-अरुण माहेश्वरी
आज कोरोना के डरावने मंजर को देखते हुए पूरी मोदी सरकार का बंगाल में डेरा डाल कर बैठे रहना, या जब भारत में संक्रमण की दर नेसारी दुनिया के लोगों को चिंतित कर दिया है, तब मोदी का सेंट्रल विस्टा के काम को अतिरिक्त प्राथमिकता प्रदान करना या जबअस्पताल, आक्सीजन और दवाओं के अभाव से दम तोड़ते परिजनों को देख कर चारों ओर से त्राहिमाम की गुहारे सुनाई दे रही है, तबटीकों की क़ीमतों के बारे में राज्य सरकारों से मोदी की सौदेबाज़ी के दृश्य किसी भी साधारण, स्वस्थ दिमाग़ के सामान्य व्यक्ति को भारीसदमे में डाल सकते है । जनतंत्र में कैसे ऐसे निर्वाचित प्रतिनिधि हो सकते हैं , जो इस जगत के जीव ही प्रतीत नहीं होते हैं ! आम लोगोंके लिए ये सारे मोदी-शाह सरीखे संघी चरित्र सचमुच एक अजीब सी पहेली बन कर रह गए हैं । उन्हें उनके चरित्र की कोई थाह ही नहींमिल रही है !
इसी असमंजस की दशा ने आज अनेक लोगों को एक ओर जहां तीव्र घृणा से भरे मौन से भर दिया है, तो वहीं दूसरी ओर जो लोग पिछलेदिनों इनके भक्त रंगरूटों की क़तार में शामिल हो चुके हैं, उन्हें तो पूरी तरह से यंत्र मानव की तरह दुख-दर्द से पूरी तरह बेअसर रोबोट मेंबदल दिया है ।
लेकिन गहराई से इस पूरे विषय पर गौर करने पर कोरोना के बरक्श मोदी-शाह और पूरी सरकार की उदासीनता के एक प्रकार केपैशाचिक रवैये पर शायद ही किसी को आश्चर्य होगा । इस समूचे संघी समुदाय को यदि हम एक समग्र विषय के तौर पर, एक प्रमाताsubject के तौर पर अपनी जाँच का विषय बनाते हैं तो हम देखेंगे कि आख़िर वे क्या ख़ास बातें हैं जो इस पूरे समूह को उसकी एकअलग पहचान देते हैं ? वह इस समूह की ख़ास विचारधारा है जिसे आरएसएस के बारे में सभी अध्ययनकर्ताओं ने हिटलर के नाज़ीवाद सेजोड़ कर देखा है । किसी भी फ़ासिस्ट विचारधारा का एक सर्वप्रमुख तत्त्व है -जन संहार । फासीवाद की कोई भी अवधारणा उसमेंजनसंहार की मौजूदगी के बिना कभी पूरी ही नहीं हो सकती है । इसीलिए व्यापक पैमाने पर मृत्यु का नजारा और हत्या की जनसंहार कीतरह की किसी भी परिघटना के प्रति दृष्टिकोण का विषय एक ऐसा विषय है जिसके आधार पर इस समूह को दूसरे सभी राजनीतिकसमूहों से आसानी से अलग किया जा सकता है ।
फ़्रायड की एक बहुत बुनियादी अवधारणा है - लक्ष्य वस्तु का अभाव और उसके साथ प्रमाता का संबंध। Loss of object and object relation । इंसान अपने प्रारंभ में ही प्रकृति से अलग होते हुए जिन चीजों से कटता जाता है, बाक़ी सारा जीवन वह उन्हीं चीजों कीपुनर्खोज में लगा रहता है और वे चीजें ही किसी न किसी रूप में उसके यथार्थ के तौर पर उस तक लौटती रहती है । यही बात किसी भीविचारधारा पर आधारित संगठन के साथ भी घटित होती है । उस संगठन की जीवन यात्रा में उसकी वैचारिक तात्त्विकता, मौक़े-बेमौकेहमेशा अपने को उसमें किसी न किसी रूप में व्यक्त करती रहती है ।
संघ की फासीवादी विचारधारा का ऐसा ही एक प्रमुख तत्त्व है - जनसंहार, जो उसके तमाम राजनीतिक क्रियाकलापों के बीच अक्सरअपनी झलक दिखा दिया करता है । इसमें वे आबादी की समस्या से लेकर अनेक प्रकार की सामाजिक समस्याओं का समाधान देखते हैं। 130 करोड़ की आबादी में दो-चार करोड़ के मरने को वे साधारण ऐतिहासिक परिघटनाओं की तरह देखते हैं । फ़ासिस्ट विचारधारासचेत रूप में जनसंहार का आयोजन करती है, जिसका एक नमूना भारत में 2002 में गुजरात में देखने को मिला था ।
यही वजह है कि किसी भी परिस्थिति में भारी पैमाने पर लोगों की जान गँवाने की घटना संघी दिमाग़ को ज़रा भी विचलित नहीं करती है। बनिस्बत्, जनसंहार का हर स्वरूप संघी मानस में उसकी खोई, अभीप्सित चीज़ की पुन: प्राप्ति की तरह होती है । वह उससे अपने एकअभाव की पूर्ति का संतोष पाता है ।
कोरोना के वर्तमान, दिल को दहला देने वाले डरावने दृश्य में आज कोई भी मोदी-शाह जोड़ी को सबसे अधिक आत्म-तुष्ट, सेंट्रल विस्टाके सपनों में डूबी हुई चुनावी खेलों में मगन जोड़ी के रूप में देख सकता है ।उन्हें लाशों के जुलूसों से कोई फ़र्क़ सिर्फ़ इसीलिए नहीं पड़ताहै क्योंकि यह उनकी विचारधारा के ठोस रूप का वह अभिन्न हिस्सा है जिसकी प्राप्ति की दिशा में उनके सारे राजनीतिक उद्यम चलाकरते हैं ।
इस नज़रिये से पूरे विषय को देखने पर कोरोना की भारी चुनौती के काल में मोदी-शाह की अस्वाभाविक प्राथमिकताओं के रहस्य कोकोई भी बड़ी आसानी से भेद सकता है । इससे यह भी ज़ाहिर हो जाएगा कि क्यों मोदी और संघ बुनियादी तौर पर जन-कल्याण कीसरकारी परियोजनाओं पर ज़रा भी यक़ीन नहीं करते हैं । वे सामाजिक डार्विनवाद के समर्थक हैं जिसमें जिसकी लाठी उसकी भैंस कासिद्धांत ही शासन का भी एकमात्र मान्य सिद्धांत होता है ।