(16 नवंबर की पोस्ट)
साहित्य अकादमी के लिये विज्जी (विजयदान देथा) के बारे में उदयप्रकाश की डाक्यूमेंट्री देख रहा था। भारत के इस अप्रतिम आधुनिक लोक-कथाकार को एक सुंदर श्रद्धांजलि। विज्जी के सुदूर बोरूंदा गांव के फ्रेम में दुनिया के श्रेष्ठ कथा साहित्य की तस्वीर को मढ़ कर अपने घर को सजाने का एक अनुपम प्रयास।
विज्जी ने अपनी ‘बातां री फुलवाड़ी’ के पहले भाग की भूमिका में लिखा था - ‘‘ बात नै सुणावती वगत बातपोस सांप्रत सांमी रैवे, उणरे अर हुकारिया री परतख मोहमाया रैवे। जीवतो जागतौ बातपेस जद बात सुणावैतो जीभ् रै समचै उणरें मुंडा रा भाव, उणरा हाथ, उणरी आख्यां अै सगला साथ काम करै, इणसू बात में लोच, मिठास,अर प्राणां रौ पफट लाग जावै। पण बात लिखती वगत लिखणियो अदीठ रैवे, इण कारण लेखक अर पाठक में मोहमाया रौ तांतौ को रैवे नीं। लेखक नें सांप्रत बातपोस रै मुंडा रा भाव, उणरा हाथ अर उणरी आंख्यां रा भाव आपरी लिखावट में पूरा करना पड़ै। इन वास्ते फगत भासा लिखणी जांणणा सूं ईं बात रो पेटौ नीं भरो जो इणसारू दूजी बातां री जांणकारी जरूरी है। पुरांणी बातों री जाणकारी, समाज रै रीत-रिवाजां री जाणकारी, इतिहास नै समाज-विग्यांन री जाणकारी आर सबसू लांठी बात है -बात लिखणरी कला अर उणेरी रफत। मोटा रूप् सूं आं बातां रै बिना लिखियोड़ी बात मैं झाधी कमिया रै जावै।’
(बात कहते समय बोलने वाले का सामने वाले से सीधा संबंध होता है। एक जीता जागता आदमी जब बोलता है तो उसकी जुबान के साथ ही उसके चेहरे के भाव, उसके हाथ, आंखें सब काम करती रहती है, जिससे बात में घुमाव, मिठास और जान आती है। लेकिन बात को लिखते वक्त लेखक अकेला होता है। इस वजह से पाठक से उसके संबंधों को कोई मसला नहीं रहता। लेखक को बोलने वाले के चेहरे के भाव, उसके हाथों और आंखों के भावों को अपनी लेखनी से उतारना पड़ता है। इसीलिये फकत भाषा आने से ही बात नहीं बनती। इसके लिये दूसरी बातों की जानकारी जरूरी है। पुरानी बातों की जानकारी, समाज के रीति-रिवाजों की जानकारी, इतिहास, समाजशास्त्र. की जानकारी और सबसे बड़ी बात है, बात को लिखने की कला और उसपर महारत। मोटे तौर पर इन बातों के बिना लेखन में काफी कमियां रह जाती है। )
उदयप्रकाश ने अपनी डाक्यूमेंट्री में विज्जी की इस बात को उद्धृत किया है।
विज्जी ने बहुत पहले ही बांग्ला के शरत्चंद्र, श्रेष्ठ रूसी कथाकार टालस्टाय, गोर्की, दोस्तोयवस्की तथा रसूल हमजातोव आदि की रचनाओं से जाना था कि आम जीवन के यथार्थ की, ठेठ जनता के ठाठ की, अभावों के बीच भी उनकी आत्मिक समृद्धि के राज की लेखक के पास जितनी ज्यादा जानकारी होगी, उसकी रचना उतनी ही हृदय-स्पर्शी और कालजयी होगी। रवीन्द्रनाथ की तरह के उच्च स्तरीय सृष्टा से उन्होंने जाना कि मां के दूध की तरह मातृभाषा की मिठास अनायास ही किसी भी रचना में जिस सौन्दर्य की सृष्टि करती है, उसे कभी भी सीखी गयी किसी भी भाषा के जरिये व्यक्त नहीं किया जा सकता है।
समझ की इसी बुनियाद पर विज्जी ने साठ साल पहले लोक के अगम संसारों में गहरे गोते लगा कर प्रचलित बातों-कथाओं के मोतियों को बंटोरने के काम में खुद को जो नियोजित किया तो उम्र की अंतिम घड़ी तक, मानो किसी न छूटने वाले व्यसन की तरह, वे उसी में डूबे रहे। लेखन के लिये कुछ सचेत रूप में और कुछ लोककथाओं की भाषा के एक स्वाभाविक चयन के रूप में उन्होंने राजस्थानी को अपनाया। राजस्थानी-लोक ही विज्जी का संसार बन गया।
जाहिर है कि कला की दूसरी विधाओं, सिनेमा, नाटक के लोक-जीवन के सौन्दर्य-पिपासुओं का ध्यान विज्जी की संकलित कथाओं और रचनाओं की ओर गया। उनकी कुछ कहानियों पर प्रसिद्ध फिल्में बनी, नाटकों का मंचन हुआ। विज्जी देश-विदेश में प्रसिद्ध होगये।
कहना न होगा, यही वे कारण भी रहे कि विज्जी को कामू, काफ्का और मिलान कुंदेरा का भी शहरी अकेलेपन की कुंठाओं से लदे-फदे परिवेश में रचा गया साहित्य कभी समझ में नहीं आया। उदयप्रकाश की डोक्यूमेंट्री में काफ्का के बारे में उनकी टिप्पणी है कि उसका Metamorphosis पढ़ कर ही उन्होंने कह दिया था कि अंग्रेजी में तो इसका आकर्षण बना हुआ है, लेकिन अनुवाद में आने पर यह नहीं चलेगा। विज्जी कहते हैं, हिन्दी में ‘कायांतर’ शीर्षक से उसका अनुवाद आते ही उसकी किसी गुब्बारे की तरह हवा निकल गयी। भारतीय अंग्रेजी लेखकों का मामला तो पूरी तरह से उनकी समझ के परे था।
जाहिर है कि विज्जी का यह रचना-बोध मूलत: किसी भी लोक-कलाकार के रचना-बोध की तरह ही था। दुनिया के श्रेष्ठ कथा साहित्य से उनका गहरा परिचय था, वे उनकी बारीकियों में भी जाते थे - लेकिन आधुनिक, महानगरीय संवेदना के नुक्तों से वे सचेत रूप में कोसों दूर रहे। यही उनकी शक्ति, और कहा जा सकता है कि उनकी सीमा भी थी।
विज्जी की स्मृतियों के प्रति एक बार फिर आंतरिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उदयप्रकाश को विज्जी पर इस शानदार डाक्यूमेंट्री के निर्माण के लिये साधुवाद।
साहित्य अकादमी के लिये विज्जी (विजयदान देथा) के बारे में उदयप्रकाश की डाक्यूमेंट्री देख रहा था। भारत के इस अप्रतिम आधुनिक लोक-कथाकार को एक सुंदर श्रद्धांजलि। विज्जी के सुदूर बोरूंदा गांव के फ्रेम में दुनिया के श्रेष्ठ कथा साहित्य की तस्वीर को मढ़ कर अपने घर को सजाने का एक अनुपम प्रयास।
विज्जी ने अपनी ‘बातां री फुलवाड़ी’ के पहले भाग की भूमिका में लिखा था - ‘‘ बात नै सुणावती वगत बातपोस सांप्रत सांमी रैवे, उणरे अर हुकारिया री परतख मोहमाया रैवे। जीवतो जागतौ बातपेस जद बात सुणावैतो जीभ् रै समचै उणरें मुंडा रा भाव, उणरा हाथ, उणरी आख्यां अै सगला साथ काम करै, इणसू बात में लोच, मिठास,अर प्राणां रौ पफट लाग जावै। पण बात लिखती वगत लिखणियो अदीठ रैवे, इण कारण लेखक अर पाठक में मोहमाया रौ तांतौ को रैवे नीं। लेखक नें सांप्रत बातपोस रै मुंडा रा भाव, उणरा हाथ अर उणरी आंख्यां रा भाव आपरी लिखावट में पूरा करना पड़ै। इन वास्ते फगत भासा लिखणी जांणणा सूं ईं बात रो पेटौ नीं भरो जो इणसारू दूजी बातां री जांणकारी जरूरी है। पुरांणी बातों री जाणकारी, समाज रै रीत-रिवाजां री जाणकारी, इतिहास नै समाज-विग्यांन री जाणकारी आर सबसू लांठी बात है -बात लिखणरी कला अर उणेरी रफत। मोटा रूप् सूं आं बातां रै बिना लिखियोड़ी बात मैं झाधी कमिया रै जावै।’
(बात कहते समय बोलने वाले का सामने वाले से सीधा संबंध होता है। एक जीता जागता आदमी जब बोलता है तो उसकी जुबान के साथ ही उसके चेहरे के भाव, उसके हाथ, आंखें सब काम करती रहती है, जिससे बात में घुमाव, मिठास और जान आती है। लेकिन बात को लिखते वक्त लेखक अकेला होता है। इस वजह से पाठक से उसके संबंधों को कोई मसला नहीं रहता। लेखक को बोलने वाले के चेहरे के भाव, उसके हाथों और आंखों के भावों को अपनी लेखनी से उतारना पड़ता है। इसीलिये फकत भाषा आने से ही बात नहीं बनती। इसके लिये दूसरी बातों की जानकारी जरूरी है। पुरानी बातों की जानकारी, समाज के रीति-रिवाजों की जानकारी, इतिहास, समाजशास्त्र. की जानकारी और सबसे बड़ी बात है, बात को लिखने की कला और उसपर महारत। मोटे तौर पर इन बातों के बिना लेखन में काफी कमियां रह जाती है। )
उदयप्रकाश ने अपनी डाक्यूमेंट्री में विज्जी की इस बात को उद्धृत किया है।
विज्जी ने बहुत पहले ही बांग्ला के शरत्चंद्र, श्रेष्ठ रूसी कथाकार टालस्टाय, गोर्की, दोस्तोयवस्की तथा रसूल हमजातोव आदि की रचनाओं से जाना था कि आम जीवन के यथार्थ की, ठेठ जनता के ठाठ की, अभावों के बीच भी उनकी आत्मिक समृद्धि के राज की लेखक के पास जितनी ज्यादा जानकारी होगी, उसकी रचना उतनी ही हृदय-स्पर्शी और कालजयी होगी। रवीन्द्रनाथ की तरह के उच्च स्तरीय सृष्टा से उन्होंने जाना कि मां के दूध की तरह मातृभाषा की मिठास अनायास ही किसी भी रचना में जिस सौन्दर्य की सृष्टि करती है, उसे कभी भी सीखी गयी किसी भी भाषा के जरिये व्यक्त नहीं किया जा सकता है।
समझ की इसी बुनियाद पर विज्जी ने साठ साल पहले लोक के अगम संसारों में गहरे गोते लगा कर प्रचलित बातों-कथाओं के मोतियों को बंटोरने के काम में खुद को जो नियोजित किया तो उम्र की अंतिम घड़ी तक, मानो किसी न छूटने वाले व्यसन की तरह, वे उसी में डूबे रहे। लेखन के लिये कुछ सचेत रूप में और कुछ लोककथाओं की भाषा के एक स्वाभाविक चयन के रूप में उन्होंने राजस्थानी को अपनाया। राजस्थानी-लोक ही विज्जी का संसार बन गया।
जाहिर है कि कला की दूसरी विधाओं, सिनेमा, नाटक के लोक-जीवन के सौन्दर्य-पिपासुओं का ध्यान विज्जी की संकलित कथाओं और रचनाओं की ओर गया। उनकी कुछ कहानियों पर प्रसिद्ध फिल्में बनी, नाटकों का मंचन हुआ। विज्जी देश-विदेश में प्रसिद्ध होगये।
कहना न होगा, यही वे कारण भी रहे कि विज्जी को कामू, काफ्का और मिलान कुंदेरा का भी शहरी अकेलेपन की कुंठाओं से लदे-फदे परिवेश में रचा गया साहित्य कभी समझ में नहीं आया। उदयप्रकाश की डोक्यूमेंट्री में काफ्का के बारे में उनकी टिप्पणी है कि उसका Metamorphosis पढ़ कर ही उन्होंने कह दिया था कि अंग्रेजी में तो इसका आकर्षण बना हुआ है, लेकिन अनुवाद में आने पर यह नहीं चलेगा। विज्जी कहते हैं, हिन्दी में ‘कायांतर’ शीर्षक से उसका अनुवाद आते ही उसकी किसी गुब्बारे की तरह हवा निकल गयी। भारतीय अंग्रेजी लेखकों का मामला तो पूरी तरह से उनकी समझ के परे था।
जाहिर है कि विज्जी का यह रचना-बोध मूलत: किसी भी लोक-कलाकार के रचना-बोध की तरह ही था। दुनिया के श्रेष्ठ कथा साहित्य से उनका गहरा परिचय था, वे उनकी बारीकियों में भी जाते थे - लेकिन आधुनिक, महानगरीय संवेदना के नुक्तों से वे सचेत रूप में कोसों दूर रहे। यही उनकी शक्ति, और कहा जा सकता है कि उनकी सीमा भी थी।
विज्जी की स्मृतियों के प्रति एक बार फिर आंतरिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उदयप्रकाश को विज्जी पर इस शानदार डाक्यूमेंट्री के निर्माण के लिये साधुवाद।
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