(एक टिप्पणी )
-अरुण माहेश्वरी
आज ‘द वायर’ पर एक कथित राजनीतिक विश्लेषक एक डा. सज्जन कुमार का बंगाल के चुनाव की परिस्थिति का विश्लेषण सुन रहाथा । उनका कहना था कि उन्होंने पिछले दिसंबर महीने में बंगाल की सभी 294 सीटों, अर्थात् बंगाल के चप्पे-चप्पे का दौरा किया था ।और उसी दौरे के अनुभवों को साक्ष्य बना कर पूरी परिस्थिति का कुछ ऐसा बखान कर रहे थे मानो बंगाल में अभी बीजेपी का चक्रवातीतूफ़ान चल रहा है और इस तूफ़ान की बदौलत बंगाल के चुनाव में बीजेपी की सुनामी से कम कुछ नहीं घटित होने वाला है । वे इसपरिस्थिति की तुलना सन् 1975 के इंदिरा गांधी के आपातकाल के बाद के 1977 के चुनाव से कर रहे थे जिसमें राजस्थान से लेकरबंगाल तक कांग्रेस का पूरी तरह सफ़ाया हो गया था । चालू भाषा में जिसे कहते हैं, कांग्रेस के ख़िलाफ़ खड़ा होने वाला कुत्ता भी चुनावजीत गया था । तृणमूल तो सूखे पत्तों की तरह उड़ जाएगी और वाम-कांग्रेस चुनाव में कहीं नज़र ही नहीं आएँगे क्योंकि सीपीएम का नीचेके स्तर पर तो पूरी तरह से भाजपा में विलय हो चुका है । सज्जन कुमार का कहना है कि भले ही लोग बीजेपी की सभाओं में न नज़रआए, पर मतदान में बीजेपी के अलावा दूसरा कोई नहीं दिखाई देगा ।
गौर करने की बात है कि दिसंबर के बाद इस बीच एबीपी -सीडीसी के दो चुनावी सर्वेक्षण आ चुके हैं । इन दोनों में ही तृणमूल कांग्रेस नसिर्फ़ साफ़ तौर पर विजयी, बल्कि पहले से दूसरे में उसे थोड़ा आगे बढ़ते हुए दिखाया गया है । और जहां तक वाम-कांग्रेस का सवाल है, उसे कोई बड़ी शक्ति न बताने पर भी उसे भी पहले से दूसरे में रत्ती भर ही, बढ़ते हुए बताया गया है । और बीजेपी को दोनों में ही, सुनामीतो बहुत दूर की बात, बहुमत से दूर पहले से दूसरे में कम होती हुई ताक़त दिखाया गया है ।
इस एक तथ्य और बीजेपी की ‘77 की तरह की आँधी की कल्पना ही, हमारी दृष्टि में, सज्जन कुमार की दृष्टि में आत्म-निष्ठता के दोषको बताने के लिए काफ़ी है । वे अपने निजी अनुभव, अर्थात् दृष्ट के भ्रम के बुरी तरह शिकार हैं । इसमें ख़ास तौर पर बीजेपी के बढ़ाव केप्रति उनके उत्साह और तृणमूल तथा अन्य के पतन के कारणों के प्रति उनके आवेश की भाषा उनके वैचारिक रुझान का भी कुछ संकेतदेती है ।
अभी हफ़्ते भर पहले 28 फ़रवरी को कोलकाता में वाम-कांग्रेस-आईएसएफ़ की ब्रिगेड सभा में जितनी बड़ी संख्या में लोग उमड़े थे, उसेप्रत्येक पर्यवेक्षक ने अकल्पनीय कहा है । बंगाल के इतिहास में इसके पहले कभी ऐसी रैली नहीं हुई है ।
बीजेपी के प्रचारक नेताओं की तरह ही सज्जन कुमार कहते हैं कि चुनावी रैलियाँ किसी चीज की सूचक नहीं होती है । उनमें से कुछ तोइस रैली को ख़ारिज करते हुए केरल में बीजेपी की रैलियों का भी उदाहरण दे रहे थे । पर वे भूल जाते हैं कि अभी हाल में बिहार के चुनावमें प्रचार के दौरान जब तेजस्वी की सभाओं में लोगों के उमड़ पड़ने के नज़ारे दिखाई दिये थे, तभी नीतीश-भाजपा के शासन की पकड़ केदृश्य को शाश्वत सत्य मानने वालों की आँखें खुल पाई थी और वे राजद के नेतृत्व में महा-गठबंधन को एक बड़ी ताक़त के रूप में देखपाए थे ।
जिनके पास एक जागृत इतिहास-बोध का अभाव होता है और जो सामाजिक जीवन की दरारों के संकेतों को उनके परिप्रेक्ष्य में पढ़ने मेंअसमर्थ होते हैं, सिर्फ़ वे ही आज की महंगाई और बेरोज़गारी से त्रस्त भारत के आम आदमी और कृषि क़ानूनों पर भारत भर के किसानोंकी बीजेपी-विरोधी भावनाओं को चुनावों में पूरी तरह से प्रभावहीन मान सकते हैं । ऐसे लोग तभी जागते है, जब चुनाव प्रचार के अंतिमचरण तक में मतदाता का रुख़ पूरी तरह से निकल कर सड़कों पर दिखाई देने लगता है ।
मज़े की बात है कि पूरी तरह से सामने दिखाई देते दृश्य की सीमाओं के पाश से बंधे लोग ही आज ‘ राजनीतिक विश्लेषक’ कहलाते हैं ! सज्जन कुमार को यह भी याद नहीं है कि वाम मोर्चा पश्चिम बंगाल में लगातार 34 साल तक सत्ता में रहा है और इसके पीछे कम्युनिस्टोंका लगभग चार दशकों के संघर्षों का इतिहास रहा है । इन सबका भी राजनीति में कोई मायने होता है । इनकी विश्लेषक बुद्धि में इनबातों का कोई स्थान नहीं है !