प्रभात पटनायक की पुस्तक ‘The Value of Money’ को केंद्र में रख कर इस लेखक ने एक टिप्पणी लिखी थी - ‘आत्मलीनता के विरुद्ध’। यह ‘जनसत्ता’ में ‘चतुर्दिक’ स्तंभ के अंतर्गत छपी थी। आज उसे यहां अपने ब्लाग पर भी डाल रहा हूं :
आत्मलीनता (आटिज्म) के नाना रूप है। मनोविज्ञान के क्षेत्र में आत्मलीनता एक बड़ी बीमारी है। वास्तविक चिंतन से सर्वथा भिन्न एक ऐसी विचार प्रक्रिया जिसका घटनाओं और वस्तुओं की वास्तविक प्रकृति से कोई संबंध नहीं होता, पूरी तरह से व्यक्ति की अपनी इच्छा-आकांक्षाओं द्वारा नियंत्रित होती है। इसमें कोई तर्क, कोई व्यवहारिक तकाजा नहीं होता। बीमारी होने के नाते ही यह किसी से भी करुणा की अपेक्षा रखती है। मजे की बात यह है कि साहित्य, संस्कृति और विचारधारा के क्षेत्र में, जहां पाठों से पाठों की, शास्त्रों से शास्त्रों की और विचारों से विचारों की श्रंखलाओं को तैयार करने का लंबा सिलसिला चला आरहा है, वहां यही आत्मलीनता पांडित्य, विद्वता और परम निष्ठा की मर्यादा पाती है। लेकिन गहराई से देखे तो साहित्य, संस्कृति और विचारधारा के पूरे क्षेत्र में पसरी हुई यह आत्मलीनता ही सांस्कृतिक जीवन की तमाम प्रकार की अहम्मन्यताओं, जड़ताओं और कट्टरताओं के मूल में होती है और इसीलिये ऐसी आत्मलीनता करुणा की नहीं, समझौताविहीन निर्ममता की अपेक्षा रखती है। प्रश्नविहीन अंधआस्था आत्मलीनता का ही एक बड़ा लक्षण है।
21वीं सदी के प्रारंभ के साथ ही सन् 2000 के जून महीने में फ्रांसीसी विश्वविद्यालयों के अर्थशास्त्र के कुछ छात्रों ने अर्थशास्त्र की चालू शिक्षा पद्धति के खिलाफ सरकार और शिक्षा अधिकारियों के पास एक अर्जी पेश की थी, जिसमें उन्होंने तत्कालीन शिक्षा पद्धति पर यह आरोप लगाया गया था कि यह कत्तई यथार्थपरक नहीं है। गणित के अनियंत्रित प्रयोग के चलते गणितीय आंकड़े ही इसके लक्ष्य बन कर रह गये है, जिसने इसे एक आत्मलीन विज्ञान में तब्दील कर दिया है। यहां पढ़ाये जाने वाला अर्थशास्त्र अपनी काल्पनिक दुनियाओं में खोया हुआ है। विश्वविद्यालयों के अर्थशास्त्र के पाठ्यक्रम पर नवशास्त्रीय सिद्धांतों और उससे पैदा होने वाले दृष्टिकोणों की दमनकारी जकड़बंदी है। अर्थशास्त्र के पठन-पाठन की इस जड़ीभूत पद्धति में आलोचनात्मक और वस्तुनिष्ठ चिंतन के लिये कोई स्थान नहीं है। इसीलिये इन फ्रांसीसी छात्रों की मांग थी कि अर्थशास्त्र ठोस यथार्थ के साथ शुद्ध अनुभववादी ढंग से टकरायें, विज्ञानवाद के बजाय विज्ञान को प्राथमिकता प्रदान करें, आर्थिक विषयों की जटिलता और अधिकांश बड़े आर्थिक सवालों और सिद्धांतों को घेर कर खड़ी अनिश्चयताओं के मद्दे-नजर बहुलतावादी दृष्टिकोण अपनायें। समग्रत:, उनके अध्यापक अर्थशास्त्र के पठन-पाठन को उसकी आत्मलीनता और सामाजिक गैरजिम्मेदारी की दशा से निकालने के लिये जरूरी सुधार करें।
फ्रांस के अर्थशास्त्र के विद्यार्थियों की इस अर्जी को वहां के अनेक नामी-गिरामी और स्थापित अर्थशास्त्रियों और अध्यापकों का समर्थन मिला। इस अर्जी पर सहमति की मोहर लगाने वालों में अन्य उच्च शिक्षा संस्थानों की तुलना में कहीं ज्यादा, बल्कि बेइंतहा अकादमिक प्रतिष्ठा वाले फ्रांस के ‘ग्रोन्द एकोल’ की तरह के मंच भी शामिल थे। वहां के प्रमुख अखबार ‘ल मोंद’ ने कई दिनों तक इस विषय को सुर्खियों पर रखा और देखते ही देखते छात्रों की इस मांग ने पूरे फ्रांस में एक बड़े आंदोलन का रूप ले लिया। तभी से ‘आत्मलीनोत्तर अर्थशास्त्र’ के नाम से एक पत्रिका के जरिये जो अभियान शुरू हुआ वह वहां आज भी समान रूप से जारी है और अर्थशास्त्र के क्षेत्र में हर नये-पुराने सिद्धांत को यथार्थ की ठोस जमीन से विश्लेषित करके उसकी सत्यता को परखने की एक सृदृढ़ परंपरा बना रहा है।
आत्मलीनता और आत्मलीनोत्तर अर्थशास्त्र की ये तमाम बातें हमारे दिमाग में हमारे विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभागों की आम दुर्दशा के खयाल से पैदा नहीं हुई है। इन विभागों की सचाई लंबे काल से इतनी प्रकट है कि अब उनसे किसी नयी बात के उद्रेक की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। दरअसल, हमारे दिमाग में यह समूची बहस तब कौंधी जब मात्र साल भर पहले प्रकाशित प्रभात पटनायक की किताब ‘वैल्यू आफ मनी’ (द्रव्य का मूल्य) को अभी पढ़ना शुरू किया। यह पुस्तक प्रभात पटनायक के उन चंद लेखों का संकलन है जिन्हें उन्होंने 1995 में लिखना शुरू किया था और तभी अर्थशास्त्र के अकादमिक क्षेत्र में ये लेख काफी लोकप्रिय हो गये थे। इनकी लोकप्रियता को देख कर प्रभात ने इस विषय पर अलग से एक पूरी किताब ही लिखने की योजना बनायी थी, लेकिन अंतत: सभी लेखों को जोड़ने वाली पृष्ठभूमि को एक भूमिका में लिख कर ही काम चला लेना उनके लिये संभव हुआ।
सभी जानते हैं कि प्रभात एक अन्तरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त मार्क्सवादी बुद्धिजीवी, अर्थशास्त्री और अध्यापक है। द्रव्य पूंजी, द्रव्य का मूल्य और समग्र सामाजिक ताने-बाने में द्रव्य की भूमिका के बारे में मार्क्स ने ‘पूंजी’ के तीसरे खंड में कुछ विस्तार से विवेचन किया है। एक ऐसे शास्त्रीय किस्म के विषय पर प्रभात पटनायक की तरह के प्रतिबद्ध मार्क्सवादी अर्थशास्त्री ने नया क्या लिखा होगा, इसे किस हद तक आज के समय के पूंजीवाद के विश्लेषण से जोड़ा होगा, यही जानने के लिये बड़े आग्रह के साथ हमने इस किताब को शुरू किया था। और, यह देख कर सचमुच एक सुखद आश्चर्य हुआ कि प्रभात द्रव्य पूंजी से जुड़े इस शास्त्रीय विषय पर मार्क्स की कही बातों की पुनरावृत्ति के लिये नहीं, बल्कि कई नये सवालों और प्रेरणाओं के साथ प्रवृत्त हुए हैं और इस उपक्रम में उन्होंने पूंजीवादी व्यवस्था के समग्र ढांचे के बारे में कुछ नयी उद्भावनाओं को भी पेश करने की कोशिश की है। अपनी इस पुस्तक में उन्होंने आह्वान किया है कि लंबे समय से चल रहे धीमे विकास, प्रमुख पूंजीवादी ताकतों पर लगातार बढ़ता हुआ कर्ज का बोझ, तेल-डालर मानक तथा अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा व्यवस्था पर मंडराते हुए अनिश्चय के बादल और इसके साथ ही तीसरी दुनिया के बाजारों के खुलने, वैश्विक वित्त के अबाध प्रवाह, बहुराष्ट्रीय निगमों की निर्बंध क्रियाशीलता तथा तेल संपदा वाले देशों पर राजनीतिक अधिकार की कोशिशों, और साम्राज्यवादी लोलुपता से उत्पन्न तथा उसीकों को वैद्यता प्रदान करने वाले विनाशकारी आतंकवाद के इस जटिल मुकाम की गुत्थी को सुलझाने के लिये जरूरी है कि हमे अपनी आंखों पर पड़ी ‘मुख्यधारा’ के अर्थशास्त्र के अंधेरे की पट्टी से खुद को मुक्त करना होगा।
प्रभात शुरू करते हैं इस सवाल से कि आखिर वह कौन सा सामाजिक ताना-बाना है जिसकी बदौलत रुपया कहलाने वाला कागज का टुकड़ा एक मूल्य ग्रहण करके उपयोगी सामग्रियों के विनिमय का माध्यम बन जाता है। जाहिर है कि यह ताना-बाना पूंजीवादी व्यवस्था का ताना-बाना है। और इसीलिये प्रभात का मानना है कि ‘पूंजी’ के बजाय यदि हम द्रव्य के अध्ययन से इस व्यवस्था की पड़ताल शुरू करें तो इससे पूंजीवाद के जिस महत्वपूर्ण पहलू को और ज्यादा मूर्त और स्पष्ट किया जा सकेगा वह यह कि पूंजीवाद कभी भी एक बंद और आत्म-केंद्रित प्रणाली के तौर पर अलग-थलग रूप में अस्तित्व में न रहा है और न रह सकता है, जैसा कि आम तौर पर आर्थिक विश्लेषणों की सुविधा के लिये मान लिया जाता है।
इस सवाल पर कि कौन सी चीज द्रव्य का, वह भले कागज का हो या धातु का, मूल्य निर्धारित करती है, प्रभात बताते हैं कि अर्थशास्त्र के पास इसके दो प्रकार के बुनियादी जवाब हैं। एक द्रव्यवादी और दूसरा संपत्तिवादी। प्रभात मुख्यधारा के अर्थशास्त्र को द्रव्यवादी धारा की श्रेणी में रखते हैं और यह मानते हैं कि वह किसी भी चीज के मूल्य के कारक संबंधी विवेचन में बाजार के माध्यम से मांग और आपूर्ति के संतुलन की अपनी जिस अवधारणा से प्रतिबद्ध है, वह अवधारणा अन्य मामलों की तरह ही द्रव्य के मूल्य के मामले में भी तर्क की कसौटी पर जरा भी खरी नहीं उतरती है। यह कुछ ऐसी खयाली अवधारणा है जिसमें कंपनियां ज्यादा से ज्यादा मुनाफा करती चली जाती है और व्यक्ति अधिक से अधिक सुविधाएं पाता रहता है। मुख्यधारा की ‘संतुलन’ की अवधारणा तार्किक रूप में सिर्फ उस संसार में टिक सकती है जहां द्रव्य नाम की कोई चीज न हो। ऐसा द्रव्यविहीन समाज पूंजीवाद नहीं हो सकता। इसीलिये पूंजीवाद के संदर्भ में मुख्यधारा के अर्थशास्त्र के द्रव्य संबंधी विवेचन का कोई औचित्य नहीं रह जाता। अंतत: वह द्रव्य को मुख्यत: ‘परिचलन का माध्यम’ भर मानने की जिद पर अड़ा दिखाई देता है। जबकि सचाई यह है कि द्रव्य तभी ‘परिचलन के माध्यम’ की भूमिका अदा कर सकता है जब वह खुद संपत्ति का भी एक रूप होता है।
द्रव्य के मूल्य के बारे में ‘द्रव्यवादी’ सोच से भिन्न प्रभात मार्क्स को ‘संपत्तिवादी’ धारा का एक प्रमुख प्रतिनिधि मानते हुए कहते हैं कि मार्क्स ने द्रव्य के संपत्ति को धारण करने के गुण को पहचाना था, इसीलिये पूंजीवादी समाज में अति-उत्पादन की संभावना की व्याख्या भी कर पाये थे। प्रभात के अनुसार मार्क्स के अनुयायियों ने उनके इस बुनियादी योगदान पर अधिक ध्यान नहीं दिया, वे अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत वाली खोज पर ही बल देते रहे। यह काम मार्क्स के बाद, लगभग 75 वर्ष गुजर जाने के उपरांत कालेस्की और केन्स के माध्यम से संपन्न हुआ। प्रभात कहते हैं कि मार्क्स ने द्रव्य के मूल्य के निर्धारण में ‘मूल्य के श्रम सिद्धांत’ का प्रयोग किया। केन्स का मानना था कि तमाम जिंसों के बरक्स द्रव्य का मूल्य एक जिंस, श्रम शक्ति के बरक्स तय किये गये द्रव्य के मूल्य से निर्धारित होता है।
प्रभात द्रव्यवादियों की तुलना में संपत्तिवादियों की परंपरा को कहीं ज्यादा यथार्थपरक और तर्क के लिहाज से पुष्ट मानते हैं तथापि संपत्तिवादी नजरिये में भी अधूरापन देखने से नहीं चूकते।
इसी बिंदु पर जरा थम कर, हम यह कहना चाहेंगे कि प्रभात पटनायक ‘मूल्य के श्रम सिद्धांत’ की जिस बात को मार्क्स के मत्थे मढ़ कर उनके ‘संपत्तिवादी’ नजरिये के अधूरेपन की बात करते हैं, दरअसल, वह नजरिया मार्क्स का नहीं, उस क्लासिकल अर्थशास्त्र का है जिसकी आलोचना के आधार पर ही मार्क्स के आर्थिक सिद्धांतों का पूरा महल खड़ा है।
श्रम ही सारी संपदा का श्रोत है, क्लासिकल अर्थशास्त्र की इस बात का खंडन करते हुए जोरदार शब्दों में मार्क्स ने कहा था कि "सारी संपदा का स्रोत श्रम ही नहीं है। प्रकृति को भी उपयोग मूल्यों का (भौतिक संपदा में और है भी क्या!) श्रम जितना ही स्रोत कहा जा सकता है।...और क्योंकि आदमी आरंभ से ही प्रकृति के प्रति, जो श्रम की सभी वस्तुओं और साधनों का आदिस्रोत है, स्वामी जैसा रवैया रखता है, उसके साथ अपनी संपत्ति जैसा व्यवहार करता है, इसलिये उसका श्रम उपयोग मूल्यों का, और इस कारण संपदा का भी स्रोत बन जाता है। पूंजीपति अगर झूठे ही श्रम पर अलौकिक सृजन शक्ति का आरोप करते है तो वे ऐसा सकारण करते है, क्योंकि ठीक इसी बात से कि श्रम प्रकृति पर निर्भर करता है, यह बात पैदा होती है कि जिस मनुष्य के पास अपनी श्रम-शक्ति के अलावा और कोई संपत्ति नहीं है, उसे समाज और संस्कृति की सभी अवस्थाओं में दूसरे मनुष्यों का दास होना पड़ेगा, जिन्होंने अपने को श्रम की भौतिक परिस्थितियों का मालिक बना लिया है। वह केवल उनकी आज्ञा से ही काम कर सकता है, इसलिये जी भी वह उनकी आज्ञा से ही सकता है।"
फ्रेडरिक एंगेल्स ने अपने लेख ‘वानर से नर बनने की प्रक्रिया में श्रम की भूमिका’ का प्रारंभ इन पंक्तियों से किया है: अर्थशास्त्रियों का दावा है कि श्रम समस्त सम्पदा का स्रोत है। वास्तव में वह स्रोत ही है, लेकिन प्रकृति के बाद।
कहना न होगा कि मार्क्स ‘श्रम पूजा’ की किसी एकांगी दृष्टि के आधे-अधूरेपन से मुक्त थे और तभी पूंजीवाद की एक समग्र आलोचना का मुकम्मल दृष्टिकोण विकसित कर पाये थे।
प्रभात ने पूंजीवाद को मांग-संकुचन वाली जो व्यवस्था कहा है, वह अति-उत्पादन की महामारी से एकबारगी बर्बरता के युग में पहुंचा दिये गये समाज के बारे में मार्क्स के विश्लेषण से अलग नहीं है। कम्युनिस्ट घोषणापत्र कहता है कि पूंजीवाद अपने इन संकटों से उबरने के लिये उत्पादक शक्तियों के एक बड़े भाग को जबर्दस्ती नष्ट करता है और नये-नये बाजारों को अपने में समाविष्ट करता है। पूंजीवाद को जीवित रखने की ये चतुर्दिक कोशिशें ही इस बात को भी साबित करती है कि पूंजीवाद कभी किसी ‘बंद, आत्मकेंद्रित प्रणाली के रूप में न कभी अस्तित्व में रहा है और न रह सकेगा’।
फ़ोटो: प्रभात पटनायक की पुस्तक ‘The Value of Money’ को केंद्र में रख कर इस लेखक ने एक टिप्पणी लिखी थी - ‘आत्मलीनता के विरुद्ध’। यह ‘जनसत्ता’ में ‘चतुर्दिक’ स्तंभ के अंतर्गत छपी थी। आज उसे यहां फेसबुक के मित्रों से साझा कर रहा हूं और साथ ही अपने ब्लाग पर भी डाल रहा हूं :
आत्मलीनता के खिलाफ
आत्मलीनता (आटिज्म) के नाना रूप है। मनोविज्ञान के क्षेत्र में आत्मलीनता एक बड़ी बीमारी है। वास्तविक चिंतन से सर्वथा भिन्न एक ऐसी विचार प्रक्रिया जिसका घटनाओं और वस्तुओं की वास्तविक प्रकृति से कोई संबंध नहीं होता, पूरी तरह से व्यक्ति की अपनी इच्छा-आकांक्षाओं द्वारा नियंत्रित होती है। इसमें कोई तर्क, कोई व्यवहारिक तकाजा नहीं होता। बीमारी होने के नाते ही यह किसी से भी करुणा की अपेक्षा रखती है। मजे की बात यह है कि साहित्य, संस्कृति और विचारधारा के क्षेत्र में, जहां पाठों से पाठों की, शास्त्रों से शास्त्रों की और विचारों से विचारों की श्रंखलाओं को तैयार करने का लंबा सिलसिला चला आरहा है, वहां यही आत्मलीनता पांडित्य, विद्वता और परम निष्ठा की मर्यादा पाती है। लेकिन गहराई से देखे तो साहित्य, संस्कृति और विचारधारा के पूरे क्षेत्र में पसरी हुई यह आत्मलीनता ही सांस्कृतिक जीवन की तमाम प्रकार की अहम्मन्यताओं, जड़ताओं और कट्टरताओं के मूल में होती है और इसीलिये ऐसी आत्मलीनता करुणा की नहीं, समझौताविहीन निर्ममता की अपेक्षा रखती है। प्रश्नविहीन अंधआस्था आत्मलीनता का ही एक बड़ा लक्षण है।
21वीं सदी के प्रारंभ के साथ ही सन् 2000 के जून महीने में फ्रांसीसी विश्वविद्यालयों के अर्थशास्त्र के कुछ छात्रों ने अर्थशास्त्र की चालू शिक्षा पद्धति के खिलाफ सरकार और शिक्षा अधिकारियों के पास एक अर्जी पेश की थी, जिसमें उन्होंने तत्कालीन शिक्षा पद्धति पर यह आरोप लगाया गया था कि यह कत्तई यथार्थपरक नहीं है। गणित के अनियंत्रित प्रयोग के चलते गणितीय आंकड़े ही इसके लक्ष्य बन कर रह गये है, जिसने इसे एक आत्मलीन विज्ञान में तब्दील कर दिया है। यहां पढ़ाये जाने वाला अर्थशास्त्र अपनी काल्पनिक दुनियाओं में खोया हुआ है। विश्वविद्यालयों के अर्थशास्त्र के पाठ्यक्रम पर नवशास्त्रीय सिद्धांतों और उससे पैदा होने वाले दृष्टिकोणों की दमनकारी जकड़बंदी है। अर्थशास्त्र के पठन-पाठन की इस जड़ीभूत पद्धति में आलोचनात्मक और वस्तुनिष्ठ चिंतन के लिये कोई स्थान नहीं है। इसीलिये इन फ्रांसीसी छात्रों की मांग थी कि अर्थशास्त्र ठोस यथार्थ के साथ शुद्ध अनुभववादी ढंग से टकरायें, विज्ञानवाद के बजाय विज्ञान को प्राथमिकता प्रदान करें, आर्थिक विषयों की जटिलता और अधिकांश बड़े आर्थिक सवालों और सिद्धांतों को घेर कर खड़ी अनिश्चयताओं के मद्दे-नजर बहुलतावादी दृष्टिकोण अपनायें। समग्रत:, उनके अध्यापक अर्थशास्त्र के पठन-पाठन को उसकी आत्मलीनता और सामाजिक गैरजिम्मेदारी की दशा से निकालने के लिये जरूरी सुधार करें।
फ्रांस के अर्थशास्त्र के विद्यार्थियों की इस अर्जी को वहां के अनेक नामी-गिरामी और स्थापित अर्थशास्त्रियों और अध्यापकों का समर्थन मिला। इस अर्जी पर सहमति की मोहर लगाने वालों में अन्य उच्च शिक्षा संस्थानों की तुलना में कहीं ज्यादा, बल्कि बेइंतहा अकादमिक प्रतिष्ठा वाले फ्रांस के ‘ग्रोन्द एकोल’ की तरह के मंच भी शामिल थे। वहां के प्रमुख अखबार ‘ल मोंद’ ने कई दिनों तक इस विषय को सुर्खियों पर रखा और देखते ही देखते छात्रों की इस मांग ने पूरे फ्रांस में एक बड़े आंदोलन का रूप ले लिया। तभी से ‘आत्मलीनोत्तर अर्थशास्त्र’ के नाम से एक पत्रिका के जरिये जो अभियान शुरू हुआ वह वहां आज भी समान रूप से जारी है और अर्थशास्त्र के क्षेत्र में हर नये-पुराने सिद्धांत को यथार्थ की ठोस जमीन से विश्लेषित करके उसकी सत्यता को परखने की एक सृदृढ़ परंपरा बना रहा है।
आत्मलीनता और आत्मलीनोत्तर अर्थशास्त्र की ये तमाम बातें हमारे दिमाग में हमारे विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभागों की आम दुर्दशा के खयाल से पैदा नहीं हुई है। इन विभागों की सचाई लंबे काल से इतनी प्रकट है कि अब उनसे किसी नयी बात के उद्रेक की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। दरअसल, हमारे दिमाग में यह समूची बहस तब कौंधी जब मात्र साल भर पहले प्रकाशित प्रभात पटनायक की किताब ‘वैल्यू आफ मनी’ (द्रव्य का मूल्य) को अभी पढ़ना शुरू किया। यह पुस्तक प्रभात पटनायक के उन चंद लेखों का संकलन है जिन्हें उन्होंने 1995 में लिखना शुरू किया था और तभी अर्थशास्त्र के अकादमिक क्षेत्र में ये लेख काफी लोकप्रिय हो गये थे। इनकी लोकप्रियता को देख कर प्रभात ने इस विषय पर अलग से एक पूरी किताब ही लिखने की योजना बनायी थी, लेकिन अंतत: सभी लेखों को जोड़ने वाली पृष्ठभूमि को एक भूमिका में लिख कर ही काम चला लेना उनके लिये संभव हुआ।
सभी जानते हैं कि प्रभात एक अन्तरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त मार्क्सवादी बुद्धिजीवी, अर्थशास्त्री और अध्यापक है। द्रव्य पूंजी, द्रव्य का मूल्य और समग्र सामाजिक ताने-बाने में द्रव्य की भूमिका के बारे में मार्क्स ने ‘पूंजी’ के तीसरे खंड में कुछ विस्तार से विवेचन किया है। एक ऐसे शास्त्रीय किस्म के विषय पर प्रभात पटनायक की तरह के प्रतिबद्ध मार्क्सवादी अर्थशास्त्री ने नया क्या लिखा होगा, इसे किस हद तक आज के समय के पूंजीवाद के विश्लेषण से जोड़ा होगा, यही जानने के लिये बड़े आग्रह के साथ हमने इस किताब को शुरू किया था। और, यह देख कर सचमुच एक सुखद आश्चर्य हुआ कि प्रभात द्रव्य पूंजी से जुड़े इस शास्त्रीय विषय पर मार्क्स की कही बातों की पुनरावृत्ति के लिये नहीं, बल्कि कई नये सवालों और प्रेरणाओं के साथ प्रवृत्त हुए हैं और इस उपक्रम में उन्होंने पूंजीवादी व्यवस्था के समग्र ढांचे के बारे में कुछ नयी उद्भावनाओं को भी पेश करने की कोशिश की है। अपनी इस पुस्तक में उन्होंने आह्वान किया है कि लंबे समय से चल रहे धीमे विकास, प्रमुख पूंजीवादी ताकतों पर लगातार बढ़ता हुआ कर्ज का बोझ, तेल-डालर मानक तथा अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा व्यवस्था पर मंडराते हुए अनिश्चय के बादल और इसके साथ ही तीसरी दुनिया के बाजारों के खुलने, वैश्विक वित्त के अबाध प्रवाह, बहुराष्ट्रीय निगमों की निर्बंध क्रियाशीलता तथा तेल संपदा वाले देशों पर राजनीतिक अधिकार की कोशिशों, और साम्राज्यवादी लोलुपता से उत्पन्न तथा उसीकों को वैद्यता प्रदान करने वाले विनाशकारी आतंकवाद के इस जटिल मुकाम की गुत्थी को सुलझाने के लिये जरूरी है कि हमे अपनी आंखों पर पड़ी ‘मुख्यधारा’ के अर्थशास्त्र के अंधेरे की पट्टी से खुद को मुक्त करना होगा।
प्रभात शुरू करते हैं इस सवाल से कि आखिर वह कौन सा सामाजिक ताना-बाना है जिसकी बदौलत रुपया कहलाने वाला कागज का टुकड़ा एक मूल्य ग्रहण करके उपयोगी सामग्रियों के विनिमय का माध्यम बन जाता है। जाहिर है कि यह ताना-बाना पूंजीवादी व्यवस्था का ताना-बाना है। और इसीलिये प्रभात का मानना है कि ‘पूंजी’ के बजाय यदि हम द्रव्य के अध्ययन से इस व्यवस्था की पड़ताल शुरू करें तो इससे पूंजीवाद के जिस महत्वपूर्ण पहलू को और ज्यादा मूर्त और स्पष्ट किया जा सकेगा वह यह कि पूंजीवाद कभी भी एक बंद और आत्म-केंद्रित प्रणाली के तौर पर अलग-थलग रूप में अस्तित्व में न रहा है और न रह सकता है, जैसा कि आम तौर पर आर्थिक विश्लेषणों की सुविधा के लिये मान लिया जाता है।
इस सवाल पर कि कौन सी चीज द्रव्य का, वह भले कागज का हो या धातु का, मूल्य निर्धारित करती है, प्रभात बताते हैं कि अर्थशास्त्र के पास इसके दो प्रकार के बुनियादी जवाब हैं। एक द्रव्यवादी और दूसरा संपत्तिवादी। प्रभात मुख्यधारा के अर्थशास्त्र को द्रव्यवादी धारा की श्रेणी में रखते हैं और यह मानते हैं कि वह किसी भी चीज के मूल्य के कारक संबंधी विवेचन में बाजार के माध्यम से मांग और आपूर्ति के संतुलन की अपनी जिस अवधारणा से प्रतिबद्ध है, वह अवधारणा अन्य मामलों की तरह ही द्रव्य के मूल्य के मामले में भी तर्क की कसौटी पर जरा भी खरी नहीं उतरती है। यह कुछ ऐसी खयाली अवधारणा है जिसमें कंपनियां ज्यादा से ज्यादा मुनाफा करती चली जाती है और व्यक्ति अधिक से अधिक सुविधाएं पाता रहता है। मुख्यधारा की ‘संतुलन’ की अवधारणा तार्किक रूप में सिर्फ उस संसार में टिक सकती है जहां द्रव्य नाम की कोई चीज न हो। ऐसा द्रव्यविहीन समाज पूंजीवाद नहीं हो सकता। इसीलिये पूंजीवाद के संदर्भ में मुख्यधारा के अर्थशास्त्र के द्रव्य संबंधी विवेचन का कोई औचित्य नहीं रह जाता। अंतत: वह द्रव्य को मुख्यत: ‘परिचलन का माध्यम’ भर मानने की जिद पर अड़ा दिखाई देता है। जबकि सचाई यह है कि द्रव्य तभी ‘परिचलन के माध्यम’ की भूमिका अदा कर सकता है जब वह खुद संपत्ति का भी एक रूप होता है।
द्रव्य के मूल्य के बारे में ‘द्रव्यवादी’ सोच से भिन्न प्रभात मार्क्स को ‘संपत्तिवादी’ धारा का एक प्रमुख प्रतिनिधि मानते हुए कहते हैं कि मार्क्स ने द्रव्य के संपत्ति को धारण करने के गुण को पहचाना था, इसीलिये पूंजीवादी समाज में अति-उत्पादन की संभावना की व्याख्या भी कर पाये थे। प्रभात के अनुसार मार्क्स के अनुयायियों ने उनके इस बुनियादी योगदान पर अधिक ध्यान नहीं दिया, वे अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत वाली खोज पर ही बल देते रहे। यह काम मार्क्स के बाद, लगभग 75 वर्ष गुजर जाने के उपरांत कालेस्की और केन्स के माध्यम से संपन्न हुआ। प्रभात कहते हैं कि मार्क्स ने द्रव्य के मूल्य के निर्धारण में ‘मूल्य के श्रम सिद्धांत’ का प्रयोग किया। केन्स का मानना था कि तमाम जिंसों के बरक्स द्रव्य का मूल्य एक जिंस, श्रम शक्ति के बरक्स तय किये गये द्रव्य के मूल्य से निर्धारित होता है।
प्रभात द्रव्यवादियों की तुलना में संपत्तिवादियों की परंपरा को कहीं ज्यादा यथार्थपरक और तर्क के लिहाज से पुष्ट मानते हैं तथापि संपत्तिवादी नजरिये में भी अधूरापन देखने से नहीं चूकते।
इसी बिंदु पर जरा थम कर, हम यह कहना चाहेंगे कि प्रभात पटनायक ‘मूल्य के श्रम सिद्धांत’ की जिस बात को मार्क्स के मत्थे मढ़ कर उनके ‘संपत्तिवादी’ नजरिये के अधूरेपन की बात करते हैं, दरअसल, वह नजरिया मार्क्स का नहीं, उस क्लासिकल अर्थशास्त्र का है जिसकी आलोचना के आधार पर ही मार्क्स के आर्थिक सिद्धांतों का पूरा महल खड़ा है।
श्रम ही सारी संपदा का श्रोत है, क्लासिकल अर्थशास्त्र की इस बात का खंडन करते हुए जोरदार शब्दों में मार्क्स ने कहा था कि "सारी संपदा का स्रोत श्रम ही नहीं है। प्रकृति को भी उपयोग मूल्यों का (भौतिक संपदा में और है भी क्या!) श्रम जितना ही स्रोत कहा जा सकता है।...और क्योंकि आदमी आरंभ से ही प्रकृति के प्रति, जो श्रम की सभी वस्तुओं और साधनों का आदिस्रोत है, स्वामी जैसा रवैया रखता है, उसके साथ अपनी संपत्ति जैसा व्यवहार करता है, इसलिये उसका श्रम उपयोग मूल्यों का, और इस कारण संपदा का भी स्रोत बन जाता है। पूंजीपति अगर झूठे ही श्रम पर अलौकिक सृजन शक्ति का आरोप करते है तो वे ऐसा सकारण करते है, क्योंकि ठीक इसी बात से कि श्रम प्रकृति पर निर्भर करता है, यह बात पैदा होती है कि जिस मनुष्य के पास अपनी श्रम-शक्ति के अलावा और कोई संपत्ति नहीं है, उसे समाज और संस्कृति की सभी अवस्थाओं में दूसरे मनुष्यों का दास होना पड़ेगा, जिन्होंने अपने को श्रम की भौतिक परिस्थितियों का मालिक बना लिया है। वह केवल उनकी आज्ञा से ही काम कर सकता है, इसलिये जी भी वह उनकी आज्ञा से ही सकता है।"
फ्रेडरिक एंगेल्स ने अपने लेख ‘वानर से नर बनने की प्रक्रिया में श्रम की भूमिका’ का प्रारंभ इन पंक्तियों से किया है: अर्थशास्त्रियों का दावा है कि श्रम समस्त सम्पदा का स्रोत है। वास्तव में वह स्रोत ही है, लेकिन प्रकृति के बाद।
कहना न होगा कि मार्क्स ‘श्रम पूजा’ की किसी एकांगी दृष्टि के आधे-अधूरेपन से मुक्त थे और तभी पूंजीवाद की एक समग्र आलोचना का मुकम्मल दृष्टिकोण विकसित कर पाये थे।
प्रभात ने पूंजीवाद को मांग-संकुचन वाली जो व्यवस्था कहा है, वह अति-उत्पादन की महामारी से एकबारगी बर्बरता के युग में पहुंचा दिये गये समाज के बारे में मार्क्स के विश्लेषण से अलग नहीं है। कम्युनिस्ट घोषणापत्र कहता है कि पूंजीवाद अपने इन संकटों से उबरने के लिये उत्पादक शक्तियों के एक बड़े भाग को जबर्दस्ती नष्ट करता है और नये-नये बाजारों को अपने में समाविष्ट करता है। पूंजीवाद को जीवित रखने की ये चतुर्दिक कोशिशें ही इस बात को भी साबित करती है कि पूंजीवाद कभी किसी ‘बंद, आत्मकेंद्रित प्रणाली के रूप में न कभी अस्तित्व में रहा है और न रह सकेगा’।
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