प्रतिवाद की एक सशक्त आवाज : नोम चोमस्की
सूचना के अधिकार के मामले में अमेरिका एक अनोखे रूप में स्वतंत्र देश है जहां राज्य सूचना के अधिकार को दबाने की तरह का कोई काम नहीं करता। यह तो वहां के बुद्धिजीवियों, शिक्षित वर्गों, और स्वतंत्र अखबार का पवित्र कर्तव्य है कि वे इस बात को सुनिश्चित करें कि जनता को उसका सूचना का अधिकार न मिल सके! अफगानिस्तान में वास्तव में क्या हो रहा है, अमेरिका की व्यापक जनता इस बात को नहीं जानती है। जहां के लोग इसके बारे में जानते हैं, वहां भारी जन-प्रतिक्रियाएं हुई है।
यह कथन था विश्व विख्यात भाषाशास्त्री, मैश्चुएट इंस्टीट्यूट आफ टक्नोलॉजी के इंस्टीट्यूट प्रौफेसर, दार्शनिक, समाजशास्त्री, माध्यम आलोचक और राजनीतिक विश्लेषक नोम चोमस्की का। सन् 2001 में वे तीन हफ्तों के लिये भारत यात्रा पर आये थे। इस यात्रा के दौरान तीखे तंज से भरी यह और इसी प्रकार की और कितनी ही, गहन अध्ययन से उपजी बातों से भारत के दिल्ली, चेन्नई, तिरुवनंतपुरम और कोलकाता की तरह के प्रमुख शहरों के बौद्धिक जगत को उन्होंने झकझोर दिया था। तिरुवनंतपुरम में उनके भाषण के दौरान एक श्रोता ने यह सवाल किया था कि 11 सितंबर के दिन आप यदि अमेरिका के राष्ट्रपति होते तो आप क्या करते? चोमस्की का जवाब था- बिल्कुल वही करता जो राष्ट्रपति बुश ने किया। बुश की प्रतिक्रिया एक संस्थान की प्रतिक्रिया है और यदि मैं राष्ट्रपति होता तब भी संस्थान की ओर से ही प्रतिक्रिया कर रहा होता। इसके साथ ही चोमस्की ने यह भी जोड़ा कि जरूरत संस्थान को बदलने की होती है, व्यक्तियों को नहीं।
नोम चोमस्की की पांच साल में यह दूसरी भारत-यात्रा थी। इसके पहले जब 1996 में आये थे, उसी समय उनकी 2001 की यात्रा तय होगयी थी और उन्हें ऐसे कई मुद्दों पर बोलना था जिन पर वे वर्षों से काम कर रहे थे। लेकिन 11 सितंबर की घटना और उसके बाद 7 अक्तूबर से अफगानिस्तान पर अमेरिकी हमले के बाद दुनिया की परिस्थितियों का सारा परिदृश्य इतनी तेजी से बदला कि चोमस्की के भाषणों में वे विषय ही मुख्य रूप से छाये रहे और सभी स्थानों पर चोमस्की को सुनने के लिये इस कदर भीड़ उमड़ी कि कहीं भी उनके कार्यक्रमों के आयोजक इसकी पहले से कल्पना नहीं कर पाये थे।
पिछले तमाम वर्षों में चोमस्की की किताबों, उनके भाषणों और साक्षात्कारों ने उन्हें अमेरिका मेंं प्रतिवाद की एक जबर्दस्त आवाज का ऐसा प्रतीक बना दिया है जिसकी अमेरिका की राज सत्ता के अतिरिक्त कोई भी सहजता से अवहेलना नहीं कर सकता है। खास तौर पर अमेरिका की साम्राज्यवादी नीतियों, उसकी आक्रामक विदेश नीति की उन्होंने जिस प्रकार अकाट्य तकोंर् और आवेग के साथ धज्जियां उड़ायी है, इधर के वर्षों में पूंजीवादी दुनिया में इसकी कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलती। इसीलिये ‘न्यूयार्क टाइम्स’ ने उन्हें ‘सच का भंडाफोड़ करने वाला’ कहा तो ‘बिजनेस वीक’ ने लिखा कि चोमस्की को पढ़ना एक तेज हवा की सुरंग में खड़े रहने के समान है। अपने अथक तर्कों के जरिये चोमस्की हमें यह बताते है कि हमारे नेता जो कहते हैं उन्हें हम बारीकी से परखे और जहां वे छोड़ देते हैं, उसे पहचाने। चोमस्की जो सवाल उठा रहे हैं, अंत में उनका जवाब देना ही होगा। उनसे सहमत हो या न हो, यदि हम उन्हें नहीं सुनते हैं तो हमारा ही नुकसान है। ‘द गार्जीयन’ ने उनके बारे में लिखा कि वे हमारे युग के विद्रोही नायकों में एक है।...एक विशाल बुद्धिजीवी... शक्तिशाली, हमेशा उकसाने वाले।
इन्हीं चोमस्की ने भारत के तमाम शहरों में घूम-घूम कर अफगानिस्तान से जुड़ी घटनाओं का जो गहन विश्लेषण किया और अमेरिकी साम्राज्यवाद की नीतियों के जिस प्रकार परखचे उड़ाये वह अपने आप में एक अनोखा अनुभव था। उन्होंने अफगान युद्ध के समूचे घटना-क्रम को एक नया परिप्रेक्ष्य, नया संदर्भ प्रदान किया। 11 सितंबर और उसके बाद अफगानिस्तान में की गयी बमबाजी के संदर्भ में उन्होंने कहा कि यह बिना युद्ध के इतने अधिक लोगों की मृत्यु की शायद सबसे बड़ी घटना है। अमेरिकी बमबाजी के डर से भाग रहे अफगान निवासियों में सिर्फ ठंड और भूख से इतने लोग मारे जायेंगे जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। चेन्नई में उन्होंने कहा कि 11 सितंबर का अपराध निश्चित तौर पर एक निर्णायक बिंदु है, लेकिन अपने आकार के लिये नहीं बल्कि हमले के लक्ष्य के लिये। उन्होंने कहा कि 1814 के बाद पहली बार अमेरिका की राष्ट्रीय सीमाओं को हमले का निशाना बनाया गया। पहली बार बंदूक का मूंह उल्टी ओर घूमा। यह एक नाटकीय परिवर्तन है।
चोमस्की ने अपनी इन सभी सभाओं में आतंकवाद, अमेरिका द्वारा अंतरीक्ष के सैन्यीकरण और वैश्वीकरण की तरह के तीन अहम सवालों को मुख्य रूप से विचार का मुद्दा बनाया था। अमेरिकी दस्तावेजों को उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा कि उनमें आतंकवाद को किन्हीं राजनीतिक, धार्मिक या विचारधारात्मक लक्ष्यों को हासिल करने के लिये डराने धमकाने या डर बैठाने के लिये हिंसा अथवा हिंसा की धमकी का सुचिंतित प्रयोग बताया गया है। लेकिन अमेरिकी साम्राज्यवादी नीति ने इस शाब्दिक परिभाषा को उस प्रचारमूलक परिभाषा से बदल दिया है जो एक घिसी-पिटी, घटिया परिभाषा है और जिसमें अमेरिका और उसके मित्राें और सहयोगियों का विरोध करने वाले तमाम पक्षों को आतंकवादी करार दिया गया है।
अफगानिस्तान में जो हो रहा था, उसके मानवीय पक्षों की ओर ध्यान खींचते हुए उन्होंने कहा कि युद्ध के पहले ही अफगानिस्तान अन्तररष्ट्रीय खाद्य सहायता पर आश्रित था। युद्ध शुरू होने के बाद यकबयक वहां भूख से पीडि़त लोगों की आबादी 50 लाख से 75 लाख होगयी। बमबाजी शुरू करने के पहले ही खाद्य और कृषि संगठन(एफएओ) ने यह चेतावनी दी थी कि अफगानिस्तान में सैनिक हस्तक्षेप से 70 लाख लोग भूख से मर सकते हैं। बमबाजी शुरू हो जाने के बाद एफएओ की चेतावनी थी कि अन्न की आपूर्ति का 80 प्रतिशत तबाह होजाने से वहां लंबे काल तक के लिये खाद्य सुरक्षा पर भारी खतरा पैदा हो जायेगा। इस पूरे परिप्रेक्ष्य को रखते हुए चोमस्की ने कहा कि इन सबका वास्तविक प्रभाव क्या पड़ेगा, इसे हम कभी नहीं जान पायेंगे क्योंकि भूख आदमी को तत्काल नहीं मारती है, यह धीरे-धीरे मारती है।
इन सबको अच्छी तरह जानने के बावजूद अमेरिका ने बमबाजी का रास्ता अपनाया। चोमस्की ने कहा कि पश्चिम की सरकारों के इस रुख में नया कुछ नहीं है। जो लोग आधुनिक इतिहास के बारे में नहीं जानते, सिर्फ वे ही इस घटना-क्रम से या शिक्षित वर्गों द्वारा दिये जा रहे तर्काेें से आश्चर्यचकित हो सकते हैं।
सारी दुनिया में अमेरिकी सरकार की आतंकवादी कार्रवाइयों का इतिहास पेश करते हुए उन्होंने इतिहासकार चाल्र्स टिल्ली का उल्लेख किया था जिन्होेंने बताया है कि युरोपीय राज्य हमेशा युद्धरत रहे हैं, क्योंकि वे यह समझते हैं कि जोर-जबर्दस्ती से काम होता है। चोमस्की कहते हैं कि आतंकवाद भय का वह परिप्रेक्ष्य तैयार करता है जिसमें शक्तिवान कठोर से कठोर और पतित से पतित काम कर लेता है, जिन्हें सामान्य परिस्थितियों में प्रतिरोध का सामना करना पड़ता। अपने इन्हीं भाषणों में उन्होंने यह भी कहा कि आतंक गरीबों और कमजोरोें का हथियार नहीं है।
नोम चोमस्की को अमेरिका मेें प्रतिवाद की अकेली आवाज के रूप में भी याद किया जाता है। हम यह नहीं कह सकते कि वे अमेरिका में अमेरिकी व्यवस्था के खिलाफ प्रतिवाद और प्रतिरोध की अकेली आवाज है, लेकिन वे सारी दुनिया में अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ प्रतिवाद की एक जबर्दस्त आवाज है, इसमें कोई शक नहीं है। अपने भाषणों के जरिये वे दुनिया भर में साम्राज्यवाद के खिलाफ जिस प्रकार अलख जगाने का काम करते रहे हैं, इसके लिये उनके प्रति जितना आभार व्ययक्त किया जाये, कम है। हम उनकी शतायु की कामना करते हैं।
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