गुरुवार, 14 नवंबर 2013

भारतीय वामपंथ के पुनर्गठन की एक प्रस्तावना : विचार के कुछ बुनियादी नुक्तें

(पन्द्रहवीं लोक सभा के चुनाव में वामपंथ की भारी पराजय के बाद ही इस प्रतिवेदन को लिखा गया था और कई मित्रों से निजी तौर पर इसपर चर्चा भी हुई। छोटी गोष्ठियां भी हुई।  अब इसे सभी मित्रों के विचार के लिए ब्लॉग पर लगा रहा हूँ। उम्मीद है मित्रों को सोचने के कुछ बिंदु मिलेंगे। )

अरुण माहेश्वरी
भारतीय वामपंथ के पुनर्गठन की एक प्रस्तावना : विचार के कुछ बुनियादी नुक्तें

"आत्मालोचना क्रियात्मक और निर्मम होनी चाहिए क्योंकि उसकी प्रभावकारिता परिशुद्ध रूप में उसके दयाहीन होने में ही निहित है। यथार्थ में ऐसा हुआ है कि आत्मालोचना और कुछ नहीं केवल सुंदर भाषणों और अर्थहीन घोषणाओं के लिए एक अवसर प्रदान करती है। इस तरह आत्मालोचना का ‘संसदीकरण होगया है’।"(अन्तोनियो ग्राम्शी : राजसत्ता और नागरिक समाज)

1.सशस्त्र नवंबर क्रांति ने 1917 में रूस में जो नयी व्यवस्था कायम की वह 70 वर्ष चली। 1989 में उसका पतन कुछ इस प्रकार हुआ जैसे कोई सूखा पत्ता पेड़ से अनायास ही गिर जाता है। उस सत्ता परिवर्तन के अंतिम दिन जब सोवियत सत्ता की ओर से सड़कों पर टैंक उतारे गयें, तब वही टैंक येलत्सीन की वीरता के प्रदर्शन के मंच बन गये। क्रांति और प्रतिक्रांति के अनिवार्य रूप से हथियारबंद और हिंसक होने अर्थात इतिहास में बलप्रयोग को लेकर एक प्रकार की अंधआस्था वाले मस्तिष्कों को उस घटना ने चौंकाया था, क्योंकि मार्क्स की समझ के ठीक विपरीत उन्होंने सिर्फ इतिहास की ही नहीं, ऐतिहासिक परिघटनाओं के स्वरूपों अर्थात बलप्रयोग की सूरतों की भी अपनी खास प्रकार की अपरिवर्तनशील चौखटाबंद समझ विकसित कर ली थी। जिस प्रकार उंगली के इशारों पर उस पूरी व्यवस्था का अंत हुआ, उससे एक बात साफ थी कि उस समाज के लिये वैसी ‘समाजवादी व्यवस्था’ की कोई उपयोगिता नहीं रह गयी थी, जैसी तत्कालीन सोवियत संघ में थी। रणधीर सिंह के शब्दों में, “It was a system virtually ready for history’s broom.”

2.15वीं लोकसभा के चुनाव परिणामों के संदर्भ में सोवियत संघ के उस ऐतिहासिक घटनाक्रम का स्मरण अप्रासंगिक नहीं है। इसी लेखक ने पश्चिम बंगाल में लगातार छठी बार वाममोर्चा सरकार की जीत के संदर्भ में एक पूरी किताब लिखी है : ‘पश्चिम बंगाल में मौन क्रांति’। दुनिया के इतिहास की यह विरल घटना कि किसी पूंजीवादी-सामंती राजसत्ता वाले संघीय गणतंत्र के एक अंग राज्य में लगातार 30 वर्षों तक कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व का मोर्चा चुनाव में जनता के मतदान से विजयी होता जारहा है, यह किसी के लिये भी इसके सामाजिक गभीतार्थों के गंभीर अध्ययन की मांग करता है। इसी जरूरत के तहत लिखी गयी वह पूरी पुस्तक पश्चिम बंगाल के ग्रामीण क्षेत्र में माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में किये गये व्यापक सामाजिक आर्थिक परिवर्तनों, सत्ता के संतुलन में आये बदलाव के इतिहास का आख्यान बन गयी और बिल्कुल सही उस पूरे सामाजिक उपक्रम को एक ‘मौन क्रांति’ की संज्ञा प्रदान की गयी। लेकिन उसी पुस्तक के उपसंहार में इस दौरान सामने आए नये सामाजिक यथार्थ और उसके कार्यभारों के संदर्भ में सीपीआई(एम) को सैद्धांतिक और व्यवहारिक, दोनों स्तरों पर खुद को नये सिरे से प्रासंगिक बनाने की जिस नितांत जरूरी जद्दोजहद की ओर संकेत किया गया है, यही वह पहलू है जिसका सीघा संबंध इस लोकसभा चुनाव और इससे जुड़े तमाम प्रसंगों से है।

3.ग्रामीण सत्ता-संरचना में परिवर्तन जनतंत्र के बाकी कार्यभारों को तेजी से उभार कर सामने लाता है। इनमें शहरीकरण और औद्योगीकरण के प्रश्न शामिल है। इन प्रश्नों के आर्थिक पहलू के अलावा व्यापक सांस्कृतिक पहलू भी है, जिन्हें आधुनिक जीवन की नैतिकता की समस्याएं कहा जा सकता है। इन समस्याओं का समाधान ग्रामीण ‘मौन क्रांति’ की प्रभुत्व शैली (hegemony) से हासिल नहीं किया जा सकता है। यह जनता के व्यापक समर्थन पर टिकी हुई पूंजीवादी जनतांत्रिक व्यवस्था में रहते हुए एक जन-क्रांतिकारी रणनीति को तैयार करने की समस्या है। राजसत्ता के दमनकारी उपायों से इस व्यवस्था के लिये जनता के व्यापक हिस्सों का समर्थन हासिल नहीं किया गया है। बनिस्बत घुमा कर कहे तो कहा जा सकता है कि लोगों का बड़ा हिस्सा चीजों को चलाने की उस प्रणाली से खुश है, जिस प्रणाली पर पूंजीपति वर्ग उन्हें चलाना चाहता हैं।

4.इसीलिये वामपंथियों के सामने इस खास जनतांत्रिक नैतिकता के निर्वाह के साथ क्रांतिकारी विकल्प तैयार करने की समस्या है। और, गौर करने लायक बात यह है कि आधुनिक जीवन की जनतांत्रिक नैतिकता के ऐसे ही तमाम प्रश्न हैं जिनके सही समाधान देने में असमर्थ विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन आज तक पूंजीवादी जनतंत्र की चुनौतियों के सामने लचर दिखाई पड़ता है। इटली के कम्युनिस्ट विचारक ग्राम्शी ने अपने प्रभुत्व सिद्धांत के तहत योरोपीय परिस्थितियों में कम्युनिस्टों के प्रमुख कार्यभारों में विचारधारात्मक और नैतिक स्तर पर अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने की जिस चुनौती की बात कही थी, यूरोकम्युनिज्म से लेकर फ्रांस के 60 के दशक के कैम्पस विद्रोह तक की सारी कोशिशों का मूल सार किसी न किसी रूप में इन्हीं प्रश्नों का उत्तर हासिल करना था। ये जनतंत्र की नैतिक चुनौतियां है। सभ्य समाज के इन नैतिक प्रश्नों को ऐसे ही दरकिनार नहीं किया जा सकता है। खुद माक्र्स ने सारा जीवन जनतंत्र और स्वतंत्रता के इन्हीं मूल्यों के लिये संघर्ष किया। मसलन, अखबारों की स्वतंत्रता की बात को ही लिया जाए। माक्र्स ने लिखा, अखबारों की स्वतंत्रता की अनुपस्थिति अन्य सभी स्वतंत्रताओं को कोरा भ्रम बना देती है। स्वतंत्रता का एक रूप ठीक वैसे ही दूसरे को शासित करता है जैसे शरीर का एक अंग दूसरे को करता है। जब भी किसी एक स्वतंत्रता पर प्रश्न उठाया जाता है तो स्वतंत्रता के सामान्य रूप पर प्रश्न उठा दिया जाता है। जब स्वतंत्रता के एक रूप को खारिज किया जाता है तो सामान्य तौर पर स्वतंत्रता को ही खारिज कर दिया जाता है। माक्र्स के लेखन में जनतंत्र के प्रति अटूट निष्ठा के भी ऐसे असंख्य उदाहरण मौजूद है।

5.लेनिन ने एक देश में समाजवादी क्रांति की संभाव्यता पर अपने समय में चली ऐतिहासिक बहस में कहा था कि जब विकसित औद्योगिक देशों में क्रांति होगी तब विश्व समाजवाद का नेतृत्व भी उन्हीं देशों के हाथ में होगा। यहां वे सिर्फ विकसित देशों की आर्थिक शक्ति की ओर ही संकेत नहीं कर रहे थे, उनका संकेत कुछ ऐसी सामाजिक-आर्थिक और बौद्धिक संरचनाओं की ओर भी था जो आधुनिक समाज की जरूरतों से उत्पन्न हुए थे, मानव सभ्यता की प्रगति के सूचक थे और उन्हें पिछड़े हुए देशों की परिस्थितियों में प्राप्त नहीं किया जा सकता था। लेनिन के शब्दों में,समाजवाद बड़े पैमाने के पूंजीवाद द्वारा सृजित तकनीकी और सांस्कृतिक उपलब्धियों के उपयोग के बिना असंभव है।(जोर हमारा) यहां ‘सांस्कृतिक’ शब्द पर गौर करने की जरूरत है।


6.इन सबके बावजूद, आज भी जनतंत्रीकरण कम्युनिस्ट पार्टी के सांगठनिक ढांचे की एक बड़ी समस्या बना हुआ है। इसका प्रमाण यह है कि जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद की सैद्धांतिकी के बारे मेंं व्यापक सहमति के बावजूद संकट के हर नये मुकाम पर इसी  सांगठनिक सिद्धांत को कसौटी पर चढ़ाया जाता है और आज तक कम्युनिस्ट आंदोलन के दायरे में इस सिद्धांत के औचित्य-अनौचित्य पर एक प्रकार की अंतहीन बहस जारी है। जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद संगठन के ढांचे को तैयार करने का एक औपचारिक सिद्धांत तो बना हुआ है, प्रश्न इसे संगठन के संचालन की आभ्यांतरित संस्कृति में तब्दील करने का है। गहराई से देखने पर पता चलता है कि जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद के बजाय संगठन नौकरशाही कमांड व्यवस्था और पूरी तरह से पूंजीवादी नवउदारतावाद की दो अतियों के बीच डोल रहा है। यह रूझान पार्टी की कार्यनीतिक लाइन को भी समान रूप से कैसे प्रभावित करता है, इसे हम आगे देखेंगे।

7.जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद की तरह ही जनतांत्रिक दुनिया के कम्युनिस्ट आंदोलन में दूसरे जिस पद पर सबसे अधिक विवाद हुआ है, वह है ‘सर्वहारा की तानाशाही का पद। रूसी क्रांति के कुछ दिनों बाद ही 1920 में बर्टेंड रसल रूस की यात्रा पर गये थे और उन्होंने लेनिन, ट्राटस्की और गोर्की से भी मुलाकात की थी। उस यात्रा के बाद ही उन्होंने एक किताब लिखी, ‘द प्रैक्टिस एंड थ्योरी आफ बोलशेविज्म’। इसमें वे अपने अनुभवों से बताते हैं कि ब्रिटेन में स्थित रूस के मित्र जब सर्वहारा की चर्चा करते है तब वे शाब्दिक अर्थ में सर्वहारा की ही बात कर रहे होते हैं, और जब वे तानाशाही की बात करते है, तब वे उच्च स्तरीय जनतंत्र कह रहे होते हैं, लेकिन रूस के कम्युनिस्ट जब सर्वहारा की बात करते हैं तो इससे उनका तात्पर्य रूस की कम्युनिस्ट पार्टी से होता है, और जब तानाशाही की बात करते हैं, तब वे शाब्दिक अर्थ में तानाशाही की चर्चा कर रहे होते हैं। दरअसल शब्द संप्रेषण के औजार होते हैं। जिन शब्दों से हम अपने आशय को पूरी तरह से संप्रेषित नहीं कर सकते, उनसे चिपके रहना कहा की बुद्धिमानी है। पानी का जिक्र करते समय उसे उसके वैज्ञानिक नाम एचटूओ से पुकारना कोई मायने नहीं रखता। इसीप्रकार किसी भी जनतांत्रिक राजनीतिक विमर्श में ‘सर्वहारा की तानाशाही’ पद के प्रयोग से पैदा होने वाले विभ्रम की आशंका को बनाये रखने का क्या मायने है? सोवियत संघ के पराभव के कारण के तौर पर आज सर्वस्वीकृत ढंग से सर्वहारा की तानाशाही के पार्टी की तानाशाही में और फिर पार्टी की तानाशाही के शुद्ध रूप में पार्टी के प्रभुत्वशाली गुट और फिर एक व्यक्ति की तानाशाही में बदल जाने की जो बात कही जाती है, उससे भी सर्वहारा की तानाशाही संबंधी इस बहस के तात्पर्य को समझा जा सकता है।

8.कम्युनिस्ट पार्टियां संगठन के जिस कथित लेनिनवादी सिद्धांत पर बल देती है, उसीके प्रवक्ता लेनिन नहीं मानते थे कि पार्टी के संगठन का कोई सार्विक और सर्वमान्य ढांचा होता है। वे पार्टी को सामाजिक रूपांतरण की खास ऐतिहासिक, राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों में वर्ग संघर्ष को निश्चित राजनीतिक दिशा प्रदान करने का उपकरण मानते थे। पार्टी संगठन से उनकी यही अपेक्षा थी कि वह हर देश के यथार्थ के अनुरूप हो और संघर्षों की वास्तविक जरूरतों को पूरा करे। उनके शब्दों में, कम्युनिस्ट पार्टियों के संगठन का ऐसा कोई अंतिम (absolute) रूप नहीं है, जिसे हर स्थान और काल के लिये सही माना जाए। संघर्षरत सर्वहारा वर्ग की परिस्थितियां लगातार बदल रही है, और इसीलिये सर्वहारा के हरावल को भी हमेशा संगठन के प्रभावशाली रूप की तलाश करनी होगी। इसीप्रकार, किसी भी देश की खास ऐतिहासिक परिस्थितियों की जरूरतों को पूरा करने के लिये प्रत्येक पार्टी को संगठन के अपने विशेष रूपों को विकसित करना होगा।

9.संगठन की विफलता सामाजिक यथार्थ और विश्व परिस्थितियों की समझ में कमी की भी सूचक होती है; अर्थात सांगठनिक समस्या का सीधा संबंध पार्टी के कार्यक्रम की समस्या से है। पूंजीवाद की विफलताओं और जनता के व्यापक असंतोष ने भारत में यत्र-तत्र वामपंथ को आगे बढ़ने के बड़े अवसर दिये। विभिन्न स्तर के निकायों के चुनावों में काफी जीतें हासिल हुई। एकाधिक राज्यों में सरकार बनाने का अवसर मिला। इन्हीं अनुभवों से पार्टी कार्यक्रम में ऐसी सरकारों की भूमिका को सुनिश्चित करने वाली धाराएं (पूर्व कार्यक्रम की धारा 112 और सन् 2000 में त्रिवेंद्रम के विशेष सम्मेलन द्वारा पारित कार्यक्रम की धारा 7.17) जुड़ीं, वर्ना अन्तररष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन के अनुभवों से बनाये गये पार्टी के कार्यक्रम में चुनाव के बल पर किसी संघीय गणतंत्र के अंगराज्य में भी सरकार बनाने की संभावनाओं तक का अनुमान नहीं लगाया गया था, केंद्र सरकार में जाना तो दूर की बात। बोल्शेविक उसूलों में चुनाव में बहुमत प्राप्ति के जरिये सत्ता पर आना पूरी तरह से असंभव माना जाता था। 1996 में ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने के सवाल पर चली बहस के समय पार्टी कार्यक्रम में केंद्र में सरकार बनाने की इस प्रकार की किसी संभावना के बारे में दिशा-निर्देश न होना भी चर्चा का एक विषय था और केंद्रीय कमेटी के उक्त फैसले के ठीक बाद हुई सीपीआई(एम) की पार्टी कांग्रेस में ही कार्यक्रम में संशोधन करके इस प्रकार की संभावना के लिये स्पष्ट व्यवस्था की गयी। कहने का तात्पर्य यह कि लेनिन की समझ के अनुसार भारतीय संविधान और भारत की ठोस राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों के साथ संगति रखते हुए पार्टी के कार्यक्रम और संगठन संबंधी निर्णय लिये गये होते, तो अपनी रणनीति और कार्यनीति को कहीं ज्यादा सही और कारगर बनाया जा सकता था, अपने ही कामों का कहीं ज्यादा सही आकलन किया जा सकता था। यह तो जैसे अनायास ही पार्टी के संघर्षों ने अपने प्रभाव के राज्यों के ग्रामीण क्षेत्रों में सत्ता के संतुलन को बदल कर ऐसा परिवर्तन कर दिया कि जिसे ‘मौन क्रांति’ कहा जा सकता है। फिर भी आज तक इन अत्यंत महत्वपूर्ण अनुभवों के आधार पर भारतीय क्रांति के अब तक के विकास पथ का एक सुसंगत सैद्धांतिक ढांचा तैयार करने में पार्टी की प्रकट विफलता बेहद चौंकाने वाली है। पश्चिम बंगाल के राजनीतिक घटनाक्रम के सिलसिलेवर अध्ययन के उपरांत उसे ‘मौन क्रांति’ का नाम इस अदने से लेखक ने दिया है, पार्टी के लिये इसप्रकार का दावा आज भी उसकी कल्पना के बाहर है। अपने खुद के अनुभवों का सही आकलन न कर पाना किसी के लिये भी आगे के सही वस्तुनिष्ठ रास्ते को निर्धारित करना कठिन बना देता है। भारतीय वामपंथ के साथ भी कहीं ऐसा ही कुछ तो नहीं घट रहा है?

10.भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन का इतिहास ऐसी कई बातों को सामने लाता है। यहां के कम्युनिस्ट नेतृत्व ने दुनिया के दूसरे देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों की तरह ही ‘कम्युनिस्ट अन्तर्राष्ट्रीय’ को मुख्य रूप से अपने दिशा निदेशक के तौर पर स्वीकारा था। इससे पार्टी के कार्यक्रम और संगठन के निर्माण में उसे जहां कुछ तैयारशुदा सूत्र मिल गये, वहीं उन सूत्रों को देश की ठोस परिस्थितियों के अनुसार ढाल कर अपनाने में उसे काफी ज्यादा शक्ति और समय जाया करने का हरजाना भी देना पड़ा है। कभी-कभी तो उसकी समग्र नीतियां सोवियत संघ की विदेश नीति के हितों के ज्यादा अनुरूप रही, भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन के विकास के हितों के अनुरूप नहीं। कम्युनिस्ट आंदोलन के शुरूआती दौर की कमियों को माक्र्सवाद के प्रयोग का ककहरा सीखने वाले शिशु की स्वाभाविक समस्या माना जा सकता है। वह दौर भी एक केंद्र से पूरे विश्व के कम्युनिस्ट आंदोलन को संचालित करने के कठमुल्ला सोच का दौर था। कम्युनिस्ट अन्तर्राष्ट्रीय के दस्तावेजों में उन दिनों जिस अधिकार और जोशो-खरोश के साथ सारी दुनिया के घटनाक्रमों के बारे में राय दी जाती थी, वह आज काफी आश्चर्यजनक लगता है। लेकिन, तब से अब तक विश्व कम्युनिस्ट आंंदोलन का पूरा दृश्यपट ही बदल गया है। एक केंद्र से सब देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों को संचालित करने की आज कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है। भारत के कम्युनिस्टों ने क्रांति के निर्यात की एक सबसे हास्यास्पद कोशिश भारत में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की शह पर तैयार किये जारहे मुक्तांचलों के रूप में देखी थी। इसके बावजूद समग्रत: विचार करने पर लगता है जैसे आज भी सोच-विचार की अपनी खुद की पद्धति के विकास की ऐतिहासिक अक्षमता से भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन को उबरना बाकी है। यह काम भारत की वास्तविक परिस्थिति के विश्लेषण, संघर्ष की यहां की परंपरा की पहचान तथा परिवर्तन की संभावनाओं की ठोस समझ के आधार पर ही शुरू किया जा सकता है।

11.आज तक जाति और वर्ग के संबंधों की पहेली अबूझ बनी हुई है। भारतीय समाज में जाति प्रथा एक क्षयिष्णु संस्था है। पूंजीवादी विकास के साथ-साथ इसकी मृत्यु अवधारित है। तथापि, राजनीति में जातिवाद का प्रभाव काफी उग्र दिखाई देता है। यह गरीबों और गरीबों को आपस में लड़ाने का शासक वर्गों का सबसे जघन्य हथियार है, और इसीलिये ‘67 के बाद के भारी राजनीतिक उथल-पुथल के दौर में जातिवाद का प्रयोग पूंजीवादी-सामंती ताकतों द्वारा अपने वर्चस्व को कायम रखने की वैसी ही एक बदहवास प्रतिक्रियावादी कोशिश रही है, जैसी सांप्रदायिकता के जरिये है। साम्राज्यवाद के बरक्स भी जातिवादी पार्टियों की स्थिति कम खतरनाक नहीं है। कभी बहुजन समाज पार्टी को बिल्कुल सही, भारतीय राजनीति में अमेरिकी हस्तक्षेप के तौर पर देखा जाता था। लेकिन अब बसपा सहित सभी प्रकार की जातिवादी और नग्न साम्राज्यवाद-परस्त ताकतों को तीसरे विकल्प की ताकतों के तौर पर सम्मानित स्थान पर रखा जाता है। ऐसा कोई भी मोर्चा क्या कभी साम्राज्यवाद-विरोधी, सामंतवाद-विरोधी जनतांत्रिक मोर्चे के निर्माण के मार्ग को प्रशस्त कर सकता है? जातिवादी राजनीति के चरम प्रतिक्रियावादी रूप के प्रति कम्युनिस्ट आंदोलन की साफ समझ के अभाव के कारण ही उसने हिंदी प्रदेशों में पूरे कम्युनिस्ट आंदोलन को लील लिया है।

12.आजादी की लड़ाई के दौरान कांग्रेस के साथ कम्युनिस्टों के संबंधों का अपना एक लंबा इतिहास है। कांग्रेस के साथ कभी ऊपर से तो कभी नीचे से संयुक्त मोर्चा बनाना, कभी उसके अंदर रह कर काम करना, कभी पूरी तरह से स्वतंत्र रहना - आजादी की लड़ाई के दौरान भारत के कम्युनिस्टों की इन कार्यनीतियों का गहरा संबंध भारत के राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के बारे में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के आकलन में समय-समय पर होने वाले बदलावों से जुड़ा रहा है। इसकी मूल दिशा औपनिवेशिक गुलामी से मुक्ति की लड़ाई को तेज करने की  ही रही। लेकिन सन् 42 के समय आश्चर्यजनक रूप में इसमें एक बुनियादी फर्क दिखाई दिया। शुरू में जिस विश्वयुद्ध को साम्राज्यवादी युद्ध मान कर उसके प्रति अपना रुख तय किया गया था, उसी युद्ध को सोवियत संघ पर हिटलर के हमले के बाद ब्रिटिश कम्युनिस्ट नेता हैरी पॉलिट के निर्देश पर जन युद्ध घोषित किया गया, जबकि तब भी युद्ध की प्रमुख शक्तियां साम्राज्यवादी ही थी। फलत: कम्युनिस्ट पार्टी तत्कालीन ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन के लगभग विरोध में खड़ी दिखाई दी। उस काल में फासिस्टों और नाजियों के खिलाफ मित्र शक्तियों में शामिल ब्रिटिश सरकार के प्रति क्या रुख अपनाया जाए, इस सवाल पर तत्कालीन पूरे राजनीतिक क्षेत्र में व्यापक भ्रांतियां थी। कांग्रेस के मंच पर भी इस विषय में नाना प्रकार की आवाजें सुनाई देती थी। कम्युनिस्ट पार्टी के आकलन के मूल में विश्व परिस्थिति का यह आकलन भी काम कर रहा था कि नाजियों और फासिस्टों के खिलाफ मित्र शक्तियों की जीत से उपनिवेशवाद के खात्मे के युग का श्रीगणेश होगा। बाद का समूचा घटनाक्रम इस आकलन के सच को प्रमाणित करता है। इसके बावजूद यह भी एक बड़ी सचाई है कि सन् 42 के भारत छोड़ो आंदोलन से अपने को अलग रखने के कारण उस समय पार्टी भारत की आम जनता से काफी अलग-थलग होगयी, जिसके लिये आज तक कम्युनिस्ट आंदोलन से सफाई मांगी जाती है। और, आज तक यह सवाल अनुत्तरित ही है कि भारत में तब ब्रिटिश सरकार के प्रति अपनाए गये नरम रवैये से हिटलर के खिलाफ सोवियत संघ को अपनी लड़ाई में क्या मदद मिली? दुनिया के किसी भी कोने में कम्युनिस्टों का जनाधार बढ़ने से साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष को बल मिल सकता है, किसी भी वजह से उसमें कमी से नहीं। लेनिन के शब्दों में, केवल एक ही प्रकार की व्यवहारिक अन्तर्राष्ट्रीयता है अर्थात अपने ही देश में क्रांतिकारी आंदोलन के विकास के लिए हार्दिक उद्योग करना और प्रत्येक देश के इसी प्रकार के आंदोलन का समर्थन (प्रचार, सहानुभूति और सम्मान के द्वारा) करना। आचार्य नरेन्द्रदेव ने इसी संदर्भ में बिल्कुल सही कहा था कि इसको छोड़ कर सब आत्मप्रवंचना है।

13.अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन से प्राप्त ‘क्रांति के विज्ञान’ के सूत्रों का अंधानुकरण ही रूसी क्रांति की तर्ज पर सत्ता के केंद्रों को आकस्मिक विद्रोह के जरिये दखल करों की सन् 48 की दूसरी पार्टी कांग्रेस की संकीर्णतावादी लाईन का कारण बना और पुन: उसके बाद चीन के लांग मार्च की तर्ज पर तेलंगाना के सीमित किसान संघर्ष को सत्ता दखल करने की लड़ाई तक खींचने की दूसरी बड़ी गलती का सबब बना। 62 वर्षों के संसदीय जनतंत्र के लंबे राजनीतिक इतिहास के अनुभवों के बावजूद इसकी सीखों को भारतीय क्रांति की अपनी समझ में शामिल करने के स्वत:स्फूर्त प्रयत्न आज भी नदारद है; जनता के जनवादी राज्य में बहुदलीय व्यवस्था की तरह की चीजों को स्वीकारने का कारण भी भारतीय राजनीति के अनुभव नहीं, सोवियत संघ में समाजवाद के पराभव के अनुभव रहे हैं। यह प्रश्न कि (समाजवाद के तहत) अन्य राजनीतिक पार्टियां रहेगी या बहुदलीय व्यवस्था कायम रहेगी, क्रांति और सामाजिक रूपांतरण की प्रक्रिया में इन पार्टियों द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका पर मुख्य रूप से निर्भर करता है।(‘कुछ विचारधारात्मक प्रश्नों पर’, सोवियत संघ और पूर्वी युरोप में समाजवाद के पराभव की पृष्ठभूमि में लिया गया पार्टी का प्रस्ताव, 1992)

14.कम्युनिस्ट इंटरनेशनल जैसी चीज काफी पहले ही अपना अस्तित्व गंवा चुकी है, समाजवादी शिविर नाम की कोई चीज भी नहीं बची है। इसके बावजूद भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन ने अपने लिये अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन का एक वर्चुअल संसार बना रखा है और चीन, क्यूबा, उत्तर कोरिया अथवा वियतनाम की तरह के देशों की तमाम नीतियों के बारे में उसके आकलन में उसके इस आत्म-सर्जित आभासित यथार्थ का दबाव हमेशा देखने को मिलता है। अपने ‘पवित्र अंतराष्ट्रीयतावद’ के निर्वाह के चलते हम इन देशों की नीतियों का न खुल कर आकलन कर पाते हैं और न ही उनके अनुभवों से सही सबक ले पाते हैं। इधर लातिन अमेरिका में नये सिरे से वामपंथ के उभार के बारे में भी हमारे इसी रवैये के कारण पार्टी सदस्यों का आलोचनात्मक विवेक कमजोर हुआ है।

15.भारतीय संविधान में निहित क्रांतिकारी संभावनाओं के बारे आज भी सीपीआई(एम) के कार्यक्रम में कोई उल्लेख नहीं है, जबकि यहां के कम्युनिस्ट आंदोलन ने खुद इन संभावनाओं का भरपूर प्रयोग किया है। कामरेड बी.टी.रणदिवे ने इस संविधान के बारे मे लिखा था कि अपनी सारी कमियों और कमजोरियों के साथ यह संविधान जनतंत्र के विस्तार में आगे की ओर बढ़ा हुआ एक काफी बड़ा कदम है और शायद नवस्वाधीन देशों में इसकी बहुत थोड़ी मिसालें हैं। सामाजिक विकास के वस्तुगत कारणों की सिनाख्त और विश्लेषण में असमर्थता के सही कारणों की तलाश करने के बजाय अक्सर हम पार्टी की सफलता और विफलता के लिये ‘क्रांतिकारी नैतिकता’ से जुड़े प्रश्नों को पूरी तरह से जिम्मेदार मानने लगते हैं। चुनावों में पराजय के लिये पार्टी के आत्मगत तैयारी के सवालों पर बल देने लगते हैं, और नीतियों के प्रश्नों की अनदेखी करते हैं। यह ऐतिहासिक भौतिकवाद के मूलभूत दर्शन के विरुद्ध है। क्रांतिकारी राजनीति सिर्फ नैतिकता का प्रश्न नहीं है। समाजवाद नैतिक चयन नहीं, ऐतिहासिक अनिवार्यता है। क्रांति के खास चरण में अपनी ऐतिहासिक भूमिका की सही पहचान के आधार पर सही कार्यनीति के बिना सिर्फ कथित क्रांतिकारी सांगठनिक शुद्धता से कुछ हासिल नहीं होसकता। इसीप्रकार, बिना एक सिद्धांतनिष्ठ प्रभावशाली संगठन के भी किसी भूमिका का निर्वाह संभव नहीं है।

16.जैसा कि ऊपर उल्लेख किया जा चुका है, पार्टी के संगठन की विफलताएं उसके कार्यक्रम को प्रभावित करती रहीं है, वहीं कार्यक्रम की कमियों ने संगठन के स्वरूप पर असर डाला है। पार्टी संगठन का बोल्शेविक स्वरूप स्वाभाविक तौर पर किसी भी क्रांतिकारी दल के लिये एक आकर्षक और आदर्श स्वरूप होगा क्योंकि उसी के जरिये दुनिया में पहली बार शासक वर्गों की ताकत के खिलाफ उत्पीडि़त जनों की क्रांति को संभव बनाया जा सका था। अंग्रेज इतिहासकार एरिक हाब्सवाम ने इस संगठन के बारे में सही लिखा था कि संगठन के उस स्वरूप ने छोटे से संगठनों को भी अपने अनुपात से कहीं अधिक प्रभावशाली बना दिया था, क्योंकि इसके जरिये पार्टी अपने सदस्यों से  असाधारण निष्ठा और त्याग-बलिदान हासिल कर सकती है जो किसी भी सेना के अनुशासन और तालमेल से ज्यादा होता है और किसी भी कीमत पर पार्टी के फैसलों पर अमल करने पर पूरी तरह से संकेंद्रित कर देता है।

17.लेकिन गौर करने लायक बात यह है कि संगठन की जो तकनीक रूस में, जो एक पिछड़ा हुआ समाज था और जहां आततयी राजा का शासन था, जबर्दस्त रूप में सफल हुई, उसे भारत के एक भिन्न समाज और भिन्न प्रकार की राजनीतिक परिस्थितियों में हूबहू लागू नहीं किया जा सकता था। पार्टी को एक जन-क्रांतिकारी पार्टी के रूप में विकसित करने का यहां की पार्टी का निर्णय भी इसी सच को प्रतिबिम्बित करता है। जन-क्रांतिकारी पार्टी के निर्माण का फैसला संगठन के उस कथित लेनिनवादी रूप से मेल नहीं खाता था जो रूस की परिस्थितियों में उत्पन्न सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी का रहा है और चीन की खास परिस्थितियों में उत्पन्न चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का रहा है। यह भारत के विशेष आधुनिक राजनीतिक इतिहास की पृष्ठभूमि में लिया गया भारत की कम्युनिस्ट पार्टी का फैसला था, जिसकी दूसरे किसी विकासशील देश में भी कोई नजीर नहीं मिलती है। यह एक क्रांतिकारी पार्टी को जनता के तमाम हिस्सों की प्रतिनिधित्वकारी पार्टी बनाने की जरूरत को समझते हुए लिया गया फैसला था।

18.दुर्भाग्य से पार्टी को ऐसे निर्णय तक पहुंचने में काफी ज्यादा विलंब हुआ। संसदीय जनतंत्र के सच और दूसरे आम चुनाव में ही केरल में कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में राज्य सरकार के गठन के बावजूद कम्युनिस्ट आंदोलन को हमेशा राजसत्ता के हिंसक दमन का सामना करना पड़ा। पश्चिम बंगाल में 70 के दशक का अद्र्ध-फासिस्ट दमन इसीका एक और चरम उदाहरण था। शासक वर्गों में बढ़ते हुए तानाशाही के रूझान के चलते ही कम्युनिस्ट आंदोलन अपने पुराने सांगठनिक ढांचे से मुक्त नहीं हो पाया; जनता की जनवादी क्रांति की उसकी परिकल्पना भी पुराने प्रकार के हथियारबंद संघर्ष के रास्ते से चिपकी रही। यही वजह है कि भारत में सन् 1975 के पहले का जो संगठन हथियारबंद क्रांति की तैयारियों में लगा हुआ था, पार्टी के प्रभाव के सीमाई क्षेत्रों, लगुआ इलाकों और संचार संबंधी नक्शों की तैयारी कर रहा था और गुजरात से लेकर बिहार तक भ्रष्टाचार तथा एकदलीय तानाशाही के खिलाफ जयप्रकाश के आंदोलन के प्रति एक सीमा तक उदासीन सा था, वह संगठन ‘75 के आंतरिक आपातकाल के खिलाफ संसदीय जनतंत्र की रक्षा की लड़ाई का नेतृत्व नहीं दे सकता था। हथियारबंद लड़ाई के कार्यक्रम ने जनक्रांतिकारी पार्टी के निर्माण को कभी पार्टी के एजेंडे पर नहीं आने दिया। सन् ‘75 के आंतरिक आपातकाल के अनुभव के बाद ही वह विचार का मुद्दा बन पाया। 1979 में सीपीआई(एम) के सलकिया प्लेनम में जनक्रांतिकारी पार्टी के निर्माण का नारा दिया गया। लेकिन इस बीच जो लंबा समय गंवा दिया गया, उसके नुकसान की पूर्ति कहां संभव थी!

19.किसी भी फैसले पर अमल में विलंब के अपने खास कारण होते हैं, और इससे खास प्रकार की विकृतियां भी पैदा होती है। जन-क्रांतिकारी पार्टी के निर्माण के फैसले के साथ भी कुछ ऐसा ही घटित हुआ।  भारत की राजनीतिक व्यवस्था की तुलना एक गरीब आदमी को लगे अमीरी के शौक से की जा सकती है। सामान्यत:, इतना गरीब और पिछड़ा हुआ देश संसदीय जनतंत्र के लिये अनुपयुक्त माना जाता है। फिर भी भारत के लोगों ने न सिर्फ इसे अपनाया बल्कि इसे अपनी पहचान का अभिन्न अंग बना लिया - यह बात सन् ‘75 के आंतरिक आपातकाल के बाद के एक के बाद एक चुनावों से पूरी तरह स्थापित होगयी है। आज यह यहां की राजनीतिक व्यवस्था का नैसर्गिक अंग है। कम्युनिस्ट आंदोलन को इस सच को समझ कर आत्मसात करने में खासी देर हुई, जबकि आजादी के पहले से ही वह चुनावों में हिस्सा लेती रही है और आजादी के बाद, पहली लोकसभा चुनाव के समय से ही वह संसद में विपक्ष की एक प्रमुख ताकत रही है; आज तक माओवादी कहलाने वाले गुटों के लिये संसदीय जनतंत्र गले की ही बना हुआ है।


20.पार्टी ने चुनाव लड़ें, महत्वपूर्ण जीतें हासिल की, राज्यों में सरकारें बनाई, राज्य सरकार चलाने का अपने तरीके का विश्व रिकार्ड कायम किया, कुछ इतने बड़े सामाजिक परिवर्तन कियें, जिन्हें क्रांतिकारी परिवर्तन कहा जा सकता है - इन सबके बावजूद इस पूरे उपक्रम के समानांतर पार्टी के सांगठनिक ढांचे में एक जन-क्रांतिकारी पार्टी की जरूरतों के अनुरूप सभी प्रकार के जरूरी परिवर्तन संभव नहीं हुए, उसे व्यापक रूप में प्रतिनिधित्वकारी नहीं बनाया जा सका। पार्टी के कार्यक्रम और संगठन के बीच का यह लगभग असमाधेय प्रतीत होने वाला अन्तर्विरोध ही उस संकट के मूल में है, जिस संकट का सामना आज पार्टी को करना पड़ रहा है और जिसका उल्लेख यहां शुरू में आधुनिक जीवन की नैतिक चुनौतियों के रूप में किया गया है।

21.भारत में जनतंत्र की रक्षा और विस्तार तथा जनतांत्रिक संस्थाओं और मर्यादाओं को कायम रखने के लिये लंबे संघर्षों के जरिये पार्टी ने भारतीय राजनीति में अपनी साख बनाई है। आजादी की लड़ाई में अपनी भूमिका के अलावा शुरू से राजनीतिक बंदियों की रिहाई, जन-जीवन की समस्याओं से जुड़ी लड़ाइयों, केंद्र-राज्य संबंधों के पुनर्विन्यास के जरिये भारत के संघीय ढांचे की रक्षा, धर्म-निरपेक्षता के सवाल पर वामपंथ के समझौताहीन रवैये और समाज के उत्पीडि़त और दलित जनों के लिये लगातार आवाज उठाने तथा सर्वोपरि, मजदूरों और किसानों के हितों की रक्षा के प्रश्न पर पार्टी के नेतृत्व में चलाये जाने वाले लगातार और अथक संघर्षों ने वामपंथ का अपना खास स्थान बनाया है। जिस समय 1999 में ज्योति बसु को भारत का  प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव आया था, उसके पीछे भी वामपंथ द्वारा अर्जित जनतांत्रिक राजनीति के क्षेत्र की यही साख थी। यहां नेपाल के माओवादियों की तरह भारतीय वामपंथियों को संसद में सबसे ज्यादा सीट नहीं मिल गयी थी।


22.लेकिन समस्या तब खड़ी होती है, जब पार्टी अपनी इस साख के अनुभवों की सीखों को खुद के कार्यक्रम की समझ का अंग बनाने से चूक जाती है। ज्योति बसु को प्रधानमंत्री पद के प्रस्ताव के समय केंद्रीय कमेटी के कथित बहुमत की पुरानी कठमुल्ला समझ ने जो भूमिका अदा की, बाद में लोकसभा के अध्यक्ष पद की मर्यादा के सवाल पर भी उसकी झलक देखने को मिली। सत्ता के प्रति एक विशेष प्रकार का वैरागी और शुद्धतापूर्ण विशिष्टतावादी रवैया संसदीय जनतांत्रिक राजनीतिक परिवेश में वामपंथ की साख को बढ़ाता नहीं, बल्कि कम करता है। संसदीय राजनीति में शुद्ध रूप से पार्टी के निर्देशों के अनुसार देश की नीतियों को तय करने का जनादेश पाने का सपना बोल्शेविक पार्टी की तर्ज पर पूर्ण सत्ता (absolute power) हासिल करने की कठमुल्ला समझ का परिणाम है, जो निश्चित तौर पर पार्टी की जनतांत्रिक साख को हानि पहुंचाता है। यह समझ अंततोगत्वा सर्वाधिकारवाद का खतरा पैदा करती है, जनतांत्रिक चेतना के लोगों को पार्टी से अलग-थलग करती है।

23.साख की यही समस्या विश्व परिस्थिति के आकलन और उसमें भारत की स्थिति और भूमिका के बारे में एक कठमुल्ला सोच से भी पैदा होती है। चीन अमेरिका से ‘सर्वाधिक सुविधाप्राप्त राष्ट्र’ का दर्जा पाता है, नाना प्रकार के संधि-समझौता करता है, पारमाणविक संधि भी करता है, तथा अधिकांश विश्व मामलों में अमेरिका के साथ खड़ा भी दिखाई देता है। दुनिया की परिस्थिति का उसका अपना आकलन है। उसके इस आकलन में अनेक चरणों को देखा जा सकता है। जैसे-जैसे दुनिया बदली, चीन ने अपनी जरूरतों तथा बदलती विश्व परिस्थितियों के अनुसार अपनी विश्व रणनीति को बदला। इससे चीन को अपनी समाजवादी व्यवस्था को मजबूत करने में कितनी मदद मिली, कितनी नहीं मिली तथा चीन की जनता की साम्राज्यवाद-विरोधी चेतना का आज क्या स्तर है, यह बहस के इतर विषय है। इन पर निश्चित तौर पर इतिहास राय देगा। लेकिन जब हम भारत के संदर्भ में विचार करते हैं, तो भारत की विश्व रणनीति के बारे में हमारी सोच में किसी प्रकार का कोई क्रमिक विकास, लचीलापन या बदलाव दिखाई नहीं देता। 1989 में सोवियत संघ के पतन के साथ दुनिया की परिस्थिति में आये भारी परिवर्तन के बावजूद हमारी विदेश नीति संबंधी सोच गुट-निरपेक्ष आंदोलन के समय की परिस्थितियों में ही अटकी हुई है। इसीसे साम्राज्यवाद-विरोध भी कोरी लफ्फाजी भर बन कर रह जाता है।

24.भारत में साम्राज्यवाद-विरोध की परंपरा का इतिहास कांग्रेस दल को अलग करके कभी तैयार नहीं किया जा सकता है। इस विषय में आजादी के बाद कांग्रेस के ढुलमुलयकीन रवैये के बावजूद कोई यदि कांग्रेस को अलग रख कर साम्राज्यवाद के खिलाफ देश की सार्वभौमिकता की रक्षा की कल्पना करता हो तो यह मूखोंर् के स्वर्ग में वास करने के अलावा कुछ नहीं होगा। भारत की स्वतंत्रता और सार्वभौमिकता सिर्फ वामपंथियों के बूते बचाई जा सकती है, यह वस्तुनिष्ठ सच नहीं है। ऐसी स्थिति में कांग्रेस नेतृत्व को हमेशा संदेह के घेरे में रखना एक खतरनाक खेल है। हमेशा इसी बात को दोहराते रहना कि हमारे नेता साम्राज्यवाद से लड़ेंगे नहीं, उससे समझौता कर लेंगे, जनता में एक प्रकार का निरुत्साह पैदा करता है। लोगों को इस निरुत्साह से निकालना ही कठिन हो जायेगा। हमारी लगातार चली आरही इस नकारात्मक नीति के घातक परिणाम साफ दिखाई देने लगे है। साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ाई सिर्फ छोटे से प्रभाव क्षेत्र वाले वामपंथियों के वश में नहीं है, यह भारत की सभी देशभक्त ताकतों की साझा लड़ाई है और इसमें कांगे्रस भी शामिल है। जब तक इस वास्तविकता को नहीं स्वीकारा जाता, भारत की जनता की साम्राज्यवाद-विरोधी चेतना को जागृत नहीं रखा जा सकता है। इस बारे में शासक दल की पोल खोलने की कथित नीति साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष की नीति नहीं कहलायेगी, बनिस्बत इसे इस संघर्ष से देशभक्त जनता के बड़े हिस्से को काटने की नीति कहा जा सकता है। इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि कांग्रेस की साम्राज्यवाद के बरक्स समझौतावादी नीति की आलोचना न की जाए, लेकिन इसमें इतनी वस्तुनिष्ठता और संयम होना चाहिए ताकि हमारा आकलन जनता के बीच स्वीकृति पायें। लगातार यह कहना कि वे देश को अमेरिका के हाथ में बेच दे रहे है, सच से कोसों दूर है और हमारे प्रति जनता को निरुत्साहित करने के लिये काफी है। परमाणु संधि के संदर्भ में हमारा समग्र आकलन, यह प्रचार कि मनमोहन सिंह देश को बेच रहे हैं और बुश खरीद रहा है, कोरा  बचकानापन था। 15वीं लोकसभा के लिए मतदान की समाप्ति के दूसरे दिन 14 मई 2009 को ‘इकोनामिक टाइम्स’ को दिये एक साक्षात्कार में कामरेड प्रकाश करात कहते हैं,इस दौरान, भारत रूस, कजाखस्तान तथा अन्य देशों के साथ वार्ता चला सकता है। चूंकि हाइड एक्ट अमेरिका-केंद्रिक है, इसीलिये अमेरिकी कंपनियों के साथ सौदा करने के पहले इस पर फिर से काम करना होगा। (“In the mean time, India could carry on with negotiations with say countries like Russia, Kazakhstan and others. Since Hyde Act is US-specific, we should rework that before dealing with American firms.”) का. प्रकाश का यह कथन ही इस विषय पर अपनाए गये चरम रुख के पीछे वस्तुनिष्ठता के अभाव को बताने के लिए काफी है।


25.किसी भी मामले में अंधता साख की समस्या पैदा करता है। अंध-अमेरिका विरोध भी। खुद अमेरिका में आज के आर्थिक संकट के चलते जो परिवर्तन हो रहे हैं, उनके प्रति पूरी तरह से आंख मूंद कर नहीं चला जा सकता है। अमेरिकी राजसत्ता के साथ ही अलग से अमेरिकी समाज पर भी नजर रखनी चाहिए। उस समाज के अन्तर्विरोधों को अनदेखा करने का कोई कारण नहीं है। अमेरिका की धरती पर मजदूर वर्ग के अधिकारों के लिये सबसे खूनी और ऐतिहासिक लड़ाइयां लड़ी गयी है। आज के अमेरिकी संकट की परिणतियों को भी पुराने ढंग के मानदंडों से शायद पूरी तरह नहीं समझा जा सकता है।

26.गौर करने की बात यह है कि आज की दुनिया 50 साल पहले की दुनिया से काफी अलग है। यह 2007 के पहले की दुनिया से भी अलग है। आज भी अमेरिका दुनिया का सबसे शक्तिशाली सामरिक देश है, लेकिन विश्व अर्थ-व्यवस्था के इंजन के रूप में वह इसे और आगे खींचने में अक्षम है। पिछले अगस्त महीने से अमेरिका का जो ऋण संकट शुरू हुआ है, उससे उबरने के लिये सरकार द्वारा अब तक अरबों डालर बहा दिये जाने पर भी उस संकट का कोई किनारा दिखाई नहीं पड़ता है। वह हिमालय समान कर्ज के जिस बोझ के तले फंसा हुआ है, उससे निजात पाना उसके वश में नहीं है। आर्थिक ताकत के बल पर आंखें तरेर कर की जाने वाली नव-उदारवाद की सारी अनुशंसाएं, ‘वाशिंगटन कन्सेन्सस’ और वित्तीय विनियमन की लंबी-चौड़ी बातें अब सुनाई नहीं देती। आर्थिक सत्ता का न्यूयार्क से हट कर वाशिंगटन जाना ही नवउदारवाद के जनाजे के समान है। अमेरिकी उदारतावादी जनतंत्र को अब चिरस्थायी बता कर ‘इतिहास के अंत’ की घोषणा के साथ निश्चिंत हो जाने वाला फ्रांसिस फुकुयामा फिर से सोच में पड़ गया है। यह सोवियत संघ और पूर्वी योरप के देशों में समाजवाद के पराभव के बाद अमेरिकी ‘उदारतावादी जनतंत्र’ और उसके तमाम नवउदारवादी नुस्खों के पराभव का युग है। अमेरिकी अर्थ-व्यवस्था आज जिस प्रकार अति-उत्पादन के संकट में फंस गयी है और वहां जिस पैमाने पर राज्य के हाथ में ऋणों का संकेंद्रण हो रहा है, और जिसप्रकार अमेरिकी मजदूर वर्ग में यूनियनों के प्रति आग्रह बढ़ रहा है, उसे देखते हुए अमेरिकी राजनीति की अनंत अकल्पनीय संभावनाओं को खारिज नहीं किया जा सकता हैं। आज अमेरिका में किसी क्रांतिकारी माक्र्सवादी पार्टी की अनुपस्थिति का अर्थ यह नहीं है, वह आगे भी कभी नहीं होगी। कौन, कब और कैसे ‘साम्राज्यवाद की कमजोर कड़ी’ साबित हो जाए, कहना मुश्किल है। जरूरत मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी पार्टी के उभार की है। आज कम से कम इतना तो तय है कि संकट में फंसा अमेरिका मौजूदा विश्व अर्थ-व्यवस्था के भरोसेमंद सहारे की स्थिति को क्रमश: गंवा रहा है। यद्यपि आज भी अमेरिका ही आर्थिक और सामरिक, सभी दृष्टि से विश्व साम्राज्यवाद का सरगना है, इसमें जरा भी शक की गुंजाइश नहीं है। वही सारी दुनिया की शांतिकामी, स्वतंत्रताकामी और न्यायप्रिय जनता का प्रथम दुश्मन है।
 
27.आज के युग को आभासित यथार्थ (virtual reality) का युग भी कहा जाता है। यह बात पूरी तरह सच नहीं है, तथापि इससे पूरी तरह इंकार भी नहीं किया जा सकता है। जो दिखाई देता है, उसका गहरा संबंध जो दिखाया जा रहा है, उससे है। चोमस्की जिसे ‘निर्मित अभिमत’ ‘manufactured consent’ कहते हैं, वह इसी वर्चुअल की उपज है। ऐसे में पार्टी और माध्यम का संबंध काफी महत्वपूर्ण हो जाता है। यहीं पर पुन: उस वैचारिक प्रभुत्व की स्थापना की लड़ाई सबसे जरूरी लड़ाई जान पड़ती है, जिसकी हमने ग्राम्शी के उल्लेख के साथ आगे चर्चा की है। इस काम के लिये पार्टी का प्रचारतंत्र, बुद्धिजीवियों की उसकी फौज, उसका सांस्कृतिक मोर्चा किसी भी दूसरे मोर्चों से कम महत्वपूर्ण नहीं है। लेकिन इन्हीं मोर्चों पर इधर के वर्षों में हमारी स्थिति बेहद निराशाजनक दिखाई देती है। आज हम साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र मे किसी प्रकार का विचारधारात्मक संघर्ष करते दिखाई नहीं देते हैं। बुद्धिजीवियों के साथ पार्टी के आदान-प्रदान की कोई प्रक्रिया नहीं दिखाई देती है।


28.आज की दुनिया से अधिक आर्थिक वैषम्य अतीत में कभी दिखाई नहीं दिया; इसीप्रकार आज की तरह विचारों और नैतिकता के मामले में विश्व-व्यापी एकसमानता पहले कभी देखने को नहीं मिली। दुनिया के स्तर पर सांस्कृतिक वैविध्य को जबर्दस्ती किसी दबाव के तले एक जैसा चपटा बना दिया जा रहा है। नव-उदारतावादी समाज के मूल्यों को हमारे गले में ठूसा जा रहा है। संचार के विकास के कारण भी राजनीति का स्वरूप इतना अधिक बदल गया है कि राजनीति के क्षेत्र को आज यदि विचारों के बाजार का क्षेत्र कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस बाजार में जनमत को तैयार करने के उपकरणों पर शासक वर्ग की इजारेदारी है। बाजार की अपनी खुद की एक नैतिकता है। मुक्त बाजार में विचार कत्तई मुक्त नहीं है। बाजार का पंजा किसी सर्वाधिकारवादी राजसत्ता से भी कही ज्यादा फौलादी होता है, जो नागरिकों को अपने इशारों पर चलाता है। चोमस्की के शब्दों में, जनतंत्र के लिये प्रचार का वही महत्व है जो किसी तानाशाही निजाम के लिये दमन के यंत्र का है। क्रांति से तात्पर्य यदि शासक वर्गों की राजसत्ता को पराजित करना है तो जनतांत्रिक व्यवस्था मेंं शासक वर्गों के प्रचारतंत्र को पराजित करना होगा।

29.इस लिहाज से आज वस्तुगत रूप में सारी दुनिया में वामपंथ के पक्ष में सबसे अधिक सकारात्मक परिस्थितियां होने पर भी भारतीय वामपंथ की स्थिति कमजोर नजर आती है। आजादी की लड़ाई और उसके बाद के प्रलेस के जमाने में, और पुन: ‘80 के दशक के बाद के जलेस के प्रारंभिक काल में भारत के बौद्धिक जगत में वामपंथियों की जो स्थिति दिखाई देती थी, आज वह नहीं है। गौर से देखने पर पता चलेगा कि संभवत: आज के भारतीय वामपंथ के साथ समग्र रूप में भारतीय बौद्धिकों का रिश्ता प्राय: नहीं रह गया है। वामपंथी राजनीति भी कोई सामाजिक विमर्श नहीं, कोरी तात्कालिकतओं में सिमटी हुई जान पड़ती है। वामपंथी नेतृत्व की बौद्धिक-सांस्कृतिक पहचान कमजोर हुई है। सांस्कृतिक विषय उसकी आखिरी प्राथमिकता में है।

30.पश्चिम बंगाल का अनुभव यह है कि पार्टी की राज्य स्तर की सर्वोच्च सांस्कृतिक उपसमिति तक की बैठकें बुद्धिजीवियों से उनकी समस्याओं अथवा सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य की समस्याओं पर किसी प्रकार के संवाद के लिये नहीं होती। चुनाव या संकट की किसी दूसरी घड़ी में बहुत अल्प समय के लिये बुलाई गयी ऐसी बैठकों में निहायत औपचारिक और नौकरशाही ढंग से कविताएं और तुकबंदियां तैयार करने, नाटक अथवा कार्टून तैयार करने और कोई सभा-जुलूस संगठित करने के कुछ निर्देश भर जारी किये जाते हैं। जन-संगठनों की स्वायत्तता नामकी कोई चीज नहीं बची है। राज्य के प्रभारी नेता की सनक जनसंगठनों का नेतृत्व तय करती है। यह सब पार्टी के उसी कमांड ढांचे की परिणतियां है जिसमें किसी भी सेना की तरह ऊपर से आने वाला आदेश ही सर्वोपरि है, परस्पर विचार-विमर्श की गुंजाइश कम है।

31.जनसंगठनों के प्रति इस प्रकार के कमांड रवैये का सबसे घातक प्रभाव लेखक और सांस्कृतिक संगठनों पर पड़ा है। व्यापक लेखन और संस्कृति के जगत में पार्टी के लेखक और सांस्कृतिक संगठनों से जुड़े लेखकों और संस्कृतिकर्मियों की स्थिति कमजोर हुई है। स्वभाव से प्रगतिशील, जनतांत्रिक और स्वतंत्र समझा जाने वाला लेखक इन संगठनों से जुड़ कर सबसे पहले अपनी इसी नैसर्गिक पहचान को गंवाता है। ‘प्रगतिशील’ लेखक प्रगतिशील नहीं रह जाता, संघर्ष के मैदान की कुछ बद्धमूल धारणाओं और नैतिकताओं का बंदी बन कर जीवन के अनेक मार्मिक और मानवीय पक्षों के खिलाफ खड़ग्हस्त दिखाई देने लगता है। प्रेम की रचनाएं लिखना भी इस कथित क्रांतिकारी सांस्कृतिक हलके में विचार का विषय होता है, प्रश्नातीत स्वाभाविकता नहीं। कलारूपों की अभिनवता, प्रयोग और सौंदर्य के प्रति सदा संशय का भाव बना रहता है। जाहिर है कि ऐसे में स्वतंत्रता तो उससे कोसों दूर दिखाई देती है। फलत: अक्सर प्रतिवाद का स्वर भी नितांत औपचारिकता बन जाता है। यह स्थिति वामपंथी सांस्कृतिक संगठनों को सांस्कृतिक और लेखकीय जगत के लिये अप्रासंगिक बनाने के लिये काफी हैं।

32.जनसंगठनों के संचालन में गड़बडि़यों से पैदा होने वाली ऐसी विकृतियों पर पार्टी में चर्चा होती है, उन्हें दूर करने के प्रस्ताव भी लिये गये हैं, जन-संगठनों के बारे में पार्टी का एक पूरा दस्तावेज है, जो इन्हीं समस्याओं को संबोधित है। फिर भी, व्यवहार में उन फैसलों पर अमल के लिये पार्टी के जिस ढांचे की जरूरत है, वह दिखाई नहीं देता। जनतंत्र किसी भी सभ्य समाज का एक अभीष्ट लक्ष्य है। पार्टी में यह अनुलंघनीय होना चाहिए। जनतंत्र पर अधिकतम बल ही जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद को तमाम विकृतियों से बचाने की सबसे बड़ी गारंटी बन सकता है। इसके आगे की समस्या जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद को संगठन के संचालन की आभ्यांतरित, स्वाभाविक संस्कृति बनाने की समस्या है, जिसका हम पहले उल्लेख कर चुके हैं।

33.1979 के सलकिया प्लेनम का दूसरा महत्वपूर्ण निर्णय हिंदी प्रदेशों में पार्टी को फैलाने के बारे में था, जिसकी काफी चर्चा होती है। इस विषय के ढेर सारे पहलू है। इस मामले में पार्टी की विफलता, एक जनक्रांतिकारी पार्टी के रूप में पार्टी का विकास न हो पाने का प्रमुख कारण है। वामपंथी आंदोलन के लिये हिंदी भाषी क्षेत्र आज तक अंधों का हाथी बना हुआ है। इधर स्थिति और ज्यादा खराब हुई है। वस्तुत: आज के वामपंथ से हिंदी निष्काषित है। वामपंथी राजनीतिक नेतृत्व हिंदी के बुद्धिजीवियों से शायद ही कभी कोई संवाद करता है। हद तब हो जाती है जब डा. अशोक मित्र पार्टी के मुखपत्र में हिंदी भाषा को ही जनसंघ की भाषा कह देते हैं। कम्युनिस्ट पार्टी के हिंदी अखबार अनुदित सामग्रियों से अटे होते हैं। ये न जन-संघर्षों को प्रेरणा दे सकते हैं, न किसी अन्य प्रगतिशील बौद्धिक विमर्श के मंच बन सकते है।


34.पार्टी के मौजूदा ढांचे की आलोचना करने का अर्थ यह नहीं है कि सामाजिक परिवर्तन के लिये किसी राजनीतिक हथियार की जरूरत से ही इंकार करना। उल्टे इतिहास इस बात का गवाह है कि पूंजीवाद-विरोधी कोई भी आंदोलन या शक्ति स्वत:स्फूर्त ढंग से नहीं पैदा होते। उन्हें अलग से बनाने की जरूरत होती है। जरूरत ऐसे राजनीतिक दल के विकास की है जो 21वीं सदी के समाजवाद की स्थापना की लड़ाई को नेतृत्व दे सके। आज की दुनिया 50 साल पहले की दुनिया से काफी अलग है। यह सोवियत संघ और पूर्वी योरप के देशों में समाजवाद के पराभव और अमेरिका के दुनिया के सबसे बड़े सामरिक शक्ति के देश के रूप में उभर कर सामने आने वाले समय की दुनिया है, जब अमेरिका का बराबरी में मुकाबला करने वाली कोई ताकत नहीं दिखाई देती है। यह वह दौर है जिसमें वैज्ञानिक-तकनीकी क्रांति की अग्रगति ने उत्पादन की प्रक्रिया तथा उसकी प्रकृति को भारी प्रभावित किया है। यह आर्थिक और सांस्कृतिक वैश्वीकरण तथा जनसंचार माध्यमों की बढ़ती हुई शक्ति का दौर है। यह वह दुनिया है कि जिसमें पूंजीवाद नवउदारवाद की निष्ठुरता की ओट में तकनीकी अग्रगति का अपने लाभ के लिये प्रयोग कर रहा है, निर्दयता से प्रकृति का नाश किया जा रहा है और विभिन्न सामाजिक समूहों तथा पूरे के पूरे राष्ट्रों को सामूहिक वंचना का शिकार बना रहा है।

35.ऐसे में वामपंथ के पुनर्निर्माण की जरूरत हैं। कहा जाए तो फौरी जरूरत है। राजनीति संभावनाओं की कला नहीं है। क्रांतिकारियों के लिये राजनीति असंभव को संभव बनाने की कला है। यह काम सिर्फ आत्मगत आग्रह से नहीं, मौजूदा शक्ति संतुलन को बदलने की यथार्थपरक दृष्टि और कार्रवाई से संभव है। तभी जो आज असंभव जान पड़ता है, वह कल संभव हो पायेगा। इसके लिये जरूरी है कि हम आज की जरूरतों के अनुरूप अपने राजनीतिक उपकरणों को तैयार करें। यह पार्टी के बोल्शेविक ढांचे के साथ अनालोचकीय तरीके से चिपके रह कर हासिल नहीं किया जा सकता है। इस ढांचे में निहित जो सैद्धांतिक कमजोरियां है, उनसे मुक्ति पाना ही होगा। पार्टी को सभी स्तरों पर अधिक जनतांत्रिक और संवादी बनाना ही होगा।

36.अपनी तमाम राजनीतिक और सांगठनिक कमजोरियों का कुल परिणाम आज पार्टी के एक ऐसे नौकरशाही स्वरूप के रूप में सामने आया है जिसमें आने वाले समय में काडर के रूप में चयन के लिये हमारे सामने अच्छों में श्रेष्ठ नहीं बल्कि बुरों में निकृष्ट के अलावा और कुछ नहीं रह जायेगा। एक नौकरशाही ढांचे में सिद्धांतविहीन, मानवीय संवेदनाओं से शून्य तिकड़मों में लिप्त होकर ही कोई व्यक्ति महत्व का स्थान हासिल कर सकता है। इन तिकड़मों में लचर और मिडियोकर चरित्र के लोग माहिर होते हैं। इसलिये सब कुछ यदि पूर्व की भांति ही चलता रहा तो पार्टी का नेतृत्व इन लचर और मिडियोकर लोगों से ही भरा होगा, दूसरा कोई विकल्प ही नहीं रह जायेगा। ऐसा नेतृत्व नीतियों के मामले में विसर्जनवादी और संगठन के मामले में नौकरशाही, कमांड सिद्धांत का हामी होगा। इसके लक्षण इधर साफ दिखाई दे रहे हैं।


बुधवार, 13 नवंबर 2013

प्रो. एजाज अहमद के ‘सांस्कृतिक मार्क्सवाद’ पर चंद बातें

अरुण माहेश्वरी

प्रो. एजाज अहमद के ‘सांस्कृतिक मार्क्सवाद’ पर चंद बातें

अभी चंद रोज पहले ही अपनी वियतनाम यात्रा के संस्मरण में हमने ‘इतिहास को ससम्मान विदा करो’ की चर्चा की थी। उसके कुछ दिनों बाद कोलकाता के ‘टेलिग्राफ’ (25 अक्तूबर 2013) में स्वपन दासगुप्त का एक लेख प्रकाशित हुआ - “Dangers of buried stories” - ‘इतिहास को सम्मान के साथ विदा करो’ के नजरिये का एकदम विपरीत छोर। हमने स्वपन दासगुप्त के इस लेख पर एक टिप्पणी लिखी - ‘अतीत के जिन्नों को बुलाने का स्वपन दासगुप्त का आह्वान’। 1

इसके कुछ दिन पहले फेसबुक पर (13 अक्तूबर 2013) हमारी एक टिप्पणी थी -

‘‘नव-उदारवाद 1989 में समाजवाद के पराभव के बाद दुनिया की अर्थ-व्यवस्था के बारे में अमेरिकी सत्ता संस्थानों, आईएमएफ, विश्व बैंक आदि की परिकल्पना का एक नाम है। इसी का दूसरा नाम ‘वाशिंगटन कंशेंसस’ भी है - संकट में फंसे विकासशील विश्व को उबारने का अमेरिकी नुस्खा। वित्तीय अनुशासन, हर मामले में जीडीपी का मानदंड, सरकारी रियायतों के बारे में पुनर्विचार, करों में कमी, ब्याज की दरों में लचीलापन, विदेशी मुद्रा की दर पर बाजार का नियम, खुला अंतरराष्ट्रीय वाणिज्य, विदेशी निवेश के रास्ते की बाधाओं का अंत, सार्वजनिक उद्यमों का निजीकरण, बाजार को अधिक से अधिक मुक्त बनाने और सर्वोपरि संपत्ति के अधिकार को पूर्ण कानूनी सुरक्षा देने की तरह के मंत्रों से तैयार किया गया नुस्खा। आर्थिक मामलों में सरकार के बजाय बाजार को अधिक भरोसेमंद मानने का नुस्खा।
‘‘इस कंशेंसस की बुनियादी आर्थिक नीतियों पर निर्मित सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था को उदार जनतंत्र कहा गया, जिसमें फ्रांसिस फुकुयामा ने इतिहास के अंत को देखा था। सभ्यता को घूम-फिर कर इन्हीं नीतियों के दायरे में कैद रहना पड़ेगा।
‘‘तब से लगभग एक चौथाई सदी का समय बीत गया है। इस दौरान विश्व अर्थ-व्यवस्था को अनेक बड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ा है। खास तौर पर सन् 2008 के सबप्राइम संकट के बाद की विश्व-व्यापी मंदी ने बाजार पर भरोसे को बुरी तरह झकझोर दिया। फुकुयामा तक ने कह दिया कि उनकी धारण गलत थी। ‘टाइम्स’ और ‘इकोनोमिस्ट’ की तरह की पत्रिकाओं ने कहा, ऐसा निरंकुश बाजार-राज चल नहीं सकता ; पूंजीवाद चल नहीं सकता।
‘‘अब पांच साल बाद फिर अमेरिका में कुछ आर्थिक स्थिति सुधरी है। फिर भी ओबामा स्वास्थ्य बीमा के मसले पर सरकारी रियायतों की नीति पर चलना चाहते हैं, जबकि रिपब्लिकन बाजार पर पूरी आस्था बनाये रखने के पक्ष में है।
‘‘ कहने का तात्पर्य यह कि विश्व साम्राज्यवाद के शीर्ष पर भी नव-उदारवादी नीतियों के बारे में गहरे संशय बने हुए हैं।
‘‘इस पूरे परिप्रेक्ष्य के बावजूद सवाल यह है कि क्या भारत के आगामी लोकसभा चुनाव में नव-उदारवाद स्वयं में चुनावी लड़ाई का मुद्दा बन सकता है? यह एक गंभीर मसला है। समसामयिक राजनीति के क्षेत्र से जुड़ा एक यथार्थ मसला।
‘‘वामपंथ को अपना चुनावी एजेंडा तैयार करने के पहले इसपर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। अधिक ठोस, समसामयिक मुद्दों पर केंद्रित होने की जरूरत है। नव-उदारवाद का विकल्प तो समाजवाद है, जो इस चुनाव का मुद्दा नहीं बन सकता।’’

सीपीआई(एम) की सैद्धांतिक पत्रिका ‘माक्र्सिस्ट’ के अप्रैल-जून 2013 के अंक में हमें अपने उपरोक्त मत के बिल्कुल विरोधी मत को रखने वाला प्रो. एजाज अहमद का  लेख पढ़ने को मिला - “Communalism : Changing Forms and Fortunes” ।

इसके पहले कि हम एजाज अहमद के इस लेख के बारे में कोई साफ राय जाहिर करें, यहां हम ईमानदारी से प्रो. अहमद के लेख का एक सार-संक्षेप पेश करेंगे।

बाईस पन्नों के अपने इस लंबे लेख का प्रारंभ वे इस बात से करते हैं कि साम्प्रदायिकता (Communalism) के बारे में वैसे तो प्रचुर लेखन मिलता है और वामपंथियों की ही नाना प्रकार की अवधारणाएं भी। इस लेख में उनकी कोशिश उसी प्रकार का एक और वैसा ही विवरणपरक लेख लिखने के बजाय ‘सांप्रदायिकता, धर्म-निरपेक्षता, राष्ट्रवाद’ इत्यादि पर वामपंथियों के अब तक के सोचने के तरीकों की पड़ताल करने की होगी।

अपनी इस प्राथमिक प्रतिश्रुति के बाद वे सबसे पहले इस लेख के प्रमेय (Hypothesis) की तरह अपनी मूलभूत समझ को सूत्रबद्ध करते हैं। कहते हैं - ऐसा नहीं है कि सांप्रदायिकता से राष्ट्र के शरीर का कोई छोटा सा हिस्सा भर खराब हुआ हो और बाकी राष्ट्र धर्मनिरपेक्ष बना हुआ हो। और न ही इसे आरएसएस-शिवसेना जैसों द्वारा फैलाये जाने वाले किसी महामारी के विषाणु के तौर पर लिया जाना चाहिए जिसका धर्म-निरपेक्षता और राष्ट्रवाद की दवा की अधिक से अधिक खुराक देकर इलाज किया जा सकता है। इसकी ‘जटिल ऐतिहासिक जड़ें’ है जो भारतीय समाज और राजनीति में इतनी गहरी चली गयी है कि सामान्य तौर पर दिखाई ही नहीं देती।

इसी संदर्भ में वे सांप्रदायिकता के खिलाफ वैचारिक लड़ाई को ‘महत्वपूर्ण’ मानते हुए भी हमारे समाज के ‘संरचनात्मक विश्लेषण’ (structural analysis) को ‘ज्यादा महत्वपूर्ण’ मानते हैं। वे सांप्रदायिकता को भारतीय गणतंत्र की दशा की जांच का एक ‘उपयोगी सूचक’ बताते हैं, जिससे पता चलेगा कि पिछले 65 सालों में हम कहा जाते रहे हैं और आज कहां खड़े हैं। इसी पृष्ठभूमि में वे नरेन्द्र मोदी के सत्ता पर आने को, जिसकी संभावना को वे खुद काफी क्षीण मानते हैं, वे भारतीय गणतंत्र के यात्रा-पथा में ‘एक नये मील के पत्थर’ से ज्यादा और कुछ नहीं समझते।

जाहिर है कि आगे का पूरा लेख उनकी इसी मूलभूत समझ के प्रमेय को प्रमाणित करने की कोशिश है।

अपनी मूल समझ की स्थापना के लिये सबसे पहले वे रोजा लुक्जेमबर्ग की बहुचर्चित उक्ति ‘समाजवाद या बर्बरता’ का उल्लेख करते हैं और कहते हैं कि भारत की तरह के ‘लुटेरे पूंजीवाद’ (Predatory Capitalism) पर यह उक्ति और भी ज्यादा लागू होती है क्योंकि फासीवाद अर्थात बर्बरता पर अमल के लिये जिस प्रकार के आत्मिक और नैतिक तौर पर पतित हो चुके लोगों के ‘तूफानी दस्तों’ की जरूरत होती है, वैसे लोग इन परिस्थितियों में प्रभूत मात्रा में उपलब्ध हैं।

इसके बाद ही वे क्लारा जेटकिन की उतनी ही प्रसिद्ध उक्ति का प्रयोग करते हैं: क्रांति न कर पाने का दंड है फासीवाद।

(आगे बढ़ने के पहले ही हम यहां साफ करना चाहते हैं कि लुक्जेमबर्ग और जेटकिन, दोनों की बाते ही उस जर्मनी के खास संदर्भ में कही गयी थी जिसे रूस की समाजवादी क्रांति के ठीक बाद हर लिहाज से समाजवादी क्रांति के लिये तैयार माना जा रहा था, लेकिन यथार्थ में कम्युनिस्ट क्रांति सफल होने के बजाय वहां हिटलर ने सत्ता हड़प ली और आधुनिक दुनिया के एक बर्बरतम राज्य की स्थापना की। रोजा लुक्जेमबर्ग ने क्रांति के विफल होने पर बर्बरता के राज की भविष्यवाणी की थी और क्लारा जेटकिन ने अपनी आंखों उस राज की स्थापना को देखा था।

जर्मनी के इसी अनुभव से निकलने वाले क्रांति के विज्ञान संबंधी कई कथित सूत्रों में एक सूत्र यह भी रहा है कि ‘फासीवाद वहीं आता है जहां पूंजीवाद के सामने सर्वहारा क्रांति की चुनौती होती है’।

कहने का तात्पर्य यह है कि ‘समाजवाद नहीं तो बर्बरता’ वाली लुक्जेमबर्ग की बात कोई सर्वदेशिक सच (universal truth) नहीं है, क्योंकि जर्मनी, इटली, जापान, स्पेन के अलावा बाकी पूंजीवादी देशों में कही भी वैसा बर्बर राज्य कायम नहीं हुआ। उल्टे, इतिहास का सच यह है कि सोवियत संघ के समाजवाद के प्रभाव ने विकसित पूंजीवादी देशों को ‘कल्याणकारी राज्य’ का रास्ता अपनाने के लिये मजबूर किया।)

बहरहाल, हम फिर से प्रो. अहमद की बातों पर लौटते हैं। ‘फासीवाद क्रांति न कर पाने का दंड है’, इसे दोहराने के बाद वे आज के ‘वामपंथ की वैश्विक पराजय’ के युग पर आते हैं और इसकी तीन प्रमुख लाक्षणिकताओं को गिनाते हैं - (1) 1989 की तुलना में मार्क्सवाद का स्थान संकुचित हुआ है। (2) नव-उदारवाद ने भारी जीतें दर्ज की है, और (3) वैश्विक नव-उदारवाद के सहयोगी के तौर पर ‘राष्ट्रवाद’ ने खुद को नये रूप में परिभाषित किया है। इसी सिलसिले में वे नरेन्द्र मोदी की तुलना मिस्र के मुसलिम ब्रदरहुड के नेता मोरसी से करते हैं, जो इजारेदार पूंजीपतियों के साथ खुले आम उठने-बैठने से कोई परहेज नहीं करते।

और पुन:, ‘क्रांति की विफलता का दंड’ की तर्ज पर एजाज अहमद कहते हैं कि भारत में हर प्रकार की सांप्रदायिकता की सफलता वामपंथ की विफलता की सूचक है। और, अपने लेख की मूलभूत स्थापना पेश करते है : ‘‘ सांप्रदायिकता का विकल्प धर्म-निरपेक्षता अथवा राष्ट्रवाद नहीं, साम्यवाद (कम्युनिज्म) है।’’

भारत के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य पर उनकी राय है कि आज भारत की सभी गैर-वामपंथी पार्टियों में विदेश नीति और नव-उदारवाद के मसले पर सर्व-सम्मति (consensus) है। एक भी ऐसी गैर-वामपंथी पार्टी नहीं है जिसने भाजपा के साथ, अर्थात सांप्रदायिकता के साथ कभी कोई समझौता न किया हो। कांग्रेस ने कभी भाजपा से हाथ नहीं मिलाया तो सिर्फ इसलिये क्योंकि वह सत्ता की लड़ाई में भाजपा की प्रमुख प्रतिद्वंद्वी है, अन्यथा व्यवहारिक राजनीति के स्तर पर वह भी सांप्रदायिकता का इस्तेमाल करने से परहेज नहीं करती।

इसके आगे, प्रो. अहमद थोड़ा भटकते हैं, लेख में किये गये शुरूआती वादे को भूल कर भारत के सांप्रदायिक दंगों के बारे में एक और नये आख्यान को तैयार करते हुए कहते हैं कि भारत में जिसे सांप्रदायिक दंगा कहा जाता है, इस्लामिक देशों में अल्प-संख्यकों पर होने वाले वैसे हमलों को बिना किसी लाग-लपेट के इस्लामिक या जेहादी हमलें बताया जाता है।

और, इसके साथ ही आश्चर्यजनक रूप से वे  भारत में सांप्रदायिकता के प्रश्न की एक प्रकार की भाषा-शास्त्रीय व्युत्पत्ति की तलाश की ओर बढ़ जाते हैं। कहते हैं - Communism और Communalism में एक भाषिक साम्य है। Majority community अथवा Minority community की तरह के पदों के प्रयोग से इनके पीछे की धार्मिक अस्मिता की सचाई को छिपाया जाता है और कुछ ऐसे पेश किया जाता है मानो वे महज भारतीय राष्ट्र के नागरिक भर है।

इसी बात को और खींचते हुए प्रो. अहमद कहते हैं कि धार्मिक अस्मिताओं को नागरिक की अस्मिता बताने के इस सच से जाहिर होता है कि भारत के अधिकांश लोग, सिवाय एक मतदान के अधिकार के, हर प्रकार के राष्ट्रीय विमर्श से सर्वथा अछूते रहते हैं और अधिकांशत: अपना जीवन धार्मिक समुदायों के बीच बिताते हैं।

( यहां फिर एक बार हस्तक्षेप करते हुए हम कहना चाहेंगे कि प्रो. अहमद जिस मतदान के अधिकार को ‘महज एक मतदान का अधिकार’ बता कर महत्वहीन बताना चाहते हैं, वह आज के भारत में पंचायती राज व्यवस्था के चलते कितना व्यापक और राज्य में जनता की भागीदारी को सुनिश्चित करने वाले अधिकार का रूप लेता जा रहा है, इसका उन्हें अनुमान ही नहीं है। आज भारत की सभी शासक पार्टियों की यह आम शिकायत है कि यहां तो उन्हें हमेशा लोकसभा, विधानसभा, नगरपालिका और पंचायतों के कम से कम चार चुनावों की चुनौतियों में उलझे रहना पड़ता है।
इसके अलावा, धार्मिक समुदायों में जीने के बजाय आम आदमी अपनी रोटी-रोजी की जुगत में किस कदर मुब्तिला रहता है, इसे वे अपने विचार के दायरे में ही नहीं ला पाते हैं।

उनके नजरिये की इन कमियों के चलते उनके सांप्रदायिकता संबंधी पूरे विश्लेषण में जो मूलभूत और भारी दोष आगये हैं, उनपर हम यथास्थान आगे चर्चा करेंगे।)

फिलहाल हम फिर प्रो. अहमद की स्थापनाओं की ओर ही लौटते हैं। आगे वे ‘सर्व धर्म समभाव’ और इसके प्रति वामपंथियों की आलोचना के अतिपरिचित पुराने विषय पर आ जाते हैं और कहते हैं कि Secularism की यह व्याख्या एक खास भारतीय परिघटना है। इसके साथ ही आस्थावादियों के बारे में वे कुछ ऐसी चौंकाने वाली विवादास्पद बात कह जाते हैं, जिसे मनोविज्ञान से लेकर समाजशास्त्र के भी किसी भी पैमाने पर सही साबित नहीं किया जा सकता है। वे कहते हैं - आस्थावादियों का मानस अनिवार्य तौर पर दूसरे की आस्थाओं को अपने से निम्न दर्जे का मानता है।
( लोगों के धार्मिक विश्वासों को दूसरों के प्रति नफरत में बदलने के जिस घिनौने काम में सांप्रदायिक ताकतें दिन रात लगी रहती है, प्रो. अहमद के अनुसार वह किसी भी धर्मप्राण आदमी का एक नैसर्गिक पहलू है !
भारत ही नहीं, सारी दुनिया में आस्थावादियों और जनतंत्रवादियों तथा क्रांतिकारियों के संबंधों का विशाल इतिहास है। और तो और, गांधी, रवीन्द्रनाथ आदि के स्मरण मात्र से इस प्रकार के निष्कर्षें की अयथार्थता जाहिर हो जाती है। )

इसके बाद प्रो. अहमद भारतीय राज्य के बारे में पैरी एंडरसन की एक और इतनी ही विवादास्पद टिप्पणी को उद्धृत करते हैं - ‘‘भारतीय राज्य एक हिंदू सांप्रदायिक राज्य है, जो धर्मनिरपेक्षता का इस्तेमाल खुद को न्यायोचित करार देने की विचारधारा के तौर पर करता है।’’

एजाज अहमद को आस्थावादियों और भारतीय राज्य के बारे में कही गयी इन बातों की असंगतियों का किंचित अहसास होने के कारण ही वे तत्काल इन पर लीपापोती करने के लिये इतना जोड़ देते हैं कि ‘‘ गांधी और नेहरू के हिंदूवाद और आरएसएस के हिंदुत्व में सिर्फ डिग्री का फर्क बताना बेतुकापन है।’’

फिर भी, आगे वे भारतीय राज्य को हिंदू राज्य इसलिये मानने की बात करते हैं क्योंकि उसके लिये सांप्रदायिकता का प्रश्न महज एक कानून-व्यवस्था का प्रश्न होता है, उससे इतर और कुछ नहीं।

इसके बाद एजाज अहमद Secularism का मूल अर्थ समझाते हुए कहते हैं कि ‘‘यह एक आधुनिक सद्गुण (virtue) है, यूरोपीय सद्गुण है।’’ इसी रौ में वे मार्क्सवाद को भी अपने मूलरूप में एक यूरोपीय सद्गुण कह डालते हैं।

इस आधार पर आगे उनका तर्क कुछ इसप्रकार चलता है कि जो आधुनिक नहीं होंगे, जो पिछड़ापन लिये होंगे, उनके पास Secularism भला कैसे होगा!

वे भारतीय राज्य और अनाधुनिकता तथा पिछड़ेपन को कुछ इसप्रकार पेश करते हैं, मानो यह महज कोई चयन का प्रश्न हो!  यूरोप ने आधुनिकता को चुना और भारत ने पिछड़ेपन को ! इन स्थितियों के पीछे अनेक ऐतिहासिक-सामाजिक और आर्थिक कारण होते हैं, प्रो. अहमद के लेखन से इस बात की रत्ती भर झलक भी नहीं मिलती।

Communalism  और Secularism के बारे में इस प्रकार के एक अनोखे भाषाशास्त्रीय और अनैतिहासिक विवेचन के बाद प्रो. अहमद अपने पसंदीदा विषय ‘राष्ट्रवाद’ पर आजाते हैं। इस विषय में उन्होंने पहले भी अपने एकाधिक लेखों में विस्तार से लिखा है। उन्हीं पहले की बातों को दोहराते हुए वे बताते हैं - राष्ट्रवाद का कोई वर्गीय रूप नहीं होता। पूंजीवादी जनतंत्रवादी, फासीवादी, और समाजवादी सभी इसका अपने-अपने तरीके से उपयोग करते रहे हैं।

इस बारे में भी हमारा मानना है कि प्रो. अहमद इतिहास में राष्ट्रवाद के उद्भव के पीछे के सामाजिक-आर्थिक पक्षों को अनदेखा करते हुए इसे विचार की एक शुद्ध सांस्कृतिक श्रेणी (category) के रूप में देखते हैं और इसके सामाजिक-आर्थिक निहितार्थों को देखने से इंकार करते हैं। यहां तक कि वे nation state के साथ भी राष्ट्रवाद को जोड़ कर देखने की तोहमत नहीं उठाते। इसीलिये जनतंत्रवादियों, फासीवादियों और समाजवादियों द्वारा भी राष्ट्रवाद के प्रयोग के पीछे काम कर रहे ऐतिहासिक-आर्थिक पक्षों की अवहेलना करते हुए वे इसे महज प्रचार का एक सांस्कृतिक जुमला भर मानते हैं।

इसके बाद, प्रो. अहमद जिस विचार सरणी में प्रवेश कर जाते हैं, वह बेहद चौंकाने वाली और काफी हद तक कान को खड़ा कर देने वाली है। राष्ट्रवाद को एक वर्ग-विहीन श्रेणी में तब्दील करके वे यह दलील देते हैं कि इसका कोई कारण समझ में नहीं आता कि क्यों नहीं भारत के बहुसंख्यक हिंदू हिंदुत्व और भारतीयता को एक नहीं मानेंगे? उनके शब्दों में :

“ I see no reason why an urban, upper caste, middle class, socially conservative Hindu would not be spontaneously oriented towards accepting the Hindutva proposition that what is unique about India and therefore its defining feature among nations is that the great majority of its citizens are Hindu and Hindu culture must therfore be accepted as a national culture.”

आरएसएस का निखालिस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद। जिसे प्रो. अहमद बिल्कुल स्वाभाविक और ‘‘कोई कारण नहीं है कि विश्वास न किया जाए‘‘ बता रहे हैं, आरएसएस की विचारधारा का तो पूरा महल इसी ‘निर्विवाद’ सच की बुनियाद पर खड़ा है !

इस बारे में प्रो. अहमद ने अपने लेख में और भी कई बातें लिखी है और मजे की बात है कि वे सभी संघी विचारकों की बातों की पुनरावृत्ति जैसी प्रतीत होती है।

भारत में आरएसएस के कामों का विश्लेषण करते हुए अपने चिर-परिचित अंदाज में एजाज अहमद यहां भी ग्राम्शी के एक जुमले का छौंक की तरह इस्तेमाल करते है। कहते हैं, उनका (आरएसएस का) काम ग्राम्शी के ‘War of Position’ की तरह का रहा है।

ग्राम्शी ने अपनी प्रिजन नोटबुक में रोजा लुक्जेमबर्ग के व्यापक हड़ताल के जरिये एक झटके में क्रांति से राजसत्ता पर कब्जा कर लेने के सोच का विरोध करते हुए ‘War of Movement’ और  ‘War of Position’ की तरह के सामरिक पदों का इस्तेमाल किया था। इसमें ग्राम्शी कहते हैं कि ‘‘1917 में रूस में राजसत्ता पर सीधे आक्रमण की कार्रवाई इसलिये सफल हो पायी थी क्योंकि वहां सिर्फ राज्य ही राज्य था, नागरिक समाज अभी अजन्मा या शैशव में था।’’ इसके विपरीत, ग्राम्शी मानते थे, पश्चिम में ‘‘राज्य सिर्फ एक बाहरी खोल है, जिसके अंदर एक मजबूत नागरिक समाज काम कर रहा है।’’

इसी संदर्भ में ग्राम्शी ने इस बात पर बल दिया कि सीधे आक्रमण की सैनिक रणनीति (War of Movement)) के बजाय भीतर में अपनी स्थिति को लगातार मजबूत करने (War of Position) की रणनीति पश्चिमी देशों के लिये जरूरी है।

इस बात से जाहिर है कि ग्राम्शी पश्चिम में एक व्यापक नागरिक समाज देख रहे थे और उसमें अपना स्थान बनाने के लिये War of Position  की बात कर रहे थे। लेकिन प्रो. एजाज अहमद भारत में तो ऐसे किसी नागरिक समाज की उपस्थिति को ही नहीं मानते, क्योंकि यह तो कहीं न कहीं से आधुनिकता से जुड़ी हुई बात है। उनकी तो मान्यता है कि भारत का समाज सांप्रदायिकता के विषाणुओं से ग्रसित एक पिछड़ा हुआ समाज है।

हमारा प्रश्न यह है कि जब वामपंथ के अलावा और सभी ताकतें सांप्रदायिकता के रोग में फंसी रही हैं, तब आरएसएस को किसी भी war of poaition की क्या जरूरत थी !

इसी लेख में वे खुद आजादी के बाद के भारत की राजनीति के तीन अलग-अलग युगों का उल्लेख करते हैं। 1947 से 1962 का, 1962 से 1975 तक का और फिर 1989 से अब तक का। वे नेहरू युग, इन्दिरा युग, बैंकों के राष्ट्रीयकरण, जेपी आंदोलन आदि की बात करते है, और इन दौर में भारत के वामपंथी और सोशलिस्ट विपक्ष की एक महती भूमिका का भी जिक्र करते है। बताते है कि कैसे वामपंथी विपक्ष के चलते आरएसएस आजादी के बाद के लगभग चालीस सालों तक उस प्रकार नहीं फैल पाया, जैसा आज दिखाई देता है। इसके बावजूद वे भारतीय राजनीति में सिर्फ आरएसएस के war of position के इतिहास को देख पाते हैं!

वे यह नहीं देख पाते कि भारतीय जनतंत्र के विकास में वामपंथियों ने भी war of position कम नहीं चलाया और भूमि सुधार, पंचायती राज तथा सत्ता के विकेंद्रीकरण के सवालों के साथ भारतीय जनतंत्र को विकसित करने में एक अहम भूमिका अदा की, अपने प्रभाव के क्षेत्र को भी बढ़ाया। इसी लेखक ने पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा सरकार के भूमि सुधार और पंचायती राज के कामों के अध्ययन से उन्हें एक ‘मौन क्रांति’ बताते हुए एक पूरी पुस्तक लिखी है।

जो प्रो. अहमद फासीवाद को वामपंथ की विफलता का दंड बताते हैं, वे ही अपने इस लेख में इस विफलता के एक भी पहलू पर कोई चर्चा नहीं करते ! ‘वामपंथ के बरक्स दक्षिणपंथ’ को समझने की एक बुनियादी कसौटी के आधार पर खड़े किसी भी विश्लेषण में भारत में वामपंथ की अधोगति का इतिहास एक बार भी विचार का प्रश्न न बने, यह कैसे संभव है? किसी के लिये भी यह काफी गंभीरता से सोचने की बात भी है।

हमारा यह मानना है कि पिछले दो-अढ़ाई दशकों के हमारे देश के राजनीतिक इतिहास में ही दो ऐसे बड़े मौके आये, जब भारत के वामपंथ (सीपीएम) ने भारी भूलें करके वामपंथ के विकास में गुणात्मक अभिवृद्धि के मौकों को गंवा दिया। पहला मौका 1996 में ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने का मौका था जिसे केंद्रीय कमेटी के बहुमत से ठुकरा दिया गया। और दूसरा मौका 2006 में परमाणु संधि की तरह के एक अबूझ से प्रश्न पर यूपीए सरकार से समर्थन वापस लेकर उसे गिरा देने के हास्यास्पद, डॉन क्विगजोटिक राजनीतिक खेल का था। ये दोनों मौके ही वामपंथ के भारत की राजसत्ता के ताने-बाने में प्रवेश करने के मौके थे।

भारत में आरएसएस, जन संघ और भाजपा के इतिहास को देखे तो यह समझने में भूल नहीं होगी कि जिसे प्रो.अहमद war of position की संज्ञा दे रहे है, उसमें केंद्रीय राजसत्ता में उनकी पैठ ने कितनी अहम भूमिका अदा की थी। जन संघ ने 1977 में जनता पार्टी की सरकार में शामिल होकर, फिर 1992 में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार को लगातार दबाव में रख कर और 1996 से लेकर 2002 तक लगातार छ: वर्षों तक एनडीए सरकार के जरिये वह स्थिति तैयार की है जिसमें आज भारत का संसदीय जनतंत्र एक द्विदलीय व्यवस्था की तरह का प्रतीत होने लगा है।

कहना न होगा, भारत में सांप्रदायिक ताकतों के इस उभार में यहां की जनता में जड़ें जमाये बैठे धर्म और उसका कथित पिछड़ापन उतना बड़ा कारण नहीं है, जितना ऐतिहासिक तौर पर सामने आने वाले राजनीतिक अवसरों का पूरी तत्परता से इस्तेमाल करने की उनकी तैयारी का है। बाकी सब उसी प्रकार अनुषंगी है, जैसे वामपंथ के लिये अनुषंगी है सामाजिक विकास का सबसे बड़ा सत्य - वर्ग संघर्ष।

प्रो. अहमद वामपंथ की इन ऐतिहासिक भूलों को अपनी चर्चा का विषय क्यों नहीं बनाते, इसका उनका एक बड़ा निजी कारण है। इस बारे में गहराई में जाने से ही जाहिर हो जाता है कि वे खुद इन सभी मौकों पर ऐसे स्वतंत्र और प्रकांड बुद्धिजीवी की भूमिका अदा करते रहे हैं, जो अति-सक्रिय रूप में वामपंथ के इन गलत निर्णयों के पक्ष दलीलों के पहाड़ जुटाते थे। इस लेखक ने अपनी सीमित क्षमता से बार-बार उनके इन दलीलों के जंजाल को भेदने की कोशिश की है।

बहरहाल, संसदीय जनतंत्र में राजनीति प्रतिद्वंद्विता का एक ऐसा विषय है जिसमें अपने को निरंतर प्रासंगिक बनाये रखना किसी भी राजनीतिक दल के लिये जरूरी है। आज अप्रासंगिक, लेकिन भविष्य में प्रासंगिक होने का कथित ‘नैतिकतावाद’ इस राजनीति में आत्म-हनन का रास्ता होता है। War of position भी काल-स्थान से निरपेक्ष होकर नहीं लड़ा जाता। और इसमें राजसत्ता का उपादान एक सबसे प्रमुख उपादान है।

यहां अंत में हम हिटलर से संबंधित एक तथ्य की चर्चा करके अपनी बात को खत्म करेंगे।
सन् 1924 के अंत में जेल से निकलने के बाद हिटलर ने शीघ्र बावेरिया के प्रधानमंत्री और कैथोलिक बावेरियन पार्टी के नेता डा. हेनरिख हेल्ड से मुलाकात की थी। जेल में रहते हुए अपने को सुधार लेने के हिटलर के वादे के बाद नाजी पार्टी और उसके अखबार पर लगी पाबंदी को हटा लिया गया था। हेल्ड ने हिटलर से मुलाकात के बाद अपने न्याय मंत्री से कहा था कि एक जंगली जानवर पर काबू पा लिया गया है। हम उसे कुछ ढील दे सकते हैं।
इसपर ‘थर्ड राइख’ के इतिहासकार विलियम शिरर लिखते हैं कि जर्मन राजनीतिज्ञों में बावेरिया के प्रधानमंत्री वे पहले, लेकिन अंतिम नहीं, व्यक्ति थे जिन्होंने उसे समझने में घातक भूल की थी। प्रधानमंत्री से हिटलर की बैठक के उद्देश्यों के बारे में शिरर लिखते हैं :
‘‘हिटलर इस बैठक में दो उद्देश्यों से गया था। पहला नाजी पार्टी को पूरी तरह अपनी मुट्ठी में लेने के लिये और दूसरा नाजी पार्टी को एक ऐसे राजनीतिक संगठन के रूप में ढालने के लिये जो पूरी तरह से संवैधानिक रास्ते से सत्ता हासिल करेगी। उसने अपने खास सहयोगी कार्ल लुडेक को जेल में ही कहा था, ‘जब मैं फिर से काम शुरू करूंगा, एक नई नीति अपनाना जरूरी होगा। सशस्त्र विद्रोह के जरिये सत्ता हासिल करने के बजाय हमें अपनी नाक बंद करके कैथोलिक और मार्क्सवादी डिप्टियों के विरुद्ध राइखस्टाग (जर्मन पार्लियामेंट) में जाना होगा। उन्हें गोलियों से भुनने के बजाय वोट से गिराने में ज्यादा समय लगे, तब भी उस परिणाम को कम से कम उन्हीं के संविधान की स्वीकृति तो होगी। कोई भी कानूनी रास्ता धीमा होता है - देर-सबेर हमारा बहुमत होगा, और उसके बाद जर्मनी हमारा होगा।‘‘
प्रो. अहमद war of position की बात करते हैं, लेकिन भारत के संदर्भ में इसका एक भी उदाहरण नहीं देते कि कैसे war of position में अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिये तमाम प्रकार के उपादानों का प्रयोग किया जाता है। उसमें राजसत्ता के उपादान का प्रयोग कितना निर्णायक होता है, हिटलर के उपरोक्त उदाहरण से साफ है। जर्मन राष्ट्र को अपनी गिरफ्त में लेने में हिटलर की सहायता के लिये वहां धर्म की जकड़बंदी या किसी प्रकार का पिछड़ापन सामने नहीं आया था। वह ‘जर्मन श्रेष्ठता’ के नारे के साथ आगे बढ़ा था, जैसे आज मोदी विकास-पुरुष के नारे के साथ बढ़ना चाहता है।

भारत के राजनीतिक-सामाजिक इतिहास को ही देखे तो यहां के कथित पिछड़ेपन पर से पर्दा उठते देर नहीं लगेगी। दो महीने पहले हमने अपनी वाल पर एक पोस्ट लगाई थी : राज्यों के पुनर्गठन के प्रश्न पर एक सवाल। इसमें कहा गया था :
‘‘कभी ऐसा जमाना रहा होगा, जब भारतवर्ष या अखंड भारत महज एक विचार, Idea अथवा अवधारणा था। लेकिन आज का भारत एक सच है, कोरा विचार नहीं। आजादी के बाद के इन तमाम वर्षों में प्रादेशिकता, जातिवाद, संप्रदायवाद आदि से जुड़े तनावों के कई-कई दौर को देखने के बाद इस सच को आज और भी ज्यादा निश्चय के साथ कहा जा सकता है। भारतीय राष्ट्रीयता के सच के तले नाना राष्ट्रीयताओं (जातियताओं) , उप-राष्ट्रीयताओं के सच यथार्थ के बजाय महज विचार में तब्दील होते दिखाई दे रहे हैं। किसी समय अखंड भारत का विचार नाना जातियताओं-उपजातियताओं के ठोस खंभों पर टिका दिखाई देता था। देखते-देखते नजारा उलट सा गया है। आज तो भारतीय राष्ट्रीयता के विशाल और ठोस आधार पर तमाम जातियों-उपजातियों के वैचारिक-सांस्कृतिक महल खड़े दिखाई देते हैं। यह विगत तमाम वर्षों में संचार के व्यापक विस्तार और देश के कोने-कोने में लोगों की जीवन पद्धति में आये खास प्रकार के, और लगभग एक से परिवर्तनों की देन है। ऐसे में राज्यों के गठन-पुनर्गठन के लिये जातियों-उपजातियों का मानदंड कितना उपयोगी रह गया है, यह विचार का विषय है।’’
कहने का तात्पर्य यही है कि धरती पुत्रों, जात-पात-भाषा-संप्रदाय की राजनीति के तमाम नग्न खेलों के बावजूद शुद्ध आर्थिक कारणों से ही आज भारत की एकता और अखंडता पहले के किसी भी समय से कहीं ज्यादा मजबूत है। इसीलिये आधुनिकता या secularism कितने ही यूरोपीय सद्गुण क्यों न हो, किसी भी दुर्वासा के इस श्राप को नहीं माना जा सकता कि भारत की धरती पर इनके बिरवे कभी पनप ही नहीं सकते।

इसीप्रकार, माक्र्सवाद भी ‘अपने मूल में’ कितना ही ‘यूरोपीय सद्गुण’ क्यों न कहलाये, उसकी सर्वदेशिक सचाई से इतनी सहजता से इंकार नहीं किया जा सकता।

दरअसल, माक्र्सवाद की बुनियादी स्थापना कि किसी भी ऐतिहासिक परिघटना का अंतिम सच अर्थनीति के जरिये निर्धारित होता है, इसकी अवहेलना करके शुद्ध विचारधारात्मक अर्थात आत्मिक और सांस्कृतिक विषयों को इतिहास की चालिका शक्ति मान कर उसके आधार पर एक पूरा नया मानव संसार खड़ा करना सभी संस्कृतिवादियों की असाध्य बीमारी है। कथित ‘सांस्कृतिक मार्क्सवाद’ भी इससे समान रूप से ग्रसित है।

संस्कृति चर्चा करने वालों के एक बड़े हिस्से ने व्यतीत पर चिंता या रूदन को ही संस्कृति चर्चा का पर्याय बना रखा है। उनकी नजर में भौतिक जीवन की तरह ही आत्मिक जीवन भी पूरी तरह स्वायत्त है। और, इसीलिये वस्तुगत जीवन में परंपरा और विकास के पक्षों से आंख मूंद कर वे शुद्ध आत्मिक जीवन की कथित परंपरा और विकास के स्वायत्त संसार में उलझ कर रह जाते हैं। और परिणाम यह होता है कि जीवन कहीं और भाग रहा है, और इनका ‘संस्कृति विमर्श’ भौतिक जीवन के सच से पूरी तरह अनजान किसी और ही ‘ज्ञान चर्चा’ में निमज्जित रहता है। जीवन के यथार्थ से दूर ऐसी ज्ञान चर्चा अक्सर पोंगापंथी और संरक्षणवादी चर्चा में पर्यवसित होती है।

इसीलिये आधुनिक ज्ञान की किसी भी चर्चा अथवा परंपरा में संशय को लगभग एक प्रस्थान बिंदु कहा जा सकता है। किसी भी समय तक के अर्जित ज्ञान और मूल्यों को चुनौती देने वाले संशय का एकमात्र स्रोत है भौतिक जीवन, उसमें लगातार घट रहा परिवर्तन और इस जीवन के परिवर्तनों का संज्ञान कराने वाला आधुनिक सामाजिक, वैज्ञानिक और भौतिकवादी दार्शनिक अध्ययन। और ‘संस्कृतिवादी’ इसी की सबसे ज्यादा अवहेलना करते हैं।

आज भारत में फिर एक बार एक महत्वपूर्ण चुनाव की शतरंज बिछ चुकी है। यह समय राजनीतिज्ञों के लिये अपने सही मोहरों को चलाने पर खुद को केंन्द्रित करने का समय है। यह समय प्रो. एजाज अहमद की तरह के दूर की कौड़ी खोज कर लाने वाले बुद्धिजीवियों की तर्ज पर ‘नव-उदारवाद के विरोधियों’ की खोज अर्थात विशाल और गहरे समुद्र में गोताखोरी करके मोतियों की तलाश में रमने का नहीं है। भारतीय वामपंथ ने पहले भी, कई महत्वपूर्ण मौकों पर अपनी ब्रह्म-साधना में लीन होकर समय को हाथ से गुजरने जाने के कम उदाहरण पेश नहीं किये हैं !

अंत में हम फिर यहां, प्रो. एजाज अहमद की राय के बिल्कुल उल्टे, इस टिप्पणी के शुरू में उद्धृत प्रश्न को ही दोहरायेंगे :

‘‘सवाल यह है कि क्या भारत के आगामी लोकसभा चुनाव में नव-उदारवाद स्वयं में चुनावी लड़ाई का मुद्दा बन सकता है ? यह एक गंभीर मसला है। समसामयिक राजनीति के क्षेत्र से जुड़ा एक बड़ा यथार्थवादी मसला।
‘‘वामपंथ को अपना चुनावी एजेंडा तैयार करने के पहले इसपर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। अधिक ठोस, समसामयिक मुद्दों पर केंद्रित होने की जरूरत है। नव-उदारवाद का विकल्प तो समाजवाद है, जो इस चुनाव का मुद्दा नहीं बन सकता।’’



1. अतीत के जिन्नों को बुलाने का स्वपन दासगुप्त का आह्वान

अभी चंद दिन पहले ही वियतनाम के संदर्भ में अपनी एक संस्मराणत्मक टिप्पणी में हमने ‘Close the history with respect’ की बात कही थी।


‘टेलिग्राफ’ के 25 अक्तूबर 2013 के अंक में ठीक इसके विपरीत दृष्टिकोण का स्वपन दासगुप्ता का लेख छपा : ‘Dangers of buried stories’ (दफना दी गयी कहानियों के खतरें)।


इसमें श्रीमान दासगुप्त बांग्लादेश से शुरू करते हैं कि वहां की मौजूदा सरकार मुक्ति युद्ध में भाग लेने वाले कतिपय प्रमुख भारतीयों का सम्मान करना चाहती थी। इसके लिये उन्होंने कुछ लोगों की सिनाख्त की, लेकिन भारत का सरकारी प्रतिष्ठान ऐसी उदासीनता और ‘स्मृति भ्रंश’ का शिकार है कि वह उनमें से कई लोगों की खोज तक नहीं कर पाया।


इसी प्रसंग में दासगुप्ता आगे अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन, इंदिरागांधी और उनके प्रमुख सचिव पी.एन.हक्सर तथा 1971 के समय के भारत के विदेश सचिव टी.एन.कौल के कागजातों के आधार पर तैयार की गयी गैरी जे.बास की किताब ‘The blood telegram : India’s secret war in east Pakistan’ का जिक्र करते हैं जिसमें पाकिस्तान के तत्कालीन सैनिक तानाशाह याह्या खान के जघन्य हिंदू-विरोधी दृष्टिकोण और पूर्व पाकिस्तान में पाकिस्तानी सेना द्वारा चलाये गये हिंदुओं के सफाये के अभियान का आख्यान है।


दासगुप्ता का कहना है कि पाकिस्तान का सत्ता प्रतिष्ठान कभी इस मानसिकता से मुक्त नहीं हुआ है। ‘‘अयूब खान का विश्वास था कि एक पाकिस्तानी सैनिक 20 हिंदू सैनिकों के बराबर है।’’ वे हमेशा से हिंदुओं को निम्न और खुद को श्रेष्ठ मानने की ग्रंथी पाले हुए हैं।


ठीक इसके विपरीत, दासगुप्त का ही कहना है, भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान ने बांग्लादेश के मुक्ति संघर्ष को हिंदू-मुस्लिम आधार पर विभाजित न होने देने का भरसक प्रयास किया। आज भी वह नहीं चाहता कि पाकिस्तान को मिले 1971 के जख्मों को कुरेदा जाय।


‘‘इन्दिरा गांधी और पी.एन.हक्सर हमेशा मानते थे कि पाकिस्तान को ढाका-विध्वंस से किंचित आत्म सम्मान के साथ उबरने दिया जाए। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पाकिस्तान के प्रति नजरिये पर भी विभाजन-पूर्व की पुरानी यादें छायी हुई हैं। तब से अब तक भारत ने सभ्यता और बेहतरीन अर्थ-व्यवस्था के लोभ के आधार पर पाकिस्तान से पड़ौसी के संबंध विकसित करने की कोशिश की है।’’


लेकिन, दासगुप्ता की शिकायत है - ‘‘ इतिहास ने हर बार पलट वार किया है। ’’


इसी आधार पर वे मांग करते हैं - ‘‘ पाकिस्तान से संबंध के मामले में भारत प्रतिष्ठानिक स्मृतियों को भुला नहीं सकता है। हम भले बदल गये हो, अधिक सर्वदेशीय (cosmopolitan) हो गये हो, अधिक वैश्विक और अधिक राष्ट्रोत्तर हो गये हो। फिर भी, रेडक्लिफ रेखा के पार 1971 की मानसिकता कायम है और प्रतिशोध का सपना देख रही है। ’’


आज भारत में चुनाव के माहौल और साथ ही सीमा पर चल रही कुछ झड़पों के समय स्वपन दासगुप्त की भारत के सत्ता प्रतिष्ठानों को यह चेतावनी राजनीतिक लिहाज से बेहद उद्देश्यपूर्ण है।


आरएसएस के बारे में अमेरिकी शोधकर्ता जे.ए.कुर्रान जूनियर ने साठ साल पहले लिखा था कि भारत में आरएसएस का भविष्य बहुत हद तक भारत-पाकिस्तान संबंधों की स्थिति पर निर्भर करता है। ये जितने बिगड़ेंगे, आरएसएस की स्थिति मजबूत होगी और इनमें जितना सुधार होगा, आरएसएस कमजोर होता जायेगा।


यही बात सीमा पार के कट्टरपंथियों और आतंकवादियों पर भी लागू होती है। भारत में हिंदू सांप्रदायिक ताकतों का उभार उनके भी अस्तित्व और विकास से अभिन्न तौर पर जुड़ा हुआ है।


कहना न होगा, ‘दफना दी गयी कहानियों के खतरों’ से स्वपन दासगुप्त का तात्पर्य कुछ भी क्यों न हो, ये वे गड़े मुर्दें हैं, जिनसे हमारे वर्तमान के अस्तित्व को हिला देने वाले जिन्नों के अलावा और कुछ हासिल नहीं हो सकता।


पुन: दोहराना चाहूंगा - Close the history with respect ।


मंगलवार, 12 नवंबर 2013

मुक्तिबोध का संदेश

मुक्तिबोध के जन्मदिन (13 नवंबर) के अवसर पर उन्हें याद करते हुए :

अरुण माहेश्वरी


मुक्तिबोध ने जीवन में खूब लिखा। नेमीचंद जैन ने छ: खंडों में जो मुक्तिबोध रचनावली संकलित की है, उसके अतिरिक्त भी उनका लिखा काफी कुछ है। खुद नेमी जी ने विभिन्न कारणों से ऐसे छूट गये लेखन का जिक्र किया है। आज तक प्रकाश में न आपायी उनकी रचनाओं में एक उपन्यास भी है, जिसके कम्पोज हुए 80 पृष्ठों को नेमीजी ने प्रकाशक के पास देखा था, लेकिन बाद में उसका एक बिखरा हुआ खंडित रूप ही दूधनाथ सिंह द्वारा संपादित पत्रिका ‘पक्षधर’ के जरिये नेमीजी के हाथ लग पाया जिसे मुक्तिबोध रचनावली के तीसरे खंड के अंत में संकलित किया गया था। 1943 में ही उन्होंने अज्ञेय जी के साथ मिल कर हिंदी साहित्य के एक सर्वाधिक चर्चित तारसप्तक प्रकल्प की योजना बनायी थी। वह किसी एक का उद्यम नहीं, बल्कि सातों परस्पर-परिचित कवियों का एक सहयोगी प्रकल्प था। मुक्तिबोध तारसप्तक के पहले कवि थे। नेमीचंद जैन ने अन्यत्र भी तथ्यों से इस परियोजना में मुक्तिबोध की खास भूमिका को रेखांकित किया है। अपने समय की लगभग सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में मुक्तिबोध लिखते रहे। ‘नया खून’ साप्ताहिक पत्रिका के तो वे खुद संपादक थे।

इन सबके बावजूद गौर करने लायक सबसे उल्लेखनीय तथ्य यह है कि उनकी कविताओं का पहला संकलन ‘चांद का मूंह टेढ़ा है’ उनकी मृत्यु के बाद ही प्रकाशित हो पाया था। 11 सितंबर 1964 के दिन उनकी मृत्यु हुई। उसके पहले श्रीकांत वर्मा ने उनकी ‘एक साहित्यिक की डायरी’ प्रकाशित की थी, जिसका दूसरा संस्करण भारतीय ज्ञानपीठ से उनकी मृत्यु के दो महीनों बाद प्रकाशित हुआ। ज्ञानपीठ ने ही ‘चांद का मूंह टेढ़ा है प्रकाशित किया था। इसी वर्ष नवंबर 1964 में नागपुर के विश्वभारती प्रकाशन ने मुक्तिबोध द्वारा 1963 में ही तैयार कर दिये गये निबंधों के संकलन ‘नयी कविता का आत्मसंघर्ष तथा अन्य निबंध’ को प्रकाशित किया था। परवर्ती वर्षों में भारतीय ज्ञानपीठ से मुक्तिबोध के अन्य संकलन ‘काठ का सपना’, तथा ‘विपात्र’ (लघु उपन्यास)  प्रकाशित हुए। पहले कविता संकलन के 15 वर्ष बाद, 1980 में उनकी कविताओं का दूसरा संकलन ‘भूरी भूरी खाक धूल’ प्रकाशित हुआ। 1980 में ही ‘राजकमल’ से छ: खंडों में ‘मुक्तिबोध रचनावली’ प्रकाशित हुई, जिसका पेपरबैक संस्करण 1985 में निकला। मुक्तिबोध रचनावली हिंदी के इधर के लेखकों की सबसे तेजी से बिकने वाली रचनावली मानी जाती है। मुक्तिबोध पर शोध और किताबों की भी झड़ी लग गयी। 1975 में ही अशोक चक्रधर का शोध ग्रंथ ‘मुक्तिबोध की काव्यप्रक्रिया’ प्रकाशित होगया था।

अशोक वाजपेयी ने ‘भूरी भूरी खाक धूल’ की भूमिका में लिखा है कि उनकी कविता के पहले संकलन के प्रकाशन से लेकर 15 वर्षों बाद प्रकाशित हुए उनके इस दूसरे संकलन के बीच के काल में हिन्दी कविता पर मुक्तिबोध एक तरह से छाये रहे हैं : अगर किसी बुजुर्ग से युवतम पीढ़ी अपने को जोड़कर प्रामाणिकता और सार्थकता पाने को उत्सुक है तो मुक्तिबोध से ही।

1970-71 का ही वह काल था जब हम सरीखे लेखकों का लेखन में बिस्मिल्लाह हुआ था। सचमुच मुक्तिबोध का बोलबाला था। जहां देखों, हर नौजवान लेखक मुक्तिबोध की चर्चा में लगा हुआ था। पत्र-पत्रिकाओं में लंबे-लंबे लेख लिखे जा रहे थे।

सोचने की बात यह है कि अपने इतने विपुल लेखन, तमाम स्तरो ंपर निरंतर साहित्यिक सक्रियता और तारसप्तक की तरह के सर्वाधिक चर्चित आयोजन के योजनाकार और भागीदार होने के बावजूद जो मुक्तिबोध अपने जीवित काल में उतने प्रभावशाली या नेतृत्वकारी स्थान पर नहीं दिखाई देते, वे मृत्यु के उपरांत, खास तौर पर सन् ‘67 और 70 के पूरे दशक में क्यों अचानक हिंदी के पूरेे साहित्य-विमर्श पर पूरी तरह से छा जाते हैं?

इस सवाल के साथ यदि आज हम मुक्तिबोध का पुनर्मूल्यांकन करें तो हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक और साहित्यिक परिदृश्य से जुड़ी ऐसी बहुत सी चीजें सामने आ सकती है जो संक्रमण के किसी भी दौर को और उसमें व्यक्ति विशेष की भूमिका को गहराई से समझने-परखने की दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण होती है।

60 के दशक के उत्तराद्‍​र्ध का वह दौर हिंदी में साठोत्तरी, बांग्ला से प्रभावित भूखी और श्मशानी पीढ़ी का दौर था। प्रगतिशील साहित्य आंदोलन इसके पहले ही दिशाहीन होकर बिखर चुका था। परिमलवादी भी सीआईए द्वारा चालित ‘एनकाउंटर’ और ‘कांग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम’ के कीचड़ से कलंकित होकर अपना प्रभाव गंवा चुके थे। यह साहित्य में चरम हताशा, अराजकता और मूल्यहीनता का दौर था। कोलकाता के लेखक मुर्दे की अध्यक्षता में गोष्ठी करते थे। जीवन की तमाम वर्जनाओं को तोड़ने की नाम पर जुगुप्सा की हद तक अश्लीलता इस लेखन की पहचान थी। अकविता, अकहानी का एक और अबूझ सा आंदोलन दस्तकें दे रहा था।

सामाजिक स्तर पर पूंजीवादी दुनिया से जुड़े तीसरे विश्व का आर्थिक दिवालियापन, सामाजिक मूल्यहीनता और राजनीतिक तानाशाही भारत में भी निपट नंगे रूप में प्रकट हो रहे थे। जघन्य सामाजिक विषमता, व्यापक बेरोजगारी, औद्योगिक गतिरोध और खाद्यान्नों के अभाव सेे जनता के तमाम स्तरों में गहरी निराशा और मोहभंग की स्थिति थी।

सवाल था कि जनता का यह मोहभंग कैसे व्यक्त हो?

वामपंथ का अपना संकट था। 1964 में कम्युनिस्ट पार्टी विभाजित होगयी। शासक दल के साथ चिपकी सीपीआई ने प्रगतिशील साहित्य आंदोलन की कोई साख नहीं रख छोड़ी थी। प्रतिरोध की ताकतों में वामपंथ की ओर से एक ओर जहां सीपीआई(एम) थी, तो दूसरी ओर सोशलिस्ट पार्टी और जनसंघ का दक्षिणपंथी गठबंधन। इसी परिस्थिति में सन् ‘67 के आम चुनाव में पहली बार भारत के आठ राज्यों में एक साथ कांग्रेस दल के शासन की 20 सालों की इजारेदारी टूटी।

ऐसे समय में साहित्य आंदोलन की बागडोर पुराने, साख गंवा चुके सीपीआई के अधीन प्रगतिशीलों के हाथ में नहीं रह सकती थी। नये जनवादी साहित्य आंदोलन के लिये साहित्य के नये, संघर्षशील और जनवादी प्रतिमानों की जरूरत थी। व्यापक मोहभंग, दिशाहीनता और तनाव के ऐसे काल में ही काष्ठवत होचुके साहित्य के ‘प्रगतिशील’ प्रतिमानों के विपरीत मुक्तिबोध की आलोचना दृष्टि, उनका संशय और उनके जनतांत्रिक सरोकार हिंदी साहित्य की दुनिया के लिये किसी ठंडी हवा के झोंके की तरह सुखदायी और साहित्य के जनवादी प्रतिमानों के पुनर्निर्माण की प्रेरणा देने वाली आलोचना दृष्टि साबित हुई। साथ ही, उनकी कविताएं भी काव्य-चर्चा के केंद्र में आगयी।

इसी मुक्तिबोध विमर्श ने हिंदी में प्रेमचंद शताब्दी के मौके पर शुरू हुए नये जनवादी विचार-मंथन को नया रूप दिया और 1982 में हिंदी और उर्दू के लेखकों के सबसे बड़े संगठन जनवादी लेखक संघ का जन्म हुआ। प्रगतिशील आलोचक-प्रवर रामविलास शर्मा अंत तक मुक्तिबोध की मघ्यवर्गीय व्याधियों की ओर इशारा करते रह गये; लेकिन ‘इतिहास और आलोचना’ वाले इसी परंपरा के दूसरे रथी डा. नामवर सिंह ने 1968 में ही ‘कविता के नये प्रतिमान’ में मुक्तिबोध का लोहा मानते हुए कहा कि  अपनी आलोचनात्मक क्षमता के द्वारा मुक्तिबोध ने प्रमाणित कर दिया कि कोई भी चीज तभी स्पष्ट होती है जब कम-से-कम एक ईमानदार व्यक्ति मौजूद हो।

यह ‘नई कहानी’ के ईमानदार समीक्षक नामवर सिंह की एक स्वाभाविक आत्मोपलब्धि थी।

कहना न होगा, इतिहास में मुक्तिबोध की इसी ‘एक ईमानदार व्यक्ति’ के रूप में मौजूदगी ने उन्हें मुक्तिबोध बनाया।

आज फिर एक बार राजनीति और विचारों के क्षेत्र में भारी दिग्भ्रम और असमंजस की स्थिति है। वैश्वीकरण की चकाचौंध, भारी सामाजिक विषमता। पूरा समाज निराशा और व्यापक मोहभंग की कगार पर है।

भारतीय वामपंथ के सामने फिर एक बार अपने पुनर्गठन की चुनौती है।

मुक्तिबोध ने अपनी पहचान को छिपाते हुए कभी सीपीआई के चेयरमैन श्रीपाद अमृत डांगे के नाम भारी मन से एक लंबे पत्र में लिखा था : “The profoundly artistic and valuable progressive literary works are the best answer to the Reaction, because such works will have lasting value and profound impact. Merely ideological attitudes, in place of profound meaning and artistic excellence will not make progressive writers more influencial.
“...self-criticism on the part of progressive thinkers, critics, and writers is long over-due.”

(प्रतिक्रिया को सर्वोत्तम उत्तर बहुत ही गंभीर कलात्मक और मूल्यवान प्रगतिशील साहित्यिक लेखन हो सकता है, क्योंकि ऐसे लेखन का टिकाऊ मूल्य और गहन प्रभाव होगा। गहन अर्थ और कलात्मक श्रेष्ठता की जगह महज विचारधारात्मक दृष्टि प्रगतिशील लेखकों को प्रभावशाली नहीं बनायेगी।
...प्रगतिशील विचारकों, आलोचकों और लेखकों को काफी पहले से ही आत्म-समीक्षा की जरूरत है।)

लगता है कि जैसे ऐतिहासिक परिघटनाओं का एक और वृत्त पूरा हो चुका है। ऐसे समय में मुक्तिबोध से शिक्षा लेते हुए यही कहना होगा कि आज फिर सभी लेखकों, चिंतकों और समीक्षकों के लिये गहरी आत्म-समीक्षा का समय आ चुका है। 

शुक्रवार, 1 नवंबर 2013

स्वपन दासगुप्त की ‘चेतावनी’



स्वपन दासगुप्त कीचेतावनी


अभी चंद दिन पहले ही वियतनाम के संदर्भ में अपनी एक संस्मराणत्मक टिप्पणी में हमने ‘Close the history with respect’ की बात कही थी।

आज केटेलिग्राफमें ठीक इसके विपरीत दृष्टिकोण का स्वपन दासगुप्ता का लेख है : ‘Dangers of buried stories’ (दफना दी गयी कहानियों के खतरें)

इसमें श्रीमान दासगुप्त बांग्लादेश से शुरू करते हैं कि वहां की मौजूदा सरकार मुक्ति युद्ध में भाग लेने वाले कतिपय प्रमुख भारतीयों का सम्मान करना चाहती थी।  इसके लिये उन्होंने कुछ लोगों की सिनाख्त की, लेकिन भारत का सरकारी प्रतिष्ठान ऐसी उदासीनता औरस्मृति भ्रंशका शिकार है कि वह उनमें से कई लोगों की खोज तक नहीं कर पाया।

इसी प्रसंग में दासगुप्ता आगे अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन, इंदिरागांधी और उनके प्रमुख सचिव पी.एन.हक्सर तथा 1971 के समय के भारत के विदेश सचिव टी.एन.कौल के कागजातों के आधार पर तैयार की गयी गैरी जे.बास की किताब ‘The blood telegram : India’s secret war in east Pakistan’ का जिक्र करते हैं जिसमें पाकिस्तान के तत्कालीन सैनिक तानाशाह याह्या खान के जघन्य हिंदू-विरोधी दृष्टिकोण और पूर्व पाकिस्तान में पाकिस्तानी सेना द्वारा चलाये गये हिंदुओं के सफाये के अभियान का आख्यान है।

दासगुप्ता का कहना है कि पाकिस्तान का सत्ता प्रतिष्ठान कभी इस मानसिकता से मुक्त नहीं हुआ है। ‘‘अयूब खान का विश्वास था कि एक पाकिस्तानी सैनिक 20 हिंदू सैनिकों के बराबर है।’’ वे हमेशा से हिंदुओं को निम्न और खुद को श्रेष्ठ मानने की ग्रंथी पाले हुए हैं।

ठीक इसके विपरीत, दासगुप्त का ही कहना है, भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान ने बांग्लादेश के मुक्ति संघर्ष को हिंदू-मुस्लिम आधार पर विभाजित होने देने का भरसक प्रयास किया। आज भी वह नहीं चाहता कि पाकिस्तान को मिले 1971 के जख्मों को कुरेदा जाय।

‘‘इन्दिरा गांधी और पी.एन.हक्सर हमेशा मानते थे कि पाकिस्तान को ढाका-विध्वंस से किंचित आत्म सम्मान के साथ उबरने दिया जाए। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पाकिस्तान के प्रति नजरिये पर भी विभाजन-पूर्व की पुरानी यादें छायी हुई हैं। तब से अब तक भारत ने सभ्यता और बेहतरीन अर्थ-व्यवस्था के लोभ के आधार पर पाकिस्तान से पड़ौसी के संबंध विकसित करने की कोशिश की है।’’

लेकिन, दासगुप्ता की शिकायत है - ‘‘ इतिहास ने हर बार पलट वार किया है। ’’

इसी आधार पर वे मांग करते हैं - ‘‘ पाकिस्तान से संबंध के मामले में भारत प्रतिष्ठानिक स्मृतियों को भुला नहीं सकता है। हम भले बदल गये हो, अधिक सर्वदेशीय (cosmopolitan) हो गये हो, अधिक वैश्विक और अधिक राष्ट्रोत्तर हो गये हो। फिर भी, रेडक्लिफ रेखा के पार 1971 की मानसिकता कायम है और प्रतिशोध का सपना देख रही है। ’’

आज भारत में चुनाव के माहौल और साथ ही सीमा पर चल रही कुछ झड़पों के समय स्वपन दासगुप्त की भारत के सत्ता प्रतिष्ठानों को यह चेतावनी राजनीतिक लिहाज से बेहद उद्देश्यपूर्ण है।

आरएसएस के बारे में अमेरिकी शोधकर्ता जे..कुर्रान जूनियर ने साठ साल पहले लिखा था कि भारत में आरएसएस का भविष्य बहुत हद तक भारत-पाकिस्तान संबंधों की स्थिति पर निर्भर करता है। ये जितने बिगड़ेंगे, आरएसएस की स्थिति मजबूत होगी और इनमें जितना सुधार होगा, आरएसएस कमजोर होता जायेगा।

यही बात सीमा पार के कट्टरपंथियों और आतंकवादियों पर भी लागू होती है। भारत में हिंदू सांप्रदायिक ताकतों का उभार उनके भी अस्तित्व और विकास से अभिन्न तौर पर जुड़ा हुआ है।

कहना होगा, ‘दफना दी गयी कहानियों के खतरोंसे स्वपन दासगुप्त का तात्पर्य कुछ भी क्यों हो, ये वे गड़े मुर्दें हैं, जिनसे हमारे वर्तमान के अस्तित्व को हिला देने वाले जिन्नों के अलावा और कुछ हासिल नहीं हो सकता।

पुन: दोहराना चाहूंगा - Close the history with respect