सोमवार, 28 दिसंबर 2020

किसान आंदोलन, किसान सभा और राजनीतिक पार्टियाँ

 —अरुण माहेश्वरी


भारत के वर्तमान किसान आंदोलन ने अपनी जो खास गति पकड़ ली है उससे आज लगता है जैसे भारत का पूरा राजनीतिक संस्थान हतप्रभ है । सिद्धांतों में कृषि क्षेत्र के समग्र संकट की बात तो तमाम राजनीतिक दल किसी न किसी रूप में करते रहे हैं, लेकिन इस समग्र संकट का विस्फोट इतने और इस प्रकार के व्यापक जन-आंदोलन के रूप में हो सकता है, जिसमें देश का समूचा कृषि समाज अपने खुद के सारे कथित अन्तर्विरोधों को परे रख कर इजारेदाराना पूँजीवाद के ख़िलाफ़ एकजुट इकाई के रूप में, कृषि समाज और उसकी संस्कृति मात्र की रक्षा के लिए सामने आ जाएगा, यह इन सबकी कथित ‘कृषि संकट’ की समझ से बाहर था । कृषि संकट के बारे में चालू, एक प्रकार की मौखिक खाना-पूर्तियों वाली समझ के विपरीत इस आंदोलन ने जिस प्रकार के सामाजिक आलोड़न के स्वरूप को पेश किया है उसे न सिर्फ अभूतपूर्व, बल्कि चालू राजनीतिक शब्दावली के दायरे में अचिन्त्य (unthinkable) और अनुच्चरणीय (unpronounceable) भी कहा जा सकता है । मिथकों के बारे में कहा जाता है कि जब तक किसी मिथक के साथ कोई सामाजिक कर्मकांड नहीं जुड़ता है, तब तक उसकी कोई सामाजिक अहमियत नहीं होती है । उसी प्रकार जब तक किसी सामाजिक परिस्थिति की धारणा का किसी सामाजिक कार्रवाई के साथ संबंध नहीं जुड़ता है, उस कल्पना या विश्लेषण का कोई वास्तविक मायने नहीं हुआ करता है । इसीलिये अब तक कृषि संकट की सारी बातों के बावजूद इस संकट का सामाजिक स्वरूप इस किसान आंदोलन के जरिये जिस प्रकार सामने आया है, उसी से इस संकट का वह अर्थ प्रकट हुआ है जिसका इसके पहले किसी भी मंच पर सही-सही आकलन नहीं किया गया था । 

किसानों के इस आंदोलन में पूरे पंजाब के किसानों के संगठनों, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के महेन्द्र सिंह टिकैत के अनुयायी संगठन आदि के साथ ही वह अखिल भारतीय किसान सभा (AIKS) भी पूरे भारत के पैमाने पर शामिल है जिसका कृषि आंदोलनों का अपना एक ऐतिहासिक और स्वर्णिम इतिहास रहा है । सन् 1936 में इसके गठन के बाद जमींदारी उन्मूलन से लेकर हाल में पंचायती राज्य के लिए आंदोलन तक में इसने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है । लेकिन किसान आंदोलन के इतने व्यापक अनुभवों के बावजूद इसके लिए भी अभी का यह किसान आंदोलन एक ऐसे स्वरूप में उपस्थित हुआ है, जिसका शायद उसे भी कभी पूरा अनुमान नहीं था । इस आंदोलन में उसकी सक्रिय भागीदारी के बावजूद कृषि आंदोलनों का उसका अपना अब तक का अनुभव और ज्ञान ही जैसे इस आंदोलन के अलीकपन को, इसकी अन्यन्यता को पूरी तरह से आत्मसात करने में कहीं न कहीं एक बाधा-स्वरूप काम कर रहा है ।

किसान सभा के अब तक के सारे आंदोलनों के अनुभव के केंद्र में सामंती ज़मींदार नामक एक तत्व के ख़िलाफ़ लड़ाई की भूमिका प्रमुख रही है । यह आज़ादी के दिनों से लेकर परवर्ती भूमि सुधार के आंदोलनों और कुछ हद तक पंचायती राज के ज़रिये सत्ता के विकेंद्रीकरण के आंदोलन तक में गाँवों में इनके वर्चस्व का पहलू उसके सामने प्रमुख चुनौती के रूप में हमेशा मौजूद रहा है । लेकिन भारतीय जनतंत्र में गाँवों से जुड़े तमाम आंदोलनों की पूरी प्रक्रिया में ही ग्रामीण जीवन के सत्ता संतुलन के चरित्र में जो क्रमिक बदलाव हुआ है, वह बदलाव किसान सभा के इधर के आंदोलनों के मंच पर बार-बार किसी न किसी रूप में अपने को व्यक्त करने के बावजूद वह उनके समग्र रूप को, गांवों में देशी-विदेशी कारपोरेट की पूंजी के व्यापक प्रवेश से पैदा होने वाली समस्याओं को सैद्धांतिक और क्रियात्मक स्तर पर सूत्रबद्ध करने में शायद चूकता रहा है । किसान आंदोलन के सभी स्तरों पर कृषि के सामान्य संकट की बात तो हमेशा की जाती रही है, लेकिन इस संकट के मूल में क्या है, यह कृषि क्षेत्र का अपना आंतरिक संकट ही है या कुछ ऐसा है जो उस पूरे जगत के अस्तित्व को ही विपन्न करने वाला, उसके बाहर से आया हुआ संकट है, इसे जिस प्रकार से समझने की जरूरत थी, शायद उस तरह से नहीं समझा जा सका है । पिछले दिनों किसान सभा के अलावा खेत मजदूरों के अलग संगठन की बात पर जिस प्रकार बल दिया जा रहा था, उसमें भी समग्र रूप में कृषि समाज के अस्तित्व के संकट के पहलू के प्रति जागरूकता की कमी कहीं न कहीं जरूर शामिल थी । यहां तक कि बड़े पैमाने पर ऋणग्रस्त किसानों की आत्म हत्याओं के बाद भी कृषि संकट के व्यापक सामाजिक स्वरूप के प्रति थोड़ी उदासीनता बनी रहती थी । पश्चिम बंगाल की किसान सभा ने अपने ही कारणों से खेत मजदूरों के अलग संगठन की बात को काफी सालों की भारी हिचक के बाद स्वीकार किया था । यहां इस प्रसंग का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि आज मोदी ने यदि अपनी निरंकुश सत्ता के अहंकार में इन तीन कृषि कानूनों के जरिए पूरे कृषि क्षेत्र को भारत के इजारेदार घरानों को सौंप देने और तमाम किसानों को पूंजी का गुलाम बना देने की तरह का निष्ठुर कदम इतनी नंगई के साथ न उठाया होता और पंजाब-हरियाणा के उन्नत किसान समाज ने इसमें निहित भयंकर खतरे को अच्छी तरह से पहचान कर इसके प्रतिरोध में पूरी ताकत के साथ उतरने का फैसला न किया होता, तो शायद किसान सभा के परंपरागत सोच में कृषि संकट के व्यापक सत्य को उतारने में अभी और ज्यादा समय लग सकता था । अर्थात् कृषि समाज की संरचना के बारे में पारंपरिक समझ पिछले तमाम सालों में भारत के कृषि समाज में तेजी से जो बड़े परिवर्तन हुए हैं, उन्हें पकड़ने में एक बाधा बनी हुई है । 

यह कृषि पण्यों के बाज़ार से पैदा हुआ पूरे कृषि समाज का संकट है ; किसान को अपने उत्पाद पर लागत जितना भी दाम न मिल पाने से पैदा हुआ संकट है ; अर्थात् एक प्रकार से किसानों की फ़सल को बाज़ार में लूट लिए जाने से पैदा हुआ संकट है । किसान को जीने के लिए जोतने की ज़मीन के साथ ही फ़सल का दाम भी समान रूप से ज़रूरी है, भारत के किसान आंदोलन को इसका अहसास न रहा हो, यह सच नहीं है । इसी के चलते लंबे अर्से से एमएसपी को सुनिश्चित करने की माँग क्रमशः किसान आंदोलन के केंद्र में आई है । 2004 में स्वामिनाथन कमेटी के नाम से प्रसिद्ध किसानों के बारे में राष्ट्रीय आयोग का गठन भी इसी पृष्ठभूमि में हुआ जिसने अक्तूबर 2006 में अपनी अंतिम रिपोर्ट में कृषि पण्य पर लागत के डेढ़ गुना के हिसाब से न्यूनतम समर्थन मूल्य को तय करने का फार्मूला दिया । तभी से केंद्र सरकार पर उस कमेटी की सिफारिशों को लागू करने का लगातार दबाव बना हुआ था । साफ था कि यदि कृषि बचेगी तो उसके साथ जुड़े हुए सभी तबकों के हितों की रक्षा भी संभव होगी । सरकारें कुछ पण्यों पर एमएसपी तो हर साल घोषित करती रही और उसके चलते कुछ क्षेत्रों के किसानों को थोड़ा लाभ भी हुआ । लेकिन लागत के डेढ़ गुना वाला फार्मूला सही रूप में कभी लागू नहीं हुआ और न ही इससे कम कीमत पर फसल को न खरीदने की कोई कानूनी व्यवस्था ही बन पाई । अभी किसान अपनी इन मांगों के लिए जूझ ही रहे थे कि अंबानी-अडानी की ताकत से मदमस्त प्रधानमंत्री मोदी ने बिल्कुल उलटी दिशा में ही चलना शूरू कर दिया । और इस प्रकार एक झटके में पूरी कृषि संपदा पर हाथ साफ करने के इजारेदारों के सारे बदइरादे खुल कर सामने आ गए । 

2014 में मोदी और आरएसएस के शासन में आने के बाद ही एक के बाद एक तुगलकी निर्णयों ने देश के पूरे सामाजिक-आर्थिक तानेबाने को बर्बाद करके मेहनतकशों के जीवन को जिस प्रकार दूभर बना दिया है, उससे हर कोने में पहले से बिछे हुए असंतोष के बारूद में इस किसान आंदोलन ने जिस प्रकार एक पलीते की भूमिका अदा करनी शुरू कर दी है, उससे अब इस ज्वालामुखी के विस्फोट की शक्ति का एक संकेत मिलने पर भी कोई भी इसका पूरा अनुमान नहीं लगा सकता है । आज राजनीतिक आकलन के लिए चुनौती के इसी बिंदु पर भारत की तमाम राजनीतिक पार्टियों से यह वाजिब उम्मीद की जा सकती है कि कम से कम अब तो वे अपने वैचारिक खोल से बाहर निकले और इस आंदोलन पर खुद के किसी भी पूर्वकल्पित विश्लेषणात्मक ज्ञान के बोझ को लादने की कोशिश से इससे अपने को काटने या इसे किसी ईश्वरीय नियति पर छोड़ देने के सरल और सस्ते रास्ते पर चलने के बजाय इसमें अपनी भूमिका के लिए इस आंदोलन को पूरे मन से अपनाएं और इसकी स्वतंत्र गति को खुल कर सामने आने देने का अवसर प्रदान करें ।      

इस बात को गहराई से समझने की जरूरत है कि एमएसपी केंद्रित कृषि सुधारों में क्रांतिकारी राजनितिक संभावनाएं निहित हैं । यह ग्रामीण अर्थनीति के साथ ही पूरे देश की अर्थ-व्यवस्था का कायाकल्प कर सकता है । पूरी सख़्ती के साथ एमएसपी की स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट को लागू किया जाए और लागत में वृद्धि या कमी के अनुसार इसे हर छ: महीने में संशोधित करने का पूरा सांस्थानिक ढाँचा तैयार हो ; गाँवों में खेत मज़दूरों की न्यूनतम मज़दूरी पर सख़्ती से अमल और इसमें भी संशोधनों के लिए एक सांस्थानिक ढाँचा विकसित हो ; बटाईदारों का पंजीकरण करके उनके अधिकारों को सुरक्षित किया जाए ; कृषि क्षेत्र में बैंकों के ऋण के अनुपात को आबादी के अनुपात में बढ़ाया जाए ; कृषि के आधुनिकीकरण के संगत कार्यक्रम अपनाए जाए ; भूमि हदबंदी के क़ानूनों पर सख़्ती से अमल हो ; मंडियों और भंडारण का व्यापक नेटवर्क विकसित किया जाए । 

कृषि क्षेत्र में सुधार के ऐसे एक व्यापक कार्यक्रम को राजनीति के केंद्र में लाकर ही किसानों के इस व्यापक जन-आलोड़न को उसकी तर्कपूर्ण संगति तक पहुंचाया जा सकता है । इन संभावनाओं को देखते हुए ही हमने बहुत शुरू में ही इस आंदोलन को भारत में शुरू हुआ ‘अरब वसंत’ का आंदोलन कहा था । यह आंदोलन अपने अंतर में पूंजीवाद के खिलाफ क्रांतिकारी रूपांतरण की संभावनाओं को लिए हुए है । भारत के सभी परिवर्तनकामी राजनीतिक दलों को इसे अच्छी तरह से पकड़ने और खुल कर समर्थन देने की जरूरत है ।  



शुक्रवार, 25 दिसंबर 2020

किसानों का यह संघर्ष ही भारत के आर्थिक संकट के निदान की कुंजी है

 -अरुण माहेश्वरी 


भारत
 में ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था के साथ पूँजीवाद का संबंध उपनिवेश और औपनिवेशिक शक्ति के बीच के संबंध का रूप ले चुका है पिछले तमाम वर्षों में गाँवों में निवेश और गाँवों से धन की निकासी के बीच भारी फ़र्क़ के सारे तथ्य इस बात की ठोस रूप में पुष्टि करतेहैं  


प्रधानमंत्री मोदी इजारेदारों की औपनिवेशिक लिप्साओं के प्रतिनिधि की भूमिका में औपनिवेशिक लूट के नेता का रूप अपना चुके हैं  वेअब संघर्ष में उतरे हुए किसानों के प्रति गाली-गलौज की भाषा में बात करने लगे हैं  उन्हें ‘ज़मीन हड़पने वाला’ कहना शुद्ध रूप में खुलेआम गालियाँ देना है  


लड़ाई का यह मसला कृषि क्षेत्र में कॉरपोरेट के प्रसार सेकृषि की जमीन पर उद्योगपतियों के कब्जे का रास्ता साफ़ करने से जुड़ा हुआहै  यह कृषि संस्कृति और औद्योगिक संस्कृति के बीच का भी संघर्ष है  इनमें एक प्रगतिशील और दूसरा प्रतिक्रियावादी हैइस बातको निर्णायक रूप में तय करने का दुनिया में कोई ठोस आधार नहीं है  कहीं पर भी लुटेरे उपनिवेशवादियों की विजय ही उनके जन-हितकारी या प्रगतिशील होने का प्रमाण नहीं होता है  तत्त्व मीमांसा में इस प्रकार के ऐतिहासिक नियतिवाद के लिए कोई जगह नहींहोती है  


औद्योगिक सभ्यता आज जितनी जटिल समस्याओं में उलझी हुई हैउसमें फँसे मनुष्यों की दुर्गति के नित नये जैसे डरावने दृश्य दिखाईदेते हैंउन्हें देखने-समझने के बाद तो तथाकथित औद्योगिक सभ्यता की प्रगतिशीलता के अंतिम निष्कर्षों तक पहुँचने का कोई ठोसआधार ही नहीं बचता है  


ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था पर इजारेदाराना पूंजीवाद के इस औपनिवेशिक एकाधिकार के खिलाफ लड़ाई में गांव की समूची जनता कीएकजुटता का पहलू सबसे अधिक महत्वपूर्ण पहलू है  इसमें कृषि क्षेत्र के उन्नत तबकों का नेतृत्व बिल्कुल स्वाभाविक है  इसकीसफलता की गारंटी ही इस बात में है कि ग्रामीण क्षेत्र के नेतृत्वकारी सभी तबके पूरी ताक़त के साथ इसमें सामने आएं  इसी लड़ाई कीप्रक्रिया में ग्रामीण जीवन की वे जड़ताएँ भी टूटेगी जो अन्यथा ग्रामीण जीवन को पुरातनपंथी सोच से जकड़े रहती है  किसी भी प्रकारकी सैद्धांतिक जुगाली अथवा नासमझी के चलते गाँव के लोगों की इस सार्विक एकता के महत्व को कमतर बताने या इसमें दरार डालनेकी कोशिश करने वाली ताक़तों को बल पहुँचाने के उपक्रमों का पूरी घृणा के साथ तिरस्कार किया जाना चाहिए 


इसमें अभी किसानोंखेत मज़दूरों या बटाईदारों के विषय अलग-अलग नहीं रह गए हैं  सभी किसानों को खेत मज़दूर बना देने सेकिसानों और खेत मज़दूरों किसी की भी किसी समस्या का कोई समाधान नहीं हो सकता है  इसलिए उनके नाम पर किसानों की कृषिक्षेत्र की रक्षा की व्यापक लड़ाई का विरोध करना एक कोरा वितंडा हैबेतुका और विषय को जानबूझकर कर गड्ड-मड्ड करना है  


यहां ग़ौर करने लायक़ बात है कि किसान सभा की पश्चिम बंगाल इकाई ने अपने आंदोलनों के व्यापक अनुभव के आधार पर ही बहुतसालों तक किसान सभा के अतिरिक्त खेत मज़दूरों के अलग संगठन के गठन को नहीं स्वीकारा था  उसके पीछे भी कृषि क्षेत्र के साथपूँजीवाद के अन्तर्विरोधों की मूलभूत सच्चाई काम कर रही थी  आज के किसान संघर्ष से भी यह साफ है कि इस लड़ाई में किसान पूरेकृषि क्षेत्र की जनता की रक्षा की लड़ाई लड़ रहे हैं  लड़ाई के इस मंच से किसान-मज़दूर एकता के नारे कम तात्पर्यपूर्ण नहीं है  


भारत की जनता के लिए इस लड़ाई की अहमियत को समझने के लिए यह अकेला तथ्य ही काफ़ी है कि आज भी कृषि क्षेत्र ही देश के60 प्रतिशत लोगों को रोज़गार दे रहा है  बेरोज़गारी के वर्तमान भयावह स्वरूप को देखते हुए कोई सामान्य बुद्धि का आदमी भी यह जानसकता है कि भारत के औद्योगिक क्षेत्र के पास यहाँ की आधी आबादी को भी रोज़गार देने की ताक़त नहीं है  सारे आँकड़े बताते हैं किमोदी के कार्यकाल में ही गाँवों से नए सिरे से उजड़ चुके लगभग एक करोड़ लोग रोज़गार  मिलने के कारण दर-दर भटक रहे हैं  उन्हेंकिसी भी काम में लगाना संभव नहीं हो पा रहा है  


इसीलिए इसमें कोई शक नहीं है कि हमारे देश की सभी समस्याओं का समाधान कृषि क्षेत्र के सशक्तिकरण में है  गाँवों में ही अधिकसे अधिक लोगों के लिए रोज़गार पैदा करने में है  किसानों की एमएसपी की माँग इस सशक्तिकरण का एक सबसे कारगर उपाय है किसानों को एमएसपीखेत मज़दूरों के लिए न्यूनतम मज़दूरी में वृद्धि और व्यापक रोज़गार पैदा करने वाले मनरेगा तथा कुटीर उद्योगों कीतरह के सरकारी-ग़ैर सरकारी उद्यमइस तीन-तरफ़ा नीति से ही भारत के गाँवों का स्वरूप बदला जा सकता है  किसानों को ऋणग्रस्तता के स्थायी रोग से मुक्त कराया जा सकता हैखेत मज़दूरों की मज़दूरी बढ़ाई जा सकती है और गाँवों में रोज़गार पैदा किये जासकते हैं  औरकृषि क्षेत्र की उन्नति का अर्थ होगा पूरे भारत की उन्नति  


इस प्रक्रिया में कॉरपोरेट का प्रवेश इस प्रकार के सशक्तिकरण की संभावना को ही ख़त्म कर देगा  उसकी भूमिका ग्रामीण बेरोज़गारीके सबसे बड़े इंजन के अलावा दूसरी कुछ नहीं हो सकती है  सारी दुनिया में कॉरपोरेट ने कृषि क्षेत्र में रोज़गारों का सिर्फ़ नाश किया हैअंधाधुंध आधुनिकीकरण को बढ़ावा दिया है  कम आबादियों वाले देशों में इसके ज़रिये औद्योगिक क्षेत्र में मज़दूरों की आपूर्ति कोसंभव बनाया गया है  लेकिन हमारे यहाँ तो शहरी बेरोज़गारी पहले से ही अपने चरम पर पहुंच है  


इसीलिये मोदी की तरह के जो लोग किसानों की इस लड़ाई को बिचौलियों की लड़ाई कहते हैंउनकी समझ पर सिर्फ़ तरस खाई जासकती है  वे उलझनें पैदा करके मोदी के कॉरपोरेट के दलाल के रूप में काम करने के फ़ैसले के समर्थन के अलावा कुछ नहीं है  


किसानों का यह संघर्ष भारत की शहरी और ग्रामीणपूरी आबादी की बेहतरी का संघर्ष है , इसमें देश के क्रांतिकारी रूपांतरण कीसंभावनाएँ निहित है  भारत की तक़दीर को बदलने के लिए इसके अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं हो सकता है  यह सांप्रदायिक ताक़तोंके ख़िलाफ़ समूची जनता को एक क्रांतिकारी परिवर्तन की लड़ाई में एकजुट करने का रास्ता है