हैदराबाद में सीपीआई(एम) में येचुरी की लाइन की जीत पर :
—अरुण माहेश्वरी
हैदराबाद में सीपीआई(एम) की बाईसवीं कांग्रेस (18-22 अप्रैल 2018) में जो हुआ, वह कोई साधारण बात नहीं है । आज के जिस दौर में हम राजनीति में सिर्फ शरीर की शक्ति, छप्पन इंच, संख्या बल और जिसकी लाठी उसकी भैंस के तत्व के 'खुला खेल फर्रूखाबादी' को देखने के अभ्यस्त हैं, राजनीति में विचार, विवेक, तर्क और चेतना शक्ति की भूमिका को ही हम भूलते जा रहे हैं, उस दौर में तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद सीताराम येचुरी की अल्पमत की लाइन का विजयी होना, सिर्फ सीपीआई(एम) में तर्क और विवेक की, राजनीति के यथार्थ-बोध और विचारधारात्मक लक्ष्यों के बीच संगति की विजय की घटना नहीं है, यह राजनीति मात्र के लिये सामान्य रूप से एक उल्लेखनीय बात है ।
सीपीआई(एम) के वयोवृद्ध, चौरानबे वर्षीय नेता अच्युतानंदन, जो पार्टी के स्थापनाकर्ताओं में जिंदा दो नेताओं में से एक हैं, ने पार्टी की इस कांग्रेस के अनुभव के बाद कहा कि “1964 में हमने एक राजनीतिक सदिच्छा के साथ सीपीआई से अलग हो कर सीपीआई(एम) की यात्रा शुरू की थी और आज फिर मैं यह कह सकता हूं कि हम वैसी ही राजनीतिक सदिच्छा के साथ कामरेड सीताराम येचुरी के नेतृत्व में सांप्रदायिक फासीवाद के विरूद्ध जनता की व्यापकतम लड़ाई की दिशा में उतरने के लिये तत्पर हैं ।”
सीपीआई(एम) में पिछले कई सालों से एक खास प्रकार की संकुचित 'क्रांतिकारी' समझ से चिपके लोगों का बहुमत रहा है, जो देश के राजनीतिक यथार्थ से पूरी तरह से कट कर अपनी क्रांतिकारी पृथकता की साधना में आत्मलीन होते जा रहे थे । राजनीति में नाना प्रकार के गठजोड़ों-मोर्चों और सरकारों के खट्टे-मीठे अनुभवों के बाद अंत में वह सिर्फ वामपंथी शक्तियों के संकुचित मोर्चे में ही अपने लिये सुख-चैन की जगह देखने लगा था । संसदीय जनतंत्र में काम करने के अपने इतने सालों के समृद्ध अनुभवों को नकारते हुए वह खुद को देश के राजनीतिक नक्शे से ही लगभग अलग करता जा रहा था ।
जाहिर है कि यह भी अपने प्रकार का एक अलग क्रांतिकारी भोगवाद था, यथार्थ राजनीति के जगत के क्लेशों से दूर रहते हुए राजनीतिक योगियों का भोगवाद । 'किंचित्तकर्त्तृत्व', थोड़े से कर्त्तृत्व की संकुचितता से उत्पन्न अल्पज्ञता से लिपटा भोगवाद । कम्युनिस्ट राजनीति के शास्त्रों से ही इसके पक्ष में नाना प्रकार के तर्कों और मारक-मंत्रों को ढूंढ लिया जाता था । मसलन्, 'संसदवाद' से लेकर 'नव-उदारवाद' तक के रोगों से बचने और उनके ताड़न का तर्क । सीपीआई(एम) में यह सिलसिला खास तौर पर सन् 1996 से शुरू हुआ था जब 'बूढ़े (ज्योति बसु) को प्रधानमंत्री बनने का मोह सता रहा है' की तरह के तिरस्कार के क्रांतिकारी भाव-बोध के साथ ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने के प्रस्ताव को ठुकरा दिया गया और एक प्रकार से, प्रकारांतर से सीपीआई(एम) को भारत की सत्ता की लड़ाई से अलग कर लिया गया था । फिर 2004 में यूपीए-1 के काल में एक और मौका आया, लेकिन इस बार भारत को अमेरिकी प्रभुत्व से मुक्त रखने और इस प्रकार 'नव-उदारवाद' के छूत के रोग से पार्टी को बचाने के उत्साह में उससे अलग हो कर भारत में वामपंथ की गिरावट के एक नये आख्यान की रचना का सिलसिला शुरू किया गया । पुन:, मोदी के सत्ता में आने के बाद, जब यह साफ दिखाई दे रहा है कि यह एक फासीवादी ताकत का सत्ता पर आना है, यह सिर्फ पूंजीवादी जनतंत्र की एक विकृति नहीं है, फिर भी फासीवाद में भेदों की भ्रांतियों से उसके खिलाफ जनता के व्यापक एकजुट संघर्ष की अहमियत से इंकार की कोशिश की जाने लगी । इस प्रकार अपने ही खोल में दुबके रहने के तर्क ढूंढे जाते रहे ।
हैदराबाद कांग्रेस में जाने के पहले तीन दिनों तक कोलकाता में सीपीआई(एम) की केंद्रीय कमेटी इसी सवाल पर सिर गड़ाये बैठी रही थी कि इस लड़ाई में कांग्रेस दल के साथ कोई भी ताल-मेल किया जायेगा या नहीं ? और, हैदराबाद कांग्रेस के लिये जो राजनीतिक-कार्यनीतिक लाइन का प्रस्ताव बहुमत से पारित किया गया, उसमें पार्टी के महासचिव सीताराम येचुरी की राय के विरुद्ध यही कहा गया कि कांग्रेस दल के साथ कहीं किसी प्रकार का कोई ताल-मेल नहीं होगा । हमारी नजर में यह भारत में वामपंथी राजनीति के लिये किसी आत्महंता राजनीति की तरह था ।
बहरहाल, इस बात का पूरा श्रेय सीताराम येचुरी को जाता है कि कोलकाता में उनके मत को मिले इतने बड़े झटके के बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी । देश के लगभग 15 प्रदेशों में पार्टी के राज्य सम्मेलनों में घूम-घूम कर उन्होंने अपने विचारों को पार्टी के आम कार्यकर्ताओं के सामने व्याख्यायित करने की कोशिश की । और देखा गया कि हैदराबाद में पार्टी कांग्रेस में जाने के पहले उसके राजनीतिक प्रस्ताव में देश भर से लगभग आठ हजार संशोधन आए जिनमें से अधिकांश संशोधन इसी बात पर थे कि 'कांग्रेस दल के साथ कोई प्रकार का तालमेल नहीं होगा' की बात को प्रस्ताव से हटा दिया जाए । इसी का परिणाम हुआ कि पार्टी के बिल्कुल नीचे के स्तर से उठी इस भारी आवाज की अहमियत की उसके शीर्ष पर बैठे क्रांतिकारी श्रेष्ठिजन अवहेलना नहीं कर सके । सीताराम येचुरी बहुमतवादियों की सारी किलेबंदी के बावजूद न सिर्फ फिर से पार्टी के महासचिव चुन लिये गये, बल्कि फासीवादी भाजपा के खिलाफ जनता के व्यापकतम राजनीतिक मोर्चे की लाइन भी, जिसमें देश के प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस के साथ तालमेल रखना भी शामिल है, विजयी हुई ।
यह फैसला भारत में वामपंथ के पक्ष में आगे कितना कारगर होगा, इसके पीछे तो दूसरे भी अनेक पहलू काम करेंगे । लेकिन सीपीआई(एम) में जिस प्रकार से शुद्ध रूप में तर्क और विवेक के बल पर एक राजनीतिक लाइन अपने को स्थापित करने में सफल हुई है, यह परिघटना भारतीय राजनीति की अनंत संभावनाओं के बारे में किसी को भी आशान्वित कर सकता है । इसीलिये हम इसे भारत की राजनीति की एक बहुत महत्वपूर्ण घटना मानते हैं । सीपीआई(एम) से जुड़ा हर कार्यकर्ता इस पर गर्व करने का हकदार है ।
—अरुण माहेश्वरी
हैदराबाद में सीपीआई(एम) की बाईसवीं कांग्रेस (18-22 अप्रैल 2018) में जो हुआ, वह कोई साधारण बात नहीं है । आज के जिस दौर में हम राजनीति में सिर्फ शरीर की शक्ति, छप्पन इंच, संख्या बल और जिसकी लाठी उसकी भैंस के तत्व के 'खुला खेल फर्रूखाबादी' को देखने के अभ्यस्त हैं, राजनीति में विचार, विवेक, तर्क और चेतना शक्ति की भूमिका को ही हम भूलते जा रहे हैं, उस दौर में तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद सीताराम येचुरी की अल्पमत की लाइन का विजयी होना, सिर्फ सीपीआई(एम) में तर्क और विवेक की, राजनीति के यथार्थ-बोध और विचारधारात्मक लक्ष्यों के बीच संगति की विजय की घटना नहीं है, यह राजनीति मात्र के लिये सामान्य रूप से एक उल्लेखनीय बात है ।
सीपीआई(एम) के वयोवृद्ध, चौरानबे वर्षीय नेता अच्युतानंदन, जो पार्टी के स्थापनाकर्ताओं में जिंदा दो नेताओं में से एक हैं, ने पार्टी की इस कांग्रेस के अनुभव के बाद कहा कि “1964 में हमने एक राजनीतिक सदिच्छा के साथ सीपीआई से अलग हो कर सीपीआई(एम) की यात्रा शुरू की थी और आज फिर मैं यह कह सकता हूं कि हम वैसी ही राजनीतिक सदिच्छा के साथ कामरेड सीताराम येचुरी के नेतृत्व में सांप्रदायिक फासीवाद के विरूद्ध जनता की व्यापकतम लड़ाई की दिशा में उतरने के लिये तत्पर हैं ।”
सीपीआई(एम) में पिछले कई सालों से एक खास प्रकार की संकुचित 'क्रांतिकारी' समझ से चिपके लोगों का बहुमत रहा है, जो देश के राजनीतिक यथार्थ से पूरी तरह से कट कर अपनी क्रांतिकारी पृथकता की साधना में आत्मलीन होते जा रहे थे । राजनीति में नाना प्रकार के गठजोड़ों-मोर्चों और सरकारों के खट्टे-मीठे अनुभवों के बाद अंत में वह सिर्फ वामपंथी शक्तियों के संकुचित मोर्चे में ही अपने लिये सुख-चैन की जगह देखने लगा था । संसदीय जनतंत्र में काम करने के अपने इतने सालों के समृद्ध अनुभवों को नकारते हुए वह खुद को देश के राजनीतिक नक्शे से ही लगभग अलग करता जा रहा था ।
जाहिर है कि यह भी अपने प्रकार का एक अलग क्रांतिकारी भोगवाद था, यथार्थ राजनीति के जगत के क्लेशों से दूर रहते हुए राजनीतिक योगियों का भोगवाद । 'किंचित्तकर्त्तृत्व', थोड़े से कर्त्तृत्व की संकुचितता से उत्पन्न अल्पज्ञता से लिपटा भोगवाद । कम्युनिस्ट राजनीति के शास्त्रों से ही इसके पक्ष में नाना प्रकार के तर्कों और मारक-मंत्रों को ढूंढ लिया जाता था । मसलन्, 'संसदवाद' से लेकर 'नव-उदारवाद' तक के रोगों से बचने और उनके ताड़न का तर्क । सीपीआई(एम) में यह सिलसिला खास तौर पर सन् 1996 से शुरू हुआ था जब 'बूढ़े (ज्योति बसु) को प्रधानमंत्री बनने का मोह सता रहा है' की तरह के तिरस्कार के क्रांतिकारी भाव-बोध के साथ ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने के प्रस्ताव को ठुकरा दिया गया और एक प्रकार से, प्रकारांतर से सीपीआई(एम) को भारत की सत्ता की लड़ाई से अलग कर लिया गया था । फिर 2004 में यूपीए-1 के काल में एक और मौका आया, लेकिन इस बार भारत को अमेरिकी प्रभुत्व से मुक्त रखने और इस प्रकार 'नव-उदारवाद' के छूत के रोग से पार्टी को बचाने के उत्साह में उससे अलग हो कर भारत में वामपंथ की गिरावट के एक नये आख्यान की रचना का सिलसिला शुरू किया गया । पुन:, मोदी के सत्ता में आने के बाद, जब यह साफ दिखाई दे रहा है कि यह एक फासीवादी ताकत का सत्ता पर आना है, यह सिर्फ पूंजीवादी जनतंत्र की एक विकृति नहीं है, फिर भी फासीवाद में भेदों की भ्रांतियों से उसके खिलाफ जनता के व्यापक एकजुट संघर्ष की अहमियत से इंकार की कोशिश की जाने लगी । इस प्रकार अपने ही खोल में दुबके रहने के तर्क ढूंढे जाते रहे ।
हैदराबाद कांग्रेस में जाने के पहले तीन दिनों तक कोलकाता में सीपीआई(एम) की केंद्रीय कमेटी इसी सवाल पर सिर गड़ाये बैठी रही थी कि इस लड़ाई में कांग्रेस दल के साथ कोई भी ताल-मेल किया जायेगा या नहीं ? और, हैदराबाद कांग्रेस के लिये जो राजनीतिक-कार्यनीतिक लाइन का प्रस्ताव बहुमत से पारित किया गया, उसमें पार्टी के महासचिव सीताराम येचुरी की राय के विरुद्ध यही कहा गया कि कांग्रेस दल के साथ कहीं किसी प्रकार का कोई ताल-मेल नहीं होगा । हमारी नजर में यह भारत में वामपंथी राजनीति के लिये किसी आत्महंता राजनीति की तरह था ।
बहरहाल, इस बात का पूरा श्रेय सीताराम येचुरी को जाता है कि कोलकाता में उनके मत को मिले इतने बड़े झटके के बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी । देश के लगभग 15 प्रदेशों में पार्टी के राज्य सम्मेलनों में घूम-घूम कर उन्होंने अपने विचारों को पार्टी के आम कार्यकर्ताओं के सामने व्याख्यायित करने की कोशिश की । और देखा गया कि हैदराबाद में पार्टी कांग्रेस में जाने के पहले उसके राजनीतिक प्रस्ताव में देश भर से लगभग आठ हजार संशोधन आए जिनमें से अधिकांश संशोधन इसी बात पर थे कि 'कांग्रेस दल के साथ कोई प्रकार का तालमेल नहीं होगा' की बात को प्रस्ताव से हटा दिया जाए । इसी का परिणाम हुआ कि पार्टी के बिल्कुल नीचे के स्तर से उठी इस भारी आवाज की अहमियत की उसके शीर्ष पर बैठे क्रांतिकारी श्रेष्ठिजन अवहेलना नहीं कर सके । सीताराम येचुरी बहुमतवादियों की सारी किलेबंदी के बावजूद न सिर्फ फिर से पार्टी के महासचिव चुन लिये गये, बल्कि फासीवादी भाजपा के खिलाफ जनता के व्यापकतम राजनीतिक मोर्चे की लाइन भी, जिसमें देश के प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस के साथ तालमेल रखना भी शामिल है, विजयी हुई ।
यह फैसला भारत में वामपंथ के पक्ष में आगे कितना कारगर होगा, इसके पीछे तो दूसरे भी अनेक पहलू काम करेंगे । लेकिन सीपीआई(एम) में जिस प्रकार से शुद्ध रूप में तर्क और विवेक के बल पर एक राजनीतिक लाइन अपने को स्थापित करने में सफल हुई है, यह परिघटना भारतीय राजनीति की अनंत संभावनाओं के बारे में किसी को भी आशान्वित कर सकता है । इसीलिये हम इसे भारत की राजनीति की एक बहुत महत्वपूर्ण घटना मानते हैं । सीपीआई(एम) से जुड़ा हर कार्यकर्ता इस पर गर्व करने का हकदार है ।