1998 में पहली राजग सरकार बनी। भाजपा को 182 सीटें मिली थी। फिर 1999 के आम चुनाव में दुबारा राजग सरकार बनी और भाजपा को फिर 182 सीटें मिली। 1999 मो बनी सरकार पूरे पांच साल चली।
इसी दौरान सन् 2002 में गुजरात का जन-संहार हुआ।
सन् 2004 का चुनाव राजग ने अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में ही ‘इंडिया शाइनिंग’ के नारे के साथ लड़ा। लेकिन 2002 के ताजा जख्मों को भुलाना नामुमकिन था। यूपीए की सरकार बनी। भाजपा की सीटें घट कर 138 होगयी।
सन् 2009 में, 16वीं लोकसभा के चुनाव राजग ने लाल कृष्ण आडवाणी को सामने रख कर लड़ा।
आडवाणीजी की कट्टरवादी छवि ने 2002 की दर्दनाक यादों को और फिर उभार दिया। यूपीए फिर विजयी हुआ। और, भाजपा की सीटें घट कर सिर्फ 116 होगयी।
2009 के चुनाव में एक ओर जहां वामपंथ की ताकत अभूतपूर्व रूप से कम हुई, वही भाजपा की करारी हार ने यह भी जाहिर किया कि अब भारत में सांप्रदायिक उत्तेजना के बल पर चुनाव लड़ने के दिन लद चुके हैं।
अब, इस 2014 के चुनाव में, एक ओर कांग्रेस जहां सबसे तेज दर से भारत के विकास के दावे के साथ चुनाव में उतरी है, वहीं भाजपा भी अच्छे प्रशासन और विकास के प्रश्न को अपना चुनावी मुद्दा बनाना चाहती है। लेकिन ‘अच्छे प्रशासन’ और ‘विकास’ के मॉडल के रूप में उसने नरेन्द्र मोदी और कथित ‘गुजरात मॉडल’ को पेश किया है।
इसी का फल है कि 2004 और 2009 की श्रंखला में ही घूम-फिर कर फिर एक बार ‘गुजरात और सन् 2002’ चुनाव में प्रमुख मुद्दें हो गये हैं।
जिस ‘गुजरात और 2002’ के असर के कारण उदार अटलजी और कट्टरपंथी आडवाणीजी, दोनों पराजित हुए, उसी ‘गुजरात और 2002’ का इसप्रकार अनायास या सायास बार-बार लौट कर आना, भाजपा के चुनावी गान में हमेशा किसी स्थायी भाव की तरह बने रहना, इसकी पीठ पर सवार आरएसएस के सबसे बड़े बोझ का परिणाम है।
अटलजी की पराजय के बाद 2009 के चुनाव में इससे मुक्ति संभव थी तो उसे आडवाणीजी के ‘लौह पुरुष’ ने जिंदा रखा। अब यही काम मोदी जी की ‘चौड़ी छाती’ कर रही है।
इसीलिये, इस चुनाव में भाजपा की पराजय सुनिश्चित है। बदलाव सिर्फ यह आयेगा कि कांग्रेस भी हारेगी। 2004 के बाद का स्थायी (constant) तत्व है भाजपा की पराजय और बदलने वाला तत्व (variable) है कांग्रेस की भी पराजय।
दिल्ली में जो हुआ, अब पूरे देश में होगा। ‘आम आदमी पार्टी’ पर पूरा मीडिया जिसप्रकार शिकारी कुत्तों की तरह टूट पड़ा है, वह भी इस सच का संकेत है। ‘आप’ के अलावा क्षेत्रीय दल और वामपंथी भी पहले की तुलना में ज्यादा सफलता पायेंगे।
भारत की नयी सरकार ‘आप’, ‘वाम’ और कथित तीसरे मोर्चे की दूसरी पार्टियों के सहयोग से बनेगी। हमें तो यही लग रहा है।
इसी दौरान सन् 2002 में गुजरात का जन-संहार हुआ।
सन् 2004 का चुनाव राजग ने अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में ही ‘इंडिया शाइनिंग’ के नारे के साथ लड़ा। लेकिन 2002 के ताजा जख्मों को भुलाना नामुमकिन था। यूपीए की सरकार बनी। भाजपा की सीटें घट कर 138 होगयी।
सन् 2009 में, 16वीं लोकसभा के चुनाव राजग ने लाल कृष्ण आडवाणी को सामने रख कर लड़ा।
आडवाणीजी की कट्टरवादी छवि ने 2002 की दर्दनाक यादों को और फिर उभार दिया। यूपीए फिर विजयी हुआ। और, भाजपा की सीटें घट कर सिर्फ 116 होगयी।
2009 के चुनाव में एक ओर जहां वामपंथ की ताकत अभूतपूर्व रूप से कम हुई, वही भाजपा की करारी हार ने यह भी जाहिर किया कि अब भारत में सांप्रदायिक उत्तेजना के बल पर चुनाव लड़ने के दिन लद चुके हैं।
अब, इस 2014 के चुनाव में, एक ओर कांग्रेस जहां सबसे तेज दर से भारत के विकास के दावे के साथ चुनाव में उतरी है, वहीं भाजपा भी अच्छे प्रशासन और विकास के प्रश्न को अपना चुनावी मुद्दा बनाना चाहती है। लेकिन ‘अच्छे प्रशासन’ और ‘विकास’ के मॉडल के रूप में उसने नरेन्द्र मोदी और कथित ‘गुजरात मॉडल’ को पेश किया है।
इसी का फल है कि 2004 और 2009 की श्रंखला में ही घूम-फिर कर फिर एक बार ‘गुजरात और सन् 2002’ चुनाव में प्रमुख मुद्दें हो गये हैं।
जिस ‘गुजरात और 2002’ के असर के कारण उदार अटलजी और कट्टरपंथी आडवाणीजी, दोनों पराजित हुए, उसी ‘गुजरात और 2002’ का इसप्रकार अनायास या सायास बार-बार लौट कर आना, भाजपा के चुनावी गान में हमेशा किसी स्थायी भाव की तरह बने रहना, इसकी पीठ पर सवार आरएसएस के सबसे बड़े बोझ का परिणाम है।
अटलजी की पराजय के बाद 2009 के चुनाव में इससे मुक्ति संभव थी तो उसे आडवाणीजी के ‘लौह पुरुष’ ने जिंदा रखा। अब यही काम मोदी जी की ‘चौड़ी छाती’ कर रही है।
इसीलिये, इस चुनाव में भाजपा की पराजय सुनिश्चित है। बदलाव सिर्फ यह आयेगा कि कांग्रेस भी हारेगी। 2004 के बाद का स्थायी (constant) तत्व है भाजपा की पराजय और बदलने वाला तत्व (variable) है कांग्रेस की भी पराजय।
दिल्ली में जो हुआ, अब पूरे देश में होगा। ‘आम आदमी पार्टी’ पर पूरा मीडिया जिसप्रकार शिकारी कुत्तों की तरह टूट पड़ा है, वह भी इस सच का संकेत है। ‘आप’ के अलावा क्षेत्रीय दल और वामपंथी भी पहले की तुलना में ज्यादा सफलता पायेंगे।
भारत की नयी सरकार ‘आप’, ‘वाम’ और कथित तीसरे मोर्चे की दूसरी पार्टियों के सहयोग से बनेगी। हमें तो यही लग रहा है।
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