(मित्रो,
राजकिशोर की एक छोटी सी टिप्पणी पर अपनी यह भारी सी बहक पेश कर रहा हूं। ढेरों बाते हैं। शायद कहीं कुछ ज्यादा ही गूढ़ भी। कुछ को किसी पहेली सी लगे। लेकिन इस बहक में हम खूब रमे। लिखने के साथ-साथ खूब तने। देखे आप को कैसा लगता है? )
अरुण माहेश्वरी
स्वप्न और यथार्थ
राजकिशोर के वर्धा के अनुभवों पर उनके ब्लाग में प्रकाशित टिप्पणी में एक बहुत मनमोहक बात है : किसी पुस्तकालय में जाकर मैं अभिभूत हो जाता हूं। समझ में नहीं आता इस टुच्ची दुनिया के बीच इतनी सुंदर चीजें कैसे टिकी हुई हैं।
इस ‘टुच्ची दुनिया’ के बीच हमारे सपनों की दुनिया !
लेकिन उपनिषदों के भाष्यकार शंकर ने सपनों को मिथ्या कहा था, “क्योंकि स्वप्न में मनुष्य को दूरस्थ स्थानों पर जाने का अनुभव भले ही हो, परन्तु जागृत होने पर वह देखता है कि केवल कुछ क्षणों के लिए ही वह सोया था तथा वह अपने बिस्तर से एक कदम भी आगे नहीं चला है।“
तथापि, सपनों की मर्यादा को बनाये रखते हुए वे आगे कहते हैं: “स्वप्नानुभव अगर मिथ्या है तो जाग्रदानुभव भी स्वप्नानुभव के सदृश होने के कारण मिथ्या है। दोनों प्रकार के अनुभव में ज्ञाता एवं ज्ञेय का द्वैत होने के कारण दोनों मौलिक रूप से एक ही है। अत: दोनों में से एक यदि मिथ्या है तो अन्य भी मिथ्या होगा।“
इसी तर्क सरणी पर बढ़ते हुए अंत में उन्होंने घोषित कर दिया – “पूरी ‘जगत-प्रतीति’ ही मिथ्या है।“
शून्यवादी नागार्जुन ने दुनिया के प्रत्येक विषय को सारहीन बताया क्योंकि “समस्त प्रतीतियां केवल परस्पर आश्रित काल्पनिक सृष्टियां ही है और यही परस्पर आश्रितता उनके स्वभाव की सारहीनता को सिद्ध करती है।“
स्वप्न, स्वप्नों का मिथ्यात्व और फिर समस्त जगत मिथ्या है और समस्त विषय सारहीन -
स्वप्न और मिथ्यात्व के इस संकीर्तन से अनायास ही इटली के बहुचर्चित चिंतक अंबर्तो इको के लेख - The Power of Falsehood (झूठ की शक्ति) की याद आजाती है।
‘सत्यमेव जयते’ एक सबसे अधिक दोहराया जाने वाला नीति कथन है। सत्य की सर्वशक्तिमानता का उद्घोष। लेकिन इको जीवन के अनुभवों का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि सत्य को अपने को स्थापित करने में लंबा समय लगता है। इसके लिये कितने आंसू, कितना खून बहाना पड़ता है, इतिहास इसका गवाह है।
धरती गोल है और सूरज के चारो ओर चक्कर लगाती है - इस खगोलशास्त्रीय सत्य को मनवाने में वैज्ञानिकों और खगोलशास्त्रियों को कितने बलिदान देने पड़े, सारी दुनिया जानती है।
इको सवाल करते हैं कि क्या ऐसा नहीं होसकता कि कोई और, कुछ संदिग्ध सी चीज ही, ऐसी है जो सत्य के बराबर की ताकत रखती है?
इसी बिनाह पर इको झूठ की ताकत पर चर्चा करने का प्रस्ताव रखते हैं। कहते हैं – “इतिहास मुख्यत: भ्रमों का रंगमंच रहा है।“
कार्ल मार्क्स ने सौ-सौ भ्रमों में लिपटे इतिहास के किसी परम-सत्य की तरह ही ‘वर्ग संघर्ष’ को इतिहास की प्रमुख चालिका शक्ति के रूप में देखा था। इतिहास इसी परम-ब्रह्म का नाना रूपों में प्रकटीकरण है। उन्होंने भी इतिहास के अंत को देखा था, लेकिन फुकुयामा की तरह नहीं। वर्ग-विभाजित समाज के अंत में उन्होंने इतिहास का अंत देखा था।
मार्क्स ने पूंजीवाद में क्रमश: भ्रमों के इस संसार के विस्तार की पराकाष्ठा को अपनी विचक्षण दृष्टि से देख लिया था। अपनी 1844 की पांडुलिपियों में वे जहां पर श्रमिक के अलगाव, उसकी विच्छिन्नता की चर्चा कर रहे थे, तब वे तमाम इन्हीं नये विभ्रमों से भरे आगत के बीज मंत्र को रूपायित कर रहे थे। श्रम-शक्ति में मनुष्य के विग्रह को उन्होंने मनुष्य का अवलोप कहा। विग्रह में अवलोप, प्राप्ति में त्याग। संसार मनुष्यों का नहीं मालों का प्रेत-संसार हो जाता है। मालों की अंध-भक्ति का उपभोक्ता संसार।
Commodity fetishism ।
पूंजी की माया से पुरानी तरह का एक साबुत, कर्मरत, फोर्ड मार्का पूंजीपति भी गायब हो जाता है। मार्क्स के काल में जो गर्भ से बाहर नहीं आये थे, पूंजीपतियों की ऐसी सर्वथा नयी प्रजाति को भी उन्होंने अपनी अद्भुत दृष्टि से देख लिया था। और इसीलिये ‘पूंजी’ के तीसरे खंड में सर्वहारा क्रांति का एक नया रूप बखान करते है : Capitalist without function yield to the
functionaries without capital. (निष्क्रिय पूंजीपति सक्रिय पूंजीविहीनों से पराजित होता है।)
आज आदमी स्वप्न में ही नहीं, पूर्ण जाग्रदावस्था में बिना हिले-डुले दूरस्थ स्थानों तक कुछ इसप्रकार पहुंच जाने में समर्थ है कि जैसे वह एक साथ दुनिया के कोने-कोने में सशरीर विद्यमान हो! पलक झपकते अरबों-खरबों की पूंजी का वैश्विक संतरण इस मायावी संसार का मूर्त रूप है। सब तकनीक का खेल। अभी इसके और अनंत नये-नये विग्रहों की तमाम संभावनाएं है।
यह पीसी-उत्तर (डेस्कटॉप-उत्तर) युग है। ईसाई मान्यताओं में मानव सृष्टि का बीज एपल इस नये उत्तर-युग की सृष्टि के बीज ऐप्स के रूप में अवतरित हुआ है। स्मार्टफोन्स का युग।
नियेल पोस्टमैन अमेरिका को ‘टेक्नोपौली’ कहता है। तकनीक की स्वायत्तता का राज्य। एक ऐसी व्यवस्था जिसमें सामाजिक संस्थाओं और राष्ट्रीय जीवन की तुलना में तकनीक का बोलबाला है - स्वायत्त, स्वयं-सिद्ध, स्वयं-साध्य और सर्व-व्याप्त तकनीक।
एक विशालकाय उद्योग हर आदमी को परिभाषित करने वाले पेशे, व्यवसाय, भाषा, धर्म, जाति, संस्कृति - मूलत: समग्र जीवन के तमाम प्रतीक-चिन्हों को खंगालने और प्रत्येक उपभोक्ता-मानस को व्यवसाय-वाणिज्य का उपजीव्य बनाने के काम में दिन-रात जुटा हुआ है। आदमी की एक-एक हरकत, होठों की हर जुम्बिस, आंखों की हर झपक और सर्वोपरि दिमाग में उभरने वाली हर छवि तक का पूरा हिसाब रख रहा है। ताकि, आदमी को निचोड़ कर वाणिज्य के हित में उसका पूरा सत निकाल लें।
जिसकी कोई जरूरत नहीं, जीवन में कोई प्रकृत उपयोगिता नहीं, उसे भी जबरन आदमी के गले में ठूस देने का उद्यम। जीवन की हर समस्या की रामवाण दवा, आदमी की हर इच्छा की तुरत पूर्ति। आपकी जेब में हर समस्या का डिजिटल समाधान।
एपल के ऐप स्टोर में 9 लाख ऐप्स है तो गूगल के एंड्रायड स्टोर में 10 लाख। ऐसे सब स्टोर मिला लें तो इन ऐप्स की गिनती न हो। ब्रिटेन के ग्लोबल वेब इंडेक्स के अनुसार ऐसे 10 में 9 ऐप्स किसी न किसी रूप में आपस में जुड़े-गुंथे हुए हैं। और गौर करने की बात यह है कि इन सभी ऐप्स के पहाड़ों से निकलने वाली सूचनाओं की सारी नदियां मुनाफा बंटोरने में लगे दुनिया के इजारेदारों के महासमुद्र में तिरोहित होती है। आभासित विश्व का सबसे ठोस अंत।
गूगल का मालिक मार्क जुकरबर्ग कहता है, “ मैं नहीं जानता, ये मूर्ख हम पर इतना भरोसा क्यों करते हैं। अपने अन्तर-बाहर का सबकुछ हमारे सामने रख देते हैं।“
जुकरबर्ग का घोषित उद्देश्य तो यह है कि दुनिया को अधिक खुला और जुड़ा हुआ बनायें। “ हम लोगों को वह शक्ति देना चाहते हैं जिससे वे अपनी इच्छा के अनुसार जिसे चाहे और जो चाहे उसका भागीदार बना सके।“
आज जुगत इस बात की हो रही है कि हर आदमी का अपना इंटरनेट हो। जो एक को दिखाई दे, वह दूसरे को नहीं। दूसरे को जो दिखाई दे, तीसरे को नहीं। आभासित संसार में हर एक की अपनी पसंदीदा चीजों की दुकान हो। परस्पर गुंथे नाना ऐप्स के जरिये दूरस्थ व्यापारी भी हर किसी की पसंद, रूझान और चरित्र से परिचित है। कुल मिला कर एक-एक आदमी की रास को चंद हाथों में थमाने का भयंकर उपक्रम।
यही है प्रतीतियों के इस पूरे मिथ्या जगत का ठोस रहस्य। शंकर के ‘मायावाद’ और इको के ‘झूठ की ताकत’ के संज्ञान का ठोस सच।
ऐसे में आप पर लद कर न बोलती पुस्तकों के पुस्तकालयों का नि:शब्द, मौन और निजी संसार अविश्वसनीय सुख और सुकून की जगह जान पड़े तो यह राजकिशोर या किसी पुस्तक प्रेमी की आत्म-केंद्रिकता या पलायनवाद नहीं, किसी भी बहाने व्यापार के चंगुल में न पड़ने का सत्याग्रह है। एक टुच्ची दुनिया में सुंदरता की तलाश, ‘सक्रिय पूंजीविहीनों’ की विजय का राग।
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