— अरुण माहेश्वरी
जैसे जैसे पांच राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव क़रीब आ रहे हैं, मोदी में अपनी शक्ति के क्षरण के लक्षण तेज़ी के साथ प्रगट होने लगे हैं । अभी राजस्थान में चुनावी आचार संहिता के लागू हो जाने के बाद के काल में मुख्यमंत्री के घर पर ईडी आदि अपनी एजेंशियों के शिकारी कुत्तों से हमला करवाना भी उनके उन लक्षणों के ही संकेत हैं । आसन्न पराजय के साफ अंदेशों से अपनी अब तक की एकछत्र सम्राट वाली उनकी ग्रंथी उन्हें बुरी तरह से सताने लगी है ।
फ्रायडियन मनोविश्लेषण के सिद्धांतों से परिचित लोग जानते हैं कि आदमी के अचेतन में इस प्रकार का castration complex, शक्तियों के छीन लिये जाने की बधियाकरण ग्रंथी किस प्रकार लक्षणों की एक गाँठ के रूप में काम किया करती है । इस गाँठ के कई रूप होते हैं। इनमें एक गतिशील, लचीला रूप भी होता है जिसमें विक्षिप्तता की स्थिति के विश्लेषण अर्थात् निदान की संभावना बनी रहती है । पर दूसरा रूप वह है जो निदान की हर कोशिश के साथ उसी अनुपात में और जटिल होता जाता है, अर्थात् रोग पर क़ाबू के बजाय वह बढ़ता ही चला जाता है । व्यक्ति अपनी वास्तविकता को पहचान ही नहीं पाता है, बल्कि उससे और और दूर होता चला जाता है । वह अपनी अपेक्षित भूमिका के निर्वाह में हर दिन ज्यादा से ज्यादा असमर्थ साबित होता जाता है । उसके कारण जो स्थितियाँ पैदा होती है वह तो और भी जटिल होती है जिनकी मांगों को मनोरोगी जरा भी छू भी नहीं पाता है ।
यह मनोरोगी की शक्ति के क्रमिक अनिवार्य क्षय का ऐसा उपक्रम है जिसमें बधियाकरण के बाद की कल्पना से वह उभर ही नहीं पाता है । इसमें विडंबना की बात यह है कि मनोरोगी की अपनी पहचान ही उसमें एक विप्रतिषेध तैयार करती है । वह जिसे अपनी भूमिका मान कर चलता है, जिसे लेकर उसे खतरा महसूस होता है, अर्थात् जिसके अभाव के बारे में सोच-सोच कर उसे वंचना का भाव सताया करता है, वह भावबोध उसमें कोई क्षणिका या तात्कालिक रूप में पैदा नहीं होता है बल्कि यह उसकी शक्ति में एक अनिवार्य गड़बड़ी के तौर पर स्थायी रूप में मौजूद होता है । हमारी ये बातें कोरी कपोल कल्पनाएं नहीं है । फ्रायड के अनुभवों और आदमी के मनोविज्ञान के बारे में उनके प्रयोगों से ये सिद्ध हैं । यह लोक रीति से जुड़ी हुई बातें हैं ।
मोदी लगता है अभी से अपनी पहचान को लेकर कुछ ऐसी ही मनोदशा के दुष्चक्र में फँस चुके हैं ।
शुरू में उन्होंने अपनी इस शक्ति के क्षरण को कुछ खास प्रकार की चुनावी रणनीतियों, सांसदों और पार्टी के नेताओं को विधायकी की लड़ाई में उतारने की क़वायदों आदि से रोकने की कोशिश की थी । लेकिन अब क्रमशः जब यह साफ होता जा रहा है कि उनके पतन के लक्षणों में इतनी लोच नहीं बची है कि उनमें इस प्रकार के हस्तक्षेप से एक दूसरे शक्तिमान का आकार पाया जा सकता है । तब अंत में अब मोदी पूरी तरह से अपने पर, अपनी राजनीति के मूलभूत चरित्र, अपनी मूलभूत संघी सच्चाई पर उतर आए हैं, अर्थात् तानाशाही तौर-तरीक़ों, विपक्ष के खिलाफ पूरी बेशर्मी से राजसत्ता के बेजा उपायों से जनतंत्र में अपनी खोई हुई शक्ति को पाना चाहते हैं ।
आदमी की अपनी मूल पहचान का पहलू कुछ इसी प्रकार से उसे संकट के समय में नियंत्रित करने लगता है । इसीलिए कहते हैं कि संकट के वक्त ही आदमी के चरित्र की मूल पहचान सामने आती है । राजनीति में जनतांत्रिक और तानाशाही चरित्र की पहचान ऐसे अवसरों पर ही होती है जब व्यक्ति अपनी शक्ति को बनाए रखने के लिए किन रास्तों के उपयोग को अपने लिए श्रेयस्कर मान कर अपनाता है ।
विश्लेषकों के लिए जरूरी है कि उन्हें किसी की राजनीति के मूल चरित्र के इन लक्षणों की सचाई का पूर्व ज्ञान होना चाहिए । तभी वे इन्हें महज एक फोबिया या विकृति मानने के बजाय राजनीति के चरित्र और उसकी पहचान से जोड़ कर समझ सकते हैं ।
दरअसल आदमी की खुद की चारित्रिक पहचान भी उसके के भावों के निर्माण में प्रसंस्करण की प्रमुख भूमिका अदा करती है । राजनीति के मसलों में संकेतक और संकेतित के बीच जो विरोध नजर आते हैं उसमें इसकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है । संकेतित का प्रभाव तय करने में संकेतक की सक्रिय भूमिका अदा करते हैं ।
इसीलिए आज मोदी पर भी पराजय के संकेतकों की भूमिका को महत्वपूर्ण समझना चाहिए । वे क्रमशः मोदी के अवचेतन को उघाड़ रहे हैं । जाहिर है कि आगे इसके और भी भयंकर कुत्सित रूप देखने को मिलेंगे । इनका संबंध मोदी की सत्ता संबंधी अपनी वासनाओं से भी हैं और किसी की वासनाओं का संबंध सिर्फ उसके संतोष से नहीं होता । उसका उद्देश्य जितना व्यक्त होता है उतना ही अव्यक्त भी रहता है । आदमी की हर मांग आदमी की वासनाओं का एक खास रूप होती है । जाहिर है कि इन चुनावों में अभी हमें मोदी की मांगों के और भी बहुत भद्दे रूप देखने को मिलेंगे ।