बुधवार, 29 अप्रैल 2015

व्यापकतम प्रतिरोध संघर्ष में ही वामपंथ की संभावनाएं है

अरुण माहेश्वरी


‘व्यक्ति नहीं, नीतियां प्रमुख होती है’- राजनीति के क्षेत्र में इस तरह की आदर्श, आप्त बातों के खोखलेपन के इतिहास-बोध के आधार पर ही हमें यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि सीपीआई(एम) के महासचिव पद पर सीताराम येचुरी के आने से निश्चित तौर पर भारत की वामपंथी राजनीति के एक नये चरण का सूत्रपात होगा। इसकी परिणतियों के तमाम सीमांत क्या क्या होंगे, अभी उसके बारे में निश्चय के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता है। लेकिन यह तय है कि कुछ जड़ताएं टूटेगी, भारत के संसदीय जनतंत्र में पहले की अपेक्षा वामपंथ की गतिशीलता बढ़ेगी; वह अपने नेतृत्व की चली आरही पथरीली संवादहीनता की व्याधि से मुक्त होगा। अगर सब सही हुआ तो वामपंथ के अंदर दूर दूर तक पसरे संवेदनशून्य नौकरशाही के ढांचे में दरारें पड़ेगी, मानवीय खुलापन आयेगा और वामपंथी राजनीति मेहनतकश जनता के जीवन-संघर्षों की शक्ति से ऊर्जस्वित होकर देश के नये भावी नेतृत्व को भी जन्म देगी।

यह सब हमारा कोई खयाली पुलाव नहीं है। सीपीआई(एम) के नेतृत्व में यह परिवर्तन एक ऐसे महत्वपूर्ण समय में हुआ है जब भारत की राजनीति साफ तौर पर संक्रमण के एक नये बिंदु की ओर बढ़ती हुई दिखाई दे रही है। मोदी सरकार कोई चमक दिखाने के पहले ही बड़े लोगों की दासता की हीनता का प्रदर्शन करके लोगों की नजर में म्लान होगयी है। मजदूर वर्ग को तो इसने अपना जन्मजात शत्रु मान कर ही अपने शासन की यात्रा शुरू की थी। जिस दिन इसने अपनी दीनदयाल उपाध्याय श्रमेव जयते स्कीम की घोषणा की थी, उस दिन को देश की सभी ट्रेडयूनियनों ने भारत के मजदूरों के जीवन में एक काला दिवस बताया था। वह बहु-राष्ट्रीय निगमों को श्रम कानूनों में तमाम रियायतें देने के आश्वासनों पर पूरी नंगई के साथ अमल करने की उसकी शुरूआत है। पूंजी और श्रम के विरोध के बीच सरकार की जो एक अंपायर की भूमिका होती है ताकि कोई श्रमिकों के साथ अन्याय न करने पाये, उस स्कीम के जरिये सरकार ने अपनी उस भूमिका के अंत की घोषणा कर दी।

अब भूमि अधिग्रहण विधेयक के जरिये उसने मेहनतकश जनता के सबसे बड़े हिस्से किसानों को अपने हमलों का निशाना बनाया है। उद्देश्य एक ही है - कॉरपोरेट की अंतहीन लिप्सा के रास्ते की सारी बाधाओं को दूर करना। यूपीए-2 सरकार के काल में कितनी लंबी बहसों, गहरी छान-बीन और देश के कोने-कोने में उभर रहे आंदोलनों की पृष्ठभूमि में जो भूमि अधिग्रहण कानून पारित हुआ था, उसे एक झटके में, स्वेच्छाचारी ढंग से इसने उलट दिया है। यूपीए-2 के काल में बने कानून में किसानों की जमीन की हिफाजत की गारंटी की गयी थी और उनकी स्वीकृति से किये गये अधिग्रहण में भी उन्हें भरपूर मुआवजा देने के प्राविधान थे। मनमाने ढंग से किसानों के जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव की बिना कोई परवाह किये उनकी जमीन को छीन लिये जाने पर रोक लगायी गयी थी। एक ऐसे ऐतिहासिक कानून की हत्या के लिये अध्यादेश पर अध्यादेश के जरिये आक्रमण करके मोदी सरकार ने किसानों के खिलाफ एक चरम निष्ठुर तानाशाही का रुख अपना लिया है।

और तो और, जब कृषि का संकट देश के हर कोने में सबसे विकट रूप में सामने आरहा है, कोई राज्य ऐसा नहीं है जहां किसानों की आत्म-हत्या की घटनाएं न घट रही हो, उस समय इस सरकार के बजट में ग्रामीण जनता की कल्याण योजनाओं की कई मदों में कटौती की गयी है। प्रधानमंत्री सबसिडी के मसले पर हिकारत के इतने गहरे भाव से बात करते हैं, जैसे उनकी नजर में आम लोगों द्वारा सरकार से किसी भी प्रकार की क्षतिपूर्ति की मांग उससे भीख मांगने जैसा है। देश की व्यापक जनता में भिखारी होने का हीन भाव भरने का प्रधानमंत्री का यह निर्दयी अभियान एक कल्याणकारी राज्य के मुखिया के लिये किसी अक्षम्य अपराध से कम नहीं है। संसद के पटल पर मनरेगा को देश का कलंक बताना, विदेशों में कल्याणकारी योजनाओं की हंसी उड़ाना साधारण जन को नीची नजर से देखने की उनकी भावना को बताने के लिये काफी है। मजे की बात यह है कि यही सरकार अपने बजट में बड़े आराम से कॉरपोरेट घरानों को अरबों-खरबों की रियायते देने में जरा भी संकोच नहीं करती।

उभरते हुए नये राजनीतिक परिदृश्य की दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि मोदी तथा उनकी सरकार का गरीब जनता के प्रति हिकारत से भरा नजरिया आज जनसाधारण के सामान्य बोध में प्रवेश कर चुका है। इसके साथ ही नेट न्यूट्रेलिटी के मसले पर इस सरकार के कॉरपोरेट-परस्त रुख ने पढ़े-लिखे नौजवानों को भी गहरी शंकाओं से भर दिया है। इसप्रकार, इस सरकार के खिलाफ देश की जनता के व्यापकतम संयुक्त प्रतिरोध संधर्ष की सारी संभावनाएं अब राजनीति के क्षितिज पर उभरती हुई साफ दिखाई देने लगी है।

ऐसे समय में कांग्रेस के नेता राहुल गांधी का एक प्रभावशाली विपक्ष के नेता के रूप में उभरना, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव पर प्रकाश करात की जगह सीताराम येचुरी का आना, जो इधर के कुछ सालों में वामपंथ के साथ जुड़ गये अंध कांग्रेस-विरोध की बीमारी से मुक्ति का आधार बन सकता है और इनके साथ ही नयी एकीकृत समाजवादी पार्टी का भी भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के खिलाफ समझौताहीन रवैया आने वाले समय में राजनीति की अनंत संभावनाओं की ओर संकेत कर रहा है।

भारतीय वामपंथ ने हमेशा कृषि क्रांति के मुद्दों को अपनी राजनीति के केंद्र में रखा है। पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा में उसी के नेतृत्व में भूमि सुधार और पंचायती राज की स्थापना के संघर्ष को जो अभूतपूर्व सफलता मिली, वह किसी से छिपी नहीं है। कृषि क्षेत्र के कार्यकर्ता ही वामपंथ की शक्ति के मूल स्रोत रहे हैं। ऐसे में सभी वामपंथी ताकतों की संयुक्त शक्ति भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के खिलाफ संघर्ष का नेतृत्व दे सकती है और गहरी राजनीतिक सूझबूझ और उदारता के साथ इस लड़ाई को जनता के व्यापकतम संयुक्त प्रतिरोध की लड़ाई में बदल सकती है। किसान, मजदूर और नौजवानों की संयुक्त शक्ति से ऐसे किसी भी संघर्ष के विकास में हमें भारतीय वामपंथ के विस्तार की भी अनंत संभावनाओं की उभरती हुई तस्वीर साफ नजर आती है।

'जानकीदास तेजपाल मैनशन'


- अरुण माहेश्वरी

रोहिणी अग्रवाल जी ने अलका सरावगी के हाल में प्रकाशित उपन्यास ‘जानकीदास तेजपाल मैनशन’ की अतिशय तारीफ करते हुए अपनी फेसबुक वाल पर एक पोस्ट लगायी थी। उसका अंत उन्होंने इन शब्दों से किया था : ‘‘ वह इंसान की अपनी ही चूलों के हिल जाने की कथा कहता है। न, आतंक फैला कर पाठक की घिघियाई मुद्रा का लुत्फ उठाने की जरा भी शाइस्तगी नहीं लेखिका में। वह तो हौले से उसके हाथ को अपने संपुट में ले न्यौता दे डालती है कि आओ, चलें, अपने हिस्से के वक्त पर एक नई तामीर खड़ी करें - भागते-भागते नहीं, धीरज के साथ, सृष्टि की आदिम लय-ताल से एकमेक होते हुए क्योंकि अचर-अगोचर के बिना अपने तईं इंसान ही कहां मुकम्मल है।’’
यह उपन्यास हमने भी पढ़ा है। इसीलिये रोहिणी जी की पोस्ट पर हमने एक टिप्पणी की जिसे मैं यहां मित्रों के साथ शेयर कर रहा हूंं। चूंकि इस मामले में कथा साहित्य की कुछ बुनियादी बातें शामिल है, इसीलिये मित्रों को हमारी यह टिप्पणी कुछ उपयोगी लग सकती है, जो इसप्रकार है :-
रोहिणी जी, मैंने भी यह उपन्यास पढ़ा है, बड़े ध्यान से पढ़ा है।
दरअसल, आख्यान और विवरण में कुछ बुनियादी फर्क होते हैं। आख्यान में हम जिन घटनाओं का साक्षात करते हैं वे चरित्रों के जीवन से सीधे जुड़ी होती है। चरित्रों के विकासमान जीवन में घटनाएं भी अपने सामाजिक महत्व के कारण एक सक्रिय भूमिका अदा करती दिखाई देती है। जिन घटनाओं में चरित्र शामिल होता है पाठक उनके दर्शक होते हैं। इसके चलते पाठक खुद उन घटनाओं का अनुभव भी करते हैं। दुनिया के सभी बड़े-बड़े उपन्यासकारों को देख लीजिये। बाल्जक, तालस्ताय, गोर्की, प्रेमचंद, लू शुन से लेकर हमारे यशपाल, जैनेन्द्र और अभी के उदयप्रकाश तक। उनके चरित्र किसी भी मायने में निष्क्रिय चरित्र या घटनाओं के दर्शक भर नहीं होते।
जिन रचनाओं में चरित्र ही दर्शक हो, निष्क्रिय, घटनाओं को दिखाने की एक खिड़की मात्र, वहां घटना पाठक के लिये एक कोरी प्रदर्शनी बन जाती है, अधिक से अधिक प्रदर्शनीय श्रृंखला। पाठक उनका एक अवलोकक होता है, उन्हें महसूस नहीं करता। आख्यान निष्प्राण होकर कोरा ब्यौरा बन जाता है, एक रिपोर्ट।
इसीलिये आख्यानों की जान सप्राण, वैविध्यमय, संघर्षमय और उद्यमशील चरित्र होते हैं। अलका सरावगी के लेखन की दिक्कत यह है कि उनमें ऐसे चरित्रों के लिये कोई जगह नहीं होती है। इसीलिये हमें तो उनका लेखन बेहद बनावटी और उबाऊ लगता रहा हैं। कोरी बतकही, अधिक से अधिक कह सकते हैं, किस्सागोई। यह उपन्यास तो और भी उबाऊ है, क्योंकि इसमें घटनाओं की वैसी श्रृंखला वाली किंचित गतिशीलता भी नहीं है, जिसकी एक झलक ‘कलिकथा’ में दिखती है। इसके अलावा ब्यौरा भी सघन नहीं, उथला-उथला। वे सामाजिक तौर पर निष्क्रिय चरित्रों को लेकर चलती हैं, जिनका अपने समय की राजनीति, सामाजिक आंदोलनों के प्रति ही नहीं, हर प्रकार की उद्यमशीलता के प्रति भी एक प्रकार की उदासीनता, हिकारत और वितृष्णा से भरा नजरिया होता है। ऐसे चरित्र प्रकारांतर से यथास्थिति के समर्थक, आत्मा-विहीन चरित्र होते हैं। यह लेखक की अपनी भी दिक्कत है, घटनाओं की सिर्फ दर्शक भर बने रहने की दिक्कत । बातों की चकल्लस की दिक्कत। वे लगातार इसीप्रकार का लेखन कर रही है। अब तो यह किसी ब्रांड के नाम को भुनाने का पण्य जैसा भी लगने लगा है।
आपने इसका उपभोग किया, इसके लिये आप प्रशंसा की पात्र है।

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2015

सीपीआई(एम) की 21वीं कांग्रेस : किससे आंख चुराने की कोशिश !


अरुण माहेश्वरी


सीपीआई(एम) की 21वीं कांग्रेस को शुरू हुए तीन दिन बीत चुके हैं। इस कांग्रेस में अभी किन बातों पर क्या बहस चल रहीं है, इन्हें जानने का एक मात्र प्रामाणिक तरीका पार्टी द्वारा हर रोज जारी की जाने वाली अति संक्षिप्त प्रेस-विज्ञप्ति के अलावा और कुछ नहीं है। इस विज्ञप्ति में कांग्रेस के पूर्व-निर्धारित कार्यक्रम के अलावा कुछ खास प्रस्तावों का जिक्र होता है और बहस के लिये तैयार किये गये दस्तावेजों पर बोलने वाले वक्ताओं के नामों की जानकारी होती है। यही है एक क्रांतिकारी पार्टी के अंदुरूनी जनतंत्र के चरम रूप को चरितार्थ करने वाली वह खास संगठनात्मक शैली जिसमें कोई भी आम प्रतिनिधि एक बंद ढांचे के अंदर ही बोलने का अधिकारी होता है, बाहर के व्यापक समाज तक उसकी बातों की गूंज-अनुगूंज की कोई गुंजाईश नहीं होती। प्रतिनिधि की स्वतंत्र सत्ता उसी वक्त तक होती है जब तक वह बोल रहा होता है। उसके भाषण की समाप्ति के क्षण के साथ ही वह सत्ता पार्टी कांग्रेस में चुने गये नेतृत्व के हाथ में खुद को सुपुर्द कर, आगे की कांग्रेस तक के लिये उनके निर्देशों के एक औजार में विलीन हो जाती है।

दरअसल, किसी न किसी रूप में यह बात अभी तक स्वीकृत सभी पार्टी-तंत्रों पर कमोबेस इसीप्रकार लागू होती है, लेकिन एक क्रांतिकारी पार्टी के ढांचे में पार्टी तंत्र की यह सचाई अपने तात्विक रूप में, 24 कैरेट सोने की तरह होती है। इसमें किसी प्रकार की खाद या मिलावट की संभावना नहीं होती है।

इस मायने में इधर के दिनों में आम आदमी पार्टी के अंदर से पार्टी के अंदुरूनी जनतंत्र के विषय को जिसप्रकार खुद में एक स्वतंत्र राजनीतिक विषय के तौर पर उठाया जा रहा है, वह अपने आप में एक भिन्न विषय है और पार्टी-तंत्र कैसे खुद में जनता के जीवन से जुड़ा एक बड़ा सामाजिक-राजनीतिक प्रश्न बन चुका है, इसकी ओर संकेत करता है।

बहरहाल, सीपीआई(एम) की कांग्रेस के इन तीन दिनों के बारे में विज्ञप्तियों आदि के जरिये जो भी सामने आया है, उससे पता चलता है कि अभी तक इसमें पिछले पचीस सालों के दौरान अपनाई गयी पार्टी की राजनीतिक और कार्यनीतिक लाईन की समीक्षा का जो दस्तावेज बहस के लिये जारी किया गया था, उस पर चर्चा हुई है। सीपीआई(एम) के इस दस्तावेज पर टिप्पणी करते हुए इसी लेखक ने अन्यत्र लिखा है कि यह ‘‘एक प्रकार से स्मारकों को ढहा कर अतीत से मुक्ति पाने का एक नपुंसक तरीका है। पुरानी भूलों के बजाय चर्चा उन भूलों के कारणों की, उनके पीछे की सामाजिक-राजनीतिक विफलताओं की होनी चाहिए। और सबसे बड़ी जरूरत इन ऐतिहासिक भूलों के कारकों से निष्ठुरता के साथ मुक्ति पाने की है, न कि किसी सर्वसमावेशवाद के तहत लाशों के बोझ को ढोने की।’’

गौर करने लायक बात यह है कि पार्टी कांग्रेस में चल रही इस बहस के बारे में अब तक जो भी संकेत दिये जा रहे हैं, उनसे पता चलता है कि आगे से सीपीआई(एम) आंचलिक बुर्जुआ दलों के साथ मिल कर किसी तीसरे विकल्प को तैयार करने के चक्कर में नहीं पड़ेगी। उसकी केंद्रीय राजनीति की दिशा सिर्फ वामपंथी दलों की एकता को कायम करने की दिशा होगी। चुनाव आदि के अवसरों पर आंचलिक बुर्जुआ दलों के साथ जो भी समझौते होंगे उनके लिये हर राज्य की इकाई को अपने लाभ-नुकसान को देखते हुए स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने होंगे।

अगर यह बात सच है तो कहना न होगा, यह किसी हारे-थके बदहवास से व्यक्ति के लिये येन-केन-प्रकारेण अपने लिये सुकून, सुख और शान्ति के कोने में दुबक कर बैठ जाने की काल्पनिक लालसा जैसा है। सीपीआई (एम) के लिये अभी वाम एकता का नारा सुकून के एक वैसे ही अंधेरे कोने की तरह है । हमारा सवाल है कि अगर आंचलिक पूंजीवादी दलों का अवसरवाद त्याज्य और वर्जित है तो सभी वामपंथी दलों का इतिहास भी इस मामले में कोई दूध का धुला हुआ नहीं है। ज्यादा दूर न जाकर, अभी-अभी फिर से वाममोर्चा की शोभा बढ़ाने के लिये आई एसयूसीआई कल तक पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा के जानी दुश्मनों की कतार में शामिल रही है। इतनी सारी अलग-अलग वामपंथी पार्टियों का अस्तित्व ही इनके पीछे की कुछ कहानी तो कहता ही है!

दरअसल, गहराई से देखने पर ऐसा लगता है कि सीपीआई(एम) के वर्तमान नेतृत्व ने कुछ इतनी बड़ी-बड़ी, पहाड़ समान कार्यनीतिक भूलें की हैं, जिन्हें वह अपनी स्मृतियों तक में कोई स्थान देने से आज जैसे कांप सा उठता है। इसमें उदाहरण के तौर पर हम दो सबसे बड़ी घटनाओं का यहां उल्लेख करना चाहेंगे। पहली 1996 में, जब ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने के पस्ताव को केंद्रीय कमेटी के इसी नेतृत्व ने ठुकरा दिया था। और दूसरी घटना है 2009 में, जब परमाणु संधि के नाम पर यही नेतृत्व यूपीए सरकार से समर्थन वापस लेकर मनमोहन सिंह सरकार को उखाड़ फेंकने के लिये ताल ठोक कर उतर पड़ा था।

कहना न होगा, कार्यनीति के क्षेत्र में इस नेतृत्व द्वारा लिये गये ये दोनों फैसले ही संसदीय जनतंत्र में सीपीआई(एम) के भविष्य को प्रभावित करने वाली इतनी भारी घटनाओं के मूल में रहे हैं, जिनपर आज तक जारी राजनीतिक बहसों के बावजूद उसका वर्तमान नेतृत्व उन्हें भुला कर अपने राजनीतिक इतिहास की स्मृतियों से बिल्कुल बाहर कर देना चाहता है। इन दोनों घटनाओं पर चली बहसें इस नेतृत्व के लिये लगभग असहनीय है क्योंकि इनसे भारतीय वामपंथ को लगे सदमे इतने घातक है कि उनकी स्मृतियों के साथ कोई भी अपनी बनायी दुनिया में चैन की एक सांस भी नहीं ले सकता है। ये दोनों घटनाएं ही कोरी कल्पनाप्रसूत नहीं हैं, जिनका कोई ठोस अस्तित्व न रहा हो। ये ठोस ऐतिहासिक तथ्य है और इसी 25 साल की अवधि के अंदर के तथ्य है जिस पर सीपीआई(एम) की इस कांग्रेस में बहस की जा रही है। फिर भी इनका इस दस्तावेज में कायदे से कोई उल्लेख न होना इन्हें लेकर वर्तमान नेतृत्व के भीतर की प्रेत-ग्रंथी को बताने के लिये काफी है।

अपनी विफलताओं के कारणों की इस कहानी से मूंह चुरा कर सीपीआई(एम) का नेतृत्व उन कारणों को समझने से इंकार कर रहा है जिनकी वजह से किसी के महापतन के ऐसे आख्यान तैयार होते हैं। जब कोई अपने भटके हुए कदमों की सचाई को जानने से इंकार करता है तो वह अकारण नहीं होता। इसके मूल में सीपीआई(एम) के वर्तमान नेतृत्व की एक थोथी क्रांतिकारी ललक, एक आदिम झूठ की बड़ी भूमिका जान पड़ती है जिससे अपने अस्तित्व के आधार के बारे में काल्पनिक कहानियां गढ़ के वह दूसरों को बरगलाता है। इसी के चलते यथार्थ और कल्पना का भेद मिट जाता है, ठोस राजनीतिक कार्यनीति का स्थान डॉन क्विगजोटिक क्रांतिकारी स्वांग लेने लगता है।



बुधवार, 15 अप्रैल 2015

राष्ट्र के हित में इंटरनेट सेवाओं का पूर्ण राष्ट्रीयकरण जरूरी है : प्रसंग नेट- तटस्थता



अरुण माहेश्वरी

तथाकथित कारपोरेट जनतंत्र के ध्वजाधारी अमेरिका में अभी तक जिस ओर लोगों का ध्यान उतनी संजीदगी से नहीं गया है, उस सवाल ने आज भारत के व्यापार जगत में जिस प्रकार की एक गहरी बहस का रूप ले लिया है, उससे भारतीय अर्थ-जगत के आगामी स्वरूप के बारे में कुछ अंदाज तो जरूर मिल सकता है। यह सवाल है नेट तटस्थता (Net neutrality) का सवाल।

पिछले दिनों यहां रिलायंस की इंटरनेट कंपनी रिलायंस कम्युनिकेशन ने 38 कंपनियों के साथ ऐसे समझौते किये थे जिनसे उन कंपनियों के एप्स का प्रयोग करने पर इंटरनेट ग्राहकों को कोई कीमत अदा नहीं करनी पड़ेगी। इस खर्च को विक्रेता कंपनियां खुद उठायेगी।

इसके साथ ही इंटरनेट कंपनियों में चुनिंदा कंपनियों से ऐसे समझौतों की एक होड़ सी मच गयी। एयर टेल की इंटरनेट कंपनी ने बाकायदा एक नया साइट ही शुरू कर दिया - एयरटेल जीरो। एयरटेल जीरो के साथ नेट-विपणन की अभी सबसे तेजी से बढ़ रही कंपनी फ्लिपकार्ट ने समझौता किया। इस समझौते के साथ ही इस पूरे मामले की जानकारी रखने वाले तबकों में एक तूफान सा खड़ा होगया। यह सवाल उठाया जाने लगा कि इस प्रकार तो इंटरनेट पर बड़ी पूंजी की पूर्ण इजारेदारी कायम होजायेगी और बेहतर उत्पादों के निर्माता होने पर भी सिर्फ पूंजी के अभाव के चलते उन्हें अपने विस्तार के लिये इंटरनेट के प्रयोग की समान सुविधा नहीं मिल पायेगी।

दूसरी ओर, एयरटेल जीरो के साथ फ्लिपकार्ट के समझौते का एक तात्कालिक परिणाम यह हुआ कि अन्य इंटरनेट साइट पर से लोगों ने भारी संख्या में फ्लिपकार्ट के एप्स को उतारना शुरू कर दिया। इसके चलते फ्लिपकार्ट को एयरटेल की मुफ्त सुविधा से होने वाले लाभ की जगह नुकसान कहीं ज्यादा होने लगा।
फ्लिपकार्ट के जो मालिक शुरू में एयरटेल जीरो के साथ अपने समझौते की जोरदार पैरवी कर रहे थे, अचानक ही उन्होंने पैंतरा बदल कर इंटरनेट तटस्थता के पक्ष में एक सैद्धांतिक रुख अपना लिया और एयरटेल जीरो से हुए समझौते से पीछे हट गयें। और इसके साथ ही, ‘नेट तटस्थता’ का मुद्दा अखबारों और टेलिविजन चैनलों में एक बहस का मुद्दा बन गया। इंटरनेट जनतंत्र की तरह के कुछ बुनियादी सवाल उठने लगे। केंद्रीय सूचना मंत्री तक ने बयान दे दिया कि वे इंटरनेट तटस्थता के पक्ष में हैं। टेलिकॉम रेगुलेटरी प्राधिकरण ट्राइ के सामने भी यह मसला जा चुका है और इस बारे में वह शीघ्र ही अपनी नीतियों को साफ करने का आश्वासन दे रहा है।

इस पूरे प्रसंग में आज जो सवाल दाव पर है, वह यह कि इंटरनेट प्रणाली अर्थ-जगत में पूर्ण इजारेदारी को कायम करने का माध्यम बनेगी या सबके लिये विकास का समान अवसर प्रदान करेगी ?

यह जाहिर है कि भारतीय अर्थजगत का भावी स्वरूप गुड़गांव आदि की तरह के उभर रहे आईटी केंद्रित शहरों में सक्रिय हजारों नयी स्टार्ट अप की गतिविधियों में निहित हैं। नई तकनीक और इंटरनेट के बल पर आर्थिक जगत के पूरे ताने-बाने का कायांतर होना तय है। अब सवाल यही रह जाता है कि इस नयी आर्थिक संरचना में सिर्फ बड़ी पूंजी के लिये ही जगह रहेगी या छोटी-छोटी पूंजी के प्रतिभाशाली उद्यमी भी इसमें जिंदा रह पायेंगे। इंटरनेट वह बुनियादी क्षेत्र है जिसमें प्रवेश करके ही इस कथित नयी आर्थिक-संरचना का रूप बदलना हैं। अगर इसमें प्रवेश के पहले दरवाजे पर ही इसप्रकार का भेद-भाव किया जाने लगे कि जिससे बड़ी पूंजी के बल पर ही आगे बढ़ा जा सकता है तो यह क्षेत्र अर्थ-व्यवस्था में किसी प्रकार के खुलेपन या प्रतिद्वंद्विता में मददगार बनने के बजाय शुरू में ही इजारेदाराना पूंजी के पूर्ण अधिकार को कायम करने के औजार के रूप में काम करने लगेगा। यह निश्चित तौर पर उन हजारों प्रतिभाशाली नौजवानों को हतोत्साहित करेगा जो दिन-रात परिश्रम करके सारी दुनिया में इस क्षेत्र के विकास में भी आज भारी योगदान कर रहे हैं।

हमारी नजर में अब समय आगया है जब राष्ट्र और मानवता के हित में यह जरूरी है कि इंटरनेट की तरह की सेवाओं का राष्ट्रीयकरण करके इसे मुनाफाखोरों के चंगुल से पूरी तरह मुक्त किया जाए और इसका प्रयोग करने वालों के साथ किसी भी प्रकार का भेद-भाव बरतने की संभावना ही न छोड़ी जाए। तभी अर्थ-जगत के मानवीय कायांतर में इस महत्वपूर्ण सेवा का कारगर ढंग से इस्तेमाल हो सकता है।



मंगलवार, 14 अप्रैल 2015

अग्निबीज डिरोजियो





सरला माहेश्वरी


(‘‘बुद्धिमानों की मंत्रणा ने नहीं बल्कि विक्षिप्त लोगों के ‘पागलपन‘ ने मनुष्य के चिंतन और कर्म में, उसके अंदर और बाहर, उसके दर्शन और साहित्य में युग-युग में नये ढ़ग से सृष्टि की है।‘‘ -रवीन्द्रनाथ)
                 
आज हम जिन डिरोजियो के 200 वर्ष पूर्ति पर उनका स्मरण करते हुए बंग समाज के सांस्कृतिक विकास में उनके अभूतपूर्व योगदान के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त कर रहे हैं, वे डिरोजिये जब सिर्फ 22 वर्ष के ही थे तभी काल के निष्ठुर हाथों ने उन्हें इस संसार से उठा लिया था। मात्र 22 वर्ष की उम्र का एक नौजवान कोई प्रकांड पंडित नहीं हो सकता था। उनके आवेग, स्वतंत्र चिंतन और न्याय-अन्याय के तीव्र बोध ने ही उन्हें साधारण जन में एक अतिविशिष्ट जन बना दिया था। वे असाधारण थे क्योंकि उन्होंने गुलामी के उन दुर्दिनों में पूरी तरह से मुक्त और स्वतंत्र मनुष्य का घ्वज फहराया था। उन्होंने हर दबे कुचले इंसान को, समाज के हर पीडि़त तबके को उठ खड़े होने और मनुष्य की गरिमा के साथ जिंदा रहने की शिक्षा देने की कोशिश की थी। और उनकी इन प्रबल, जबरदस्त कोशिशों ने भारत में आकर बसे एक पोर्तुगीज परिवार के वशंधर को भारत के एक पक्के देशभक्त कवि और भारत की जनता के सच्चे दोस्त और भविष्यदृष्टा शिक्षक बना दिया। सचमुच वे एक स्फुर्लिंग की तरह आए और पांच-सात वर्षों के अपने तूफानी क्रिया-कलापों तथा उत्कट विद्रोही विचारों की छटा दिखाकर लुप्त हो गये, लेकिन उनकी चमक बंगाल के सांस्कृतिक आकाश पर जैसे एक अमर सितारे की तरह हमेशा के लिए अंकित हो गयी। सिर्फ 22 वर्ष की उम्र में चला गया नौजवान आश्चर्यजनक रूप में आज भी एक असाधारण शिक्षक और महान विद्रोही पथप्रदर्शक के रूप में याद किया जाता है।

18 अप्रैल 1809 के दिन कोलकाता की एक तत्कालीन व्यापारिक कंपनी जे.स्काट कंपनी के एक बड़े अधिकारी के घर में जन्मे हेनरी लुईस विवियन डिरोजियो का मूल पुर्तगाली नाम डिरोजारियो था। उनके पिता एक युरेशियाई थे और मां अंग्रेज थीं। पिता युरेशियाई इसलिये कहे जाते थे क्योंकि उनकी मां भारतीय और पिता पुर्तगाली थे।

डिरोजियो के व्यक्तित्व के निर्माण में जिस व्यक्ति की सबसे अधिक चर्चा की जाती है वे थे उनके शिक्षक डेविड ड्रमंड। सिर्फ पांच वर्ष की उम्र में डिरोजियो को डेविड ड्रमंड के स्कूल, धर्मतल्ला एकेडमी ऑफ डेविड ड्रमंड में भर्ती कर दिया गया था। इसी स्कूल में उन्होंने 1815-1823 तक शिक्षा प्राप्त की। ड्रमंड इसके सिर्फ दो वर्ष पहले सन् 1813 में स्कॉटलैंड से बंगाल आये थे। ड्रमंड वास्तव में एक भिन्न प्रकृति के इंसान थे। पश्चिमी स्वातंत्र्य चेतना और प्रगतिशील चेतना उनके व्यक्तित्व से अभिन्न रूप से जुड़ी हुई थी। शिवनाथ शास्त्री ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘रामतनु लाहिड़ी ओ तत्कालीन बंगसमाज’ में उनके बारे में लिखा है कि जिस स्वतंत्र चिंतन के प्रभाव से फ्रांसीसी क्रांति का उदय हुआ, वही स्वतंत्र चिंतन उनके अंतर में पूरी तरह से काम कर रहा था। उन्होंने ही इस बात का भी उल्लेख किया है कि अपने निकट के लोगों के साथ धर्म के विषय को लेकर मतभेद होने की वजह से ही वे हमेशा के लिये अपनी जन्मभूमि को छोड़ कर  इस देश में आगये। भारत वे अपना भविष्य बनाने अर्थात धनोपार्जन के लिये ही आये थे, लेकिन चंद दिनों के अंदर ही उन्होंने अपने कुछ मित्रों की मदद से कोलकाता के धर्मतल्ला इलाके में धर्मतल्ला एकेडमी नाम से एक विद्यालय की स्थापना की।

ड्रमंड मनमौजी इंसान थे। उनका यह मानना था कि सामाजिक अनुशासन को बनाये रखते हुए, मनुष्य की रुचियों को बिना विकृत किये अपनी तृप्ति और अपने विकास के लिये हर व्यक्ति को अपनी मन मर्जी के अनुसार जीने का हक होना चाहिये। यदि इस दुनिया में ईश्वर कहीं है तो वे लोग उसकी खोज करें जिनके पास उसे खोजने के लिये बेइंतिहा समय है, लेकिन उनके अनुसार, इस संसार में मनुष्य ही ईश्वर है, मनुष्य ही खुद सर्वव्यापी प्रभु है और ईश्वर चिंता का ही दूसरा नाम मानव चिंता है। मनुष्य से बड़ा इस धरती पर दूसरा कोई सत्य नहीं है। इसप्रकार के विचारों के हामी डेविड ड्रमंड अपने छात्रों को कैसी शिक्षा देते होंगे इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। तत्कालीन भारत के अंग्रेज समाज में भी ड्रमंड एक विवादास्पद व्यक्ति थे। वे कहते थे कि उनके स्कूल में बच्चों को पढ़ाने से बच्चे नास्तिक हो जायेंगे। विनय घोष ने अपनी पुस्तक ‘विद्रोही डिरोजियो’ में ड्रमंड के बारे में लिखते हुए बताया है कि ‘अखबारों की स्वतंत्रता‘ के बारे में उनकी एक कविता उन दिनों भारी चर्चा का विषय बनी थी।

19 वीं सदी के तत्कालीन कोलकाता के समाज में ड्रमंड की तरह के अनूठे शिक्षक की स्मृतियों के और तो कोई अवशेष नहीं मिलते लेकिन कोलकाता के सर्कुलर रोड पर स्थित कब्रिस्तान में उनकी एक समाधी आज भी कायम है जिसके समाधिफलक पर जो पहली पंक्ति लिखी हुई है वह है-

Beneath lie the mortal remains of
David Drummond, a native of Scotland
and for many years a successful teacher of youth
in this city, he departed this life on the
28th April 1843, aged 56 years

The monument was erected to the memory
of the deceased by a few of his friends and
pupils who respected his character admired
his talents and esteemed his worth.

‘नौजवानों का एक सफल शिक्षक’  (a successful teacher of youth)-इसका सबसे ज्वलंत प्रमाण था उनका छात्र, हेनरी लुईस विवियन डिरोजियो। इस स्कॉटिश स्वतंत्रचेता विद्वान शिक्षक का सम्पूर्ण व्यक्तित्व ही डिरोजियो में जैसे समंजित होकर एक नये आवेग और ऊर्जा के साथ अवतरित हुआ था। और खुद डिरोजियो ने अपने विद्यार्थी जीवन के बाद जब कर्म जीवन में अपने कदम रखे तो 17 वर्ष की उम्र में ही तत्कालीन हिंदू कॉलेज में एक शिक्षक के रूप में उनकी नियुक्ति हुई और 1826 से लेकर 1831 तक का सिर्फ 6 वर्षों का उनका जीवन काल ही कुछ इतना विस्मयकारी, रुढि़बद्ध समाज के लिए इतना चुनौतीभरा और गुलाम मस्तिष्कों को मुक्ति के लिये झकझोर देने वाला ऐसा उत्तेजक काल रहा है कि जिसकी स्मृतियों से समूचा बंग समाज आज तक उद्वेलित और प्रेरित होता है।

डिरोजियो के वक्त का कोलकाता सामंतों और व्यापारियों का एक उदीयमान शहर था। अंग्रेजों ने ग्रीक दास प्रथा की तरह कोलकाता को भी दासों की एक मंडी बना रखा था। विलियम जोन्स ने यहां के गुलामों की दुर्दशा देखकर लिखा था-‘‘यहां के गुलामों की दुरावस्था की जो बात मैं जानता हूं वो इतनी मार्मिक है कि उसे बताने में भी संकोच होता है। हर दिन मेरे कानों तक गुलामों पर निष्ठुर जुल्मों की जो कहानी पहुंचती है, उन्हें सुनना भी मुझे महापाप की तरह लगता है। इस काफी आबादी वाले शहर कोलकाता में ऐसे पुरुष या स्त्रियां बहुत कम ही हैं जिनके घर में कम से कम एक बेटा या बेटी गुलाम न हो।‘‘
कोलकाता से प्रकाशित होने वाले तत्कालीन ‘कलकत्ता गजट‘, ‘समाचार दर्पण‘ की तरह के अखबारों में इस शहर के गुलामों के बारे में कई तरह की खबरें प्रकाशित होती रहती थी। और इसी शहर में डिरोजियो ने अपने गुरू से स्वतंत्रता और मुक्त मन तथा आजाद मस्तिष्क की शिक्षा ली थी। कोलकाता में सर्वत्र दिखाई देने वाली गुलामी की प्रथा ने उस नौजवान हृदय को बुरी तरह झकझोरा था और सिर्फ 18 वर्ष की उम्र में ही कैम्पबैल की इस प्रसिद्ध पंक्ति-
And as the slave departs, the man returns के हवाले के साथ उन्होंने जो कविता लिखी, वह इसप्रकार थी:

How felt he when he first was told
A slave he ceased to be;
How proudly beat his heart, when first
He knew that he was free!
...
Oh freedom! there is something dear
e’en in the very name
...
success attend the patriot sword,
That is unsheathed for thee!
...
Blest be the generous hand that breaks
The chain a tyrant gave
And feeling for degraded man
Gives freedom to the slave.

गुलाम को जब पता चला कि वह दासता के दंड से मुक्त हो गया है तो उसको कैसा महसूस हुआ होगा, कैसे गर्व से उसका हृदय धड़कने लगा होगा जब उसे पहली बार पता चला होगा कि वह मुक्त हो गया है...‘स्वतंत्रता‘ नाम की ऐसी महत्ता है कि जो भी देशभक्त इस पवित्र नाम का संकल्प लेकर तलवार उठाता है वह कभी पराजित नहीं होता। जिस हृदय से रक्त झरता है, वही हृदय आत्मोत्सर्ग के गर्व से भर उठता है, जो हाथ अत्याचारियों की बेडि़यों को काटकर पराधीन, लांछित मनुष्य को आत्मसम्मान प्रदान कर सकता है, वह हाथ धन्य है।

डिरोजियो की इस कविता का शीर्षक था, ‘गुलाम की मुक्ति‘। 19 वीं सदी का तत्कालीन कोलकाता का बंग समाज किस प्रकार सामंती पतनशीलता और पोंगापंथी विचारों की गिरफ्त में पूरी तरह फंसा हुआ था, इसका विवरण 18वीं और 19वीं सदी के बंगाल के इतिहास में सर्वत्र मिलता है। शिवनाथ शास्त्री के शब्दों में तब झूठ, प्रवंचना, घूस, धोखा, फरेब आदि के जरिये रुपये इके करके धनी बनने में शर्म की कोई बात नहीं थी। उल्टे निकट के पांच जन इके होने पर इसीप्रकार के लोगों की चतुराई और बुद्धिमानी की तारीफ हुआ करती थी। धनी लोग अपने माता-पिता के श्राद्ध पर, बेटे-बेटियों की शादी में, पूजा त्यौहारों में भारी धन खर्च करके आपस में प्रतियोगिता किया करते थे। ...धनी गृहस्थ खुले आम वैश्याओं के साथ मौज-मस्ती में कोई शर्म नहीं करते थे। तब उत्तर पश्चिम तथा मध्य भारत से गायिकाओं और नर्तकियों के दल शहर में आते थे, जिन्हें बाईजी के संभ्रांत संबोधन से संबोधित किया जाता था। ...किस रईस ने किस प्रसिद्ध बाईजी पर कितने हजार रुपये बहाये, शहर के भद्रजनों की महफिलों में ऐसी खबरें काफी चला करती थी और इसमें कोई किसी प्रकार की बुराई नहीं देखता था।

यह खास प्रकार के बाबुओं का जमाना था जिनके बारे में शिवनाथ शास्त्री लिखते हैं: ये बाबू दिन में सोते, पतंग उड़ाते, बुलबुल की लड़ाई देखते, सितार इसराज बीन आदि बजा कर, कविताएं, हाफ आखड़ाई (संगीत की छोटी महफिल), पांचाली (गीत प्रतियोगिता) आदि को सुन कर, रात को वारांगनाओं के घर घर में गीत संगीत सुन कर तथा मौज मस्ती करके समय बीताते थे। इसीप्रकार शास्त्रीजी ने गांजे के ओं और धार्मिक कर्मकांडों की भरमार का भी विस्तार से चित्र खींचा है।

ऐसे समय में सन् 1809 में जब डिरोजियो का जन्म हुआ था, राममोहन राय तब तक कोलकाता शहर में रहने के लिये नहीं आये थे। डिरोजियो जब ड्रमंड के धर्मतल्ला एकेडमी में भर्ती हुए उसी समय सन् 1814 के मध्य में राममोहन राय ने कोलकाता में रहना शुरू किया। एक ओर डिरोजियो की शि़क्षा का क्रम चल रहा था और दूसरी ओर बंग समाज में नये युग के आदर्श और मूल्यों के प्रणेता के रूप में राममोहन उभर कर सामने आ रहे थे और इससे वस्तुत: पूरा हिंदू समाज कांप रहा था। राममोहन की ‘आत्मीय सभा‘ की स्थापना हो चुकी थी। डिरोजियो जब सिर्फ 9 वर्ष के विद्यार्थी थे उसी समय सती प्रथा विरोधी राममोहन के लेख प्रकाशित होने लगे थे। और इसप्रकार जब डिरोजियो ड्रमंड स्कूल से एक स्वतंत्रचेता मनुष्य के रूप में निकलकर आये, उस समय तक राममोहन राय तथा बांग्ला नवजागरण के अन्य अग्रदूतों ने वह जमीन बनानी शुरू कर दी थी जिस जमीन पर डिरोजियो की तरह के परम विद्रोही मस्तिष्क के लिए भी पांव रखने की थोड़ी सी जगह हो सकती थी।

डिरोजियो ने 1823 में अपनी शिक्षा पूरी की और उसके बाद कुछ दिनों तक उन्होंने उसी वाणिज्यिक कंपनी में क्लर्क की नौकरी की जहां उनके पिता काम करते थे। एक क्लर्क का सीमित जीवन डिरोजियो को कत्तई रास नहीं आ सकता था। और सिर्फ दो वर्ष की नौकरी के बाद ही नौकरी से पल्ला झाड़कर वे भागलपुर में घूमने के लिये अपनी मौसी के घर चले गये। गंगा नदी के तटों पर भागलपुर, डालटनगंज की गिरि श्रंखलाओं के प्राकृतिक सौंदर्य ने डिरोजियो के युवा मन को एक कवि मन में रूपांतरित कर दिया। उसी दौरान, प्राकृतिक सौंदर्य की अन्य कविताओं के साथ ही कवि डिरोजियो ने ‘द फकीर ऑफ जंगीरा‘ की तरह की ऐसी अमर रचनाओं का सृजन किया जिसे भारत में लिखे गये अंग्रेजी साहित्य में सदा आदर के साथ रखा जायेगा।

डिरोजियो के शैक्षणिक जीवन काल में ही कोलकाता में 20 जनवरी 1817 के दिन हिंदू कॉलेज की स्थापना हुई थी। भारत में अंग्रेजी शिक्षा का यह पहला सरकारी प्रतिष्ठान था जिसका उद्धेश्य भारत के युवको को यूरोपीयन विज्ञान, साहित्य और पश्चिमी विचारों से परिचित करवाना था। हिंदू कालेज की स्थापना में नेतृत्वकारी भूमिका सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सर हाइड ईस्ट और डेविड हेयर ने अदा की थी। लेकिन इसे खास तौर पर राममोहन राय का सहयोग प्राप्त था। हांलाकि शिवनाथ शास्त्री के ब्यौरे के अनुसार राममोहन राय और डेविड हेयर ने मूलत: इस प्रकार के कालेज की स्थापना की योजना बनायी थी और राममोहन के ‘आत्मीय सभा’ के एक सदस्य बैद्यनाथ मुखर्जी ने इस योजना की खबर सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश सर हाइड ईस्ट को दी। हाइड ने इस योजना का हार्दिक स्वागत किया हाइड के घर पर हुई एक सभा में हाइड और हेयर ने ऐसे कालेज की स्थापना का प्रस्ताव तत्कालीन हिंदू समाज के प्रमुख लोगों के सामने रखा। इस प्रस्ताव का सबने काफी उत्साह के साथ स्वागत किया। लेकिन शिवनाथ शास्त्री ने ही बताया है कि जब करपंथी हिंदू नेताओं को इस बात का पता चला कि अंग्रेजों की इस पहलकदमी के पीछे राममोहन राय का भी हाथ है तो वे यकबयक बिदक गये और उन्होंने यह शर्त रखी कि जब तक राममोहन राय को इस कॉलेज की स्थापना के लिये बनाई गयी समिति से हटाया नहीं जाता, तब तक वे खुद इस समिति का समर्थन नहीं करेंगें। प्यारेचंद मित्र ने डेविड हेयर की जीवनी में इस घटना का जिक्र इस प्रकार किया है : ‘‘प्रस्तावित कालेज के साथ अपना संबंध तोड़ने के लिये राममोहन को मनाने में कोई कठिनाई नहीं थी, क्योंकि वे समिति के सदस्य के रूप में अपने नाम के खोखले दिखावे की अपेक्षा अपने देशवासियों की शिक्षा को अधिक मूल्यवान समझते थे। ‘‘

इस पूरे प्रसंग को यहां उठाने का तात्पर्य यह बताना है कि जब डिरोजियो ने अपने कर्म जीवन में प्रवेश किया और सन् 1826 में इसी हिंदू कॉलेज में जब एक शिक्षक के रूप में उनकी नियुक्ति हुई, उस समय के बंग बौद्धिक समाज में पहले से ही किसप्रकार की उत्तेजना फैली हुई थी और विचारों की टकराहट से पैदा होने वाला सामाजिक आलोड़न साफ दिखाई दे रहा था। कट्टरपंथियों और उदारपंथियों के बीच की तकरारों ने उस समय के बौद्धिक जगत को पूरी तरह से उद्वेलित कर रखा था और कहना न होगा कि नये और पुराने विचारों, नयी और पुरानी संस्थाओं के बीच टकरावों और तकरारों का परिवेश ही वस्तुत: वह परिवेश होता है जिसे किसी भी समाज के लिये नवजागरण का काल कहा जा सकता है। डिरोजियो को भी नवजागरणकालीन इस व्यापक आंदोलन की उत्पत्ति कहा जा सकता है। डिरोजियो अपने जिन विद्रोही विचारों के लिए विख्यात हुए उन विचारों के लिए तत्कालीन समाज में पहले ही बारूद बिछ चुकी थी, सिर्फ एक चिंगारी की जरूरत थी। और कहना न होगा कि डिरोजियो ने उसी चिंगारी की भूमिका अदा की थी।
हिंदू कॉलेज, जिसे एंग्लो-इंडियन कॉलेज, महापाठशाला, नैटिव हिंदू कॉलेज और विद्यालय आदि कई नामों से जाना जाता था, के उद्धेश्यों के बारे में तत्कालीन शिक्षा निरीक्षक विल्सन ने कहा था कि ‘‘यह कॉलजे वह प्रमुख स्रोत होगा जिसके जरिये यूरोपीय स्रोतों से प्राप्त होने वाले सच्चे ज्ञान को हिंदुस्तान के बौद्धिक जीवन में रूपांतरित किया जा सकेगा।‘‘ नौजवान शिक्षक डिरोजियो की सारी गतिविधयां हिंदू कॉलेज के इस घोषित उद्धेश्य के साथ मेल खाती थी। लेकिन मजे की बात यह है कि इसी नौजवान शिक्षक ने जब नवजागरण के सच्चे आदर्शों, स्वतंत्रता, हर विषय पर सवाल उठा कर संशय व्यक्त करने की प्रश्न चेतना और रुढि़बद्ध स्थापित विचारों को चुनौती देने के नवजागरणकालीन मूल्यों को यथार्थ में प्रतिष्ठित करना शुरू किया तो हिंदू कॉलेज के तमाम अधिकारीगण को डिरोजिये की गतिविधियां नागवार गुजरी। डिरोजियो ने शिक्षा के स्तर को जितना ऊंचा बनाये रखा था, इसका पता तो विल्सन की रिपोर्ट से ही लग जाता है। विल्सन ने सन् 1828 की अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि कॉलेज के सीनियर छात्रों की अंग्रेजी रचना शक्ति को देखकर वे आश्चर्यचकित हो गये थे। कॉलेज के अव्वल दर्जे के छात्रों में पोप की कविता, मिल्टन के पैराडाइज लोस्ट और शेक्सपीयर के अच्छे-अच्छे नाटकों के बारे में जानकारी के स्तर को देखकर वे चमत्कृत थे। इतिहास, दर्शन, गणित और विज्ञान के विषयों में भी उन्होंने छात्रों को पारंगत पाया था।

सन् 1826 के बाद से ही हिंदू कॉलेज की छात्र संख्या में भी अभूतपूर्व वृद्धि देखी गयी थी। हिंदू कॉलेज में पैसे देकर पढ़ने वालों को पे-स्कॉलर कहा जाता था और बाकी के लोग बिना शुल्क के पढ़ाई किया करते थे। विनय घोष की पुस्तक में उल्लेखित आंकड़ों के अनुसार, 1824 तक इस कॉलेज के छात्रों की कुल संख्या औसतन 100 से अधिक नहीं थी जिनमें पे-स्कॉलर सिर्फ 24 थे। 1825 के बाद धीरे-धीरे पे-स्कॉलरों की संख्या बढ़ने लगी और 1826, 1827 तथा 1828 में इनकी संख्या क्रमश: 223, 300 और 336 हो गयी। सन् 1828 में हिंदू कॉलेज के कुल छा़त्रों की संख्या 436 थी। 1850 तक आते-आते ऐसे पे-स्कॉलरों की संख्या औसतन 450 तक पंहुच गयी थी। गौर करने लायक बात यह है कि 1825 से लेकर 1850-51 तक के इन 25 वर्षों में हिंदू कॉलेज में छात्रों की संख्या में जो लगातार वद्धि हो रही थी उनमें अचानक 1829-30 के दो-तीन वर्षों में कुछ गिरावट भी देखी गयी। इन दो-तीन वर्षों में छात्रों की संख्या में गिरावट के कारणों की व्याख्या करते हुए मि. जे. कर ने लिखा है-‘‘इस गिरावट के पीछे अशत: तो कुछ और स्कूलों की स्थापना काम कर रही थी, अंशत: उस काल की वाणिज्यिक दुरावस्था भी एक कारण थी और आंशिक तौर पर नैटिव्स के बीच पैदा हुआ वह डर भी था कि उनके बच्चों के धर्म में हस्तक्षेप किया जा रहा है और श्रीमान डिरोजियो के प्रभाव के कारण उनके बच्चे अपने पूर्वजों के सम्मानित रीति-रिवाजों के प्रति तेजी से अपनी श्रद्धा को गंवा रहे हैं।

छात्रों पर डिरोजियो का प्रभाव और परम्परागत रीति-रिवाजों के प्रति छात्रों के मन में पैदा हो रही विद्रोही मानसिकता, यह एक ऐसा विषय था जिस पर पोंगापंथी हिंदू अभिभावकों के बीच गहरी शंकाएं पैदा हो गयी थीं। और कहना न होगा कि कोलकाता के व्यापक समाज में तब डिरोजियो के प्रति असंतोष और नफरत की एक आंधी बह रही थी।

हिंदू कॉलेज में एक ओर शिक्षा का बढ़ता हुआ स्तर जिसकी वजह से वहां छात्रों की संख्या लगातार बढ़ रही थी और जिसमें डिरोजियो की प्रमुख भूमिका थी, वहीं दूसरी ओर डिरोजियो के प्रति ही हिंदू समाज में तीव्र आक्रोश का पैदा होना-इस अस्वाभाविक से दिखाई देने वाले घटनाक्रम के मूल में क्या बात थी, यह किसी के लिए भी गहरी दिलचस्पी का विषय हो सकता है। विनय घोष ने अपनी पुस्तक ‘विद्रोही डिरोजियो‘ में इस घटनाक्रम के मूल कारण की व्याख्या करते हुए इसके लिये डिरोजियो के अनोखे और चुम्बकीय व्यक्तित्व को मुख्य रूप से जिम्मेदार ठहराया है। उन्होंने लिखा है कि हिंदू कॉलेज में पंडितों की कमी नहीं थी लेकिन डिरोजियो की तरह का चुम्बकीय व्यक्तित्व, किसी को भी चमत्क्रृत कर देने वाली उसकी प्रतिभा उन सबमें अन्यतम थी।

‘‘जो छात्र उनके करीब आते वे सिर्फ विद्या की बर्फ समान शीतल चट्टान के दबाव को ही सहन नहीं करते थे, प्रतिभा की चिंगारी के ताप का भी अनुभव करते थे। गुरु-शिष्य, छात्र-शिक्षक के बीच तो रहता ही है, मनुष्य और मनुष्य के संबंधों के बीच भी जहां सिर्फ मजबूरियों का दबाव रहता है, हृदय की कोई उष्मा नहीं होती, जहां परस्पर संबंधों में अकृत्रिम कुछ नहीं होता . . . वहीं डिरोजियो के साथ उसके छात्रों के जो आंतरिक संबंध विकसित हुए थे वे अकृत्रिम मानवीय संबंधों की तरह ही बहुत ही अंतरंग थें और इसीलिये बाहर के जनसमाज में वे संबंध आंखों को चौंधिया देने वाली बिजली की चमक के साथ प्रकट हुए थे। खुद डिरोजियो के छात्रों ने अपने शिक्षक के बारे में जो लिखा वे उस अनोखे व्यक्तित्व पर प्रकाश डालने के लिये काफी है। उनका एक छात्र राधानाथ सिकदर लिखता है कि सिर्फ किताबी पांडित्य से ही उनकी शिक्षा समाप्त नहीं हो गयी थी, मनुष्य के जीवन में सबसे अधिक महत्वपूर्ण शिक्षा सत्य के प्रति अटल निष्ठा और अन्याय के प्रति तीव्र घृणा और इसे उन्होंने अपने नौजवान शिक्षक डिरोजियो से ही हासिल किया था।

डिरोजियो और उनके छात्रों को इतिहास में ‘यंग बंगाल‘ के नाम से जाना जाता है। सन् 1834 में जब डिरोजियो की मृत्यु को तीन वर्ष हो चुके थे, लाल बिहारी दे पढ़ाई के लिये कोलकाता आये थे। इस वक्त तक डिरोजियन युग का हल्ला शांत नहीं हुआ था। गुरू की मृत्यु के बाद ‘यंग बंगाल‘ समूह ने और ज्यादा उत्साह के साथ उनके आदर्शों का प्रचार-प्रसार शुरू कर दिया था। लाल बिहारी दे खुद एक प्रतिभाशाली छात्र थे और कोलकाता में कदम रखने के साथ ही उनका परिचय यहां के इस नये वातावरण के साथ हुआ था। डिरोजियो के छात्रों से उन्होंने डिरोजियो के बारे में कई कहानियां सुनी थीं। बाद में इसके बारे में लिखते हुए लाल बिहारी दे ने लिखा है :

‘‘हिंदू कॉलेज के तरुण छात्र बेकन, लॉक, बर्कले, ह्यूम, रीड, स्टीवर्ट आदि पश्चिमी दार्शनिकों के श्रेष्ठ साहित्य से परिचित हुए। इस परिचय से उनके गतानुगतिक सोच में एक क्रांतिकारी आलोड़न का सूत्रपात हुआ। प्रत्येक विषय के संदर्भ में उन्होंने प्रश्न उठाना तथा तर्क करना शुरू कर दिया। इसके चलते उनमें अनेक प्रचलित जड़ धारणाओं की जड़ें हिल गयी, युगों पुराने उनके आस्था के स्तम्भ हिलने लगे। इस नयी शिक्षा के अप्रतिद्वंद्वी शिक्षक थे, डिरोजियो। हिंदू कॉलेज में वे छात्रों की जो क्लास करते उसकी आबोहवा ही सबसे अलग थी। उनके पढ़ाने का ढ़ंग एकदम स्वतंत्र था। छात्रों को उनकी कक्षा में शिक्षा का जो नया आस्वादन मिलता, वह और कहीं विशेष मिलता नहीं था। डिरोजियो का प्रधान लक्ष्य था, छात्रों के अंदर ज्ञानेच्छा जागृत करना। हो सकता है यह छोटे विषय के साथ बड़े की तुलना हों, लेकिन ऐसा होने पर भी डिरोजियो क्लब के साथ एकमात्र प्लेटो और अरस्तू के ‘एकेडमी‘ की तुलना की जा सकती है। क्लास रूम के बंद परिवेश में स्वाभाविक रूप में ही विषय वस्तु पर आलोचना की स्वतंत्रता और गंभीरता रखना कठिन होता। डिरोजियो ने इसीलिये कॉलेज के बाहर अपने घर के बैठकखाने में छात्रों को बुलाना शुरू कर दिया। वहां के मुक्त परिवेश में विचार-विमर्श बहुत अच्छी तरह जम जाता, शिक्षक और उनके छात्र सभी को मन खोलकर अबाध रूप में बातचीत का मौका मिलता। कुछ ही दिनों में बैठकखाने का परिवेश भी बातचीत के लिये पूरी तरह उपयुक्त नहीं लगा। तब उन्होंने छात्रों को लेकर बाहर एक अघ्ययन चक्र और वाद-विवाद सभा गठित की।‘‘

डिरोजियो की शिक्षा पद्धति क्या थी, उनके छात्रों ने उनसे क्या गृहण किया, उनके छात्र सिर्फ शिक्षित ही नहीं बल्कि समाज के चरित्रवान, शक्तिशाली लोग थे, उन्होंने प्रश्न उठाना सीखा था। इन सबका एक परिचय लाल बिहारी दे के उपरोक्त कथन से मिलता है।

जाहिर है कि इसप्रकार के एक पूरी तरह से स्वतंत्र और मुक्त मस्तिष्क के लोगों के लिये कॉलेज के क्लास रूम बहुत ही संकुचित प्रतीत होने लगे। इन गुरू और शिष्यों की गोष्ठियां अब कॉलेज से निकल कर पहले डिरोजियो के घर में और फिर उनके एक छात्र, कृष्ण बिहारी सिंह की मानिकतल्ला स्थित बगानबाड़ी में होने लगी। इन गोष्ठियों का नामकरण किया गया, ‘एकेडेमिक एसोसियेशन‘। नौजवान छात्रों की इन विचार-गोष्ठियों की चर्चा तब पूरे समाज में होने लगी थी। लाल बिहारी दे ने लिखा है कि अकादमीशियनों की इस वाटिका में हफ्ते-दर-हफ्ते होने वाले वाद-विवाद में नौजवान कोलकाता उस वक्त के सामाजिक, नैतिक और धार्मिक विषयों को उठाया करता था। इन बहसों की मुख्य धार स्थापित धार्मिक संस्थाओं के विरुद्ध सुचिंतित विद्रोह पर केंद्रित होती थी। शिक्षा क्षेत्र के ये नौजवान सिंह (यंग लॉयंस ऑॅफ बंगाल) हर हफ्ते हिंदू धर्म का नाश हो, पोंगापंथ का नाश हो, के नारों के साथ दहाड़ा करते थे।

बंगाल के इन नौजवानों ने अपने वक्त के धार्मिक पिछड़ेपन, नैतिक मिथ्याचार और घिनौनेपन के खिलाफ, कुप्रथाओं और कुसंस्कारों के विरुद्ध, विवेकहीन शास्त्र-वचनों के खिलाफ, जात-पांत और मूर्ति-पूजा के विरुद्ध, राष्ट्रीय आर्थिक और मानसिक जड़ता के खिलाफ और यहां तक कि ईश्वर के अस्तित्व के विरुद्ध भी इन गोष्ठियों में जो गर्जन-तर्जन हुआ करता था, उसकी ध्वनि-प्रतिघ्वनि समाज के विभिन्न स्तरों में सुनाई देने लगी थी। पारम्परिक समाज में इन चुनौतियों के सम्मुख एक प्रकार का आतंक पैदा हो गया था। डिरोजियंस की गोष्ठियों में तब कौन नहीं आता था। इनमें आने वालों में डेविड हेयर भी शामिल थे, विलियम बैंटिक के निजी सचिव भी आते थे, बिशप कॉलेज के अध्यक्ष, कोलकाता के सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश, कितने ही अखबारों के संपादक और शिक्षा प्रेमी लोग यहां इकट्ठा हुआ करते थे और यहां से नौजवानों की गरमा-गरम बातों से खुद के अंदर तारुण्य की स्फूर्ति भरकर जाया करते थे। विभिन्न सूत्रों से इन गोष्ठियों का जो विवरण मिलता है उनसे पता चलता है कि ये गोष्ठियां पूरी तरह से अनुशासित और इतने विद्वतापूर्ण वातावरण में आयोजित की जाती थी कि जिनमें गंभीर से गंभीर बहस के बावजूद कभी किसी को निजी स्तर पर कोई ठेस नहीं पंहुचाई जाती थी। ये सत्य के संधान की गोष्ठियां थीं। बहस में कोई भी पक्ष और विपक्ष नहीं होता था। एसोसियेशन के सदस्यों के अलावा श्रोताओं को भी बहस में शामिल होने के लिये आमंत्रित किया जाता था। और, जैसा कि एक प्रत्यक्षदर्शी एलेक्जेंडर डफ के दिये गये विवरण से पता चलता है-‘‘इन बहसों में शामिल होकर कोई भी अपने को धन्य समझता था।‘‘ बहस का स्तर इतना ऊंचा होता था कि किसी को भी यह नौजवानों की गोष्ठी प्रतीत नहीं होती थी और इसलिये तत्कालीन समाज का हर उम्र, ओहदे और प्रकांड पंडित समझा जाने वाला व्यक्ति भी इन गोष्ठियों में उत्साह के साथ शामिल हुआ करता था। वक्तागण अपने वक्तव्यों के दौरान अनायास ही अंग्रेजी साहित्य की लम्बी उद्धृतियां दिया करते थे। ऐतिहासिक, राजनीतिक, आध्यात्मिक, धार्मिक और वैज्ञानिक सभी विषयों पर बहसें हुआ करती थी।। विनय घोष ने ऐसे कुछ विषयों को गिनाते हुए लिखा है कि ऐतिहासिक विषय होता तो रॉबर्टसन और गिबन की, राजनीतिक विषय होता तो एडम स्मिथ और जेरेम बेंथम की, वैज्ञानिक विषय होता तो न्यूटन और डेवी की, धार्मिक विषय होता तो ह्यूम और टामस पेइन, आध्यात्मिक विषय होता तो लॉक, रीड और स्टीवर्ट और ब्राउन की तरह के मनीषियों की रचनाओं का इन नौजवान सदस्यों द्वारा अपने पक्ष में बखूबी इस्तेमाल किया जाता था। उनके भाषण उस वक्त के प्रसिद्ध अंग्रेज कवियों, बायरन, वाल्टर स्काट की तरह के प्रमुख रचनाकारों की पंक्तियों से सुसज्जित हुआ करते थे। यहां एक अद्भुत सम्मोहक वातावरण हुआ करता था जिसमें पांडित्य और वाग्मिता का अपूर्व मिश्रण दिखाई देता था। ईश्वर के अस्तित्व, जाति प्रथा की अच्छाई और बुराई, मूर्ति-पूजा का पक्ष और विपक्ष, अंधविश्वास बड़ा है न कि तर्क और विवेक, अबाध व्यक्ति स्वातं़़त्र्य या बाधित, समष्टि-प्रभुत्व के बीच क्या काम्य है क्या वर्जनीय - ये सारे विषय बिल्कुल शास्त्रीय स्तर के वाद-विवाद में तारुण्य के आवेग के साथ उठा करते थे।


डिरोजियो युरेशियाई थे, लेकिन वे भारत की एक सच्ची संतान थे। भारत को ही वे अपना देश मानते थे। उनकी ‘जंगीरा का फकीर‘ कविता की चर्चा हम पहले ही कर चुके हैं, इसके अलावा अनेक छोटी-बड़ी कविताओं में उनकी देशभक्ति के स्वर साफ तौर पर सुने जा सकते थे। बंगाल के ये युवा सिंह सिर्फ सामाजिक कूपमंडूकता के विरुद्ध ही नहीं, विदेशी गुलामी के विरुद्ध भी गरजा करते थे।

मानिकतल्ला की इन अकादमिक सभाओं में जब डिरोजियो और उनके छात्र विचारोत्तेजक गोष्ठियां और विद्रोही चिंतन का सिंहनाद किया करते थे, उस समय तक बंगाल के नवजागरण के अग्रदूत राममोहन राय ने समाज में अपना विशिष्ट स्थान बना लिया था। 4 दिसम्बर 1829 के दिन विलियम बैंटिक ने सती प्रथा को प्रतिबंधित घोषित कर दिया था। बैंटिक की इस घोषणा से तत्कालीन पुरातनपंथी समाज में जो भारी हलचल मची थी उसे सभी जानते हैं। धर्म गया, जात गयी, का आतंक फैलाकर सारे धर्मघ्वजाधारी लोग सड़कों पर उतर आये थे। सरकार के पास नाना प्रकार के प्रतिवाद, प्रतिवेदन भेजे जा रहे थे। इसी संरक्षणवादी आंदोलन को चलाने के लिये 17 जनवरी 1830 को ‘धर्मसभा’ की स्थापना की गयी थी। पोंगापंथियों का सारा गुस्सा अब स्वतंत्र चेतना और पश्चिमी विचारों के विरुद्ध केंद्रित हो गया था। सरकार का तो वे बाल भी बांका नहीं कर सके लेकिन उन्होंने अपने गुस्से का निशाना हिंदू कॉलेज के प्रतिभाशाली विद्रोही नवशिक्षित नौजवानों को बनाया। उन्हीं दिनों पादरी अलेक्जेंडर डफ ने राजा राममोहन राय के सहयोग से जनरल एसेम्बली इंस्टीट्यूशन की स्थापना की जिसे भारत में ईसाई शिक्षा की आधारशिला बताया गया था। एलेक्जेंडर डफ ने खासतौर पर ‘यंग बंगाल’ के छात्रों को अपना लक्ष्य बना रखा था। उनकी मान्यता थी कि अगर इन प्रतिभाशाली छात्रों के बीच ईसाई धर्म का बीजारोपण किया जा सका तो उससे हिंदू समाज के कुसंस्कारों और उसकी जड़ता की अभेद्य दीवार को तोड़ना ज्यादा आसान होगा। डफ की गतिविधियों ने हिंदू कॉलेज के अधिकारियों के बीच हड़कंप पैदा कर दिया था। उस ईसाई पादरी के प्रभाव से छात्रों को बचाने के लिये कॉलेज की कमेटी ने एक प्रस्ताव पारित किया कि जिसमें बताया गया कि कॉलेज के छात्रों के अशालीन आचरण से कॉलेज के अघ्यक्ष और अभिभावक अत्यंत क्षुब्ध और विचलित हैं और इसी बिनाह पर धर्म संबंधी किसी भी विचार-गोष्ठी या वक्तव्य में छात्रों की भागीदारी पर उन्होंने रोक लगा दी।

यह समूचा घटनाक्रम कोलकाता के तत्कालीन हिंदू समाज के अभिभावकों की मन:स्थिति को बताने के लिये काफी है। आतंकित अभिभावकों ने अपने बच्चों को कॉलेज से निकालना भी शुरू कर दिया था। औार इसीलिये 1829-32 के बीच हिंदू कॉलेज के छात्रों की संख्या में भी गिरावट आई, जिसका उल्लेख पहले किया जा चुका है।

हिंदू कॉलेज की कमेटी द्वारा छात्रों पर लगाये गये प्रतिबंध को तत्कालीन अंग्रेजी पत्र-पत्रिकाओं ने ‘धृष्टता‘, ‘निरकुंशता‘, ‘मूर्खता,‘ और ‘हास्यास्पद‘ आदि बताया था। जिस ‘इिंडया गेजेट‘ पत्रिका में कमेटी के इस निर्णय के विरुद्ध कड़े शब्दों में संपादकीय लिखा गया था, उसके सहयोगी संपादक डिरोजियो ही थे। संपादकीय की भाषा को देखकर लोगों ने यह कहना शुरू कर दिया था कि यह संपादकीय डिरोजियो का ही लिखा हुआ है। इसमें लिखा गया था-‘‘डेविड हेयर और रसोमय दत्त जैसे व्यक्तियों के नाम एक ऐसे दस्तावेज में देखकर हम दुखी हैं जो दस्तावेज राजनीतिक और धार्मिक मसलों पर निजी निर्णय के अधिकार में नाक घुसेड़ने की धृष्टता, निष्ठुरता और मूर्खता का एक उदाहरण पेश करता है।‘‘

छात्रों पर किसी भी धर्म संबंधी विचार गोष्ठी में शामिल होने पर प्रतिबंध लगाने वाले कमेटी के निर्देश पर इस तीखी टिप्पणी पत्रिका में यह भी लिखा गया कि डफ साहब को अपने भाषण जारी रखने चाहिये।
जाहिर है कि ये तमाम घटनाएं हिंदू कॉलेज में डिरोजियो के विरुद्ध एक नफरत का वातावरण तैयार करने के लिये काफी थी। और चंद दिनों बाद ही इसके परिणाम भी सामने आने लगे।

23 अप्रैल 1831 के दिन हिंदू कॉलेज के गर्वनर चंद्र कुमार ठाकुर, सह सभापति विल्सन, राधाकांत देव, राधामाधव बंद्योपाध्याय, रामकमल सेन, डेविड हेयर, रसोमय दत्त, प्रसन्नकुमार ठाकुर, श्री कृष्ण सिंह और कॉलेज के सचिव लक्ष्मीनारायण मुखोपाध्याय की उपस्थिति में कालेज कमेटी की सभा हुई और इसमें मुख्य रूप से डिरोजियो को ही लक्ष्य बनाकर उनकी विचित्र शिक्षा पद्धति की वजह से नौजवानों के नैतिक पतन के बारे में चिंता जाहिर की गयी। इस सभा के अंत में विचार के लिये जो 14 सूत्री प्रस्ताव पेश किया गया, उसका पहला सूत्र ही था-‘‘चूंकि डिरोजियो सारे अनर्थ की जड़ है तथा आम लोगों में वह आंतक का विषय हो गया है, इसलिये उसे कॉलेज से निकालना उचित है और छात्रों के साथ उसके सीधे सम्पर्कों को तत्काल तोड़ना जरूरी है।‘‘

इसी में एक और प्रस्ताव यह भी था कि ‘‘जो तमाम छात्र हिंदू धर्म विरोधी आचरण करते हैं और इस देश के सामाजिक रीति-रिवाजों को मानकर नहीं चलते, उन्हें भी कॉलेज से बाहर कर देना जरूरी है।‘‘
इसके अलावा छात्रों की भरती के समय उनके स्वभाव और चरित्र के बारे में पूरी तरह खोज-खबर लेने का भी एक प्रस्ताव किया गया था।

एक प्रस्ताव यह भी था कि ‘‘यदि कोई छात्र बाहर की किसी सभा-समिति या भाषण में शामिल होता है तो उसे कॉलेज से निकाल दिया जायेगा।‘‘

इसके अलावा यह भी कहा गया कि ऐसे किसी भी विषय का पठन-पाठन नहीं होगा जिससे छात्रों के नैतिक चरित्र का पतन होता हो। इसके साथ ही फारसी और बांग्ला की पढ़ाई पर अधिक ध्यान देने तथा सीनियर क्लास के छात्रों को संस्कृत पढ़ाने का प्रस्ताव भी रखा गया था।

इस सभा में उपरोक्त प्रस्तावों पर जो बहस हुई उसके मिनिट्स विनय घोष की पुस्तक में दिये गये हैं। सभा में उपस्थित 9 लोगों में 6 ने डिरोजियो के पक्ष में राय दी थी और 3 ने विरोध में मत व्यक्त किया था। विरोध में मत देने वालों में धर्म सभा के नेता, राधाकांत देव प्रमुख थे जिन्होंने कहा कि वे नौजवानों को शिक्षा देने के मामले में डिरोजियो को एक पूरी तरह से अयोग्य शिक्षक मानते हैं। जबकि कमेटी के सह-सभापति विल्सन ने कहा कि डिरोजियो की शिक्षा के कुपरिणामों के कोई प्रमाण कम से कम उन्हें नहीं मिले हैं और वे उसे एक योग्य और शक्तिशाली शिक्षक ही मानते हैं। डेविड हेयर ने भी कहा था कि डिरोजियो की तरह का एक सुयोग्य शिक्षक आज के जमाने में मिलना दुर्लभ है और उनका मानना है कि उसकी सुशिक्षा के कारण छात्र विशेष तौर पर उपकृत हो रहे हैं। रसोमय दत्त और प्रसन्नकुमार ठाकुर ने भी डिरोजियो के खिलाफ किसी भी प्रकार के अभियोग की जानकारी से इंकार किया था। श्री कृष्ण सिंह ने तो साफ शब्दों में कहा कि डिरोजियो के खिलाफ सारे अभियोग आधारहीन हैं, उनकी योग्यता पर किसी तरह का कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता है।

बहरहाल, इस समूची बहस का अंतिम परिणाम यह निकला कि डिरोजियो को उसकी नौकरी से तो हटा दिया जाय लेकिन इसके साथ ही उसकी योग्यता को उचित स्वीकृति भी प्रदान की जाय -
“Resolved that the measure of Mr.Derozio’s removal be carried into effect with due consideration for his merits and services.”

कमेटी की ओर से डिरोजियो को कहा गया कि बेहतर होगा कि वे खुद ही कॉलेज से इस्तीफा दे दें। गौर करने लायक बात यह है कि डिरोजियो ने खुद से इस्तीफा देने के प्रस्ताव को एक सिरे से खारिज कर दिया। कमेटी के अध्यक्ष विल्सन के पत्र का जवाब देते हुए उन्होंने लिखा : ‘‘ महोदय, आपके निर्देश के अनुसार इस पत्र के साथ मैंने त्यागपत्र भेज दिया है। इस पत्र को पढ़ने से जाहिर होगा कि अपनी मर्जी से पद त्याग करने के बारे में आपके प्रस्ताव को मैं पूरी तरह से स्वीकार नहीं पाया हूं। यदि मैं यह मानता कि मेरे अध्यापन के समय में कॉलेज का कोई अनिष्ट हुआ है या इसके बारे में कोई विश्वसनीय प्रमाण भी होता तो मैं बिना कोई प्रतिवाद किये इस्तीफा देने के तर्क को जरूर मान लेता। लेकिन अपने आत्मसम्मान की तिलांजलि देकर किसी सामयिक घटनाक्रम के हमले को स्वीकार करना मैं विवेकसम्मत नहीं मानता हूं। इस बात से मैं कैसे इंकार कर सकता हूं कि आप लोग मुझे इस्तीफा देने के लिये मजबूर कर रहे हैं। इसीलिये बिना किसी विवाद के इस्तीफा देना कत्तई संभव नहीं है। आप एक सम्माननीय व्यक्ति हैं। अपने सम्मान की रक्षा के लिये आपने यह अनुरोध किया है। लेकिन इस सांत्वना से मेरे अपमान की पीड़ा कहां कम हो रही है। प्रवीण और प्रज्ञावान लोग यदि मुझे हटाकर अपमानित करने पर तुले हैं तब मैं भी इस अपमान को सहने की शक्ति रखना वांछनीय नहीं समझता।

“कॉलेज के कुछ हिंदू प्रबंधकों ने मेरे खिलाफ जिस प्रकार का असंयत क्रोध व्यक्त किया है वो आसानी से शांत होता दिखाई नहीं देता। इसीलिये कॉलेज में फिर से शिक्षक के रूप में काम करने की संभावना तो फिलहाल नहीं देख रहा हूं। इसके अलावा कर्म जीवन के प्रवाह में बहते-बहते जिंदगी की नाव कौनसे किनारे जाकर लगेगी, वह तय नहीं है। संभव है कि जीवन में अब आपके सान्निध्य का सुअवसर प्राप्त नहीं होगा। इसलिये आज ऐसा सुअवसर प्रदान करने के लिये आपके प्रति अपनी पूरी कृतज्ञता व्यक्त करता हूं। कॉलेज में काम करने के दौरान आपसे जैसा हार्दिक व्यवहार मिला, उसे जीवन में कभी भी नहीं भूलूंगा। -एच.एल.वी.डिरोजियो ‘‘

विल्सन को लिखे इस पत्र के साथ डिरोजियो ने जो त्यागपत्र भेजा था उसमें उन्होंने साफ शब्दों में लिखा था-प्रबंध कमेटी की बैठक में जो प्रस्ताव लिया गया उससे मजबूर होकर यह त्यागपत्र दे रहा हूं। वे कहते हैं कि मेरे विरुद्ध लाये गये एक भी अभियोग को आप प्रमाणित नहीं कर पाये हैं, यहां तक कि मुझे सफाई देने के अधिकार से भी वंचित किया गया। कमेटी का बहुमत मुझे एक योग्य शिक्षक मानता है, इसके बावजूद आप येन-केन-प्रकारेण मुझे हटाने के लिये तुले हुए हैं। इसप्रकार यह एकतरफा विचार करके मुझे दंड दिया गया है। आशा है कि इस सच्चाई को स्वीकारने में आपको कोई संकोच नहीं होगा।

डिरोजियो ने लिखा कि वे इससे ही बहुत खुश हो जाएंगें।

डिरोजियो के इस खत के जवाब में अब विल्सन साहब ने उनपर लगाये गये अभियोगों को उन्हें लिखकर भेजा। विल्सन ने उनके सामने तीन गंभीर सवाल रखे और लिखा कि इन सवालों का जवाब आप दे भी सकते हैं और नहीं भी दे सकते हैं। उनका पहला सवाल था - क्या आप ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास करते हैं ?

दूसरा प्रश्न था कि क्या आप यह मानते हैं कि पिता-माता के आदेशों का पालन करना अथवा उनके प्रति श्रद्धा-भक्ति दिखाना किसी के भी नैतिक कर्तव्य का हिस्सा नहीं होता ?

तीसरा सवाल था कि क्या आपकी राय में भाई -बहन के बीच विवाह सामाजिक अपराध नहीं है ? क्या आप इन विषयों पर छात्रों के साथ खुलकर बातचीत किया करते हैं ?

विल्सन साहब के इन गंभीर अभियोगों भरे सवालों के जवाब में डिरोजियो ने एक काफी लम्बा पत्र लिखा जिसे विनय घोष ने अपनी पुस्तक में बिल्कुल सही, उनके जीवन के एक महत्वपूर्ण दस्तावेज की संज्ञा दी है। इस पत्र में उन्होंने एक-एक करके हर सवाल का माकूल जवाब दिया है। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में लिखा था कि मैंने कभी अपने को नास्तिक के रूप में पेश नहीं किया, लेकिन ईश्वर के अस्तित्व या अनअस्तित्व के बारे में खुलकर बहस करना अपराध है तो इस अपराध को स्वीकार करने में मुझे कोई संकोच नहीं है। इस बारे में दुनिया में अनेक मत है और उनको लेकर मैंने छात्रों के साथ खुले मन से बहस की है। मैंने आस्तिकों की बात भी कही है और नास्तिकों की भी। इसके अलावा उन लोगों की बात भी कही है जो इसप्रकार के सवालों को बेमानी मानते हैं। इसी सिलसिले में डिरोजियो की राय थी -‘‘किसी का कुछ भी विश्वास क्यों न हो, यदि विरोधी की राय का विश्लेषण नहीं किया जाता है तो उस विश्वास का आधार कैसे दृढ़ हो सकता है। ‘‘

इसी क्रम में डिरोजियो ने लार्ड बैकन को उद्धृत किया कि ‘‘if a man will begin with certainities, he shall end in doubts.”

डिरोजियो ने पश्चिम के और भी कई विद्वानों का इसमें जिक्र किया और निष्कर्ष के तौर पर लिखा कि - ‘‘ सच कहूं तो मनुष्य के ज्ञान की सीमा और उसके विचारों की परिवर्तनशीलता के बारे में मैं खुद इतना अधिक संवेदनशील हूं कि बहुत से मामूली किस्म के विषयों पर भी मैं अपनी एक निश्चित राय व्यक्त नहीं करता हूं। किसी अन्वेषक की तरह अनन्त समुद्र में अज्ञेय सत्य के द्वीप की यात्रा करना ही ज्ञानान्वेषण का श्रेष्ठ पथ है, यही मेरी धारणा है।

मेरे खुद का मानस कुछ ऐसा ही है। प्रश्नविहीन, संशयहीन मन जितना जल्दी जड़ता के जाल में फंसकर असमय मानसिक मृत्यु को प्राप्त करता है, प्रश्नाकुल, संशयों से भरा हुआ मन मनुष्य को उतनी आसानी से संदेहवादी या नकारवादी नहीं बनाता है। सत्य वह या जो हम विश्वास करते हैं वही ध्रुव सत्य है, कोई भी सत्यान्वेषी मनुष्य हलफ लेकर इसप्रकार की बात नहीं करेगा।‘‘

जहां तक माता-पिता के प्रति श्रद्धा और उनके आदेशों को मानने का सवाल था, डिरोजियो ने इसपर गहरा आश्चर्य व्यक्त किया और इसे अपने विरुद्ध एक घिनौना दुष्प्रचार भी बताया। उन्होंने लिखा कि - ‘‘ मैं यदि पितृहीन नहीं होता तो खुद मेरे पिता ही इस दुष्प्रचार का उचित जवाब दे देते।‘‘ उन्होंने बहुत ही कड़े शब्दों में लिखा कि जो लोग उन पर ऐसा अभियोग लगा रहे हैं उन सभी महात्माओं की तुलना में वे कम मातृभक्त नहीं हैं।

अपने पत्र में डिरोजियो ने ऐसे कई उदाहरण तक गिनाये हैं जिनसे पता चलता है कि किसप्रकार उन्होंने अपने माता-पिता का निरादर करने वाले छात्रों के अशोभनीय आचरण का तिरस्कार किया था और उन्हें अपने माता-पिता से माफी मांगने को मजबूर किया था।

विल्सन द्वारा उठाये गये तीसरे सवाल, अर्थात भाई-बहन के बीच विवाह के प्रश्न पर डिरोजियो की कड़ी टिप्पणी थी कि इसप्रकार के एक अजूबे सवाल पर वे छात्रों के साथ बात कर सकते हैं, ऐसा उन्होंने सोचा भी कैसे! उन्होंने इस अभियोग को किसी उर्वर मस्तिष्क की उपज बताया और कहा कि कोइ्र्र कापुरुष, चरित्रहीन व्यक्ति ही उनके खिलाफ इसप्रकार के झूठे दुष्प्रचार में उतर सकता है। ऐसे लोग झूठ के बल पर ही जिंदा रहते हैं। डिरोजियो ने विल्सन साहब को इसप्रकार की अफवाह फैलाने वालों को यह संदेश भेजने का आग्रह किया कि - ‘I am not a greater monster than most people’.

डिरोजियो ने इस पत्र में उनके तथा उनके परिवार के बारे में फैलाई जा रही मनगढ़ंत कहानियों और गंदी-गंदी बातों का हवाला दिया। अपने इस पत्र के अंत में उन्होंने विल्सन साहब से पूछा था कि क्या झूठी अफवाहों के डर से या निंदकों को खुश करने की गरज से मुझे कॉलेज से निकाल बाहर करना आप जैसे विवेकवान व्यक्ति के लिये उचित था ? डिरोजियो का कहना था कि जब किसी व्यक्ति के विरुद्ध झूठी अफवाहें फैलाई जाती है, तब उन्हीं अफवाहों के आधार पर उस व्यक्ति को कठोर दंड देना क्या झूठ को प्रश्रय देने के समान नहीं है ?

डिरोजियो के चिर प्रश्नाकुल अधीर मन-मस्तिष्क ने कभी भी शांत होना तो सीखा ही नहीं था। हिंदू कॉलेज से इसतरह निकाले जाने के बाद भी न तो डिरोजियो और न ही उनके शिष्य किसी तरह की निराशा या पस्तहिम्मती का शिकार हुए। डिरोजियो ने ‘ईस्ट इंडियन‘ नामक दैनिक पत्र का संपादन शुरू कर दिया और अपने शिष्यों को भी पत्रकारिता से जुड़ने के लिये प्रेरित किया। जाहिर है उस समय वैचारिक संघर्ष के लिये अखबार से बड़ा और दूसरा माध्यम क्या हो सकता था ? उनके छात्र कृष्णमोहन बंद्योपाध्याय, जो उस समय मात्र 18 वर्ष के थे, ने 1831 की मई में ‘द एनक्वायरर‘ नामक पत्रिका का प्रकाशन और संपादन किया और 17 वर्ष के दक्षिणारंजन ने बांग्ला साप्ताहिक पत्र, ‘ज्ञानान्वेषण‘ का संपादन किया। सत्य और ज्ञान की खोज ही इन अखबारों का उद्देश्य बताया गया। उधर डिरोजियो के हिंदू कॉलेज से निकाले जाने के बाद भी हिंदू कट्टरपंथियों का उनके प्रति आक्रामक अभियान खत्म नहीं हुआ था। अखबारों में रोज डिरोजियो के विरुद्ध झूठी अफवाहें छपती रहती थीं कि किसप्रकार उनकी शिक्षा नौजवानों को बिगाड़ रही है और वे अपनी सभ्यता और संस्कृति का अनादर कर रहे हैं। इन हमलों के जवाब में जुलाई महीने के अंत में डिरोजियो के शिष्य कृष्णमोहन ने ‘एनक्वायरर’ में लिखा-

‘‘अभियोगकर्ताओं का गुस्सा अभी भी उतना ही उग्र बना हुआ है। सारे कट्टरपंथी अभी निंदा गर्जन में लगे हुए हैं। गुरुम सभा का ताप हिंसक बना हुआ है और वे नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं। धर्मान्ध लोग समाज से बहिष्कार करने की हुंकारे भर रहे हैं। हमें उम्मीद है कि इसके प्रति सहनशीलता उदारपंथियों का जवाब होगा। गुरुम सभा का ताप बढ़ा हुआ हो, उसे उबाल बिंदु तक जाने दिया जाय। पोंगापंथी क्रुद्ध हैं; उन्हें आग के रूप में विस्फोटित होने दिया जाय। उदारपंथियों की आवाज उन रोमन लोगों की तरह हो जो सिर्फ कर्म करना ही नहीं जानते हैं, बल्कि उसके लिये दुख भी बरदाश्त करना जानते हैं। समाज बहिष्कार का डंका घर-घर बजे। सैकड़ों लोग समाज से बाहर हों; वे सब एकजुट होकर एक पार्टी बनायेंगे, तभी हमारा उद्देश्य सफल होगा।‘‘

लाल बिहारी दे ने इस संबंध में लिखा है कि सप्ताह-दर -सप्ताह इसीतरह ‘एन्क्वायरर’ के पन्नों पर रूढि़वादी हिंदुओं के विरुद्ध प्रचार चलता रहता। यह अखबार अंधविश्वासों के खिलाफ लड़ने का एक हथियार बन गया था। कृष्णबिहारी विद्रोही युवकों के नेता बन गये थे। उनका घर उन तरुण नौजवानों का एक अड्डा बन गया था जो जात-पांत की दीवारों को तोड़कर आगे बढ़ रहे थे।

अपने गुरू के इस तरह कालेज से निकाले जाने तथा धर्म सभा के हमलों ने इन छात्रों को और उद्वेलित कर दिया था। इन सभी नौजवानों का अड्डा अब कृष्णमोहन के घर जमता, जहां विभिन्न विषयों पर जमकर चर्चाएं होतीं और संघर्ष के नये-नये तरीके ईजाद किये जाते। ‘एन्क्वायरर’ और ‘ज्ञानान्वेषण’ में इन गोष्ठियों की खबरें छपती रहतीं।

विनय घोष ने उन दिनों की एक घटना का जिक्र अपनी पुस्तक में किया है कि किस तरह 23 अगस्त 1831 के दिन कृष्णमोहन की अनुपस्थिति में उनके घर में हिंदुओं की धर्मान्धता पर चर्चा करते हुए इतनी उत्तेजना पैदा हुई कि उसी उत्तेजना में एक छात्र मछुआ बाजार की मुस्लिम दुकान से रोटी और गोमांस खरीद कर ले आया। वहीं पर सब छात्रों ने उसे खाया और हड्डियां पास के चक्रवर्ती परिवार में फेंक कर चिल्लाने लगे, गाय की हड्डी, गाय की हड्डी। गाय की हड्डी की आवाजें सुनकर चक्रवर्ती परिवार में हड़कंप मच गया। सारे पड़ौसी इका हो गये और उन नौजवानों को मारने के लिये लपके। उस समय किसी तरह ये नौजवान अपनी जान बचाकर भाग निकलने में सफल हुए। कृष्णमोहन जब घर लौटे तो इस बात को जानकर बहुत दुखी हुए, सबको समझाने की बहुत कोशिशें की लेकिन मामला किसी तरह शांत नहीं हुआ। सभी का कहना था कि कृष्णमोहन को घर और मोहल्ला छोड़ना होगा। और इसप्रकार अपने घर से आग उठाने वाले कृष्णमोहन ही सबसे पहले इस आग में झुलस गये, उन्हें अपना घर-बार छोड़ना पड़ा। लेकिन कट्टरपंथियों का गुस्सा इससे भी शांत नहीं हुआ, वे उन्हें हर गली, मोहल्ले में अपमानित करते और यहां तक कि गुप्त रूप से उन्हें मारने की साजिशें भी रची जाने लगी।

तत्कालीन हिंदू समाज और उसके अंदर गहराई तक जमे हुए कुसंस्कार, अंधविश्वास और उनके पोंगापंथ का क्या रूप था, इसकी चर्चा हम शुरू में ही कर आये हैं। यह भयानक पुरातनपंथी समाज था। यह समाज राममोहन राय को भी बरदाश्त नहीं कर पा रहा था। उनकी भी हत्या करने की कम साजिशें नहीं की गयी थीं। ऐसे में डिरोजियो और उनके शिष्यों का यह चरम विद्रोही रूप इस समाज के लिये कितना चुनौती भरा होगा, इसे आसानी से समझा जा सकता है। समूचा हिंदू समाज इनके खिलाफ जैसे तलवार लेकर उतर पड़ा था। इसी परिवेश में कृष्णमोहन ने ‘एन्क्वायरर’ में लिखा –

‘‘हम जानते हैं कि हर रोज हमारे विरोधी हम पर हमले की नानाप्रकार की साजिशें कर रहे हैं। हमारे स्वभाव और चरित्र के बारे में भी झूठी बातें फैलाने के लिये पर्चें बांटे जा रहे हैं ... लेकिन हम हरप्रकार के अत्याचार को सहने के लिये तैयार हैं। हम जानते हैं कि किसी राष्ट्र को संस्कारों से मुक्त और विकसित मस्तिष्क का बनाने पर बाहर में कुछ शोर और विभ्रम पैदा होगा ही।‘‘

डिरोजियंस का नीति-मंत्र ही था - ‘‘वह जो विवेक का प्रयोग नहीं करता वह कट्टरपंथी होता है, जो विवेक का इस्तेमाल नहीं कर सकता वह मूर्ख है और जो विवेक का प्रयोग नहीं करता वह गुलाम है।‘‘ जाहिर है कि डिरोजियंस हर कुरबानी और शहादत देकर समाज की इन मानसिक गुलामी की जंजीरों को तोड़ देना चाहते थे। एक तरफ डिरोजियो के शिष्य समाज की मानसिक बेडि़यों को तोड़ने की लड़ाई लड़ रहे थे और दूसरी तरफ खुद डिरोजियो भी ‘ईस्ट इंडियन‘ अखबार के जरिये अपने समाज के खिलाफ भी लगातार तीखी वैचारिक लड़ाई लड़ रहे थे। अपने अखबार में 1831 के सितम्बर महीने में उन्होंने ‘जॉन बूल ‘ पत्रिका के संपादक के बारे में कुछ टिप्पणियां की थी जिससे तत्कालीन यूरोपियन समाज काफी उद्वेलित हो उठा था। इसका जिक्र करते हुए खुद इस पत्रिका के संपादक मैक्नागैटन ने लिखा है :

‘‘अगले दिन वे एक दोस्त को साथ लेकर डिरोजियो के घर गये। घर में पहुंचने पर हमें एक आफिस में ले जाया गया, जहां दो लोग बैठे हुए थे। मैंने इससे पहले डिरोजियो को कभी देखा नहीं था। इसलिये घर में घुसते ही पूछा, ‘ईस्ट इंडिया‘ के संपादक से मिलना चाहता हूं। कुछ झिझक के बाद एक आदमी ने कहा, मैं ही संपादक हूं। उसके बाद मैंने कहा कि क्या यह लेख आपका ही है? मेरे हाथ से लेख लेकर उसने कुछ देर तक उसे देखा और फिर कुछ हकलाते हुए कहा कि हां, मैंने ही लिखा है। मैंने लेख उसके हाथ से लेकर अपनी जेब में रख लिया। और कहा कि इस लेख में आपने जिस सीमाहीन उदंडता का परिचय दिया है उसके लिये मैं व्यक्तिगत रूप में आपको दंड देने के लिये आया हूं, कहकर मैंने डिरोजियो की कालर पकड़कर हल्के से उसपर दो बेंते जमाई। इच्छा तो थी उसके कंधों पर मारने की लेकिन उसने बचाव में हाथ आगे किये तो बेंत उसके हाथ में ही लगी। डिरोजियो ने मुझे रोकने की कोई कोशिश नहीं की। वह एकदम पीला पड़ गया था और कांप रहा था। (इंडिया गैजेट, 26 सितम्बर 1831)

तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद डिरोजियो की कलम की धार कम नहीं हुई। वे हिंदू समाज और योरोपीय समाज, दोनों के पोंगापंथ के विरुद्ध लगातार लिखते रहे। उनकी लेखनी साम्राज्यवाद और उसकी नीतियों के खिलाफ भी उठती रही। कहना न होगा कि हिंदू समाज के साथ ही साथ योरोपीय समाज भी इस कारण उनसे भंयकर नाराज रहने लगा। डिरोजियो अपने मित्र कृष्णमोहन का, जो हिुदुओं के कट्टरपंथ और अंधविश्वासों के खिलाफ लगातार अपने अखबार के जरिये वैचारिक संघर्ष चला रहे थे, अपने पत्र के जरिये उत्साह-वद्र्धन करते रहते थे। हिंदू नरमपंथी लोग जो नीतिगत रूप में मूर्तिपूजा का विरोध करते थे, लेकिन घर में मूर्तिपूजक बने रहते थे उनकी इन दोगली नीतियों का भी ये नौजवान विरोध करते थे। सुधारवादियों के नेता, ‘रिफोर्मर’ पत्रिका के संपादक, प्रसन्न कुमार ठाकुर के इस दोगले चरित्र को भी ‘एन्क्वायरर’ के पन्नों पर बेनकाब किया गया था। उस समय के निकलने वाले सुधारवादी या मध्यममार्गी अखबार, ‘इंडिया गैजेट‘, बंगाल हरकरा‘, ‘रिफोर्मर‘ तथा ‘समाचार दर्पण‘ इन तरुणों के खिलाफ लगातार टीका-टिप्पणियां करते और उन्हें गरमपंथ की बजाय नरमपंथी रास्ता अपनाने की सीख दिया करते। ‘इंडिया गैजेट’ का कहना था कि राममोहन के अनुगामी ब्रह्मसभाई हिंदू समाज के मध्यमार्गी हैं और डिरोजियो के स्वतंत्र चिंतन के हिमायती अल्ट्रा लेफ्ट या रैडिकल पार्टी हैं। ये दोनों ही समाज को सुधारना चाहते हैं, उसकी उन्नति और कल्याण की कामना करते हैं तथा हमेशा से प्रचलित शास्त्र-वचनों की तुलना में तर्क और विवेक पर निर्भर रहना चाहते हैं। दोनों दल ही मूर्ति पूजा और निरर्थक कुसंस्कारों का परित्याग करना चाहते हैं, जातिप्रथा को अमानवीय प्रथा समझकर उसे मान्यता नहीं देना चाहते तथा हर विषय में धर्मान्धता से घृणा करते हैं। लेकिन मध्यममार्गी धीरे-धीरे आगे बढ़ना चाहते हैं ...।‘‘ इसी तरह ‘रिफोर्मर’ पत्रिका भी ‘इंडिया गैजेट’ के विचारों के समर्थन में उतरी हुई थी।

तरुण डिरोजियंस सुधारवादियों की हर दलील का जवाब बड़े धीरज और तर्क के साथ देते। ‘एन्क्वायरर’ में ‘इंडिया गैजेट’ की इन बातों का जवाब देते हुए लिखा गया - ‘‘हम आशा करते हैं कि वे यह बात नहीं भूले होंगे कि हमारा लक्ष्य हमारे नौजवान मित्रों को उदार उदाहरण देकर उन्हें प्रभावित करना है और हमने कभी भी पोंगापंथी समुदाय के बुजुर्ग लोगों को समझाने की कोशिश नहीं की है।‘‘

गाय की हड्डियां फेंकने की घटना का बार-बार ‘इंडिया गैजेट’ द्वारा हवाला देकर तरुण डिरोजियंस का अपमान करने के प्रसंग के बारे में ‘एन्क्वायरर’ ने लिखा - ‘‘कुछ दिन पहले एक पोंगापंथी हिंदू के घर में गाय की हड्डी फेंकने की घटना का ‘इंडिया गैजेट‘ के संपादक ने फिर से उल्लेख किया है तरुणों को लोगों को समाज की आंखों से गिराने के लिये। लेकिन जब नौजवानों ने यह स्वीकार कर लिया है कि यह काम करके उन्होंने बहुत बड़ी गल्ती की है, इसके लिये उन्होंने पश्चाताप भी व्यक्त किया है और भविष्य में कभी इसतरह का आचरण नहीं करने का प्रण भी किया है, तब हमारे सहयोगी के लिये यह उचित नहीं था कि इस तरह की घटना का फिर से उल्ल्ेाख करके नौजवानों पर कीचड़ उछाले।‘‘

डिरोजियो और उनके शिष्यों का यह वैचारिक संघर्ष इसी तरह चलता रहा। लेकिन अचानक इस संघर्ष की लौ जलानेवाला, नौजवानों की रगो में, उनकी आंखों में लहू बनकर टपकने वाला डिरोजियो जिस तरह एक तूफान की तरह आया था, उसी तरह अचानक चला भी गया। हिंदू कालेज से निकाले जाने के मात्र 8 महीनों के बाद ही 23 दिसम्बर 1831 को वे इस दुनिया से चले गये। शिवनाथ शास्त्री ने लिखा है कि 17 दिसम्बर को उन्हें कालेरा हो गया। छ: दिनों तक वे बिस्तर पर पड़े रहे। उनकी बीमारी के समय उनके पास उनके शिष्य महेषचन्द्र घोष, कृष्णमोहन बंद्योपाध्याय, रामगोपाल घोष, दक्षिणारंजन मुखोपाघ्याय आदि थे और रात-दिन उनकी सेवा में लगे रहे। लेकिन उन्हें बचाया नहीं जा सका। 24 दिसम्बर (विनय घोष के अनुसार 23 दिसंबर) को वे इस दुनिया को छोड़ कर चले गये।

अपनी मौत के कुछ दिनों पहले डिरोजियो ने यह कविता लिखी थी -

Expanding. like the petals of young flowers;
I watch the gentle opening of your minds.
And the sweet loosening of the spell that binds
Your intellectual energies and powers,
That stretch (young bird in soft summer hours)
Their wings to try their strength. O how that winds
Of circumstances, and freshening April showers
Of early knowledge, and unnumbered kinds
Of new perceptions shed their influences;
And how you worship Truth’s omnipotence!

What joyance rains upon me, when I see
Fame, in the mirror of futurity,
Weaving the chaplets you are yet to gain,
And then I feel I have not lived in vain.
(The Bengal Annual, 1831)

वास्तव में डिरोजियो अपने तरुण छात्रों के दिमागों की खिड़कियां खुलते हुए देख रहे थे, देख रहे थे कि उनके नन्हें चूजे अब अपने परों में नयी ताकत भरकर उड़ने के लिये तैयार हो रहे है। उनका जीवन वृथा नहीं गया था। यही उनके जीवन का सबसे बड़ा सुख था।

आज उस तरुण नौजवान के जीवन के 200 वर्ष बाद जब हम उन युवा डिरोजियंस के संघर्ष को याद करते हैं तो लगता है कि क्या वही अक्षत ऊर्जा, वही अदम्य साहस, वही निष्ठा और ईमानदारी हर युग के नवोन्मेष के लिये जरूरी नहीं है? शायद हर युग को इसतरह के अग्निबीजों की जरूरत होती है। अग्निबीज कभी मरते नहीं बस थो़ड़ी सी हवा पानी मिलते ही फिर-फिर अंकुरित और प्रस्फूटित हो उठते हैं और इसी तरह प्रगति की धारा को कभी तेज तो कभी धीमी गति से प्रवहमान बनाये रखते हैं। समाज की बूढ़ी रगों में नया जीवन भरने के लिये डिरोजियंस की तरह के अग्निबीज हमेशा-हमेशा हमारी प्रेरणा के श्रोत बने रहेंगे। डिरोजियो की स्मृतियां अमर रहे।










 



सोमवार, 13 अप्रैल 2015

इडवर्डो ग्यालियानो नहीं रहे



उरुग्वे के अपने जन्म स्थान मोन्तेविदेओ में कल, 13 अप्रैल को लातिन अमेरिका के लोकप्रिय वामपंथी लेखक, गैर-पेशेवर इतिहासकार, राजनीति, अर्थनीति, साहित्य और कला तथा फुटबाल जैसे तमाम विषयों पर भी पूरी दक्षता के साथ लिखने वाले इडवर्डो ग्यालियानो की मृत्यु होगयी। वे 74 साल के थे और लंबे अर्से से फेफड़े के कैंसर से पीडि़त थे।

सन् 2009 में त्रिनिदाद में हुए ‘समिट आफ अमेरिकाज’ में जब अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा से वेनेजुएला के राष्ट्रपति उगो सावेज की मुलाकात हुई थी, सावेज ने ओबामा को ग्यालियानो की ही पुस्तक ‘ओपेन वेन्स आफ लैटिन अमेरिका’ की एक प्रति भेंट की थी। लातिन अमेरिका में स्पैनिश औपनिवेशिक युग और परवर्ती पूंजीवादी युग की लूट के इतिहास की कहानी - बोलीविया के गुलाम खदान मजदूरों की करूण स्थिति, ब्राजील के घने जंगलों की तबाही और वेनेजुएला के तेल के मैदानों में छाये हुए प्रदूषण की इस गाथा ने लातिन अमेरिका में वामपंथ के उदय में एक भूमिका अदा की थी। ग्यालियानो पेशेवर इतिहासकार नहीं थे और न कभी उन्होंने ऐसा कोई दावा ही किया, लेकिन वे इतना जरूर कहते थे कि इतिहास के विषय को अकादमिशियनों ने जिसप्रकार अगुआ कर लिया है, उनसे इसे मुक्त कराने के वे साक्षी जरूर रहे हैं।

‘ओपेन वेन्स आफ लैटिन अमेरिका’ 1971 में प्रकाशित हुई थी। कहा जाता है कि इस पुस्तक की भारी लोकप्रियता के बावजूद परवर्ती दिनों में ग्यालियानो  की यह मान्यता थी कि इसे और भी परिपक्वता के साथ लिखा जाना चाहिए था। लेकिन साम्राज्यवाद-विरोधी अपने वामपंथी विचारों से ग्यालियानो कभी जरा सा भी नहीं डिगे थे।

सन् 1973 में उरुग्वे में सामरिक सरकार कायम हुई। ग्यालियानो को उस सरकार ने गिरफ्तार कर लिया और उन्हें निर्वासित जीवन जीने के लिये मजबूर किया। 1973 से 1985 तक वे पहले अर्जेन्तिना में, और फिर स्पेन में रहे। सन् ‘85 में सामरिक शासन के अंत के बाद ही वे अपने देश में वापस लौट पाये थे।
‘मेमरी आफ फायर’ शीर्षक उनकी पुस्तकों की त्रयी भी लातिन अमेरिका के पाठकों के बीच खासी लोकप्रिय रही। उनका साफ कहना था कि वे इतिहास के आख्यानों में तटस्थता के लिये कोई जगह नहीं पाते है। वे अपने को परिस्थितियों से दूर और तटस्थ रखने में असमर्थ रहे हैं। उनकी आत्मजीवनी ‘डेज एंड नाइट आफ लव एंड वार’ में 20वीं सदी की उत्तरार्द्ध में पूरे लातिन अमेरिका में हत्याओं, यातनाओं, लोगों के गुम हो जाने की जो त्रासद परिस्थितियां थी, उनका एक बहुत ही जीवंत चित्र देखने को मिलता है।

इडवर्डो ग्यालियानो फुटबाल प्रेमी भी थे। फुटबाल के प्रति एक प्रेमपत्र के रूप में उन्होंने एक पुस्तक लिखी - ‘सॉकर इन सन एंड शैडो’। इसे खेलों पर लिखी गयी एक श्रेष्ठ पुस्तक माना जाता है। पाठको का कहना हैं कि फुटबाल पर लिखने वालों में ग्यालियानो  सचमुच ‘पेले’ थे।

इडवर्डो ग्यालियानो के प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए हम उनके शोक संतप्त परिवार और लातिन अमेरिका के उनके लाखों प्रिय पाठकों के प्रति अपनी संवेदना प्रेषित करते हैं।
  


क्या यह लातिन अमेरिका के इतिहास के एक नये अध्याय का प्रारंभ है ?


17 दिसंबर 2014, जब 55 साल बाद पहली बार क्यूबा और अमेरिका के राष्ट्रपतियों के बीच टेलिफोन पर वार्ता हुई और दोनों देशों में कूटनीतिक संबंधों की पुनर्बहाली का निर्णय लिया गया। तब हवाना की सड़कों पर नौजवानों के उच्छवास ने सारी दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा था। उस ऐतिहासिक फैसले पर हमें भी निराला जी की कविता की पंक्तियां याद आगयी थी - ‘‘बहुत दिनों बाद खुला आसमान/ निकली है धूप, हुआ खुश जहान।’’
17 दिसंबर 2014 को टेलिफोन वार्ता से लातिन अमेरिका के इतिहास में एक नये सफे को जोड़ने का यह जो सिलसिला शुरू हुआ, उसके चार महीना बीतते न बीतते जो बात ध्वनि तरंगों के माध्यम से हुई थी, वही अब आमने-सामने शुरू हुई। मौका था पनामा में शुरू हुए समिट आफ अमेरिकाज (अमेरिकी देशों की शिखर वार्ता) का जिसमें अन्य तमाम लातिन अमेरिकी देशों के राष्ट्राध्यक्षों के साथ ही अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा और क्यूबा के राष्ट्रपति रॉउल कैस्त्रो भी पहुंचे थे और यही पर पचास साल में पहली बार दोनों देशों के राष्ट्राध्यक्षों की मुलाकात हुई और मुलाकात के साथ ही पूरे एक घंटे की लंबी बातचीत भी हुई। इन दो राष्ट्राध्यक्षों के हाथ मिलाने की घटना को ही कूटनीति की दुनिया के लोग लातिन अमेरिका के इतिहास में एक नये चरण के प्रारंभ के रूप में देख रहे है। 
दोनों राष्ट्राध्यक्षों के बीच इस बातचीत के बाद एक संवाददाता सम्मेलन में राष्ट्रपति ओबामा ने कहा कि हमारे बीच मतभेद है, और रहेंगे भी। लेकिन मतभेदों के साथ ही आगे हमारे बीच परस्पर सम्मान और सौजन्य भी बना रहेगा। यही वह तरीका है जिससे हम इतिहास के एक नये पृष्ठ की ओर बढ़ेंगे। ओबामा ने जनतंत्र और मानवाधिकार के सवाल का जिक्र प्रमुख तौर पर किया। 
क्यूबा के राष्ट्रपति रॉउल कैस्त्रो ने कहा कि हम सिर्फ एक नहीं, तमाम विषयों पर आपस में वार्ता को जारी रखना चाहते हैं। लेकिन इसके लिये हमे अपार धीरज बनाये रखना होगा। उन्होंने यह भी कहा कि मैंने राष्ट्रपति ओबामा से वार्ता के दौरान क्यूबा की क्रांति के बारे में काफी भावावेग के साथ अपनी बात रखी थी। लेकिन ओबामा का तो तब जन्म भी नहीं हुआ था जब अमेरिका ने क्यूबा के साथ संबंधों पर प्रतिबंध लगाये थे। ओबामा व्यक्तिगत रूप से उस कदम के लिये जिम्मेदार नहीं थे, इसीलिये मैंने उनसे क्षमा भी मांगी। 
राष्ट्रपति ओबामा ने राष्ट्रपति कैस्त्रो की बात से सहमति जाहिर करते हुए कहा कि शीत युद्ध का काफी दिन पहले ही अंत हो चुका है। जो लड़ाई मेरे जन्म के पहले शुरू हुई थी, उसे आगे जारी रखने में हमारी कोई दिलचस्पी नहीं है। 
उन्होंने यह भी कहा कि आज राष्ट्रपति कैस्त्रो और मैं यहां बैठ कर बात कर रहे हैं, यह एक ऐतिहासिक क्षण है। मैं आशावादी हूं। हम अपने संबंधों को सुधारने की प्रक्रिया को जारी रखेंगे और यह सिर्फ क्यूबा के लिये नहीं, इस पूरे क्षेत्र के लिये इतिहास का एक संक्रमणकाल कहलायेगा। हमारे दोनों देशों के बीच बातचीत जारी रहेगी और तमाम मतभेदों के बावजूद, जारी रहेगी। 
इस शिखर वार्ता के दौरान ओबामा ने सिर्फ रॉउल कैस्त्रो से ही नहीं, वेनेजुएला के राष्ट्रपति निकोलैस मादुरो के साथ भी मुलाकात की। मादुरो ने इस बैठक को एक हार्दिकता के साथ हुई बैठक बताया। इस बैठक के पहले ही ओबामा ने साफ तौर पर यह कह दिया था कि वे वेनेजुएला को खतरनाक नहीं मानते हैं, जबकि महीने भर पहले ही अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने वेनेजुएला को खतरनाक घोषित किया था।
इस पूरे संदर्भ में याद आती है, नोम चोमस्की की बात। आज की दुनिया में अमेरिका की भूमिका के बारे में उन्होंने कहा था कि अमेरिकी नीतियों में यदि मामूली बदलाव भी होता है तो बाकी दुनिया के लिये उसके काफी बड़े मायने हो सकते हैं। लातिन अमेरिका के देशों ने अपनी राष्ट्रीय सार्वभौमिकता की लंबी लड़ाई के जरिये आज अमेरिकी हुक्मरानों को अपनी लातिन अमेरिकी नीति के बारे में नये सिरे से विचार करने के लिये मजबूर किया है। क्यूबा और वेनेजुएला के राष्ट्रपतियों के साथ राष्ट्रपति ओबामा की इन बैठकों को इसीलिये लातिन अमेरिका के राजनीतिक इतिहास में एक नये अध्याय के प्रारंभ के तौर पर देखा जा रहा है। 
हम यहां 17 दिसंबर 2014 की अपनी टिप्पणी का लिंक दे रहे हैं :
http://chaturdik.blogspot.in/2014/12/blog-post_18.html