बुधवार, 30 जून 2021

‘भारत बदल गया है’ पर एक नोट

-अरुण माहेश्वरी



जो अपने विषाद के क्षण में कहते पाए जाते हैं कि ‘भारत बदल गया है’, वे हमारे जीवन के यथार्थ के विश्लेषण में बड़ी चूक करते हैं ।

सच यह है कि भारत नहीं, भारत का शासन बदल गया है और वह संगठित रूप में बहुत सी चीजें कर रहा है और अपने लोगों से करवा रहा है, जो हमारे संविधान और भारत के मूलभूत चरित्र के विरुद्ध हैं ।

इसीलिए, इतना ही बड़ा सच यह भी है कि इस शासन की राजनीतिक पराजय के साथ ही परिस्थिति फिर पूरी तरह से बदल जाएगी । सही शासन आने पर अभी के अपराधी शासन के लोग जेलों में भी पाए जा सकते हैं ।

दरअसल, कुछ लोगों को लगता है कि इस शासन ने भारत के लोगों के मन को बदल कर उन्हें मनुष्यों के बजाय ‘दरिंदों’ में तब्दील कर दिया है । इसे वे अपने तरीक़े से मनुष्य के ‘अवचेतन’ को बदलना बताया करते हैं ।

यह मनुष्य के ‘अवचेतन’ के बारे में उनकी एक पूरी तरह से भ्रांत धारणा है ।

अवचेतन की शास्त्रीय फ्रायडीय अवधारणा में, इसका संघटन उन तत्त्वों से ही होता है जिनका किसी न किसी रूप में दमन किया जाता है । अवचेतन उन दमित भावों का संसार है जो मानव प्रकृति और सामाजिक शील के नाना कारणों से सामान्यत: प्रकट नहीं हो पाते हैं ।

एक प्रकट रूप में दरींदा शासन किसी तबके विशेष के किन्हीं दमित भावों को उत्प्रेरित करके सामने लाने का कारण हो सकता है, पर वह उन्हीं भावों के दमन से मनुष्यों के ‘अवचेतन’ के गठन का स्रोत नही होता ।

संघ का फ़ासिस्ट शासन उसके विचारों की गोपनीय असभ्यताओं को सिर्फ़ बेपर्द कर सकता हैं, उनकी इनके बारे में किन्हीं दमित वासनाओं के जन्म की संभावनाओं को नहीं बना सकता है ।

फ्रायड ने मनोविश्लेषण के अपने अनुभवों के आधार पर भी कहा था कि किसी भी मनोरोगी के इलाज की विश्लेषणात्मक प्रक्रिया में मनोरोगी का अवचेतन कभी भी चेतन रूप में किसी बाधा की भूमिका अदा नहीं करता है और न मनोरोगी की क्रियाओं से अपने को प्रकट करता है ।

विश्लेषण की इसी प्रक्रिया के रूप में राजनीतिक परिवर्तन की सामाजिक प्रक्रिया को भी देखा जाना चाहिए । जनता का कोई भी दमित भावों से बना ‘अवचेतन’ उसकी नागरिक सत्ता और मानवीय प्राणीसत्ता की भूमिका को, अर्थात् उसके चेतन को अपसारित नहीं कर सकता है । वह उत्तेजनाओं के ख़ास मौक़ों पर ही प्रकट होता है । जब भी कथित अवचेतन किसी की प्राणीसत्ता पर हावी हो जाता है, तभी तो वह पागल होता है ।

किसी भी सभ्य राष्ट्र के जीवन में ऐसे उन्माद के दौरों का इलाज राजनीतिक परिवर्तन के ज़रिए होता है । पागलपन जब भी किसी राष्ट्र का स्थायी भाव बनता है तो वह उसके समूल आत्म-विनाश का सूचक होता है । हिटलर का जर्मनी इसी का एक चरम उदाहरण है, जहां सभ्यता और राजनीति का ही अंत हो चुका था ।

हमें नहीं लगता है कि आज की तेज़ी से बदलती विश्व परिस्थिति में भारत में हिटलर का उदय आसान होगा । और जब तक राजनीति की संभावनाएँ मौजूद रहेगी, सभ्यता के नियम बचे रहेंगे, अभी के शासन की सारी बुराइयों का निदान संभव बना रहेगा ।

कहने का तात्पर्य यही है कि हमारे राज्य की अभी की मोदी नामक बीमारी का निदान राजनीतिक परिवर्तन में है । सत्रह आम चुनावों में अब तक भारत के लोग आठ बार सरकार बदल चुके हैं । आगे भी यह सिलसिला जारी न रहने का कोई कारण नहीं है ।

हम अपनी सारी बातों के प्रमाण के तौर पर बंगाल में 34 साल के वाम शासन में ‘बदले’ हुए इंसानों की सच्चाई का भी उल्लेख कर सकते हैं । और, व्यापक रूप में देखें तो, सत्तर साल के ‘नए सोवियत इंसान’ के हश्र को भी लिया जा सकता है । जर्मनी में तो हिटलर की तारीफ़ क़ानूनन अपराध है ।

सच यह है कि मनुष्य का मन विषाद से मुक्ति के आनंद सिद्धांत से चालित होता है । वह हर विपरीत परिस्थिति से अपना समायोजन करता है । आज अगर लोग कुछ भिन्न व्यवहार कर रहे हैं तो इसीलिए कि उनके सामने ऐसी परिस्थिति खड़ी कर दी जा रही है । पर, खून और हत्या मनुष्य की स्वाभाविक प्रकृति नहीं है। इसी प्रकार, वैविध्यपूर्ण भारत में सांप्रदायिक नफ़रत भी स्वाभाविक प्रकृति नहीं हो सकती है । मनुष्य की स्वातंत्र्य चेतना और सभ्यता तथा नागरिकों के संविधान का सार्वलौकिक परिप्रेक्ष्य ही अंततः निर्णायक होते हैं ।  


मंगलवार, 15 जून 2021

वर्ग और जाति


—अरुण माहेश्वरी



वीरेन्द्र यादव की फेसबुक वॉल पर जाति और वर्ग के बारे में डा. लोहिया के विचार के एक उद्धरण* के संदर्भ में : 

जाति हो या वर्ग, दोनों ही सामाजिक संरचना की प्रतीकात्मक श्रेणियाँ (Symbolic categories) हैं । भले कभी इनके जन्म के पीछे समाज के ठोस आर्थिक विभाजन के कारण होते हो, जैसे जातियों के जन्म के पीछे समाज की चतुर्वर्णीय व्यवस्था या वर्ग विभाजन के पीछे पूँजीवादी व्यवस्था, मालिक और मज़दूर, पर जब भी किसी यथार्थ श्रेणी का प्रतीकात्मक रूपांतरण हो जाता है तब वह श्रेणी आर्थिक संरचना के यथार्थ को ज़रा सा भी व्यक्त नहीं करती है । उसके साथ आचार-विचार का एक अन्य प्रतीकात्मक जगत जुड़ जाता है । वह आर्थिक यथार्थ के बजाय अन्य प्रतीकात्मक सांस्कृतिक अर्थों को व्यक्त करने लगती है । वह एक नए मूल्यबोध का वाहक बन जाती है । जातिवादी और वर्गीय चेतना के बीच के फ़र्क़ को समझने के लिए इस बात को, वस्तु के प्रतीकात्मक रूपांतरण के साथ ही उसके मूल स्वरूप के अंत की परिघटना को समझना ज़रूरी है । यह माल के उपयोग मूल्य और विनिमय मूल्य की तरह का विषय ही है । जब मार्क्सवाद में वर्गीय चेतना की बात की जाती है तो उसका तात्पर्य हमेशा एक उन्नत सर्वहारा दृष्टिकोण से होता है, उस दृष्टिकोण से जो सभ्यता के विकास में पूंजीवाद की बाधाओं को दूर करने में समर्थ दृष्टिकोण है । पर किसी भी प्रकार की जातिवादी चेतना से ऐसी कोई उन्नत विश्वदृष्टि अभिहित नहीं होती है । 

डा. लोहिया के पास ऐसी किसी दार्शनिक दृष्टि का अभाव और उनका विषय को एक समाज-सुधारवादी सीमित उद्देश्य के नज़रिये से देखने का अभ्यास होने के कारण वे मार्क्सवादी वर्गीय दृष्टि के मर्म को कभी नहीं समझ पाएं और जातिवादी नज़रिये को उसके समकक्ष समझ कर जाति को भारत की विशेषता को व्यक्त करने वाली श्रेणी बताते रहे । जबकि दुनिया के इतिहास को यदि देखा जाए तो रोमन साम्राज्य के शासन का हमेशा यह एक मूलभूत सिद्धांत रहा है कि समाज को चार भागों में, राजा के अलावा श्रेष्ठी या कुलीन (Patricians), सर्वसाधारण (Plebeians) और गुलाम (Slaves) में बाँट कर चलना । इनका भारतीय तर्जुमा क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र में बिल्कुल सटीक किया जा सकता है । यूरोप में रैनेसांस के बाद पूंजीवाद के उदय से मालिक-मज़दूर के नए संबंधों के जन्म ने समाज में इस पुराने श्रेणी विभाजन को अचल कर दिया । यूरोप की तुलना में भारत में पूँजीवाद के विलंबित विकास ने पुराने जातिवादी विभाजन के अंत को भी विलंबित किया और इसमें जो एक नया और बेहद दिलचस्प पहलू यह जुड़ गया कि भारत के सामाजिक आंदोलनों की बदौलत जातिवादी विभाजन प्रतीकात्मक रूप भी लेता चला गया । इसके आर्थिक श्रेणी के बजाय अन्य प्रतीकात्मक-सांस्कृतिक अर्थ ज़्यादा महत्वपूर्ण होते चले गए । इसमें अंग्रेज शासकों के शासन के सिद्धांतों पर रोमन साम्राज्य के शासकीय सिद्धांतों की भी एक प्रच्छन्न किंतु महत्वपूर्ण भूमिका रही है । 

अंबेडकर से लेकर लोहिया तक की तरह के व्यक्तित्व किसी न किसी रूप में इसी विलंबित पूंजीवाद से बने ख़ास प्रतीकात्मक जगत की निर्मिति कहे जा सकते हैं । वे जाति और वर्ग की प्रतीकात्मक धारणाओं के पीछे के ऐतिहासिक कारणों को आत्मसात् करने में विफल रहने के कारण अनायास ही वर्ग संबंधी मार्क्सवादी दृष्टिकोण के विरोधी हो गए और आज भी इनके अनुयायी उन्हीं बातों को दोहराते रहते हैं ।



* बौद्धिक वर्ग और जाति 

डॉ. राममनोहर लोहिया ने कहा था ----

" हिन्दुस्तान का बौद्धिक  वर्ग ,जो ज्यादातर ऊंची जाति का है .भाषा या जाति या विचार की बुनियादों के बारे में आमूल परिवर्तन करने वाली मानसिक क्रांति की सभी बातों से घबराता है .वह सामान्य तौर पर और सिद्धांत के रूप में ही जाति के विरुद्ध बोलता है . वास्तव में ,वह जाति की सैद्धांतिक निंदा में सबसे ज्यादा बढचढ कर बोलेगा पर तभी तक जब तक उसे उतना ही बढ़चढ़ कर योग्यता और समान अवसर की बात करने दी जाये . इस निर्विवाद योग्यता को बनाने में ५ हज़ार बरस लगे हैं .कम से कम कुछ दशकों तक नीची जातियों को  विशेष अवसर देकर समान अवसर के नए सिद्धांत द्वारा ५ हज़ार बरस की इस कारस्तानी को ख़तम करना होगा ......कार्ल मार्क्स ने वर्ग को नाश करने का प्रयत्न किया .जाति में परिवर्तित  हो जाने की उसकी क्षमता से वे अनभिज्ञ थे . इस मार्ग को अपनाने पर पहली बार वर्ग और जाति को एक साथ नाश करने का एक तजुर्बा होगा."-----डॉ.राममनोहर लोहिया.


सोमवार, 14 जून 2021

बंगाल की पराजय के साथ ही मोदी काल का अंत हो चुका है


—अरुण माहेश्वरी 



सच कहा जाए तो बंगाल के चुनाव के साथ ही भारत की राजनीति का पट-परिवर्तन हो चुका है । दार्शनिकों की भाषा में जिसे संक्रमण का बिंदु, event कहते हैं, जो किसी आकस्मिक अघटन की तरह प्रकट हो कर अचानक ही प्रकृति के एक नए नियम की तरह खुलने लगता है, बंगाल के चुनाव से वह क्षण प्रकट हो चुका है । कहा जा सकता है कि यह भारत की राजनीति में मोदी नामक एक फैंटेसी के अंत की तरह का अघटन है । 

दार्शनिक स्लावोय जिजेक का एक सूत्र है कि कोई भी फैंटेसी एक पूर्ण पारदर्शी पृष्ठभूमि में ही जिंदा रहती है, अर्थात् जिसके पार कुछ नहीं दिखता, सिर्फ शून्य हुआ करता है । जैसे ही इसकी पारदर्शिता व्याहत होती है, उसी क्षण वह मर जाती है । जैसे हमारी कोई जघन्य गोपनीयता प्रकट हो जाने पर जिंदा नहीं बचती है । 

सचमुच, अब सिर्फ समय का इंतजार है । भाजपा के बारे में अरुंधती राय की ये सारगर्भित चार पंक्तियां किसी आकाशवाणी से कम नहीं है कि — “भाजपा को एक उथले गड्ढे में गाड़ तो / कोई प्रार्थना नहीं / सिर्फ एक / अलविदा !” 

यूपी के चुनाव को लगभग सात महीने बाकी हैं । और फिर उसके बाद ! एक के बाद एक चुनाव — और फिर, देश की राजनीति पर लगे हुए एक बदनुमा दाग का अंत । अब यही होने जा रहा है, बशर्ते ऐसे ही चीजों को चुनाव के माध्यम से क्रमिक रूप में बदलने दिया जाता रहेगा । यह भी तय है कि अगर इसमें कोई अस्वाभाविक बाधा डाली गई, तो उसी के अनुपात में इस अंत का अंत भी उतना ही विध्वंसक और दुर्भाग्यपूर्ण होगा । एक तीखे ढलान की ओर लुढ़क चुकी इस चट्टान को गिर कर पूरी तरह से बिखर जाने से अब कोई रोक नहीं सकेगा । 

आप यूपी चुनाव के बारे में किसी भी कथित राजनीतिक विश्लेषक से चर्चा कीजिए, वह हिंदी भाषी प्रदेशों में जातिवाद और सांप्रदायिकता के असाध्य रोग के गणित के ढेर सारे समीकरणों को आपके सामने परोसने लगेगा, और अमित शाह सरीखे सौदेबाज व्यापारी की चतुराई पर अगाध आस्था जाहिर करते हुए आपको विश्वास दिलायेगा कि ‘आयेगा तो मोदी ही’ — संघी आइटी सेल की प्रयोगशाला से निकाला हुआ, उनके कमजोर लोगों, अर्थात् भक्तों के जाप का मंत्र । इसके अलावा इन जहरबुझे दिमागों को 2019 वाले पाकिस्तान-पुलवामा पर भी अभी कुछ भरोसा है ।

लेकिन जीवन का सच यह है कि 70 साल में पहली बार भारत के लोग यह साफ महसूस कर पा रहे हैं कि असली दरिद्रीकरण किसे कहते है? जो तबका अब तक पीढ़ियों के बदलने के साथ पैदल से साइकिल-मोटर साइकिल-कार के बदलाव को देखता रहा, वह अब फिर साइकिल-पैदल की दिशा में लौटने लगा है । पेट्रोल-डीजल के दामों ने मध्य वर्ग और किसानों की कमर तोड़ दी है । कोरोना से कहीं अधिक अर्थ-व्यवस्था का चक्का जाम करने में इनकी भूमिका को समझना बहुत कठिन काम नहीं है । घर की स्त्रियों के रुपयों पर डाकाजनी के नोटबंदी (2016) के कदम के बाद भी जो नहीं समझे थे, वे बाद के इन पाँच सालों में समझ गए हैं कि मोदी क्या बला है ! भारत के आम लोगों के अस्तित्व मात्र की रक्षा के लिए इस बला से मुक्ति ज़रूरी है । 

बंगाल में भी बंगाली अस्मिता के साथ ही दरिद्रीकरण की इस सामान्य अनुभूति ने चुनाव के निर्णायक अन्तःसूत्र की भूमिका अदा की है । हर बीतते दिन के साथ, मोदी की लोकप्रियता में तेजी से गिरावट की खबरें बताती है कि आगे के सभी चुनाव इसी सूत्र पर निर्णीत होने वाले हैं । इसीलिए यह कहना गलत नहीं है कि हमारी राजनीति के पूर्ण पट-परिवर्तन के पहले का अघटन घट चुका है । किसी भी ईमानदार और सक्षम विश्लेषक के लिए इसके आगे का नक्शा बनाना अब बहुत कठिन काम नहीं रह गया है । 

यूपी में आज बंगाल की तरह ही उस सिंड्रोम के सारे लक्षण साफ नजर आ रहे हैं जो कभी सिर्फ अल्पसंख्यकों के मत को तय करने में प्रमुख भूमिका अदा किया करता था । आज यूपी के मतदाताओं के सभी तबकों के अधिकांश  वोट सिर्फ़ उसे मिलने वाले हैं जो उन्हें बीजेपी को पराजित करने में सक्षम नजर आयेगा । हर सीट पर इसी आधार पर मतों का ध्रुवीकरण होगा । किसान आंदोलन का भी यही आह्वान है और हाल के पंचायत चुनाव के भी यही संकेत है । जिस प्रदेश से मोदी खुद सांसद चुने जाते हैं, उसी में भाजपा के चुनाव प्रचार से मोदी की तस्वीर को निकाल बाहर करना कम गहरे इंगित नहीं देता है ।

ऐसे में कुछ लोग योगी-मोदी के बीच की तनातनी के किस्सों के कूड़े  में से चुनावी संभावनाओं के सूत्र बीनने की उधेड़-बुन में लगे हुए हैं । वे यह नहीं देख रहे हैं कि चुनाव तो सात महीनों बाद है । इन सात महीनों की अवधि में केंद्र सरकार और भाजपा भी यूपी में हजारों करोड़ रुपये फूंकने वाली है । ऐसे में क्यों नहीं योगी-मोदी की तनातनी की बातों को चुनावी मुद्दा के बजाय, इन हजारों करोड़ की बंदर बांट का मुद्दा समझा जाए ! केरल, बंगाल और बाकी जगहों पर भी भाजपा केंद्र से भेजे गए करोड़ों रुपयों की लूट के कई किस्से इसी बीच सामने आ चुके हैं । इसके अलावा केंद्रीभूत भाजपा में बहुत कुछ केंद्रीभूत है ! इनके कमीशनखोर भी । इसीलिए यदि तनातनी इस धन की लूट को लेकर होगी, तो उसका सीधे मोदी-योगी की तनातनी के रूप में जाहिर होना स्वाभाविक ही है । योगी-मोदी प्रकरण में वही हो रहा है । 

हठयोगी आदित्यनाथ इस कमीशनखोरी पर किसी मोदी दूत ए पी शर्मा की खबरदारी को इसीलिए नहीं मान सकते हैं क्योंकि तब डूबते जहाज के साथ ही खुद भी डूब जाने के अलावा उनके अपने हाथ और क्या लगेगा ? 

इसी प्रकार का एक दूसरा पहलू विजय त्रिवेदी की तरह के भाजपा-योगी विशेषज्ञ बता रहे हैं । वह राज्य में भाजपा के पुराने अपराधी गिरोहों से जुड़ा हुआ पहलू है । योगी के पहले यूपी में वे ही मोदी और भाजपा के लोग हुआ करते थे । पर योगी ने इधर अपने राजपूती उत्साह में ऐसे कई गिरोहों को बुरी तरह से परेशान कर रखा है, कई गिरोह के लोगों का एनकाउंटर भी कराया है । आज वे सब चाहते हैं कि कम से कम इस आखिरी समय में तो उनकी पुरानी वफादारी का सहारा मिलें ! और, योगी उनके लाभ में सीधा अपना नुकसान भांप रहे हैं । 

वैसे तो योगी हठयोगी बनते है ! पर उनकी दिक़्क़त है कि वे ऐसे नाथपंथी हठयोगी हैं जिनकी परंपरा के इतिहास में शिव से समरसता के बजाय शुद्ध काया-साधन की कामना की उत्पत्ति की भी चर्चा की जाती है । अर्थात् इस योगी की धातु में भी खोट है ! 

चुनाव के ऐन सात महीने पहले मोदी-योगी की तनातनी में इसे भी एक और प्रमुख कारण क्यों न माना जाए ! 

किस्सागो विश्लेषक यूपी में अमित शाह के जातिवादी समीकरणों की भी खूब चर्चा कर रहे हैं । कुछ जातिवादी नेताओं की हलचलें भी बढ़ी हुई है । पर सबका अभी एक ही लक्ष्य है वर्तमान अनिश्चय की स्थिति का यथासंभव निजी लाभ उठा लिया जाए । 

जो भी हो, अंगों में तेज़ी से चरम शिथिलता के लक्षण किसी की भी निश्चित आसन्न मृत्यु के साफ संकेत होते हैं और यूपी में बीजेपी की राजनीति में ये लक्षण बिल्कुल साफ हैं । योगी जैसों का बाल भी बाँका न कर पाना यही बताता है कि वहां बीजेपी अभी से पंगु हो चुकी है ; बस अपने दिन गिन रही है ।

मोदी शासन की इस करुण दशा के बारे में हमारी इन सब बातों में कुछ भी अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं है । जीवन के हर क्षेत्र में पिछले सात साल का इनका शासन इसका प्रमाण है । इन्होंने यही दर्शाया है कि  इनके पास अपने चुनिंदा लोगों को लाभ पहुँचाने के अतिरिक्त शासन का दूसरा कोई लक्ष्य नहीं है । जहां तक हिंदुत्व के मुद्दों का सवाल है, वे तो मूलत: सत्ता हासिल करने के उनके साधन हैं । कायदे से सत्ता पाने साथ ही उनकी कोई शासकीय उपयोगिता नहीं रहनी चाहिए थी । पर जब किसी के लिए साधन ही अकेला साध्य हो जाता है तो उसकी नियति है कि वह कोल्हू के बैल की तरह अपने ही वृत्त मैं घूमता रह जाता है । उसी में अपने निजी लोगों के स्वार्थों को साधना तो शामिल हो जाता है, पर शासन के दूसरे पाशुपत दायित्वों से वह कभी नहीं जुड़ पाता है ; जन-जीवन के हर क्षेत्र में चरम पतन का कारक बनता है । 

शिक्षा, चिकित्सा, ही नहीं, यहां तक कि सीमाओं की रक्षा में भी मोदी की विफलता चरम पर जा चुकी है । दुनिया जानती है कि चीन ने हमारी सीमा में घुस कर सीमा से लगे हुए सामरिक महत्व के ढेर सारे ठिकानों को अपने कब्जे में कर लिया है, पर मोदी, चीन से इस विषय में वार्ता के साथ ही अपनी लज्जा को छिपाने के लिए कहते जा रहे हैं कि चीन ने कुछ भी कब्जा नहीं किया है । उधर चीन और दुनिया हंस रही है ।  

जॉक लकान का एक महत्वपूर्ण कथन है कि “ज्ञान 'अन्य' का आनन्द होता है ।” अर्थात्, जिस देश या समाज में अज्ञान का आदर होता है, वह देश व समाज ज्ञान की वध-भूमि बन जाता है । मोदी ने खुद अब तक इतनी मूर्खतापूर्ण बातें की हैं कि उनके वीडियों कॉमेडी वीडियो के बाजार के सबसे लोकप्रिय माल बने हुए हैं । उनके मंत्रिमंडल के सारे मंत्री इस मामले में जैसे परस्पर से होड़ कर रहे हैं । भारत में शिक्षा के प्रसार का नहीं, अर्थ-व्यवस्था की तरह ही तीव्र संकुचन का दौर चल रहा है । 

इस कोरोना काल में भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था तो सारी दुनिया के लिए हंसी का विषय बन चुकी है । ‘प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष’ एक बड़ा आर्थिक घोटाला साबित हो रहा है, जिससे अस्पतालों में घटिया गुणवत्ता के वैंटिलेटर की आपूर्ति से लोगों की जान से खेला गया है । 

अभी जब मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने अपने एक फ़ैसले में सभी निजी अस्पतालों को टीके के स्टॉक को सरकार को लौटा देने के लिए कहा है ताकि मुफ़्त टीकाकरण की केंद्र की घोषित नीति पर अमल हो सके, उसी समय हर कोई देख सकता है कि तमाम निजी अस्पताल अखबारों में बाकायदा टीकों की बिक्री के विज्ञापन जारी कर रहे हैं । सच कहा जाए तो सुप्रीम कोर्ट और विपक्ष के दबाव से सबको मुफ़्त टीके की नीति की घोषणा में मोदी का निजी योगदान इतना सा ही है कि उन्होंने निजी अस्पतालों को 25% टीके अतिरिक्त दाम पर बेचने का अधिकार दे कर अभाव में ब्लैकमार्केटिंग की संभावना बनाए रखा है !

अर्थजगत की चर्चा इसलिए बेकार है क्योंकि इस क्षेत्र में इस सरकार का एक मात्र लक्ष्य आम लोगों से रुपये खींच कर अपने मित्रों के घर तक पहुंचाने के अलावा कुछ भी नहीं दिखाई देता है । जीडीपी में गिरावट का सिलसिला कहीं थमता नहीं दिखाई देता है, पर विकास के नाम पर प्रधानमंत्री नये संसद भवन और प्रधानमंत्री निवास के निर्माण में लगे हुए हैं । 

जिसका चित्त अपनी ही छवि में अटका होता है, जो न किसी और की ओर ताकता है, न समय के किन्हीं संकेतों को समझता है, वही मरा हुआ मन ‘सेंट्रल विस्ता’ की तरह के क़ब्रों पर निर्मित स्थापत्यों में अपनी अमरता के सपने देख सकता है ! 

दो दिन पहले ही जीएसटी कौंसिल की डिजिटल बैठक में मोदी के मंत्रियों ने बंगाल के वित्त मंत्री अमित मित्रा की लाइन को म्यूट करके उनकी भागीदारी को रोक दिया और बहाना बनाया कि श्री मित्रा का कनेक्शन स्थिर नहीं था ! यह है डिजिटल इंडिया का सच ! 

इस प्रकार पृष्ठ दर पृष्ठ इस सरकार की चौतरफा विफलताओं के न जाने कितने तथ्य रखे जा सकते हैं । यूट्यूब पर पूण्यप्रसून वाजपेयी हर रोज इनकी निकम्मई के आंकड़ें बांचते रहते हैं । फिर भी ‘आएगा तो मोदी ही’, कहने वाले प्रतिप्रश्न करते हैं कि इतनी महंगाई, भ्रष्टाचार और दमन के बावजूद लोग चुप क्यों हैं ? दरअसल, वे नहीं  जानते कि प्रतिवाद में अनायास ही फट पड़ना अंततः हमेशा प्रभु वर्गों को ही बल पहुँचाता है । जरूरी होता है क्रमिक रूप में लोगों के मन में चल रहे मौन विमर्श के तारों से जुड़ने की, और उसी की अभिव्यक्ति अभी बंगाल में हुई है । अन्य सब जगह भी इसके सिवाय और कुछ नहीं होगा । 

बंगाल में बीजेपी के 77 विधायकों की स्थिति अभी पहले के तीन विधायकों की ताकत से भी बदतर दिखाई देती है । पूरी बीजेपी ऊपर से नीचे तक भरभरा कर टूट रही है । उसका राष्ट्रीय उप-सभापति मुकुल राय जिस ठाठ से टीएमसी में शामिल हुआ है, उस पर मोदी-शाह के पास कहने के लिए एक शब्द नहीं है । यह उनकी ही अब तक की तमाम राजनीतिक क्रियाओं की न्यूटन के नियम वाली स्वाभाविक प्रतिक्रिया ही है ! सचमुच, ‘चाणक्य की राजनीति’ का इससे बड़ा परिहास और क्या होगा !

बहरहाल, इतनी तमाम चीजों के बावजूद चैनलों पर प्रचारक का रूप ले चुके कुछ बीजेपी विशेषज्ञ ऐंकरों की दशा को देख कर कहना पड़ता है कि उनकी विडंबना है कि उन्हें हमेशा बेहद सड़े हुए कच्चे माल से अपनी चीज़ बना कर पेश करनी पड़ती है । इसीलिए अपने उत्पाद को उसकी सड़ांध से वे कभी बचा नहीं पाते हैं । इस दुर्गंध को कोई लल्लन टॉप की तरह के लोकप्रिय यूट्यूब चैनलों के कार्यक्रमों से भी यदा-कदा पा सकता हैं । 

वाटरलू में नेपोलियन की पराजय के साथ नेपोलियन युग का अंत हो गया था, वही बात मोदी पर लागू होती है । बंगाल में इनकी पराजय के साथ ही इनके समय का अंत हो चुका है । अब ये घिसटते हुए कुछ दिन और बितायेंगे, कुछ कमजोरों को सतायेंगे, पर इन चंद दिनों को इन्हें असल में शक्तिविहीन होकर ही जीना होगा । 


शुक्रवार, 11 जून 2021

हरीश भादानी के जन्मदिन पर



आज हरीश जी का जन्मदिन है । ‘जाग जाने की घड़ी है…’, यू ट्यूब पर उनके स्वरों में इस गीत के साथ हमारी सुबह हुई है । हम नहीं जानते कि संगीत के पैमानों पर उनके इस गीत की धुन का बिल्कुल सही किस राग में वर्गीकरण किया जा सकता है । हरीश जी के बेहद सधे हुए सुरों में भी बाहरी किसी लकीर का चौखटा नहीं होता था, उनकी अपनी ही लय प्रमुख थी । पर अगर सुबह की ताजगी और आंतरिकता का कथित भैरवी राग से कोई संबंध है तो हमारे लिए यह गीत भैरवी को सुनने जैसा ही था । सुबह-सुबह हम ऐसे भाव-सिक्त हुए कि आँसू थम ही नहीं रहे थे । 

हरीश जी आज हमारे बीच होते तो नब्बे साल के क़रीब (88) के होते । जीवन के अंतिम लगभग चालीस-पैंतालीस साल में काफ़ी समय वे हमारे घर में साथ रहते थे । हमारा परिवार एक बड़ा परिवार था और घर का माहौल तो जैसे एक मेले की तरह होता था जहां आने-जाने वालों का ताँता लगा ही रहता था । एक वक्त में कम से कम पचीस-तीस लोगों से कम का खाना नहीं बनता था ।  पर वह पूरी तरह से पारिवारिक पर उतना ही एक राजनीतिक-सांस्कृतिक परिवेश था । ऐसे माहौल में भी एक अजीब बात होती है कि इतने सारे लोगों में भी आदमी कुछ अलग ही प्रकार से अकेला भी हो ज़ाया करता है । यह इसलिए कह पा रहा हूँ क्योंकि उसी भीड़-भाड़ में हमने लिखने-पढ़ने, अपने में जीने की तमीज़ भी हासिल की थी, किताबों के बीच समय बिताना सीखा था । सब साथ होते थे और सब अलग भी । पर इधर के पंद्रह-बीस सालों में तो कुछ ऐसा भारी बदलाव हुआ, इतने ज़्यादा लोग गुज़रते चले गए और छँट भी गए कि इस बड़े घर में अभी जिन्हें ‘घर वाले’ कहा जाएँ, वैसे हम सिर्फ़ दो प्राणी रह गए हैं । अक्सर ऐसा भी समय आता है जब पूरे मकान में सिवाय एक दरवान और ड्राइवर तथा खाना बनाने वाली सेविका के कोई नहीं होता है । हम भी किसी यात्रा पर, या बेटे के घर पर पोती के पास गए होते हैं, तो घर में कोई नहीं होता है । सारे कमरे बंद पड़े रहते हैं । एक बड़े, स्वस्थ संयुक्त परिवार के गहरे अंदर का सबल अकेलापन अब एक अदद निखालिस ढाँचे का प्रकट रूप ले चुका है । हम हमेशा की तरह अब भी अपनी किताबों के बीच ही मगन हो कर जी रहे हैं । 

ऐसे समय में हरीश जी ! सचमुच कहना पड़ता है, अभी के इस निपट एकांत के परिवेश में हमारे परिवार का कोई शख़्स अगर हमारी अंतरंगता का अब भी संगी बनता है तो वह हरीश जी के सिवाय एक कोई दूसरा नहीं होता है । पहले जब हरीश जी हमारे साथ होते थे, उनके गीत परिवार के तमाम लोगों की ज़ुबान पर हुआ करते थे और उनके स्वर अक्सर कान में पड़ते रहते थे । वे सबके होते थे, पर एक अजीब सी बात थी कि वे जितना सब के होते थे, उतना ही, हम सब की तरह ही, अकेला भी होते थे । हमें अच्छी तरह याद है कि तब एक बार नहीं, अनेक बार उन्हें देख कर मैं सरला को कहा करता था कि यही वह व्यक्ति है जो हमें बाद के दिनों में, अपनी अनुपस्थिति में ही शायद सबसे अधिक रुलायेगा । विस्मरण की अनिवार्यताओं के बीच भी यदि किसी की कोई गूंज टीस देती रहेगी, तो वह इसी की होगी — इस शख़्सियत की पूरी गुंफित काया की । 

सचमुच हमारी कही वह बात एक भविष्यवाणी साबित हुई है । जिनकी स्मृतियाँ हमें रुलाती हैं, सरोबार करती है और जिनके गीतों में खो कर हम किसी परा-जगत में चले जाते हैं, आज उनका जन्मदिन है । जितना संभव होगा, उतना उनके गीतों को सुनेंगे, गाएँगे और उनमें डूब-उतर कर, उन्हीं के शब्दों में, खूब नहायेंगे । 

प्रणाम हरीश जी !