—अरुण माहेश्वरी
2019 के शिखर से मोदी के ढलान का रास्ता जो शुरू हुआ है, दिल्ली ने उसमें एक जोरदार धक्के का काम किया है ।
मोदी के दूत अमित शाह रावण के मेघनादों और कुंभकर्णों की तरह रणभूमि में आकर खूब गरजे-बरसे थे, पर ज्यादा टिक नहीं सके । शाहीन बाग पर तिरछी नजर के चलते उनके सारे वाण निशाने से भटकते चले गए और अन्त में कोरी हंसी का पात्र साबित हुए । मोदी और शाह अभी तक गैस चैंबर के बजाय, करेंट लगाने की नई भाषा तक पहुंचे हैं । दिल्ली चुनाव के बाद ‘टेलिग्राफ’ ने इन दोनों की करेंट लगने से ऊपर से नीचे तक झन्ना गये आदमी के तरह की तस्वीर छापी है । तीन दिन तक मुंह छिपाए बैठने के बाद अमित शाह ने अनुराग ठाकुर जैसे बौनों पर इस हार का ठीकरा फोड़ा और मोदी तो अभी तक अपनी नेहरू-ग्रंथी में ही फंसे हुए गुमसुम पड़े हैं ।
भारी भरकम शाह की कुटिलताओं के सामने एक मुस्कुराती हुई दुबली-पतली झाड़ू छाप सफेद टोपी बाजी मार ले गई । मोदी-शाह-आरएसएस की तिकड़ी ने संविधान में संशोधन के लिये जरूरी प्रक्रियाओं के अनुपालन के बजाय सुप्रीम कोर्ट के जजों को जेब में रख कर काम चला लेने का जो घातक हथियार ईजाद किया है, उसके बल पर देश के तमाम नागरिकों को अपनी गुलामी के फंदे में डाल देने की जो दुस्साहसकारी दिशा इस तिकड़ी ने पकड़ी है, दिल्ली के लोगों ने इसे बखूबी पकड़ा है । हमारे संविधान निर्माताओं ने संविधान की मूल भावना के साथ कोई छेड़-छाड़ न कर सके, इसकी कागजों पर कई व्यवस्थाएं की थी । इसकी प्रक्रिया को कठिन बनाया था । लेकिन मोदी-शाह-आरएसएस तिकड़ी ने इन सारी व्यवस्थाओं की एक काट निकाली, जजों को काबू में कर लो, सब सध जाएगा । सुप्रीम कोर्ट को जेब में लेकर संविधान में संशोधन को एकदम सरल बना दिया । बिना संशोधन के संशोधित कर दिया ।
बहरहाल, राजनीति यदि जीवन की जरूरतों से नहीं जुड़ी है तो उससे उनका भी कोई सरोकार नहीं है, इस अवबोध को दिल्ली के मतदाताओं के एक बड़े हिस्से में पैदा करने में केजरीवाल सफल हुए, और मोदी-शाह यहां फिर एक बार चारो खाने चित्त हो गये ।
दरअसल, राजनीति का क्षेत्र जितना विचारधारात्मक होता है, उससे कम व्यवहारिक नहीं होता है । यह विचारों के व्यवहारिक प्रयोग का क्षेत्र है । इसमें तत्काल का किसी सनातन से कम महत्व नहीं होता । भेदाभेद की असली बृहत्तर सामाजिक भूमि है यह । राजनीति में जड़सूत्रता और अवसरवाद, वामपंथी और दक्षिणपंथी भटकाव सिद्धांत और व्यवहार के बीच के बेमेलपन से ही पैदा होते हैं । राजनीति की सर्जनात्मकता इन दोनों के बीच मेल की कोशिशों का स्फोट होती है ।
केजरीवाल मोदी-विरोधी है, उन्होंने मोदी-शाह के नागरिकता के विध्वंसक प्रकल्प का समर्थन नहीं किया है, शाहीनबाग के प्रति उनकी जघन्य नफरत को नहीं स्वीकारा है । सांप्रदायिकता को अपने प्रचार से कोसों दूर रखा है। इसके साथ ही उन्होंने जनता के जीवन के वास्तविक सरोकारों को राजनीति के व्यवहारिक पहलू के तौर पर समान अहमियत दी । अपने पिछले पांच साल के संतुलित शासन को मोदी के स्वेच्छाचारी तौर-तरीकों की तुलना में खड़ा करके उसकी अहमियत को अच्छी तरह पेश किया । और, वे विजयी हुए । सिर्फ विजयी नहीं, दिल्ली राज्य के छत्रपति साबित हुए ।
भारत की राजनीति में अभी जनतंत्र और फासीवाद के बीच जो संघर्ष चल रहा है, वह कोई आसान संघर्ष नहीं है । वह एक लंबी, कठिन और जटिल लड़ाई है । ऐसे संघर्षों के द्वंद्व में शामिल दोनों पक्ष के अलग-अलग समुच्चयों के बीच कभी पूर्ण संहति हो ही नहीं सकती है । इन समुच्चयों की आंतरिक संरचना में भी हर क्षण बदलाव की गुंजाईश बनी रहेगी । वामपंथियों की एक गति होगी, कांग्रेस और उसके यूपीए के सहयोगियों की दूसरी, शिव सेना, ममता, केजरीवाल, स्तालिन, चंद्रबाबू आदि की तीसरी गति होगी । कुल मिला कर फासीवाद के अलग-अलग लक्षणों से प्रभावित समूह और उनके समुच्चय समग्र रूप से फासीवाद-विरोधी एक बड़ी गोलबंदी में शामिल हो कर उसे बल प्रदान करते हैं ।
ऐसे में इस व्यापक गोलबंदी के किसी भी एक या दूसरे समूह से किसी एक खास रंग में रंग कर इस व्यापक समुच्चय में शामिल होने की मांग कोरी हठवादिता है । समुच्चयों की परस्पर अन्तरक्रिया प्रत्येक समूह को अपने तरीके से प्रभावित और संयोजित करती है और करती रहेगी ।
यही वजह है कि दिल्ली में आप की जीत को उसकी समग्रता में, फासीवाद-विरोधी गोलबंदी की सचाई में देखने के बजाय दूसरे विचारधारात्मक आग्रहों से परखने की कोशिश राजनीति मात्र के वैचारिक और व्यवहारिक स्वरूप की समंजित गति से आंख मूंदना है और उसे सिर्फ वैचारिक संघर्ष के एक पटल के रूप में देखने की अतिवादी भूल करना है ।
अमित शाह सत्ता की धौंसपट्टी के अपने खेल में हरियाणा में सफल होने पर भी महाराष्ट्र में बुरी तरह से पराजित हुए, और दिल्ली में तो उन्हें सीधे जनता ने पटखनी दे दी । यह अलग-अलग स्तर से फासीवाद को मिल रही चुनौतियों का सच है । इनमें से किसी को भी कमतर नहीं समझना चाहिए । फासीवाद पर हर एक प्रहार महत्वपूर्ण है और उसका स्वागत किया जाना चाहिए ।
हम पुनः दोहरायेंगे, फासीवाद से संघर्ष का रास्ता किसी भी क्रांति के टेढ़े-मेढ़े जटिल रास्ते से भिन्न नहीं है और इसका अंतिम परिणाम भी समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन के कारक के रूप में सामने आयेगा ।
2019 के शिखर से मोदी के ढलान का रास्ता जो शुरू हुआ है, दिल्ली ने उसमें एक जोरदार धक्के का काम किया है ।
मोदी के दूत अमित शाह रावण के मेघनादों और कुंभकर्णों की तरह रणभूमि में आकर खूब गरजे-बरसे थे, पर ज्यादा टिक नहीं सके । शाहीन बाग पर तिरछी नजर के चलते उनके सारे वाण निशाने से भटकते चले गए और अन्त में कोरी हंसी का पात्र साबित हुए । मोदी और शाह अभी तक गैस चैंबर के बजाय, करेंट लगाने की नई भाषा तक पहुंचे हैं । दिल्ली चुनाव के बाद ‘टेलिग्राफ’ ने इन दोनों की करेंट लगने से ऊपर से नीचे तक झन्ना गये आदमी के तरह की तस्वीर छापी है । तीन दिन तक मुंह छिपाए बैठने के बाद अमित शाह ने अनुराग ठाकुर जैसे बौनों पर इस हार का ठीकरा फोड़ा और मोदी तो अभी तक अपनी नेहरू-ग्रंथी में ही फंसे हुए गुमसुम पड़े हैं ।
भारी भरकम शाह की कुटिलताओं के सामने एक मुस्कुराती हुई दुबली-पतली झाड़ू छाप सफेद टोपी बाजी मार ले गई । मोदी-शाह-आरएसएस की तिकड़ी ने संविधान में संशोधन के लिये जरूरी प्रक्रियाओं के अनुपालन के बजाय सुप्रीम कोर्ट के जजों को जेब में रख कर काम चला लेने का जो घातक हथियार ईजाद किया है, उसके बल पर देश के तमाम नागरिकों को अपनी गुलामी के फंदे में डाल देने की जो दुस्साहसकारी दिशा इस तिकड़ी ने पकड़ी है, दिल्ली के लोगों ने इसे बखूबी पकड़ा है । हमारे संविधान निर्माताओं ने संविधान की मूल भावना के साथ कोई छेड़-छाड़ न कर सके, इसकी कागजों पर कई व्यवस्थाएं की थी । इसकी प्रक्रिया को कठिन बनाया था । लेकिन मोदी-शाह-आरएसएस तिकड़ी ने इन सारी व्यवस्थाओं की एक काट निकाली, जजों को काबू में कर लो, सब सध जाएगा । सुप्रीम कोर्ट को जेब में लेकर संविधान में संशोधन को एकदम सरल बना दिया । बिना संशोधन के संशोधित कर दिया ।
बहरहाल, राजनीति यदि जीवन की जरूरतों से नहीं जुड़ी है तो उससे उनका भी कोई सरोकार नहीं है, इस अवबोध को दिल्ली के मतदाताओं के एक बड़े हिस्से में पैदा करने में केजरीवाल सफल हुए, और मोदी-शाह यहां फिर एक बार चारो खाने चित्त हो गये ।
दरअसल, राजनीति का क्षेत्र जितना विचारधारात्मक होता है, उससे कम व्यवहारिक नहीं होता है । यह विचारों के व्यवहारिक प्रयोग का क्षेत्र है । इसमें तत्काल का किसी सनातन से कम महत्व नहीं होता । भेदाभेद की असली बृहत्तर सामाजिक भूमि है यह । राजनीति में जड़सूत्रता और अवसरवाद, वामपंथी और दक्षिणपंथी भटकाव सिद्धांत और व्यवहार के बीच के बेमेलपन से ही पैदा होते हैं । राजनीति की सर्जनात्मकता इन दोनों के बीच मेल की कोशिशों का स्फोट होती है ।
केजरीवाल मोदी-विरोधी है, उन्होंने मोदी-शाह के नागरिकता के विध्वंसक प्रकल्प का समर्थन नहीं किया है, शाहीनबाग के प्रति उनकी जघन्य नफरत को नहीं स्वीकारा है । सांप्रदायिकता को अपने प्रचार से कोसों दूर रखा है। इसके साथ ही उन्होंने जनता के जीवन के वास्तविक सरोकारों को राजनीति के व्यवहारिक पहलू के तौर पर समान अहमियत दी । अपने पिछले पांच साल के संतुलित शासन को मोदी के स्वेच्छाचारी तौर-तरीकों की तुलना में खड़ा करके उसकी अहमियत को अच्छी तरह पेश किया । और, वे विजयी हुए । सिर्फ विजयी नहीं, दिल्ली राज्य के छत्रपति साबित हुए ।
भारत की राजनीति में अभी जनतंत्र और फासीवाद के बीच जो संघर्ष चल रहा है, वह कोई आसान संघर्ष नहीं है । वह एक लंबी, कठिन और जटिल लड़ाई है । ऐसे संघर्षों के द्वंद्व में शामिल दोनों पक्ष के अलग-अलग समुच्चयों के बीच कभी पूर्ण संहति हो ही नहीं सकती है । इन समुच्चयों की आंतरिक संरचना में भी हर क्षण बदलाव की गुंजाईश बनी रहेगी । वामपंथियों की एक गति होगी, कांग्रेस और उसके यूपीए के सहयोगियों की दूसरी, शिव सेना, ममता, केजरीवाल, स्तालिन, चंद्रबाबू आदि की तीसरी गति होगी । कुल मिला कर फासीवाद के अलग-अलग लक्षणों से प्रभावित समूह और उनके समुच्चय समग्र रूप से फासीवाद-विरोधी एक बड़ी गोलबंदी में शामिल हो कर उसे बल प्रदान करते हैं ।
ऐसे में इस व्यापक गोलबंदी के किसी भी एक या दूसरे समूह से किसी एक खास रंग में रंग कर इस व्यापक समुच्चय में शामिल होने की मांग कोरी हठवादिता है । समुच्चयों की परस्पर अन्तरक्रिया प्रत्येक समूह को अपने तरीके से प्रभावित और संयोजित करती है और करती रहेगी ।
यही वजह है कि दिल्ली में आप की जीत को उसकी समग्रता में, फासीवाद-विरोधी गोलबंदी की सचाई में देखने के बजाय दूसरे विचारधारात्मक आग्रहों से परखने की कोशिश राजनीति मात्र के वैचारिक और व्यवहारिक स्वरूप की समंजित गति से आंख मूंदना है और उसे सिर्फ वैचारिक संघर्ष के एक पटल के रूप में देखने की अतिवादी भूल करना है ।
अमित शाह सत्ता की धौंसपट्टी के अपने खेल में हरियाणा में सफल होने पर भी महाराष्ट्र में बुरी तरह से पराजित हुए, और दिल्ली में तो उन्हें सीधे जनता ने पटखनी दे दी । यह अलग-अलग स्तर से फासीवाद को मिल रही चुनौतियों का सच है । इनमें से किसी को भी कमतर नहीं समझना चाहिए । फासीवाद पर हर एक प्रहार महत्वपूर्ण है और उसका स्वागत किया जाना चाहिए ।
हम पुनः दोहरायेंगे, फासीवाद से संघर्ष का रास्ता किसी भी क्रांति के टेढ़े-मेढ़े जटिल रास्ते से भिन्न नहीं है और इसका अंतिम परिणाम भी समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन के कारक के रूप में सामने आयेगा ।