शनिवार, 3 मई 2014

‘एक और ब्रह्मांड’


अपनी किताब ‘एक और ब्रह्मांड’ को मैंने कई मित्रों को उपलब्ध कराया है। और भी मित्रों को भेजूगा। ऐसा हर किताब के साथ संभव नहीं हो सकता है। लेकिन किताब को देखने से कोई भी समझ सकता है कि क्यों इसे अधिक से अधिक मित्रों तक पहुंचाया जा सकता है।

पता नहीं क्यों, आज अपनी इस किताब के बारे में कुछ और कहने की इच्छा हो रही है। अगर कोई इसे ऊपरी तौर पर ही देखेगा तो लगेगा जैसे यह कोलकाता की एक बड़ी कंपनी, इमामी के मालिक राधेश्याम अग्रवाल की जीवनी जैसी कोई चीज है। लेकिन सचमुच क्या यह कोई जीवनी है ? राधेश्याम जी के जीवन के तथ्यों को आधार बनाये जाने के बावजूद इसे अपनी एक समग्र जीवनी कहना शायद वे खुद भी नहीं स्वीकारेंगे।

मैंने पुस्तक में इसे ‘जीवनीमूलक उपन्यास’ कहा है।

दरअसल, पिछले 40 सालों से कार्ल मार्क्स की ‘पूंजी’ को हर मौके-बेमौके उलटता-पलटता रहा हूं। आज की दुनिया में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो कम्युनिज्म को अन्य धर्मों की तरह ही एक और धर्म मानते हैं और ‘पूंजी’ को इस धर्म की गीता, बाइबिल या कुरान। लेकिन ‘पूंजी’ तो कहीं से भी कोरे सिद्धांतों, नीति-वाक्यों या आप्त कथनों, चमत्कारों से भरी कथाओं और आस्था और भक्ति के मूल आधार पर टिकी पुस्तक नहीं है, जैसेकि दूसरे सभी धर्म-ग्रंथ हैं। मार्क्स ने सामाजिक चलन में सबसे अधिक पाये जाने वाले पूंजीवादी संपदा के प्रमुख घटक माल अथवा पण्य जैसे एक ठोस पदार्थ को पकड़ा था और उन्होंने उसे उलट-पुलट कर उसके एक-एक पहलू की छान-बीन करना, देखना-परखना शुरू कर दिया। उन्होंने देखा कि यही तो है इस पूरी आर्थिक-सामाजिक संरचना का बीज-कोष। इस माल की उन्होंने इतनी चीर-फाड़ की कि उसके भीतर का सबकुछ बाहर आगया और बाहर का भीतर --  भीतर-बाहर में जैसे कोई फर्क ही नहीं रह गया। इसी उपक्रम में माल से जुड़े ऐसे-ऐसे रहस्यों का उद्घाटन होता चला गया जिनसे परंपरागत, या कहा जाए आधिकारिक अर्थशास्त्री जरा भी परिचित नहीं थे।

यह सच है कि माल के ये रहस्य किसी धर्म के रहस्यों से कम विचित्र और गहरे नहीं थे। मजे की बात यह है कि जब भी किसी चीज की अतिरिक्त चीर-फाड़ की जाती है तो वह अपना यथार्थ रूप गंवा देती है और लगभग एक रहस्य का रूप ले लेती है। रहस्य का उन्मोचन खुद एक मोहक रहस्य, जासूसी कथाओं की तरह। अतियथार्थ छवि डराती भी है, आकर्षित भी करती है।

मार्क्स भी ‘पूंजी’ में माल से शुरू करके व्यापार के नियमों के तर्क को पकड़ते हुए उनका एक आख्यान रचते चले गये। यह पूरा वर्णन इतना रोचक है कि किसी भी रसिक पाठक को यह कल्पना-प्रसूत या मनगढ़ंत सा लग सकता है, लेकिन किसी भी रहस्य से जुड़े स्वाभाविक आकर्षण जैसा ही। फिर भी इस रोमांच और सौंदर्य का स्थायित्व सिर्फ इसी बात में छिपा है कि यह शुद्ध रूप से एक ठोस यथार्थ का पर्त-दर-पर्त बयान, पूरा आख्यान है। माल की गतिशीलता, उसकी द्वंद्वात्मकता, उससे बुने जारहे आर्थिक-सामाजिक संबंधों का मकड़जाल - मार्क्स की ‘पूंजी’ इसी सच की कहानी है या कहा जा सकता है इस सच की एक अतियथार्थ रहस्यमयी कथा। यह पूंजी के आत्म-विस्तार की, उसके निरंतर विस्तारवान ब्रह्मांड-समान सत्य की कहानी है। चूंकि यह सच पर टिकी है, इसीलिये यह एक कभी न खत्म होने वाले सौंदर्य का अक्षय स्रोत है।

‘एक और ब्रह्मांड’ को लिखने के पीछे मूलत: हमारी कुछ-कुछ यही प्रेरणा रही। इसमें यथासंभव सत्य-निष्ठा के साथ राधेश्याम अग्रवाल को केंद्र में रख कर माल में छिपे आधिभौतिक रहस्यों और पूंजी के लगातार विस्तारवान ब्रह्मांड से जुड़े आदमी के रहस्य की अर्थात इस ब्रह्मांड के एक अति-संक्षिप्त भारतीय अध्याय को लिखने की कोशिश की गयी। और, किताब बन गयी। जो पढ़ रहे हैं, वे इसमें कुछ अजीब सा आनंद पा रहे हैं, छूटते नहीं बनती है। एक लेखक के लिये शायद इससे बड़ा सुख दूसरा कुछ नहीं हो सकता। रहस्य को खोलते हुए एक नये रोमांचक रहस्य की रचना और विस्मित पाठकों का आनंद !

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