शनिवार, 24 जून 2017

औपनिवेशिक दंश की शिकार हिंदी आलोचना


-अरुण माहेश्वरी

हिंदी का अध्यापक जगत सामान्य तौर पर रामचंद्र शुक्ल को एक दैवी प्रतिमा मान कर उसकी सिर्फ परिक्रमा करता रहता है। बहुदेववाद पर आस्था के नाते अपनी पूजा-अर्चना के लिये वह रामविलास शर्मा तथा शायद और भी कुछ गुरुओं की छोटी-बड़ी मूर्तियां बना कर उनकी भी परिक्रमा कर रहा है। जबकि द्वंद्ववाद की पहली शर्त है कि वस्तु के इर्द-गिर्द चक्कर काटने के बजाय उस समग्र का विखंडन करके उसके विकास या पतन के अन्तर्विरोधी मार्गों का संज्ञान प्राप्त करना।

आधुनिक हिंदी आलोचना पर ग़ौर करने से बार-बार यह ज़ाहिर होता है कि यह मूलत: आचार्य रामचंद्र शुक्ल के आलोचना सिद्धांतों पर ही आधारित है - साहित्य के इतिहास में काल विभाजन से लेकर साहित्य संबंधी चिंतन में मुख्य रूप से पश्चिमी सौन्दर्यशास्त्रीय मानदंडों के प्रयोग पर बल देने तक में । ध्यान से देखें तो हम इस तथ्य को अनदेखा नहीं कर सकते हैं कि उनके द्वारा किये गये इस काल विभाजन के मूल में मुसलमानों का निषेध है । उनके बरक्स ही मूलत: शुक्ल जी ने हिंदी साहित्य की धाराओं को परिभाषित किया था । इसी प्रकार, ध्यान देने योग्य दूसरा पहलू यह है कि उनके साहित्यिक प्रतिमानों में भारतीय सौन्दर्यशास्त्रीय चिंतन की दीर्घ समृद्ध परंपरा के बजाय औपनिवेशिक प्रभाव के चलते, पश्चिमी साहित्य चिंतकों के सोच को वरीयता दी गई है ।

शुक्ल जी के ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ को देखिए : वीरगाथा काल में हिंदू राजा आपस में लड़ने के अलावा मुसलमानों के खिलाफ लड़ रहे थे और इसीलिये उस काल की कविता उनके शौर्य का गान करके उनका उत्साह बढ़ा रही थी । भक्तिकाल में मुसलमानों के पैर जमने लगे थे तो हिंदू जनों के लिये अपने दीनानाथ की शरण में जाने के अलावा कोई चारा नहीं रह गया था । उसकी निर्गुणपंथी धारा को शुक्ल जी ने अनपढ़-गंवारों की धारा बता दिया । उस पर मुसलमानों का प्रभाव भी सबसे प्रकट था । इसके विपरीत, सगुण पंथ में रामभक्ति शाखा में धनुर्धर राम के जरिये वर्णाश्रम धर्म की श्रेष्ठता बताई और हिंदुओं के हत गौरव को जागृत करने की कोशिश की गई और कृष्ण भक्ति शाखा को सूफियों के प्रेमभाव से ग्रसित भक्ति की मूलत: श्रृंगारिक धारा बताया गया । रीतिकाल में मुग़लों का शासन अपने शीर्ष पर था तो हिंदी कविता दरबारी हो गई और संस्कृत काव्यशास्त्र के अलंकारों आदि को अवलंब बना कर रस निरूपण के लिये नायिकाभेद के लक्षण ग्रंथ और रचनाएं आकाओं के मन को रिझाने के लिये लिखी जाने लगी । और आधुनिक काल का हिंदी साहित्य भी बाजारों की भाषा खड़ी बोली में उर्दू के साथ प्रतिस्पर्द्धा में तैयार हुआ । हिंदी साहित्य के इन सभी कालों में मुसलमानों को उसके एक बाहरी परिप्रेक्ष्य के तौर पर ही अधिक से अधिक रखा गया । शुक्ल जी ने जायसी, कुतबन, रहीम से लेकर भक्तिकाल और रीतिकाल में मुसलमान कवियों को अपने इतिहास में जगह दी है सिर्फ यह बताने के लिये कि उन्होंने किस प्रकार भारत को अपनाया, वे अपनी धार्मिक अस्मिता से स्वतंत्र पहले मनुष्य थे। लेकिन भारतीय बहुलतावाद में इस्लाम के आगमन के प्रभाव को स्वीकारने में उनकी दुविधा हमेशा समान रूप से बनी रही।

इसमें सबसे गौर करने लायक बात है कि जो साहित्य परंपरा प्राकृत और अपभ्रंश के जरिये सिद्धों-नाथों और कबीर, रैदास  आदि की रही, उसकी एक अत्यंत समृद्ध दार्शनिक पृष्ठभूमि होने के बावजूद उसे वज्रयानियों, कापालिकों-तांत्रिकों की उस धारा में खतिया दिया गया जो शुक्ल जी के अनुसार अनपढ़ों और नीची जातियों की धारा थी । कबीर का जिक्र शुक्ल जी ने कभी भी उनकी ‘अटपटी वाणी’ के उल्लेख के बिना नहीं किया। जबकि भारतीय दर्शन के इतिहास का सच यह है कि शैवमत की यही दक्षिण और कश्मीर की धारा भारतीय दर्शन की सबसे विकसित धारा थी जो वेदांत के नाना रूपों, बौद्ध दर्शन और वैष्णव मत से एक तीव्र विचारधारात्मक संघर्ष के बीच से विकसित हुई थी । शंकर के लगभग तीन सौ साल बाद के अभिनवगुप्त न सिर्फ समय के लिहाज से बल्कि ज्ञान मीमांसा के सभी पैमानों पर उनसे आगे, ज्यादा समृद्ध और विकसित थे । उनके प्रत्यभिज्ञा दर्शन में जहां हेगेल के सुसंगत भाववादी द्वंद्ववाद को, स्वातंत्र्य की मानव जीवन की चालिका शक्ति को देखा जा सकता है, वहीं उनके धवन्यालोक में भारतीय सौन्दर्यशास्त्रीय चिंतन के एक अत्यंत विकसित रूप को पाया जा सकता है । और सर्वोपरि इन सात सौ साल में ही सभी भारतीय भाषाओं की इस्लामिक सार्वलौकिकता (Islamic universalism ) से अन्तरक्रिया शुरू हो गई थी ।

इस प्रकार, सिद्धों, नाथों और कबीर, रैदास की परंपरा अनपढ़ों की नहीं अपने समय के सबसे विकसित, आधुनिक-जनों की परंपरा थी । इनकी तुलना में रामचंद्र शुक्ल जिस परंपरा का गुणगान कर रहे थे, उसे यदि किसी अवांतर से हो गये सुदूर अतीत की लकीर पीटने वाले पिछड़े हुए लोगों की परंपरा न भी कहा जाए तो भी वह भारतीय विकासमान परंपरा की नहीं, किसी न किसी रूप में परंपरा की उस नई अस्मिता से जुड़ी हुई थी जिसे औपनिवेशिक शासकों के प्रवेश ने पैदा किया था ।

एशियाटिक सोसाइटी और भारत-शास्त्र (Indology) के संस्थापक सर विलियम जोन्स ने बहुत साफ तौर कहा था कि “ भारत के इतिहास के बारे में इन सभी खोजों में मैं अपने को मुसलमानों की जीत के पहले तक, अर्थात 11वीं सदी के पहले तक सीमित रखूँगा और उसमें जितनी दूर तक पीछे, मानव प्रजाति के बारे में सबसे प्रारंभिक प्रामाणिक तथ्यों तक, जितना जा सकूँगा जाऊंगा “ (देखिये : Sir William Jones, The Third Anniversary Discourse delivered on 2 February 1786, By the President 'on the Hindus')
(Let me here premise, that, in all these inquiries concerning the history of India, I shall confine my researches downwards to the Mohammedan conquests at the beginning of the eleventh century, but extend them upwards, as high as possible, to the earliest authentick records of the human species.)

विलियम जोन्स ने इसी भाषण में भारत से अपने तात्पर्य को समझाते हुए, यह भी कहा था कि “ संक्षेप में भारत से मेरा तात्पर्य उस पूरे देश से है जिसमें आज भी हिंदुओं का आदिम धर्म और भाषाएँ कमोबेस अपनी प्राचीन शुद्धता के साथ बनी हुई है, और जिसमें नागरी लिपि मूल से थोड़े-बहुत फ़र्क़ के साथ अब भी प्रयुक्त होती है ।”
(By India, in short, I mean that whole extent of country, in which the primitive religion and languages of the Hindus prevail at this day with more or less of their ancient purity, and in which the Nágarì letters are still used with more or less deviation from their original form.)



ज़ाहिर है कि 11वीं सदी के पहले के भारत को ही भारत मान कर सर विलियम जोन्स ने उसे तो प्राचीन गौरवशाली क्लासिक का दर्जा दे दिया और उसके बाद के लगभग सात सौ साल के भारत को अँधेरे में ढकेल दिया । इसके बिना उनके लिये यह मुमकिन नहीं था कि ब्रिटिश भारत को वे किसी प्रकार की प्रगतिशीलता की पोशाक में पेश कर पाते । और, कहना न होगा, सर विलियम जोन्स के इस पूर्वाग्रह को ही भारत में इतिहास लेखन का एक निर्विवादित सिद्धांत मान लिया गया।

यहाँ तक कि भारतीय दर्शन के इतिहासकार सुरेन्द्र नाथ दासगुप्ता ने भी पाँच खंडों के अपने इतिहास में इन सात सौ साल को पूरी तरह से उपेक्षित छोड़ दिया, जबकि अभिनवगुप्त और उनके प्रत्यभिज्ञा दर्शन के अध्येताओं ने 11वीं सदी के कश्मीर में अभिनवगुप्त के समय के सांस्कृतिक परिदृश्य की चर्चा करते हुए इस बात का ख़ास तौर पर उल्लेख किया है कि उस परिदृश्य को 9वीं सदी के शंकराचार्य के काल की सभी प्रमुख धार्मिक-दार्शनिक प्रवृत्तियों का एक तरल, घुलनशील परिदृश्य कहा जा सकता है । तत्व मीमांसा और ज्ञान मीमांसा की इन सभी धाराओं में जो भी नया विकसित हो रहा था, उन सबको और उनकी अन्तरक्रिया को तत्कालीन कश्मीर की घाटियों में चले विमर्शों में पाया जा सकता था और वहाँ भारतीय दर्शन का एक अत्यंत विकसित और संश्लेषित रूप सामने आया था । ( देखें, Raffael Torella, The Isvarpratyabhijna Karika of Utpaldeva with the Author's Vrtti, Introduction)

एस एन दासगुप्ता के मार्क्सवादी शिष्य देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय ने भी भारतीय दर्शन के विकास की इन परवर्ती, बिल्कुल नई और क्रांतिकारी संभावनाओं से भरी कड़ियों को विचार का अपना विषय नहीं बनाया । जबकि एस एन दासगुप्ता ने ही बाद के दिनों में भारतीय सौन्दर्यशास्त्र पर अपनी दो महत्वपूर्ण पुस्तकों, ‘काव्यविचार’ और ‘सौन्दर्यतत्व’ में सौन्दर्यशास्त्र पर विचार के केंद्र में भरतमुनी,मम्मट, आनन्दवर्द्धन के साथ ही अभिनवगुप्त और 16वीं सदी के अंत के काल में शाहजहाँ के दरबार के कवि, साहित्य शास्त्रकार और वैयाकरण पंडितराज जगन्नाथ के विचारों को ही रखा था ।

कहने का तात्पर्य यही है कि सर विलियम जोन्स की तरह के पूर्वाग्रहों का ही परिणाम था कि रामचंद्र शुक्ल सरीखे तमाम भारतीय भाषाओं के आलोचकों ने आधुनिक भारतीय भाषाओं के अपने लगभग एक हज़ार साल के इतिहास की घनघोर उपेक्षा की । भारतीय आलोचना के क्षेत्र में हुए इस अघटन का एक बहुत सटीक आख्यान पेश किया है जी एन देवी ने अपनी बहुचर्चित किताब 'After Amnesia : Tradition and Change in Indian Literary Criticism  में ।

देवी ने इन विस्मृत कर दिये गये लगभग सात सौ सालों के साहित्य संबंधी श्रेष्ठ भारतीय चिंतन को पुनर्जीवित करते हुए इस बात को ख़ास तौर पर चिन्हित किया है कि यही काल था जब सभी भारतीय भाषाएँ अरबों, तुर्क और मुग़लों के संपर्क में आई जिनसे इन भारतीय भाषाओं में साहित्य की नई धाराओं का विकास हुआ । इस काल के लेखकों और चिंतकों को विरासत में संस्कृत की साहित्य और भाषा संबंधी चिंतन की श्रेष्ठ परंपरा मिली  थी ।इनके पीछे पाणिनी (ईसापूर्व चौथी सदी), वररुचि (पहली सदी), पतंजलि (दूसरी सदी) , भरत मुनि (चौथी सदी), भामह (पाँचवी सदी),  राजशेखर (दसवीं सदी), भोज (ग्यारहवीं सदी) के स्तर के वैयाकरणों, भाषाशास्त्रियो, नाट्य और काव्य शास्त्र तथा समाज शास्त्र के सुचिंतित कामों की मज़बूत विरासत थी जिनके शीर्ष पर थे 11वीं सदी के दार्शनिक, धर्मशास्त्री, भाषाशास्त्री और साहित्यशास्त्री अभिनवगुप्त । इतिहास को गहराई से देखने पर पता चलता है कि अभिनव गुप्त के काल में प्राचीनता की सारी जड़ताएँ टूटने लगी थी । ख़ुद अभिनव ने अपने सबसे प्रमुख ग्रंथ में प्राकृत के छंदों का भी कुछ-कुछ प्रयोग करके संस्कृत भाषा की जकड़न से मुक्त भारतीय भाषाओं के निर्माण की जमीन का पूरा संकेत दिया था ।

देवी ने इस पुस्तक में बहुत सही स्थापित किया है कि बारहवीं सदी के बाद के भारतीय समाज के बहुभाषी और बहु-सांस्कृतिक रूप को अतीत में भारत की शक्ति समझा जाता था, भले आज एक तबका उसे इसकी कमजोरी क्यों न मानता हो।

हिंदी आलोचना के क्षेत्र में भी भारतीय श्भाषा साहित्यों’ के लगभग सात सौ साल के काल के विस्मरण के इस इतिहास पर ख़ास तौर पर ध्यान देने की ज़रूरत है। तब आचार्य शुक्ल की दृष्टि की भारी कमियों को समझने में कोई कठिनाई नहीं होगी । इससे आचार्य शुक्ल पर हमारे मंतव्यों को समझना भी आसान हो जायेगा । इस आलोचना-दृष्टि पर टिकी हिंदी की परवर्ती पूरी आलोचना, जिसे हिंदी के अध्यापकों की सामान्य आलोचना-दृष्टि कहा जा सकता है,  आनुवंशिक तौर पर इसी रोग से ग्रस्त है । यह सचाई इस सामान्य भ्रम को भी तोड़ती है कि हिंदी साहित्य की मुख्यधारा का मूलभूत नजरिया भारतीय समाज की बहुलता से संगति रखता हुआ मूलतः प्रगतिशील नजरिया रहा है।

इस सिलसिले में स्लावोय जिजेक के ‘उपनिवेशवाद-विरोधी प्रत्यावर्त्तन’ ( Anti-Colonialism Recoil)  पर भी दृष्टिपात करना उपयोगी होगा । यह उपनिवेशवाद की उपनिवेशों में प्रगतिशील भूमिका की तरह की अवधारणा की सीमाओं को उजागर करता है । जिजेक के दार्शनिक चिंतन को निरूपित करने वाला उनका एक प्रमुख ग्रंथ है - 'Absolute Recoil' (परम प्रत्यावर्त्तन)। इसमें एक अध्याय है 'The wound' (ज़ख़्म), जिसमें उन्होंने इस विषय को अपने विचार का विषय बनाया है । इसमें हाइडेगर की अतिंद्रियता के ऐतिहासीकरण (Historicisation of transcendentalise) पर चर्चा के क्रम में में वे भारतीय संदर्भ में आते हैं और इसे बौद्धों के निर्वाण आदि से अलग करते है । इसी में उपनिवेशवाद-विरोधी प्रत्यावर्त्तन का विषय उठाते हुए उन भारतीय सिद्धांतकारों का उल्लेख करते हैं जो अंग्रेज़ी भाषा के प्रयोग की अपनी मजबूरी के कारण इस सांस्कृतिक उपनिवेशवाद को अपनी सच्ची अस्मिता के दमन के रूप में देखते हैं ।

जिजेक उनसे कहते हैं कि “इस विदेशी भाषा के आरोपण ने ही उनमें उत्पीड़न के उस अहसास को पैदा किया है, जिसमें जो उत्पीड़ित है वह पूर्व-औपनिवेशिक भारत नहीं है, बल्कि एक नया, सार्वलौकिक (universal)  और जनतांत्रिक भारत है ।” वे यहाँ तक कह जाते हैं कि अंग्रेज़ों के आने के पहले भारत में कोई नियम-क़ानून नहीं था, सिर्फ वर्णवादी नियम थे । श्दलितों के लिये सिर्फ कर्त्तव्य थे, अधिकार नहीं । अंग्रेज़ों ने क़ानून का शासन, सभी भारतवासियों की समानता की परिस्थितियाँ तैयार कीं ।’ ( देखें, , Slavoj Zizek, Absolute Recoil, page - 132-133) ।

कहना न होगा, जिजेक का यह दृष्टिकोण भी विलियम जोन्स के उसी जानबूझकर कर अपनाये गये पूर्वाग्रहों से भरे दृष्टिकोण से दूषित है, जिसमें 11वीं सदी के बाद से भारतीय समाज में इस्लामिक सार्वलौकिकता और इस्लामिक क़ानूनों के संपर्क से तैयार हो रहे भारत की एक सिरे से उपेक्षा की गई थी । जैसे अंग्रेज़ों के आने मात्र से भारतीय समाज जातिवाद से मुक्त नहीं हुआ था बल्कि इतिहास गवाह है कि उस पूरे काल में ब्राह्मणवादी वर्चस्व और भी ज़्यादा मज़बूत हुआ था, उसी प्रकार इस्लामिक शासकों के लंबे दौर में भी वर्ण-व्यवस्था का न टूटना बताता है कि यह मामला सिर्फ संस्कृति और विचारों का नहीं रहा है । इसमें शोषण पर टिके सामाजिक श्रम-विभाजन की सचाई काम करती रही है ।

इसीलिये, अगर लेनिन की शब्दावली का प्रयोग करें तो ऐसी आलोचना को, जिसमें रामचंद्र शुक्ल की तरह के सभी आधुनिक भारतीय आलोचक शामिल है, अधिक से अधिक “अनुर्वर पुष्प” कहा जा सकता है। ऐसा अनुर्वर पुष्प, पुरोहितवादी रूढ़िवाद - जिसकी हम मानते हैं, ‘अपनी ज्ञान मीमांसीय जड़े होती हैं और जो कुछ सजीव, उर्वर, असली, सशक्त, सर्वशक्तिसम्पन्न, वस्तुपरक, निरपेक्ष मानव-ज्ञान के जीवित वृक्ष पर उगता है।’

लेनिन ने अपनी प्रसिद्ध कृति Materialism and Empirio criticism  (भौतिकवाद और आनुभाविक आलोचना) में लिखा था “ किसी भी चीज की गति के ज्ञान, उसके स्वतः स्फूर्त विकास, उसके वास्तविक जीवन के ज्ञान की पहली शर्त है उसका वैपरित्यों की एकता के रूप में ज्ञान। वस्तु का विकास (evolution)  वैपरित्यों का संघर्ष है। “ यहां विकास का अर्थ है वृद्धि अथवा क्षय। जब भी किसी चीज की पुनरावृत्ति के रूप में उसका विकास होता है तो लेनिन के शब्दों में “उसकी प्रेरक शक्ति, उसका स्रोत, उसका प्रयोजन धुंधलके में रहता है। या उसे कोई बाह्य ईश्वरीय प्रयोजन मान लिया जाता है।”

लेकिन जब महज पुनरावृत्ति नहीं की जाती है तभी उसकी अपनी गति के स्रोत की ओर ध्यान दिया जाता है। पुनरावृत्ति के रास्ते को लेनिन ने 'निर्जीव, निष्प्रभ और शुष्क” बताया है और दूसरे रास्ते को 'सजीव'। इसी पथ से किसी भी अस्तित्वमान वस्तु की “ स्वगति” की कुंजी मिल सकती है। उसमें छलांग की, उसकी निरंतरता के क्रमभंग, उसके वैपरित्य में रूपांतरण की, पुराने के नष्ट होने ओर नये के उद्भव की कुंजी मिलती है।

यह अकारण नहीं है कि हमने अपनी किताब में आज की हिंदी आलोचना के ऐसे ही जगत को ऐसे झड़ चुके फूलों का कूड़ा, “आलोचना का कब्रिस्तान” कहा है। उस किताब में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी पर अपने लेख में हमने इसी बीमारी के और लक्षणों की विस्तार से चर्चा की थी । दरअसल, हिंदी आलोचना की मुक्ति 11वीं सदी से 18 वीं सदी के निषेध पर टिकी आलोचना के निषेध से ही संभव है । इसीलिये हमारा ध्यान बार -बार अभिनवगुप्त और उनका प्रत्यभिज्ञा दर्शन के महत्व की ओर जाता है । इस पर अलग, काफी गहराई से काम करने की ज़रूरत है ।



शनिवार, 17 जून 2017

कृषि क्षेत्र भारतीय पूँजीवाद के लिये उपनिवेश बन चुका है ; नोटबंदी ने इस कटु यथार्थ को सबसे नग्न रूप में जाहिर किया है


-अरुण माहेश्वरी 

'पश्चिम बंगाल में मौन क्रांति' शीर्षक हमारी किताब में एक अध्याय है पश्चिम बंगाल की ग्रामीण संरचना में अलग-अलग वर्गों की अवस्थिति पर इसमें मुट्ठी भर ज़मींदारों का एक तबका आता है जिसका एक समय में इस सामाजिक संरचना पर पूरा वर्चस्व था और इस किताब में जिस मौन क्रांति को रूपायित किया गया है, वह इसी सामंती वर्ग के वर्चस्व को तोड़ने वाली क्रांति थी भूमि सुधार और आपरेशन वर्गा के ज़रिये संगठित इस क्रांति ने बंटाईदारों और भूमिहीन ग़रीब किसानों का सशक्तीकरण किया पंचायती राज के क़दमों ने खेत मज़दूरों को भी उनकी सदियों की वंचना से बाहर निकाला  

ज़मींदारों, ग़रीब किसानों, खेत मज़दूरों के अलावा गाँवों में ग़ैर-कृषि कार्यों में लगा हमेशा से एक तबका रहा है जो कारीगरी के कामों के अलावा कृषि सामग्रियों के व्यापार और सरकारी ठेकेदारी आदि से जुड़ा होता है अपने अध्ययन में हमने पाया कि सामंती परिवारों की संततियों ने अधिकांशत: या तो पढ़-लिख कर शहरों में नौकरियां करने की ओर रुख़ किया या गाँवों में इन छोटे-मोटे इन कारोबारों को अपना लिया  

पश्चिम बंगाल की ग्रामीण संरचना में वर्गीय शक्तियों के संतुलन में किये गये बदलाव के साथ ही किसान आंदोलन के सामने दूसरा बड़ा प्रश्न यह उठ खड़ा हुआ कि भूमि सुधार के कामों से जिन लोगों को जमीनें मिली, उनके लिये कैसे खेती के काम को लाभजनक बनाया जाए ताकि यह तबका जिंदा भर रहने के लिये ही फिर से अपनी जमीनों को पैसे वालों को सौंपने के लिये मजबूर हो इसमें सरकार द्वारा सस्ते में खाद, बीज आदि की आपूर्ति का एक पहलू था, वहीं किसानों को कृषि उत्पादों की सही क़ीमत मिले, वह भी कम महत्वपूर्ण नहीं था  

ग़ौर करने की बात यह थी कि राज्य सरकार के पास तो कृषि में लगातार बढ़ रही लागत को क़ाबू में रखने का कोई तरीक़ा था और कृषि उत्पादों के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य को सुनिश्चित करने के मामले में राज्य सरकार के पास उपयुक्त वित्तीय शक्ति ही कभी थी विकास के शहर-केंद्रित मॉडल के कारण सरकारों के संसाधनों पर औद्योगीकरण और शहरीकरण के कार्यों का दबाव हमेशा बना रहता है  

इसके अलावा खेत मज़दूरों की मजूरी में वृद्धि का पहलू भी कृषि में लागत मूल्य को बढ़ाता है इससे ग्रामीण क्षेत्र के अंतर्विरोधों में किसानों और मज़दूरों के हितों में भी एक टकराहट रहती है इस मामले में पिछले दिनों मनरेगा की तरह के कार्यक्रमों ने खेत मज़दूरों और ग़रीब किसानों को थोड़ा बल पहुँचाया है  

इसी परिप्रेक्ष्य में पश्चिम बंगाल में काफी लंबे अर्से तक किसान सभा के अलावा अलग से खेतमजदूरों का संगठन ही नहीं बना था वामपंथी किसान आंदोलन से परिचित लोग इस तथ्य को जानते हैं कि पश्चिम बंगाल के किसान आंदोलन का नेतृत्व खेत मज़दूरों के लिये अलग से संगठन बनाने के पक्ष में नहीं था काफी लंबे दिनों तक खींचतान के बाद वहाँ खेतमजदूर संगठन की नींव रखी गई जबकि देश के दूसरे हिस्सों में काफी पहले ही खेतमजदूरों का अलग संगठन बन चुका था  

इस प्रसंग पर आज इसलिये गहराई से ग़ौर करने की ज़रूरत है कि ग्रामीण वर्गीय संरचना के अपने विरोधों से परे, शुरू से पश्चिम बंगाल के विकसित किसान आंदोलन ने पूँजीवाद के साथ व्यापक किसान जनता के एक विरोध को देखा था भूमि सुधार के कामों के बाद तो वह पहलू हर लिहाज से महत्वपूर्ण हो गया था क्योंकि यह छोटी-छोटी जोत के मालिक किसानों के लिये जीवन-मरण का प्रश्न बन गया था। पश्चिम बंगाल के किसान आंदोलन ने धान के अलावा आलू तथा दूसरे कृषि उत्पादों के उचित मूल्य को हासिल करने के लिये किसानों के सहकारों के गठन में जो अग्रणी भूमिका अदा की थी, वही आज भी वहाँ के कृषि क्षेत्र की जीवन-रेखा के रूप में काम कर रहा है। 

भारत के दूसरे हिस्सों में पश्चिम बंगाल और केरल की तरह सघन भूमि सुधार का काम नहीं हुआ है, लेकिन इसके बावजूद आबादी में भारी वृद्धि ने किसान परिवारों के प्रति व्यक्ति जोत के रकबे को काफी छोटा कर दिया है इसके अलावा कृषि में लागत और उत्पादों के समर्थन मूल्य का सवाल सभी जगह एक जैसा ही है इसीलिये आज क्रमश: भारतीय पूँजीवाद के लिये पूरा कृषि क्षेत्र उसके उपनिवेश का रूप लेता जा रहा है और इसका मुक़ाबला किसान जनता की व्यापकतम एकता के ज़रिये ही किया जा सकता है  

कृषि क्षेत्र के प्रति इस औपनिवेशिक दृष्टिकोण का एक सबसे जघन्य रूप दिखाई दिया था नरेंद्र मोदी के नोटबंदी के कदम ने यह कार्रवाई गाँव के तमाम लोगों के घरों में जमा मामूली पूँजी को भी बैंकिंग प्रणाली में खींच कर उसे पूँजीपतियों की सेवा में लगाने की सबसे निष्ठुर कार्रवाई थी इसने गाँवों के दरिद्रीकरण की प्रक्रिया को एक झटके में इतना तेज़ कर दिया जिसकी आसानी से कल्पना भी नहीं की जा सकती थी


कृषि क्षेत्र के साथ इजारेदाराना पूँजीवाद के मुख्य अंतर्विरोध के इस सच को अगर सही ढंग से समझा गया तो देहाती इलाक़ों में वामपंथी आंदोलन को अपने कामों की दिशा को सुनिश्चित करना कठिन होगा इस मामले में पश्चिम बंगाल के अनुभवों से बहुत कुछ सीखा जा सकता है