स्वपन दासगुप्त की ‘चेतावनी’
अभी चंद दिन पहले ही वियतनाम के संदर्भ में अपनी एक संस्मराणत्मक टिप्पणी में हमने ‘Close
the history with respect’ की बात कही थी।
आज के ‘टेलिग्राफ’ में ठीक इसके विपरीत दृष्टिकोण का स्वपन दासगुप्ता का लेख है :
‘Dangers of buried stories’ (दफना दी गयी कहानियों के खतरें)।
इसमें श्रीमान दासगुप्त बांग्लादेश से शुरू करते हैं कि वहां की मौजूदा सरकार मुक्ति युद्ध में भाग लेने वाले कतिपय प्रमुख भारतीयों का सम्मान करना चाहती थी। इसके लिये उन्होंने कुछ लोगों की सिनाख्त की, लेकिन भारत का सरकारी प्रतिष्ठान ऐसी उदासीनता और ‘स्मृति भ्रंश’ का शिकार है कि वह उनमें से कई लोगों की खोज तक नहीं कर पाया।
इसी प्रसंग में दासगुप्ता आगे अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन, इंदिरागांधी और उनके प्रमुख सचिव पी.एन.हक्सर तथा 1971 के समय के भारत के विदेश सचिव टी.एन.कौल के कागजातों के आधार पर तैयार की गयी गैरी जे.बास की किताब ‘The blood telegram : India’s secret war in east
Pakistan’ का जिक्र करते हैं जिसमें पाकिस्तान के तत्कालीन सैनिक तानाशाह याह्या खान के जघन्य हिंदू-विरोधी दृष्टिकोण और पूर्व पाकिस्तान में पाकिस्तानी सेना द्वारा चलाये गये हिंदुओं के सफाये के अभियान का आख्यान है।
दासगुप्ता का कहना है कि पाकिस्तान का सत्ता प्रतिष्ठान कभी इस मानसिकता से मुक्त नहीं हुआ है। ‘‘अयूब खान का विश्वास था कि एक पाकिस्तानी सैनिक 20 हिंदू सैनिकों के बराबर है।’’ वे हमेशा से हिंदुओं को निम्न और खुद को श्रेष्ठ मानने की ग्रंथी पाले हुए हैं।
ठीक इसके विपरीत, दासगुप्त का ही कहना है, भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान ने बांग्लादेश के मुक्ति संघर्ष को हिंदू-मुस्लिम आधार पर विभाजित न होने देने का भरसक प्रयास किया। आज भी वह नहीं चाहता कि पाकिस्तान को मिले 1971 के जख्मों को कुरेदा जाय।
‘‘इन्दिरा गांधी और पी.एन.हक्सर हमेशा मानते थे कि पाकिस्तान को ढाका-विध्वंस से किंचित आत्म सम्मान के साथ उबरने दिया जाए। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पाकिस्तान के प्रति नजरिये पर भी विभाजन-पूर्व की पुरानी यादें छायी हुई हैं। तब से अब तक भारत ने सभ्यता और बेहतरीन अर्थ-व्यवस्था के लोभ के आधार पर पाकिस्तान से पड़ौसी के संबंध विकसित करने की कोशिश की है।’’
लेकिन, दासगुप्ता की शिकायत है - ‘‘ इतिहास ने हर बार पलट वार किया है। ’’
इसी आधार पर वे मांग करते हैं - ‘‘ पाकिस्तान से संबंध के मामले में भारत प्रतिष्ठानिक स्मृतियों को भुला नहीं सकता है। हम भले बदल गये हो, अधिक सर्वदेशीय
(cosmopolitan) हो गये हो, अधिक वैश्विक और अधिक राष्ट्रोत्तर हो गये हो। फिर भी, रेडक्लिफ रेखा के पार 1971 की मानसिकता कायम है और प्रतिशोध का सपना देख रही है। ’’
आज भारत में चुनाव के माहौल और साथ ही सीमा पर चल रही कुछ झड़पों के समय स्वपन दासगुप्त की भारत के सत्ता प्रतिष्ठानों को यह चेतावनी राजनीतिक लिहाज से बेहद उद्देश्यपूर्ण है।
आरएसएस के बारे में अमेरिकी शोधकर्ता जे.ए.कुर्रान जूनियर ने साठ साल पहले लिखा था कि भारत में आरएसएस का भविष्य बहुत हद तक भारत-पाकिस्तान संबंधों की स्थिति पर निर्भर करता है। ये जितने बिगड़ेंगे, आरएसएस की स्थिति मजबूत होगी और इनमें जितना सुधार होगा, आरएसएस कमजोर होता जायेगा।
यही बात सीमा पार के कट्टरपंथियों और आतंकवादियों पर भी लागू होती है। भारत में हिंदू सांप्रदायिक ताकतों का उभार उनके भी अस्तित्व और विकास से अभिन्न तौर पर जुड़ा हुआ है।
कहना न होगा, ‘दफना दी गयी कहानियों के खतरों’ से स्वपन दासगुप्त का तात्पर्य कुछ भी क्यों न हो, ये वे गड़े मुर्दें हैं, जिनसे हमारे वर्तमान के अस्तित्व को हिला देने वाले जिन्नों के अलावा और कुछ हासिल नहीं हो सकता।
पुन: दोहराना चाहूंगा -
Close the history with respect ।
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