले इस पार्टी के अंत का ठाने हुए हैं । वे न भाजपा को समझ रहे हैं, न तृणमूल कांग्रेस को । और कांग्रेस तो हमेशा की एक समस्या है । यह तब है जब आरएसएस का रोडरोलर साफ़ चलता हुआ दिखाई दे रहा है जो हमारे देश में विवेकशीलता और धर्मनिरपेक्ष मानसिकता के उदय को उसकी किशोरावस्था में ही मार डालने पर उतारू है । ऐसे अविवेकशील हुजूम का मुक़ाबला कैसे होगा, इसकी इनके पास कोई अवधारणा ही नहीं है ।

हमारा तो दृढ़ विश्वास है कि बंगाल की पार्टी ने पिछले विधान सभा चुनाव में किसी भी किताब या पूर्व- प्रस्ताव की बेड़ियों को अस्वीकार कर ठोस परिस्थिति के अनुरूप कांग्रेस के साथ गठबंधन की लाईन अपना कर पूरे भारत की पार्टी की भावी लाईन का संकेत दिया है ।

सीपीआई(एम) की केंद्रीय कमेटी में बहुमतवादियों और अल्पमतवादियों के बीच की यह तकरार बोल्शेविक पार्टी में बोल्शेविकों और मेंशेविको के बीच की तकरार की ही एक प्रहसनात्मक पुनरावृत्ति लगती है, क्योंकि रूस के कम्युनिस्टों के एजेंडा पर तब तत्काल क्रांति के ज़रिये राजसत्ता पर क़ब्ज़ा करने का सवाल था । यहाँ ऐसा कुछ नहीं है और आज की देश और दुनिया की परिस्थिति में उस प्रकार की क्रांति की कोई संभावना भी नहीं है । इसीलिये यह सारा उपक्रम एक पार्टी को हाथ में लेने का सिद्धांतविहीन और स्वार्थपूर्ण उपक्रम जैसा लगता है ।

हमारा तो दृढ़ विश्वास है कि बंगाल की पार्टी ने पिछले विधान सभा चुनाव में किसी भी किताब या पूर्व- प्रस्ताव की बेड़ियों को अस्वीकार कर ठोस परिस्थिति के अनुरूप कांग्रेस के साथ गठबंधन की लाईन अपना कर पूरे भारत की पार्टी की भावी लाईन का संकेत दिया है ।

सीपीआई(एम) की केंद्रीय कमेटी में बहुमतवादियों और अल्पमतवादियों के बीच की यह तकरार बोल्शेविक पार्टी में बोल्शेविकों और मेंशेविको के बीच की तकरार की ही एक प्रहसनात्मक पुनरावृत्ति लगती है, क्योंकि रूस के कम्युनिस्टों के एजेंडा पर तब तत्काल क्रांति के ज़रिये राजसत्ता पर क़ब्ज़ा करने का सवाल था । यहाँ ऐसा कुछ नहीं है और आज की देश और दुनिया की परिस्थिति में उस प्रकार की क्रांति की कोई संभावना भी नहीं है । इसीलिये यह सारा उपक्रम एक पार्टी को हाथ में लेने का सिद्धांतविहीन और स्वार्थपूर्ण उपक्रम जैसा लगता है ।

रविवार, 19 जून 2016

राजन प्रस्थान प्रकरण : क्या यह कोरा वितंडा है, या इसमें कोई आर्थिक तर्क भी है ?

-अरुण माहेश्वरी


आज के ‘टेलिग्राफ’ में रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन के प्रस्थान से जुड़ी खबरें छाई हुई हैं। नौकरशाहों का आना-जाना आम तौर पर कुछ राजनीतिक चर्चा से अतिरिक्त कोई विशेष अर्थ नहीं रखता है। इसमें अक्सर कानून का शासन वनाम नेताओं की मनमर्जी का सवाल मुख्य तौर पर काम करता है। हरियाणा कैडर के आईएएस अधिकारी अशोक खेमका का बाईस साल में अड़तालीस बार तबादला हो गया था। लेकिन उससे कोई विशेष नीतिगत सवाल सामने नहीं आया। नेताओं के भ्रष्टाचार और एक नौकरशाह द्वारा कानून के पालन के प्रति निष्ठा अथवा नौकरशाह के भ्रष्टाचार और कानून के बीच के तनाव से ज्यादा ऐसे विषयों की कोई अहमियत नहीं होती है।

लेकिन राजन को लेकर जो आज चल रहा है, उसमें प्रकट रूप में इस प्रकार का कोई पहलू नहीं दिखाई देता है। इसमें शक नहीं है कि नेताओं के साथ अक्सर कुछ भौंकने वाले पिल्ले रहा करते हैं। आज की राजनीति में सुब्रह्मण्यम स्वामी की भूमिका इससे ज्यादा नहीं है। और, हम यह भी नहीं मानते कि तमाम राजनीतिक निर्णयों के पीछे हमेशा निश्चित आर्थिक ही कारण होते हैं, जिसे बाज हलकों से ‘वर्गीय स्वार्थों’ की पदावली में व्याख्यायित किया जाता है।

फिर राजन को लेकर इतना शोर क्यों हैं ?

दरअसल, अगर हम गहराई से सोचे तो सबसे पहले हमें यह देखना होगा कि अर्थ-व्यवस्था में पूरी बैंकिंग प्रणाली की वास्तविक भूमिका क्या होती है ? बैंकिंग  प्रणाली को हम एक ऐसी सामाजिक-आर्थिक प्रक्रिया के रूप में देख सकते हैं जिसके जरिये समाज में पैदा होने वाली सारी अतिरिक्त संपदा मुद्रा के रूप यहां आकर संचित होती है। इस संपदा का एक बड़ा हिस्सा सरकारी काम-काजों, योजनाओं पर खर्च किया जाता है और बाकी हिस्से का ब्याज या दूसरे किसी भी रूप में लाभ कमाने के लिये अर्थ-व्यवस्था में फिर निवेश किया जाता है।

यहीं पर आकर किसी के लिये भी विचार का प्रश्न यह आ जाता है कि अतिरिक्त संपदा कहां और कितनी पैदा हो रही है और उसके खर्च या निवेश की प्राथमिकताएं क्या है ? दुनिया के विकसित देशों के पास अतिरिक्त संपदा हासिल करने के बेशुमार स्रोत हैं। औपनिवेशिक देशों की वित्तीय पूंजी आज भी सारी दुनिया से लगातार नाना प्रकार से धन बटोर रही है। और, अमेरिका जैसे देश ने अपने बहुराष्ट्रीय निगमों के जरिये सारी दुनिया पर अपने व्यापार का ऐसा जाल फैला लिया है कि उसके पास भी अतिरिक्त संपदा का एक लगातार, विशाल स्रोत बना हुआ है। कहना न होगा, कुल मिला कर किसी भी समाज में अतिरिक्त संपदा की पैदाईश का एक गहरा संबंध वहां की सामाजिक-राजनीतिक-ऐतिहासिक परिस्थितियों से भी होता है।

इसीलिये विकसित देशों के सामने सबसे बड़ी समस्या उनके खजाने में मुद्रा के रूप में लगातार इकट्ठा हो रही पूंजी के समानांतर उसके लगातार निवेश करते चले जाने की होती है। मुद्रा का यह अविराम अंतर्वाह प्रवाह जब साथ-साथ नहीं चलता है तो उनके सामने मुद्रा के संचित होने का गंभीर संकट हमेशा बना रहता है। खजाने में लगातार जमा होने वाली मुद्रा के निवेश को सुगम बनाने के लिये ही उन देशों में ब्याज की दर लगातार गिरती चली गई है, जो संचय के बजाय उपभोग को बढ़ावा देती है और दुनिया के विभिन्न हिस्सों में अपनी पूंजी के निवेश की संभावनाओं को बल पहुंचाती है।

लेकिन भारत की तरह के एक गरीब और विकासशील देश की स्थिति क्या है ? यह लाखों की तादाद में किसानों की आत्म-हत्याओं वाला देश है। जो भी सरकार यहां की व्यापक जनता की दुर्दशा से आंख मींच कर चलेगी, वही इस नतीजे पर पहुंच सकती है कि हमारे पास भी विकसित देशों की तरह संचित मुद्रा का वह अपार और अक्षय स्रोत है जिसके निवेश का हमारे पास रास्ता नहीं है। हमारा सामाजिक यथार्थ यह बताने के लिये काफी है कि हमारे लिये धन का कितना ज्यादा महत्व है। इसीलिये, यदि हमारा संसार एक अभावों का संसार है तो इसकी बैंकिंग प्रणाली में जमा होने वाली मुद्रा स्वाभाविक तौर पर हमारे लिये अन्यों की तुलना में बहुत कीमती है।

आरएसएस कंपनी और सुब्रह्मण्यम स्वामी भारत की झूठी शान की धुन में खोये हुए हैं। प्रधानमंत्री सहित इनके तमाम लोग जब 21वीं सदी को दुनिया में भारत की सदी कहते हैं तो किसी भी यथार्थवादी को इसपर हंसी के सिवाय और कुछ नहीं आ सकती है। कुछ तो इसकी तुलना गाड़ी के साथ दौड़ने वाले उस कुत्ते से भी करते हैं जो यह समझता है कि उसीने गाड़ी का सारा बोझ अपने कंधे पर ले रखा है। जैसे वाजपेयी के समय में ये अपनी ही तैयार की हुई ‘शाइनिंग इंडिया’ की माया में भटक गये थे, वैसे ही आज प्रधानमंत्री की आत्ममुग्धता में खोये हुए हैं। इसीलिये, बिना सोचे-समझे वे यह मान रहे हैं कि जब दुनिया के विकसित देश ब्याज की दरों में इतनी भारी कमी करके चलते हैं तो भला हम, इस पूरी सदी के वाहक, ऐसा क्यों नहीं कर सकते ! इनके मित्र पूंजीपति भी शुद्ध रूप से अपने निजी लाभों के लिये इन्हें यही सुझाव दे रहे हैं। वे इन्हें समझा रहे हैं कि ब्याज की दरों में गिरावट से देश के औद्योगीकरण की गति को बल मिलेगा।

इस, औद्योगीकरण के मामले में, राजन सहित दुनिया के तमाम अर्थशास्त्रियों का आकलन बिल्कुल अलग है। वे खुली आंख से आज के डिजिटल युग को देख रहे हैं। दुनिया की अर्थ-व्यवस्था अति-उत्पादन के संकट से त्रस्त है। चीन जैसा देश हांफ रहा है। विश्व बाजार नहीं, आज उसका आंतरिक बाजार उसके लिये रक्षक का काम कर रहा है। ऐसे समय में, औद्योगीकरण की अंधी मांग सिर्फ एक मृग-मरीचिका है जिसमें फंस कर मुट्ठी भर तथाकथित उद्योगपतियों की जेबें तो भरी जा सकती है, लेकिन वास्तव में कुछ भी हासिल नहीं हो सकता।

इसके विपरीत, उनका मानना है कि निवेश के मामले में विदेशों से मिलने वाली सस्ती पूंजी को ही लक्ष्य बना कर चला जाएं और उसीके जरिये समाज के आधुनिकीकरण की प्रक्रिया की दिशा में बढ़ा जाएं, जो अंतत: हमारे आंतरिक बाजार को चंगा करने में भी एक भूमिका अदा कर सकता है। एक बड़े मध्यवर्ग के तैयार हो जाने के बावजूद अभी तक हम इस मामले में बहुत पीछे ही हैं। इसी आकलन के आधार पर वे किसी भी हालत में बैंकों के ब्याज की दर को कम करते जाने के पक्ष में नहीं है क्योंकि इससे भारत के आम लोगों को उनके संचय पर होने वाली आमदनी कम होगी, व्यापक किसान जनता के साथ ही मध्यवर्ग का भी दरिद्रीकरण होगा और वित्त बाजार पर गिद्ध दृष्टि लगाये हुए उद्योगपति नामधारी मुट्ठी भर लोग मालामाल होंगे।

इस प्रकार, राजन के प्रस्थान के प्रकरण पर चल रहे सारे विवाद के मूल में अर्थ-व्यवस्था की यथार्थवादी और काल्पनिक समझ का एक द्वंद्व साफ दिखाई दे रहा है।  

सोमवार, 13 जून 2016

हरियाणा में राज्य सभा चुनाव : आने वाले दिनों के अशुभ संकेत

हरियाणा में राज्य सभा चुनाव को लेकर जो खेल हुआ है, आने वाले दिनों के अशुभ संकेत देने के लिये काफी है । शुरू में मीडिया के ज़रिये यह फैलाया गया कि कांग्रेस के सदस्यों ने जान-बूझ कर अपने मतों को रद्द करवाया हैं । लेकिन अब जो बातें सामने आ रही हैं, उनसे पता चलता है कि यह शुद्ध रूप से वहाँ के शासक दल की ज़ोर-ज़बर्दस्ती का मामला है । सुनियोजित ढंग से चुनाव की पूरी प्रक्रिया में धाँधली की गयी है ।

मोदी जी की भाजपा पर क्रमश: हर जगह सत्ता को हथियाने का हिटलरी भूत सवार होने लगा है । अब यह सब प्रकार के हथकंडों का प्रयोग करने, ज़रूरत पड़ने पर बड़े-बड़े दंगें लगवा कर भी सत्ता तक पहुँचना चाहेगी । देश की हर, न्यूनतम जनतांत्रिक बोध वाली पार्टी को भी सतर्क हो जाने का समय आ रहा है । ये षड़यंत्रों की किसी भी सीमा तक जा सकते हैं ।

भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी कर क्या रही है ?


इलाहाबाद में भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक चल रही है। इसमें कौन सी राष्ट्रीय समस्याओं पर चर्चा चल रही है, इसे कोई नहीं जानता। सब लोग सिर्फ एक बात जानते हैं कि मोदी पार्टी को उत्तर प्रदेश की सरकार हासिल करनी है। राजनाथ सिंह कह रहे हैं - बहुत होगया, चौदह साल से ज्यादा का वनवास तो रामजी का भी नहीं हुआ था। अब यह वनवास खत्म होना ही चाहिए!

अर्थात भारत के शासक दल की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की एक मात्र चिंता है उत्तर प्रदेश की सत्ता !
हैराल्ड लास्की की एक प्रसिद्ध किताब है - राजनीति का व्याकरण (Grammar of politics)। जनतांत्रिक राजनीति की लगभग एक पाठ्य पुस्तक। इसकी भूमिका में उन्होंने आज के युग में राजसत्ता की परंपरागत अवधारणा में आए संकट के बारे में कहा है कि अब कानून में परिवर्तन की चर्चा किसी क्रांतिकारी उद्देश्य से नहीं, बल्कि आज के मुद्दों के प्रति सजगता के उद्देश्य से की जाती है ताकि हम फिर किसी नये अंधकार युग में न चले जाएँ ।

मोदी शासन में तो राजसत्ता का मामला और भी विचित्र नजर आता है। इसमें राजसत्ता प्राप्त करने का मतलब है शासक दल के पास आडंबरपूर्ण आयोजनों के संसाधनों का अधिक से अधिक इकट्ठा होना, ताकि वह लोगों को भ्रमित करने के भारी इंद्रजालों की लगातार रचना कर सके। इस सरकार की अब तक की वैद्यानिक उपलब्धियां शून्य रही है। सत्ता सिर्फ सत्ता के लिये ! सत्ताधारी दल का यह चरम लापरवाही से भरा रवैया अनायास ही कैसे इस देश को एक नये अंधकार युग की ओर ठेल देगा, इन्हें अनुमान भी नहीं है। वे एक सड़े हुए भ्रष्टतम समाज के अलावा और कुछ भी देने में असमर्थ हैं।

शुक्रवार, 10 जून 2016

हरीश भादानी : एक श्रद्धांजलि



आज 11 जून। हरीश भादानी का जन्मदिन। 1933 में जन्में हिंदी के जनकवि का 83वां जन्मदिन। एक ऐसे कवि का जन्मदिन जिनके बारे में साहित्य अकादमी की ‘भारतीय साहित्य के निर्माता’ श्रृंखला में इसी लेखक ने पुस्तिका का प्रारंभ ही इन शब्दों से किया है -
‘‘ जिन अर्थों में डेनमार्क का कोपेनेहेगन शहर लोककथाओं के अमर लेखक हैंस क्रिश्चियन एंडरसन के नाम से, या चेकोस्लोवाकिया का प्राहा शहर कम्युनिस्ट शासन की विद्रूपताओं के लेखक मिलान कुंदेरा के नाम से और टर्की का इस्तानबुल शहर उसके सम्मोहन के सच और झूठ के कुहासे में लिपटी कथाओं के लेखक ओरहन पामुक के शहर के नाम से जाना जाता है, उसी तरह यदि राजपुताने में अरबिया 1 की स्मृतियों को जगाने वाले विशाल जांगल देश 2 (बीकानेर) के मुडि़या कंकड़ों के पहाड़ पर घाटियों-खाळों 3 के चढ़ानों-ढलानों वाले परकोटे के शहर बीकानेर की अन्तरात्मा के गायक के तौर पर इस शहर को हरीश भादानी का शहर कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। ’’

इस मौके पर हरीश जी की स्मृतियों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए हम यहां उनके दो गीतों को और उनके बारे में हिंदी के कई वरिष्ठ विचारकों के कथन को लेकर लिखे गये एक अध्याय ‘मूल्यांकन के प्रश्न’ को मित्रों से साझा कर रहे हैं -

मूल्यांकन के प्रश्न

हरीश भादानी को थोड़ा भी जानने वाला व्यक्ति उनके बारे में एक जुमले का प्रयोग करता है - ‘आपाद मस्तक कवि’। जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, कविता को ही जीने, खाने, पहनने, ओढ़ने वाला कवि। लेकिन उनके एक मित्र, वरिष्ठ पत्रकार वीर सक्सेना ने कहा - ‘वह तो साहित्य का औलिया था। उसका कहा हर शब्द एक रचना होता था।’ 

फिर भी, कुछ उच्चाकांक्षी साहित्य प्रवर ऐसे हैं, जो कभी दबे तो कभी दबंग स्वरों में उनके भाषिक प्रयोगों पर आपत्तियां करते रहे, कुछ-कुछ वैसे ही जैसे बंगाल में रवीन्द्रनाथ के पद्यांशों को शुद्ध और प्रांजल बांग्ला भाषा में लिखने की मांग करने वाले प्रश्नपत्रों के रचयिताओं ने किया था, जिसका हम पहले उल्लेख कर चुके हैं।1 

शास्त्रों में भी प्रतिभा सहकृत नये शब्दों, पदों और वाक्य विन्यासों को पूरी तरह से मर्यादित माना गया है। भाषाई शुद्धता, व्याकरण का अति-आग्रह भी एक प्रकार की ढर्रेवरता का आग्रह है, जड़ता और रूढि़वादिता है। रचना न हो जैसे अब तक दृष्ट प्रयोगों का अजायबघर हो; एक ऐसा सामुदायिक अनुभव, जो अक्सर तुच्छ धार्मिक कर्मकांडों, रूढि़यों के निजी रोमांच में पर्यवसित होता है। ढर्रेवर लेखन का रोमांच कोरे धार्मिक कर्मकांडों के रोमांच जैसा ही होता है। इसके विपरीत प्रतिभा-संपन्न रचनाकार का तट-बंधों को तोड़ कर बढ़ने वाला निजी प्रवाह रचनाशीलता के सामने आने वाले सामाजिक गतिरोध के हर बिन्दु को कहीं ज्यादा करीब से उजागर करता है, वह भले व्याकरण की तरह का वज्र-गतिरोध ही क्यों न हो। पठन को निदेशित करने वाले रूपकों-बिंबों की एक नयी भाषाई सर्जना, जो अन्तत: पाठक के पूरे मानस को आच्छादित कर लेती है, अपना व्याकरण, सघन और जटिल अनुभूतियों के गतिशील, तरल बिंबों को मूर्त, प्रेषणीय और मर्मस्पर्शी बनाती है। हरीश भादानी मूलत: गीतकार थे। उनके रचाव का संसार शब्दों और संगीत, दोनों की भाषा के समंजन से आकार लेता है। यह शब्द को ध्वनि में और ध्वनि को शब्द में बदलने का एक समानांतर उपक्रम है। शब्द और वाक्य राग और सुरों में बदलते है और राग और सुर शब्दों तथा वाक्य-विन्यासों का रूप लेते हैं। इसकी रिक्तताओं और मौन में, रवीन्द्रनाथ की शब्दावली में, ‘शब्दविहीन शब्दजगत’ और ‘ध्वनिविहीन ध्वनिजगत’ दोनों की भूमिका होती है।  

सच कहा जाए तो हिन्दी कविता के व्यापक परिदृश्य में हरीश भादानी एक ऐसा वास्तविक और सशक्त राजस्थानी हस्तक्षेप है, जिसके विस्तृत प्रभाव को ऐसे ही इंकार नहीं जा सकता है। उनका विपुल साहित्य किसी भी साहित्यानुरागी के लिये स्वयं एक गंतव्य है, लंबे रास्ते का एक पड़ाव भर नहीं। यह हरीश भादानी के अन्तरमन का एक संपूर्ण आख्यान है। ‘अन्तर्मन का संपूर्ण आख्यान’ - अर्थात वह भी जो मन में ठोस आकार ले चुका है और वह भी जिसका एक आभास, सिर्फ छाया भर है। समग्रत:, विलयनशील रंगों की एक विशाल तरल छवि का शब्दांकन।      

बहरहाल, हरीश भादानी के गीतों के बारे में डा. नामवर सिंह का कहना था कि उनका हजारों पन्नों में फैला विपुल साहित्य और उनका विशाल रचनासंसार एक सर्जनात्मक विस्फोट की अनुभूति पैदा करता है। वे सिर्फ कवि नहीं, चिंतक, विचारक थे। मजदूरों, किसानों को उनके आंदोलनों में नेतृत्व देने वाला क्रांतिकारी कवि ऋगवेद के मर्म को आम लोगों की भाषा में नयी अर्थवत्ता प्रदान करता है। हिंदी में कितने लोग है जिन्होंने ऋगवेद को इतनी गंभीरता से पढ़ा होगा। वे अनेकायामी कवि थे। 2

डा. शिवकुमार मिश्र अपने लेख ‘हरीश भादानी का रचना-कर्म’ में लिखते हैं - ‘‘हरीश भादनी हमारे समय के बेहद संवेदनशील, बेहद संजीदा, अपने कवि-कर्म में अनुभूति और विचार - दोनों को एक साथ जीने वाले तथा आत्म-दर्शन और जग-दर्शन - दोनों के संदर्भों में कवि-कर्म को पूरी निष्ठा के साथ स्वीकार करने वाले कवि हैं। कविता इनके यहां आत्म की खोज भी है और बाह्य दर्शन का बेबाक निदर्शन भी। पांच दशकों की अपनी रचना यात्रा में हरीश भादानी ने समकालीन कविता के कई पड़ावों को लांघा है - बावजूद इसके उनकी अपनी रचनाधर्मिता अपनी जमीन और जमीर पर इस तरह स्थिर और एकाग्र रही है कि बदलते समय के निशान कभी उस पर इतने गाढ़े नहीं हो पाए कि अपनी विसंगतियों-विद्रूपताओं और फैशनधर्मी रुझानों के साथ उसका हिस्सा बन सकें। हरीश भादानी की कविता रेत में डूबे-नहाए उस मन का सहज उद्गार है, जो अपनी रेतीली धरती के कण-कण से एकात्म, उसके सारे ताप-त्रास, तल्खी और बेचैनी को अपनी पोर-पेर में जीता-महसूस करता हुआ भी उससे अभिन्न है, कारण यह उसकी अपनी धरती ही है जो उसे ऐसे अनुभव-संवेदन भी देती है, दे सकी है, जो उसकी थारेषणा को जीवेषणा में बदल कर उसकी कविता में शब्द-रूप पाते हैं।’’

हरीश भादानी के विशद और व्यापक जीवनानुभवों की ओर खास तौर पर संकेत करते हुए वे कहते हैं कि ‘‘उनके जीवन-वृत्त से गुजरने वाला कोई भी पाठक सहज ही जान सकता है कि जिन्दगी के कितने घुमावदार-ऊबड़-खाबड़ रास्तों से चलते हुए वे अपनी उम्र के इस पड़ाव तक पहुंचे हैं। उनके पास अनुभवों के नाम पर जो कुछ है वह अपना कमाया हुआ है, किसी से पाया हुआ नहीं। अनुभव उन्होंने जिन्दगी से सीधी रगड़ करते हुए भी पाए हैं - और दूसरों के सुख-दुख में अपनी सहभागिता के चलते भी। ...अनुभवों के साथ उसने ज्ञान भी कमाया, विचार के ऊंचे से ऊंचे शिखरों तक जाकर, महज स्वाध्याय के बल पर वह सब पाया जिसने उसके अनुभवों को धार दी, दिशा दी। इसी सब का परिणाम, इसी सब की फलश्रुति है, हरीश भादानी की शब्द साधना।  अनुभवों के स्तर पर जितनी जीवंत, विचार और ज्ञान के स्तर पर उतनी ही प्रखर और परिपक्व। हरीश भादानी के अर्जित ज्ञान तथा विचार-सम्पदा का वैशिष्ट्य यह है कि वह जितनी परंपरा-पुष्ट है, उतनी ही आधुनिक समय की सबसे अग्रगामी -प्रगतिशील और भारतीय चिन्ताओं से जुड़ी हुई।...हमारा संकेत यहां वैज्ञानिक समाजवाद के पुरस्कर्ता उस माक्‍​र्सवादी दर्शन तथा चिंतन की ओर है, हरीश भादानी का कवि विचार के स्तर पर जिससे प्रतिबद्ध है।...वेद, उपनिषद महाभारत, रामायण आदि के जितने भी संदर्भ, वृत्तांत, चरित्र, प्रसंग, स्थितियां उनकी कविताओं में आए हैं, वे विगत के अपने महत्व के साथ बराबर अपनी नई अर्थवत्ता में, नई व्यंजनाओं के साथ ही आए हैं।’’

डा. मिश्र ने अपने इस लेख में हरीश जी की काव्याभिव्यक्ति के प्रसंग को भी उठाया है। वे लिखते हैं - ‘‘जहां तक अनुभुति का संबंध है, हम कह चुके हैं कि अनुभवों का एक विशद संसार उसमें है और वे अनुभव बड़ी शिद्दत से अर्जित अनुभव हैं - जो किसी भी सहृदय के लिये सहज ही गम्य है। परंतु अभिव्यक्ति के स्तर पर वे हर किसी के लिये सुगम नहीं है। वे इतने निपट देशज अंदाज में रूपायित हुए हैं, भाषा-बोली-बानी, यहां तक कि कथन-भंगिमाएं, इतनी स्थानिक है, क्रिया रूप इतने कवि के अपने स्थानीय मिजाज से रंगे हुए हैं, बोली-बानी का लहजा तक इतना अधिक स्थानीय है कि रेतीली धरती के संसार से इतर का पाठक अभिव्यक्ति की इतनी सघन स्थानीयता को चीरते हुए अनुभूति के मर्म तक पहुंचने में कठिनाई का अनुभव कर सकता है। परंतु यह हरीश भादानी की काव्याभिव्यक्ति का अपना विशिष्ट अंदाज है, और उनके अपने मिजाज का एक अविभाज्य हिस्सा है। उसमें तनिक भी अतिरिक्त आयास नहीं है - वह उनके कवि स्वभाव की सहज प्रस्तुति है। अभिव्यक्ति की यह निपट देशीयता, स्थानीयता या विशिष्टता ही है, कदाचित जिसके नाते हरीश भादानी की कविता समकालीन हिन्दी कविता के वृहत्तर परिदृश्य में उस मुख्यता के साथ नहीं पहचानी गई, जिस मुख्यता के साथ उनकी अपनी धरती के उनके कुछ समानधर्मा रचानाकार अपने स्थानीय रंगों के बावजूद समकालीन कविता के बड़े परिदृश्य में चर्चित हुए। इसे हरीश भादानी की काव्याभिव्यक्ति की सीमा भी माना जा सकता है, जबकि मेरी दृष्टि में यह उसका स्वभाव है।’’

डा. मिश्र के इस महत्वपूर्ण लेख में जनगीतकार हरीश भादानी की व्यापक लोकप्रियता की भी चर्चा है। वे कहते हैं कि ‘‘इस जुझारू जनगीतकार से हिंदी का वह वृहत् पाठक  और श्रोता-समाज बखूबी परिचित है, जिसने उन्हें हजारों-हजार श्रोताओं के बीच अपनी जनधर्मी रचनाओं का पाठ करते सुना है। कुछ हरीश भादानी का अपना स्वर, कुछ उनकी अदायगी और अधिकतर उनकी कविताओं के बोल, उनका ओजस्वी उद्बोधन - उनकी ये कविताएं श्रोता समाज को भीतर तक उद्वेलित कर देती है - उसे एक जुझारू मनोभूमि में ले आती है। कदाचित ऐसी ही बेधक, अपनी संक्रामकता में श्रोता-समाज को मंत्र-बिद्ध करने वाली रचनाओं को लेकर ही प्लेटो ने कवि को अपने आदर्श समाज से बाहर करने की बात की थी।’’

अपने लेख का अंत डा. मिश्र ने इन शब्दों से किया है - ‘‘समग्रत: हरीश भादानी का रचनात्मक प्रदेय बहुआयामी है। एक स्तर पर वह जितना गहन-गंभीर, प्रशांत और उनके आत्म तथा जग-दर्शन का बड़ी कड़ी साधना के उपरांत पाया गया सुफल है तो दूसरे स्तर पर यह उतना ही सहज, अपने समय से आंखें मिलाता, समय का आईना भी है। यह हरीश भादानी के कवि का कमाल है कि वे अपने इन दोनों रूपों में सामंजस्य बिठाते हुए समय के साथ भी चल सके हैं और समय को उसकी त्रि-आयामिकता - भूत-वर्तमान और भविष्य में अपने रचना-कर्म में साध सके हैं।’’3

विश्वनाथ त्रिपाठी ने हरीश भादानी पर एक संस्मरणात्मक लेख लिखा है - ‘रेत का सौंदर्य और शक्ति’। इसमें वे लिखते हैं - ‘‘लगभग एक दशक पूर्व जयपुर जाने का प्रोग्राम बना। मेरे मित्र डा. अजय तिवारी से बात हुई तो उन्होंने कहा कि जयपुर में अगर हरीश भादानी मिलें तो उनसे ‘रेत में नहाया है मन’ गीत जरूर सुनियेगा। सौभाग्यवश जयपुर में भादनी जी से भेंट होगयी। वे सुलोचना रांगेय राघव के यहां रुके हुए थे। कार्यक्रम के उपरांत शाम को प्रैस क्लब में उनसे भेंट हुई। ...भादानी ने ‘रेत में नहाया है मन’ गीत का पाठ किया। सच बताऊँ वैसा काव्य-पाठ किसी गीतकार के मुँह से न उसके पहले सुना था न उसके बाद सुना। मैंने इतने अच्छे काव्य-पाठ की कल्पना भी नहीं की थी। काव्य-पाठ के बाद मैंने हरीश भादानी के पैर छुए यद्यपि वे उम्र में मुझसे छोटे ही होंगे। ...

‘‘उनकी वाणी में यह गीत सुनते समय मानों लपट उठती थी। महाकवि निराला ने लिखा है ‘‘मेरे स्वर की रागिनी वन्य’’ अर्थात् मेरे स्वर की रागिनी की लपट की आग। निराला की इस पंक्ति का अर्थ भादानी के ‘रेत में नहाया है मन’ के काव्य-पाठ से साक्षात् होता था। ...

‘‘भादानी की कविता में रेत उपमान, उपमेय या अलंकार नहीं है वह राजस्थान की महाभूतात्मक पहचान है। राजस्थान के अस्तित्व का आधार चि है। 

‘‘रेत के बिना राजस्थान नहीं। रेत अपने आप में कोई सरल, सरस, सुस्वादु प्राणदायक वस्तु नहीं है बल्कि वह इस सबके विपरीत है । विपरीत है तो क्या हुआ, है तो राजस्थानी मन:स्थिति और संस्कृति का सर्वस्व। ...निराला ने लिखा था ‘निर्झर बह गया है और रेत रह गया है, निर्झर वांछिततम जीवन स्थितियों का प्रतीक है। निर्झर में जल है। जीवन है। वह सुखद है। प्यास को बुझाने की क्षमता है। और रेत या तो सुख से दूर उन स्थितियों के व्यतीत हो जाने की हूक है या विषम स्थितियों का यथार्थ बोध। निराला राजस्थान के नहीं थे। रेत उनके लिए जीवन स्थितियों की अनिवार्यता नहीं बन सकती थी। भादानी राजस्थान के थे। वे रेत से नहीं बच सकते थे। जिससे नहीं बच सकते उसे अंगीकार कर लेने में ही बुद्धिमत्ता है। बशर्ते आपमें उसे अंगीकार कर लेने की क्षमता हो। मैंने इसके पहले भी लिखा है कि जो अनिवार्य है वह अनैतिक नहीं हो सकता। इस अनैतिक को नैतिक बना पाना कठिन साधना की मांग करता है। अन्ततोगत्वा यह नैतिक, सांस्कृतिक और सौन्दर्यबोधात्मक भी बनता है। भादानी ने यही अकाण्ड कार्य किया है। असाध्य को साधा है।...मैं हरीश भादानी की रेत वाली कविता को राजस्थान की जातीय संस्कृति की प्रतीक कविता समझता और मानता हूं।’’

हरीश जी के और भी कुछ काव्य-बिंबों का उल्लेख करते हुए त्रिपाठी जी कहते हैं - ‘‘भादानी के बिंब समावेशी होते हैं। वे कई स्थितियों को एक-दूसरे से जोड़ते हुए रचे जाते हैं। यह राजस्थानी बोली का ही प्रभाव होगा कि उनकी भाषा में नाम धातुएँ (संज्ञा का क्रिया रूप में उपयोग) खूब है।’’4

डा. राजेन्द्र गौतम अपने लेख ‘नवगीतों में सौंदर्य विधायनी कल्पना’ में हरीश भादानी के गीतों के बारे में लिखते हैं कि उनके ‘‘नवगीतों का एक अलग मुहावरा है। उनमें अनेक अप्रचलित भाषा-प्रयोग है। इनकी भाषागत जटिलता बराबर पाठक की परीक्षा भी लेती चलती है, बहुत सरलता-आग्रही पाठकों के लिए भादानी जी के गीतों के बिम्ब पहेलीनुमा रहे हैं, आलोचकों को भी कुछ असुविधा महसूस हुई होगी।’’ इसी संदर्भ में गौतम जी नवगीतों में पैदा हुए गतिरोध का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि ‘‘हरीश भादानी के नवगीतों में बिम्बपरक नयापन और इनकी टटकी भाषा एक नई आस बंधाती है और नवगीत की अवरुद्धता को तोड़ती है। ...तकाजों का टिफिन, मशीनों का बियाबां, समय का व्याकरण, रेत का कफन , मौन के सांप, स्वरों के पखेरू, शोर का आसमां, बिणजारे आकाश, संशयों के अंधेरे, संकल्पों की हथेली, रोशनी का सूत, भावों की बिणजारिन तकड़ी, धुएं की टोपी, जैसे प्रयोग कोरा चमत्कार नहीं हैं, बल्कि वे गीतों के अर्थों को दूर तक फैलाते भी हैं। ...उनकी क्रियाओं, विशेषणों एवं आंचलिक शब्द प्रयोंगों ने जिस गायन संगुफित शिल्प को रचा है, उसे पाठ के गंभीर विश्लेषण के माध्यम से ही समझा जा सकता है।’’ 5 

विमल वर्मा अपने लेख ‘काव्य भाषा में सृजनशील बोध’ में लिखते हैं - ‘‘हरीश जी ने अपनी कविताओं में जिस भाषा के माध्यम से जो भावनात्मक यात्रा की है, उनकी काव्य चेतना में जो स्वरूपगत सांकेतिक शक्ति है, उसमें अभिव्यक्त संवेदनशील आत्मीयता को महसूस करते हुए डा. रामविलास शर्मा द्वारा केदारनाथ अग्रवाल पर की गयी टिप्पणी स्मरण हो उठती है। उन्होंने लिखा है ‘केदार ने छायावादी कविता लिखना और उससे बगावत करना एक साथ ही शुरू किया।’ मेरी समझ में यही बात हरीश जी पर भी लागू होती है।’’

विमल जी ‘रेत में नहाया है मन’ गीत के संदर्भ में कहते हैं कि ‘‘कवि ने राजस्थान की प्रकृति के भयावह रूप को अपनी निजी रचनात्मक भाषा के माध्यम से दृश्यों, स्पर्शों आदि के विभिन्न रूपों में गूंथा है। क्या यहां प्रत्येक शब्द चिन्तन के एक बिन्दु से दूसरे बिन्दु तक पहुंचने में सहयात्री नहीं है? शब्दों को बिम्बों में ढालकर प्रत्यक्ष को संवेदना में बदला गया है। ये बिम्ब ही इस संवेदना को अपना रूप और विधान देते हैं। शायद इसीलिए कहा गया है कि लेखक की कृति को पाठक ही रचता है।...
‘‘रचनाशीलता की निरन्तरता में वह अपनी ही भाषा का संहार कर भाषा की पुनर्रचना करता है।’’6

हरीश भादानी की कविता पर डा. जगदीश्वर चतुर्वेदी का लेख है - ‘इमेज, काल और कविता’। इस लेख का प्रारंभ ही वे इस वाक्य से करते हैं -‘‘कविता की वर्चुअल समीक्षा के लिहाज से हरीश भादानी आदर्श कवि हैं।’’
वे आगे लिखते हैं, ‘‘हरीशजी की कविता इमेजों का जखीरा है। कवि का प्रधान लक्ष्य है इमेजों के जरिये अभिव्यक्त करना।...

‘‘हरीशजी की कविता में खाली स्पेस नहीं होता। शून्य नहीं होता, ऐसी स्थिति नहीं होती कि आप अपनी इच्छा से चाहे तो कुछ भी भर लें। इमेज को सघन बनाने के लिए भाषा के शिल्प के जरिये हरीशजी बार-बार खाली स्पेस को भरते हैं, चुप्पी के क्षेत्रों को खोलते हैं। फलत: कविता अनेकार्थी हो जाती है। जिस इल्युजन को वे कविता में पैदा करते हैं फिर उसी को नष्ट करते हैं। ...

‘‘हरीश जी की कविता इस अर्थ में वर्चुअल परिप्रेक्ष्य से अलग है कि उसमें मनुष्य का बहिष्कार नहीं है। वर्चुअल रियलिटी मनुष्य के बहिष्कार पर टिकी है। जबकि हरीशजी की कविता मनुष्य के अदृश्य संसार का लेखाजोखा है। अदृश्यों को दृश्य बनाने की कविता में कोशिश है। अदृश्य को दृश्य बनाने के चक्कर में लेखक वर्तमान से लेकर अतीत तक की यात्रा करता है।...

‘‘हरीशजी की कविताओं में राजस्थानी, हिन्दी, संस्कृत भाषा के प्रयोग समान रूप में मिलते हैं, इसके अलावा मजदूरों, चरवाहों के बीच के भाषायी प्रयोग भी मिलते हैैं। कविता की लय के लिए लेखक नए-पुराने प्रयोगों के बीच भेद करके नहीं चलता बल्कि जहां जैसा उचित लगता है वहां पर वैसा ही प्रयोग करता है।’’7 

हरीश जी के घनिष्ठ और उनके काव्य पर शुरू से गहरी नजर रखने वाले कवि, आलोचक नन्द भारद्वाज अपने लेख ‘रेत की संवेदना का सच और मुक्तिकामी सोच’ में लिखते हैं : ‘‘भाषा के इस देशज व्यवहार की निर्मिति में जहां कवि ने अमूमन अच्छे और सार्थक प्रयोग किये हैं, वहीं कथ्य की मांग के मुताबिक कई नये शब्द गढ़ने का भी उपक्रम किया है। ...कुल मिला कर जन-भाषा के शब्दों को अपनी सर्जना में खपाने और उनसे नया प्रभाव पैदा करने का यह प्रयास कवि की जन-जीवन में गहरी रुचि, आत्मीय संपर्क और जन-संघर्षों के प्रति उनके आन्तरिक लगाव का ही परिचायक है। ...

‘‘उनकी काव्यभाषा के पीछे मरुस्थलीय जीवन के साथ कवि की साझेदारी, थार के देहाती जीवन को उसी के लहजे और मुहावरे में रचने का उनका उल्लास और उस लोक-संस्कार को अपने आचरण का हिस्सा बना लेने की सहज प्रकृति, लोक-संस्कार और निजी जीवन-शैली का निर्णायक योग रहा है। कई बार उनके इस भाषा-व्यवहार से वृहत्तर हिन्दी क्षेत्र के सामान्य पाठक को रचना के अर्थ-ग्रहण में कठिनाई भी होती है, लेकिन इस मामले में रचनाकार के अपने भी कुछ रचनात्मक आग्रह होते हैं और भाषा को लेकर यह छूट अन्य बड़े रचनाकारों ने भी बराबर ली हेै, बल्कि उनके आंचलिक प्रयोगों का व्यापक रूप से स्वागत भी किया गया है, इसलिए हरीश भादानी की काव्य-भाषा का यह रूप इसका अपवाद नहीं है। ठीक इसी अर्थ में समकालीन हिन्दी कविता के बीच इस रेतीली संवेदना वाले रचनाकार का यह रचनात्मक अवदान उनकी अलग पहचान भी निर्मित करता है।’’8 

डा. पुरुषोत्तम आसोपा ने भी हरीश भादानी के काव्य की शक्ति और लोकप्रियता के स्रोत की तलाश में उनके भाषाई, ध्वन्यात्मक और बिम्बात्मक प्रयोगों की छान-बीन करने की कोशिश की है। अपने लेख ‘काव्य सृजन के विविध आयाम’ में वे लिखते हैं - ‘‘ भादानी जी का रचना शिल्प अखूट प्रयोगों का विस्तृत संसार है। ...
‘‘(उनकी) कविताओं की शैल्पिक संरचनाएं इस बात की गवाही देती है कि भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए कोई रूप विशेष नहीं चाहिए, भावनाएं स्वयं अपनी स्वाभाविक शक्ति से अपना रूप धारण कर लेती हैं। एक पूरी तरह से चौकन्ने कवि की तरह भादानी जी कविताएं रचते हैं। कविताओं के लिए शब्द चयन से लेकर बिम्ब निर्माण में, उपमानों के प्रयोगों से लेेकर भाषा की बुनावट तक में वे पूरी सावचेती बरतते हैं। अपनी आवश्यकता के लिए अपनी कविताओं की भाषा का नया व्याकरण ही रचते दिखाई देते हैं। ...
‘‘ शब्दानुशासन को न मानने के कारण कबीर को हजारी प्रसाद द्विवेदी ने वाणी का डिक्टेटर कहा था। भादानी जी भाषा के डिक्टेटर तो नहीं है लेकिन शब्द से कहीं ज्यादा अपने अभिप्रेत अर्थ को अधिक महत्व देते हैं। इसीलिये वे सर्वत्र शब्दों को नया अर्थ नया संस्कार, नया व्याकरण देने में प्रयत्नशील रहते हैं। उनकी इस प्रवृत्ति को समीक्षकों ने अनुभव किया है। डा. जीवन सिंह के शब्दों में भादानी जी ने अपनी भाषा का नया मुहावरा स्वयं ईजाद किया है। इसमें स्थानीयता और जनपदीयता को खुलकर खेलने का पूरा अवसर दिया है।...
‘‘इनकी बिम्ब-योजना की सफलता इस बात में है कि ये बड़ी आसानी से विराट काव्यानुभव को सूक्ष्म बिम्ब में या इससे उलट सूक्ष्म बिम्ब से अत्यंत व्यापक भाव को अंकित कर देने में समर्थ रहते हैं। जैसे - शाम के बाद रात्रि का आगमन -‘‘दो छते कंगूरे पर/ दूध का कटोरा था/ धुंधवाती चिमनी में/ उलटा गई हवा/ दिन ढलते ढलते।’’9

‘आलोचना के स्वर’ संकलन में हरीश भादानी के काव्य जगत की विशिष्ट संरचना की जांच करने वाले ऐसे और भी कई लेख है जिनसे पता चलता है कि क्यों और कैसे उनको हिन्दी कविता के व्यापक परिदृश्य में अपने प्रकार का अकेला और सबसे सशक्त राजस्थानी हस्तक्षेप कहा जा सकता है। 

हरीश जी की रचनाओं पर हिंदी के कई समीक्षकों ने समय-समय पर कई लेख लिखे हैं। कई विश्वविद्यालयों में शोध भी कराये गये हैं।10 पाठ्य पुस्तकों में भी उनकी एकाध कविताएं पढ़ाई जाती रही है।11 
एक ओर व्यापक जन-जन में उनकी रचनाओं की लोकप्रियता और इसके समानान्तर कलात्मक निकष पर भी इस रचनाधर्मिता की अनन्यता श्रेष्ठ साहित्य के कई अनजान पक्षों को प्रकाशित करती है। यही वजह है कि हरीश भादानी का रचना संसार किसी भी मर्मज्ञ पाठक, साहित्यानुरागी और आलोचक के लिये हमेशा गहरी जिज्ञासा और शोध के एक अनंत आकर्षण का क्षेत्र बना रहेगा।     

संदर्भ :    


1.‘आलोचना के स्वर’, संपादक - श्रीलाल जोशी, सरल विशारद, में नन्दकिशोर आचार्य के लेख ‘समकालीन परिवेश में गीत’ की यह पंक्तियां -‘‘अपने भाषिक आग्रहों में भादानी कहीं-कहीं भटकते भी हैं और उन जैसे वयस्क रचनाकार में अब ऐसा भटकाव कुछ अधिक ही अखरता है। कवि भाषा को नया संस्कार देता है लेकिन ऐसा करते हुए वह उसके मौलिक मिजाज की अवहेलना नहीं करता क्योंकि अपने माध्यम का सम्मान प्रत्येक रचनाकार का दायित्व है।’’ पृ : 131 
हरीश भादानी को, एक ‘वयस्क’ रचनाकार को उसकी  ‘दायित्वहीनता’ के लिये दीगयी एक उद्दत झिड़की! बड़बोली ‘उच्चाकांक्षा’ का थोथा प्रदर्शन और किसे कहेंगे?
2.हरीश भादानी की 75वीं सालगिरह के आयोजन में डा. नामवर सिंह का वक्तव्य
3.‘आलोचना के स्वर’, संपादक - श्रीलाल जोशी, सरल विशारद, पृ : 9-14
4.वही, पृ : 90-93
5.वही,
6.वही, पृ : 38-41
7.वही, पृ : 47-60
8.वही, पृ : 26-38
9.वही, पृ : 15-25
10.डा. ममता मिश्रा ने वर्दवान विश्वविद्यालय में डा. विमल के निदेशन में ‘हिन्दी की नवगीत परंपरा और हरीश भादानी’ विषय पर सन् 2001 में शोध किया। अखिलेश पांडे ने ‘‘आधुनिक हिंदी कविता में लंबी कविता लेखन परंपरा और हरीश भादानी की लंबी कविताएं’’ विषय पर बीकानेर के महाराजा गंगा सिंह विश्वविद्यालय से डा. मधुलिका शर्मा के निदेशन में सन् 2013 में शोध किया। इनके अलावा और भी कई विश्वविद्यालयों में उनकी रचनाओं के विविध पक्षों पर शोध के काम हुए हैं।  
11.राजस्थान के उच्चमाध्यमिक और स्नातक स्तर की हिंदी की पाठ्य पुस्तकों में हरीश भादानी की कविताओं को पढ़ाया जाता रहा हैं। 

शुक्रवार, 3 जून 2016

'हिंदू आतंकवाद’ एक सचाई है


अभी शायद महीना भर भी नहीं बीता है। महाराष्ट्र की भाजपा सरकार ने तमाम उपायों से मालेगांव बम विस्फोट के मामले की जांच को प्रभावित करके निचली अदालत को मजबूर कर दिया था कि इस मामले की एक प्रमुख अभियुक्त प्रज्ञा ठाकुर को रिहा कर दिया जाए। इसके साथ ही भाजपा के लोग एक आवाज में बोलने लगे कि हमारे देश में ‘हिंदू आतंकवाद’ नामकी कोई चीज नहीं है। यह सिर्फ कांग्रेस सरकार की दिमागी खब्त थी, भाजपा और आरएसएस को बदनाम करने की साजिश। उन्होंने अमर शहीद हेमंत करकरे को भी अपमानित करने से परहेज नहीं किया, जिन्होंने उस मामले की जांच करके उसको एक अंजाम तक पहुंचाया था और साध्वी बनी हुई प्रज्ञा सहित इन आतंकवादी संगठनों के सरगनाओं को पकड़ा था।

बहरहाल, आज के अखबारों में फिर एक बार हिंदू आतंकवादी सुर्खी पर हैं। सीबीआई सूत्रों के हवाले से बताया गया है कि पिछले दिनों विवेकवादी विचारक नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसारे और एम. एम. कलबुर्गी की एक के बाद एक जो हत्याएं हुई थीं, उनके पीछे सनाथन संगठन और हिंदू जनजागृति संघ नामके दो हिंदू आतंकवादी संगठनों का हाथ रहा है। मुस्लिम आतंकवादी संगठनों के इस्लामिक राज्य की स्थापना के उद्देश्यों की तरह ही इन संगठनों का लक्ष्य हिंदू राज्य की स्थापना करना है । सीबीआई का दावा है कि वे इस मामले की आखिरी तह तक जा चुके हैं और इन दोनों संगठनों के दो फरार सरगना विरेन्द्र तावड़े और सारंग आकोलकर को पकड़ने की दिशा में कार्रवाइयां की जा रही है। विरेंद्र तावड़े 2009 के गोवा बम विस्फोट कांड का भी अभियुक्त था जो उसी समय से फरार है। सीबीआई सूत्रों ने ही अखबारों को यह भी बताया है कि इन दोनों अपराधियों की गोवा सरकार के उच्च-स्तरीय लोगों तक पैठ है।

मुंबई हाईकोर्ट ने सीबीआई को दाभोलकर की हत्या के मामले की जांच का काम सौंपा था। सीबीआई ने यह भी माना है कि ये संगठन मिल कर एक और, चौथी हत्या करने ही वाले थे कि हत्याओं की इस श्रृंखला के खिलाफ देश भर के लेखकों ने भारी प्रतिवाद आंदोलन शुरू कर दिया और इसकी वजह से चौथी हत्या करने का उनका मंसूबा पूरा नहीं हो सका।

सीबीआई की जांच की इस रिपोर्ट से ऐसे ‘ज्ञानी-मुनिजनों’ को भी अपने पर विचार करना चाहिए जो लेखकों द्वारा अकादमी के सम्मान को लौटाये जाने के आंदोलन को निरर्थक बता कर उसका मजाक उड़ा रहे थे।
आज के ‘टेलिग्राफ’ में छपी इस खबर में यह भी बताया गया है कि सनाथन संस्था गोवा में भाजपा के एक सहयोगी दल के साथ जुड़ी हुई है। इस बीच इस दल ने विधानसभा के आगामी चुनाव में भाजपा से अलग स्वतंत्र रूप में चुनाव लड़ने का निर्णय लिया है। इसीलिये इस संस्था के प्रति भाजपा सरकार कोई नरम रुख अपनाने के लिये मजबूर नहीं है।

‘गुजरात फाइल्स’ - गुजरात में चले सत्ता के खूनी खेल की एक लोमहर्षक कहानी



-अरुण माहेश्वरी

आज ही अखबारों में गुजरात में 2002 के जनसंहार की एक सबसे जघन्य घटना गुलबर्ग सोसाइटी के मामले में अदालत के फैसले की खबर छपी है। तीस्ता सीतलवाड और अहसान ज़ाफरी की पत्नी जाकिया जाफरी ने कहा है कि वे अदालत की इस राय से संतुष्ट नहीं है।

आज ही हमनेइकोनोमिस्टपत्रिका के ताजा अंक को देखा है जिसका मुख्य विषय है - ‘‘ बोलने की स्वतंत्रता पर रोक बढ़ रही है। यह समय है बोलने का।’’

और आज ही हमनेतहलकाकी एक प्रमुख पत्रकार राणा अयूब की किताबगुजरात फाइल्सको पढ़ कर समाप्त किया है जिसके अंतिम अंश में लिखा गया है - ‘‘ तरुण (तरुण तेजपाल) ने कहा, ‘‘देखो राणा, बंगारू लक्ष्मण पर तहलका स्टिंग के बाद उन्होंने हमारा दफ्तर बंद करा दिया। मोदी सबसे ताकतवर आदमी बनने वाले हैं। यदि हम उनको छूएंगे तो हम खत्म कर दिये जायेंगे।...
‘‘दो दिन बाद मैंने अपने फोन से यूनिनोर के सिम को निकाल कर, तोड़ कर कूड़ेदानी में फेंक दिया। फोन के साथ भी वही किया। उसी दिन मैथिली को हमेशा के लिये विदा कर दिया गया।’’

मैथिली उर्फ मैथिली त्यागी - एक कायस्थ संस्कृत पंडित और आरएसएस वाले की बेटी। उसका जन्म हुआ था गुजरात के 2002 और उसके बाद हुए एक के बाद एक फर्जी एनकाउंटर के पीछे के सच की कहानी को उजागर करने के एक दुस्साहसी अभियान से, और उसकी मृत्यु हो गयी उसकी इस कहानी के प्रकाशन की संभावना के अंत के साथ। यह उस राणा अयूब का नया अवतार था जो तहलका के पृष्ठों पर पहले ही अपनी कई खोजी रिपोर्टों के चलते काफी प्रसिद्ध हो चुकी थी। इस किताब में जिस अभियान की कहानी है उसमें वह एक अमेरिकी फिल्म कंपनी की ओर से गुजरात के बारे में फिल्म बनाने के लिये अपने फ्रांसीसी सहयोगी माइक के साथ मैथिली त्यागी के रूप में अमेरिका से गुजरात आई थी।

एपिकचैनल परसियासतशीर्षक से एक सीरियल चलता है - महलों के ाड़यंत्रों की कहानियों का सीरियल। षड़यंत्रों, हत्याओं और सत्ता की चरम महत्वाकांक्षाओं से जुड़ी महलों की जघन्य कहानियों का सीरियल। ऐसा लगेगा मानो मध्ययुग में, राजाओं-बादशाहों के जमाने में राजनीति सिर्फ आदमी की सत्ता की हवस की शुद्ध हत्यारी और घिनौनी हरकतों का पर्याय थी। इसीलिये आधुनिक जनतंत्र के आज के काल में पश्चिम में मैकियावेली और हमारे यहां कुछ हद तक चाणक्य भी एक गाली माने जाते हैं। लेकिन राणा अयूब की इस किताब को पढ़ कर लगेगा कि राजनीति आज भी अपने इस घृणास्पद, ाड़यंत्रकारी और हवस से भरे रूप से मुक्त नहीं हुई है। बल्कि इसके खिलाडि़यों की छुद्रता के अनुपात में ही राजनीति अब भी हत्या और साजिशों का पर्याय बनी हुई है !

हमारी मुश्किल यह है कि समाज से राजनीति तक का सफर पार्टियों और समूहों के कितने ही छोटे-छोटे बंद दरवाजों के अंदर से क्यों जाता हो, इससे किसी का निजात पाना मुमकिन नहीं है, क्योंकि अंतत: इसीके जरिये हर छोटी-बड़ी सत्ता का व्यापक समाज में विलय संभव होता है।

राणा अयूब की यह किताबगुजरात फाइल्स (एनॉटमी ऑफ कवरअप)’ किसी भी रोमांचक, बल्कि लोमहर्षक जासूसी उपन्यास से कम नहीं है जिसमें लेखिका अपनी वेष-भूषा, अपनी पूरी पहचान को बदल कर राज्य के कुछ परम शक्तिशाली राजनीतिक अपराधियों और राजनीति-पुलिसतंत्र की अपराधी धुरी के सत्य को उजागर करने के एक जोखिम भरे अभियान में उतर जाती है, सिर्फ अपनी बुद्धि, साहस और जिद के बल पर।




अब तक 2002 के गुजरात के जन-संहार और समीर खान, पठान, सादिक जमाल, इशरतजहां, सोहराबुद्दीन, कौसलबीं, तुलसीराम प्रजापति आदि के फर्जी एनकाउंटरों की कई कहानियां सामने चुकी है और इन पर कई सारी दुनिया में सरही गई डाक्यूमेंट्री भी बन चुकी है। इसके अलावा, प्रधानमंत्री बनने के पहले तक नरेंद्र मोदी पर अमेरिका में प्रतिबंध की बात भी सब जानते हैं। अर्थात सारी दुनिया गुजरात और सन् 2002 की सचाई से वाकिफ है। वह जानती है कि किस प्रकार संघ परिवार नामक भारत के एक सबसे बड़े षड़यंत्रकारी गिरोह ने गुजरात के लोगों को धोखा देकर उनसे उनकी मानवीय अस्मिता को छीन लिया था, और हैवानियत को गुजराती गौरव का नाम देकर आज भी वहां के जीवन को जकड़े हुए है। फिर भी राणा अयूब की इस किताब का आकर्षण इस बात में है कि इसमें गुजरात के इस हत्यारे दौर के पीछे के नायकों को जैसे सशरीर उपस्थित कर दिया गया है। ये लोग बाबू बजरंगी की तरह के हत्यारे दंगाई या डी. जी. वंजारा की तरह के घुटे हुए एनकाउंटर स्पेशलिस्ट नहीं है, जिनकी कहानियां उन्हीं की जुबानी अखबारों में और डाक्यूमेंट्रियों में कई रूप में चुकी हैं। इस किताब में पर्दे के पीछे के ऊंचे पदों पर बैठे ऐसे लोगों को सामने लाया गया है जो इन सारी गतिविधियों को देख रहे थे, इन अपराधों की गंभीरता को समझ रहे थे, लेकिन या तो नीरव दर्शक थे या राजनीतिक आकाओं के दबाव अथवा अपने वैचारिक रूझानों के कारण इनमें शामिल भी थे।


इसमें सबसे ज्यादा गौर करने की चीज यह है कि इस अपराध कथा का केंद्रीय चरित्र है अमित शाह, आज भारतीय जनता पार्टी का केंद्रीय अध्यक्ष, और कहा जा सकता है, अपने आका मोदी जी की काया से काफी ज्यादा भारतीय राजनीति पर छाई हुई सबसे बड़ी काली छाया। उन्हीं के इर्द-गिर्द गुजरात के इस काल की सारी अपराधपूर्ण राजनीतिक-कथाओं का मकड़जाल किस प्रकार बुना गया था, इसी की एक सच्ची कहानी है यह किताब।  



 राणा अयूब उर्फ मैथिली त्यागी ने इसमें इशरतजहां के एनकाउंटर के एक प्रमुख अपराधी जी. एल. सिंघल से काफी लंबी बातचीत की है। सिंघल ने सीबीआई के सामने अपने अपराध को सिर्फ स्वीकारा है बल्कि उसने इस आत्म-स्वीकृति के एवज में मुखबिरों को मिलने वाली माफी के बजाय अपने अपराध के लिये पूरी सजा भुगतने की भी अर्जी की है। राणा अयूब के सामने उसने माना है कि वह अब तक ऐसे दस फर्जी एनकाउंटर कर चुका है। गुजरात सरकार आज भी सिंघल को माफीनामा देने के लिये तैयार है, लेकिन वह माफी नहीं सजा चाहता है। उसे लगता है कि उसके पास अब खोने के लिये कुछ नहीं है। उसके बेटे ने पिता की भारी बदनामी से परेशान होकर आत्म-हत्या कर ली थी। राणा अयूब को वह साफ कहता है कि राज्य में मोदी सरकार के मंत्री हमेशा बुरे कामों के लिये दलित अधिकारियों का प्रयोग करते हैं और उनका इस्तेमाल करके दूध से मक्खी की तरह उन्हें निकाल फेंकते हैं। उल्लेखनीय है कि गुजरात में फर्जी एनकाउंटर के लिये बदनाम रजनीश राय, डी. जी. वंजारा, जी. एल. सिंघल, राजकुमार पांडियन - ये सभी दलित या पिछड़े समाज की पृष्ठभूमि के पुलिस अधिकारी रहे हैं।


इसमें सबसे उल्लेखनीय बातचीत है राज्य के एक दलित, बड़े पूर्व पुलिस अधिकारी राजन प्रियदर्शी से राणा की बातचीत। उसे इस बात का गर्व है कि उसने गृहमंत्री अमित शाह के किसी भी गैर-कानूनी आदेश का पालन नहीं किया।

उसके शब्दों में - ‘‘This man Narendra Modi has been responsible for killing of Muslims across (the state)…They killed a young girl in an encounter…she was from Mumbra. The story created was she was a terrorist, who had come to Gujarat to kill Modi….They bumped off that Sohrabuddin and Tulsi Prajapati at the behest of the minister. This minister Amit Shah, he never used to believe in human rights.”
इस किताब के अनुसार, राजन प्रियदर्शी को एक बार अपने बंगले पर बुला कर अमित शाह कहते हैं - ‘‘अच्छा आपने एक बंदे को अरेस्ट किया है ना, जो अभी आया है एटीएस में, उसको मार डालना है।’’
“I didn’t react and then he said, “देखो मार डालो, ऐसे आदमी को जीने का कोई हक नहीं है।
“So I immediately came to my office and called meeting of my juniors. I feared that Amit Shah would give them direct orders and get him killed. So I told them, see I have been given orders to kill him, but no body is going to touch him, just interrogate him. I have been told, I am not doing it so you also are not supposed to do it.” (page -59)

कहना होगा कि राजन प्रियदर्शी का यह कथन नरेन्द्र मोदी और उनके समूह को एक झटके में पूरी तरह से एक नई पहचान देने वाला कथन है। इसके बाद वे किसी को भी राजनीतिज्ञों का नहीं, पूरी तरह से हत्यारों का माफिया गिरोह प्रतीत होने लगे तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी।

प्रियदर्शी के अलावा पूर्व सचिव अशोक नारायण, इंटेलिजेंस के प्रमुख जी. सी. रायगर, अहमदाबाद के पूर्व पुलिस कमीश्नर पी. सी. पांडे, पूर्व डीजी चक्रवर्थी, विधायक माया कोडनानी, पुलिस अधिकारी गीता जोहरी, हरेन पांड्या की पत्नी जाग्रुती पांड्या से हुई राणा अयूब की लंबी बातचीत के स्टिंग से गुजरात में सत्ता के गलियारों की जो सूरत निकल कर आती है, वह जितनी रोमांचक है, उतनी ही डरावनी भी है।


इस किताब की भूमिका लिखी है मुंबई के दंगों की जांच की रिपोर्ट देने वाले श्रीकृष्णा आयोग के अध्यक्ष न्यायाधीश बी. एन. श्रीकृष्णा ने। उन्होंने अपनी भूमिका के अंत में बिल्कुल सही लिखा है कि ‘‘इस किताब में जो कुछ कहा गया है उसे कोई प्रमाणित तो नहीं कर सकता है, लेकिन लेखिका के साहस और जिसे वह सत्य मानती है उसे सामने लाने के उनके जोश की तारीफ करनी ही होगी।’’