कल यूट्यूब पर बहुचर्चित, कई अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाज़ी जा चुकी पाकिस्तानी फ़िल्म ‘ज़िंदगी तमाशा’ देखी ।
खुदा की शान में पूरी तरह से डूब कर क़सीदे पढ़ने वाले शायराना मिज़ाज के एक सम्मानित वयोवृद्ध मज़हबी चरित्र राहतख़्वाजा के जीवन में आए एक भारी तूफ़ान पर बनाई गई फिल्म ।
राहत साहब शादी की एक दावत में अपने कुछ ख़ास मित्रों की महफ़िल में एक लोकप्रिय फ़िल्मी गाने ‘ ज़िंदगी तमाशा…’ पर दोस्तों के आग्रह पर एक नाच करते हैं । वहाँ मौजूद विडियोग्राफ़र ने उनके नाच का वीडियो बना कर उसे फ़ेसबुक परअपलोड कर दिया । उम्रदराज़ राहत साहब को इस प्रकार के एक कथित अश्लील गाने पर नाचते देख इंटरनेट की दुनियामें लोगों ने उसका भारी लुत्फ़ लिया । पर इसी नाच ने न सिर्फ़ मज़हब के ठेकेदारों के बीच, बल्कि परिवार में बेटी औरआस-पड़ोस के लोगों में भी उनकी अब तक की मज़हबी और सौम्य-शालीन छवि को जैसे एक झटके में नष्ट कर दिया ।
ऐसा लगा जैसे एक झटके में ख्वाजा साहब के मस्तमौला शायराना मिज़ाज का पर्दा फट गया । वह पर्दा जो चरित्र केबहुआयामी और बहुरंगी रूप को अपने में समोये रखता है, उसका फट कर इस प्रकार की एक निश्चित, ठोस पहचान मेंबदल जाना ख़्वाजा साहब के हरदिलअज़ीज़ मिज़ाज की सारी ख़ूबसूरती और ख़ुशबू को सोख लेने के मानिंद था ।
वह वीडियो जैसे एक बेहतरीन पति, आदर्श पिता, नर्मदिल ख़ुदापरस्त इंसान के नाना रूपों की हत्या की साज़िश बन गया।
नाचते हुए ख़्वाजा साहब के वीडियो से उनकी जो एकरंगी अश्लील सी पहचान बनीं, वह किसी संकेतक के एक चिह्न मेंतब्दील हो कर अपनी मौत की घोषणा की तरह का माजरा था । एक खास चिह्न में बदल कर अब वह संकेतक सिर्फ एकबेजान व्यक्ति का ही पता दे सकता है । उसकी बाक़ी सारी संभावनाओं का वहीं अंत कर दिया जाता है ।
ज़ाहिर है कि ख़्वाजा साहब के लिए कुल मिला कर ऐसी परिस्थितियाँ तैयार हो गई, जिनमें जैसे शर्म में डूब कर मर जानेके अलावा उनके पास दूसरा कोई रास्ता ही न बचा हो ।
ऐसे हालात में, जब किसी की पहचान को किसी एक खास शर्मनाक स्थिति में कीलित कर दिया जा रहा हो, अर्थात् वहएक प्रकार से उसकी मौत का विज़िटिंग कार्ड बन जाए, तो हमेशा यह ज़रूरी होता है कि पूरी धृष्टता और साहस के साथअपने उस विज़िटिंग कार्ड को फाड़ कर फेंक दिया जाए ।
‘ज़िंदगी तमाशा’ फ़िल्म के ख़्वाजा साहब ने बिल्कुल ऐसा ही किया । उनकी बेटी और अन्य जन उनकी मौत के पहले हीअपनी धारणाओं और पूर्वाग्रहों के चलते उन्हें जिस प्रकार मृत घोषित कर रहे थे, ख़्वाजा साहब ने उसे ठुकरा कर अपनीस्वतंत्र प्राणी सत्ता की घोषणा की ।
इस पूरे कथानक को बहुत ही कम साधनों से निदेशक सरमद खूसत ने जिस पटुता के साथ फिल्मांकित किया गया है, उसकी जितनी तारीफ़ की जाए, कम है । ख़्वाजा साहब के रूप में आरिफ़ हसन का अभिनय अनायास ही हमारी ‘गर्महवा’ फ़िल्म में बलराज साहनी के अभिनय की यादों को ताज़ा कर देता है ।
—अरुण माहेश्वरी