शनिवार, 18 अक्तूबर 2014

‘हैदर’ एक अविस्मरणीय फिल्म है



अरुण माहेश्वरी

पिछले रविवार के जनसत्ता में ‘हैदर’ फिल्म पर अपूर्वानंद की टिप्पणी पढ़ी - ‘नैतिक रूप से दुविधाग्रस्त’। तीन दिन पहले ही 9 अक्तूबर के जनसत्ता में इसी फिल्म पर हमारी टिप्पणी प्रकाशित हुई थी - ‘जख्मों की कहानी’ । अपनी टिप्पणी में हमने जिस फिल्म को हिंदी की एक एपिक फिल्म बताया, उसे ही अपूर्वानंद दर्शनशास्त्र के एक युवा अध्येता ऋत्विक अग्रवाल के हवाले से ‘लचर और बोरिंग मसाला फिल्म’, ‘लंबी खिंचने वाली’ फिल्म बता रहे थे। स्वाभाविक तौर पर हम सोच में पड़ गये कि आखिर मामला क्या है ?

हमने अपूर्वानंद की टिप्पणी को बहुत बारीकी से पढ़ना शुरू किया। जानने की कोशिश की कि आखिर फिल्म को लेकर उनकी ठोस आपत्तियां क्या और क्यों हैं ?

सबसे पहले तो हमने पाया कि वे फिल्म के बजाय पीवीआर के उस परिवेश से शुरू में ही उखड़ गये थे जिसमें बैठे मुट्ठी भर दर्शक बात बेबात पर सिर्फ हंसने और सिर्फ हंसने के लिये ही पंहुचे हुए थे। अपूर्वानंद पूरी फिल्म के दौरान फिल्म में ऐसे मौकों की तलाश में खोये रहे जब वह इन फूहड़, हंसी-ठठ्ठा में मतवाले दर्शकों को उनके इस आचरण पर शर्मींदा कर दें। लेकिन अफसोस कि फिल्म उनकी इस इच्छा को पूरा नहीं कर पायी। फिल्म इतनी दमदार नहीं निकली की उन कमबख्त हंसोड़ों को लज्जा से सिर झुका कर चुप बैठ जाने के लिये मजबूर करती! और इसप्रकार,  फिल्म की ‘लचरता’ का उनको पहला प्रमाण मिल गया। उनका गुस्सा सिर्फ ‘हैदर’ तक सीमित नहीं रहा, तमाम हिन्दी फिल्मों को उसने अपनी जद में ले लिया - ‘‘हिन्दी फिल्मों ने ऐसे ही दर्शक तैयार किये हैं’’! ‘हैदर’ भी एक हिन्दी फिल्म है इसलिये बुरे दर्शक तैयार करने के पाप का कुछ भागीदार तो उसे बनना ही पड़ेगा! अपूर्वानंद की नजर में हैदर जैसी फिल्मों का बड़ा दोष यह है कि ‘‘देखने के उसी प्रचलित तरीके में, बिना उसे विचलित किए वे (हैदर जैसी फिल्में) अपनी बात कहने की फांक खोज रही है।’’

अब अपूर्वानंद का दूसरा आरोप है - ‘‘एक चालू मुंबइया फिल्मी मुहावरे में गंभीरता का बाना पहन कर लचर कहानी कहने की दयनीय कोशिश।’’

‘लचर कहानी’! हम सब जानते हैं कि इस फिल्म की पटकथा शेक्सपियर के ‘हैमलेट’ पर अवलंबित है। ‘हैमलेट’ क्या है? क्या यह सिर्फ राजमहलों में सिहांसन के लिये होने वाले षड़यंत्रों की एक राजनीतिक कहानी है। अगर सिर्फ इतना ही होता तो इसने दुनिया भर में न जाने कितने लेखकों, नाट्यकारों, फिल्मकारों, और साहित्य समीक्षकों को भी नये-नये संदर्भों में इसकी पुनर्रचना और चरित्रों की जटिलताओं से संबंधित नयी-नयी उद्भावनाओं से प्रेरित न किया होता। चौतरफा फैली धुंध में हैमलेट की दुविधाएं, उसके अंदर धधकती प्रतिशोध की ज्वाला और उसमें हर क्षण भस्म होते मानवीय संबधों की त्रासदी की कहानियां दुनिया भर के रचनाशील लोगों के लिये मनुष्य की त्रासदियों की गुत्थियों में प्रवेश के एक अकूत खजाने की तरह है। यह हैमलेट की निजी त्रासदी के साथ ही डेनमार्क राष्ट्र की त्रासदी की भी गाथा है।
हमारी राय में विशाल भारद्वाज ने इस फिल्म की पटकथा के आधार के तौर पर शेक्सपियर के ‘हैमलेट’ का बिल्कुल सही चयन करके कश्मीर और उसके संत्रस्त राजनीतिक परिवेश के दबाव में हर दिन विकृत हो रहे मनुष्यों और मानवीय रिश्तों के त्रासद दुखांत की कहानी कही है। हमने उसे ‘‘राष्ट्रवादी उन्माद की राजनीति की भारी-भरकम चट्टानों के नीचे दबे जीवन के अंदर ईष्र्या, द्वेष, डर, आतंक, साजिशों, हत्याओं और लगातार हिंसा से विकृत हो रहे मानवीय रिश्तों का अत्यंत सुगठित आख्यान’’ कहा था। लेकिन इसके उल्टे, अपूर्वानंद की शिकायत है - भारद्वाज ने शेक्सपियर और कश्मीर जैसे दो भारी-भरकम शब्दों की सवारी का ‘पाप’ किया है!

इस फिल्म से अपूर्वानंद की तीसरी प्रमुख शिकायत है कि यह कलात्मक ईमानदारी से खाली फिल्म है क्योंकि इसमें कहीं-कहीं हास्य पैदा करने की ‘‘मुंबइया’’ हिमाकत की गयी है। शेक्सपियर या दुखांत नाटकों के पूरे इतिहास को देखिये, विदूषक नामक तत्व आपको हर जगह मिल जायेगा। विदूषक के जरिये आम तौर पर लेखक एक हास्यास्पद दार्शनिक लहजे में जीवन के यथार्थ की अपनी बहुत गहरी बातों को प्रेषित किया करता है। और, सिर्फ विदूषक ही नहीं, एक बेहद तनावपूर्ण, संगीन से वातावरण में यही भूमिका कई मासूम से दिखाई देने वाले पात्र भी अदा करते हैं। अर्थात, कठिन से कठिन समय में हंसना किसी गैर-ईमानदारी का सूचक नहीं हुआ करता। और जहां तक इस फिल्म में हैदर की प्रेमिका अर्शी का प्रश्न है, वह सचमुच हैमलेट की ओफ़ीलिया है। एक बेहद तनावपूर्ण, अशुभ संकेतों से भरे वातावरण में ओफ़ीलिया की मासूमियत खुद में एक हंसी का विषय ही थी, और उसी हद तक हैदर की अर्शी भी अपनी तमाम भंगिमाओं से एक संकटजनक परिस्थिति में अनायास ही हंसा देने की क्षमता रखती है।
अपूर्वानंद शिकायत करते हैं कि अर्शी ने पढ़-लिख कर अपनी ‘जुबान साफ’ क्यों नहीं की ! जैसे कोई शेक्सपियर से यह शिकायत करें कि हिंसा और प्रतिशोध के उस सहमे हुए परिवेश में राजमंत्री पोलोनियस की बेटी इतनी मासूम क्यों बनी रहीं, वह भी अन्यों की तरह परिपक्व क्यों नहीं हो गयी ! और, इसे शेक्सपियर की गैर-ईमानदारी का प्रमाण मानना होगा!

अपूर्वानंद की चौथी बात है - फिल्मी भाषा, उसका ‘लिरिकल’ होना - ‘प्रसून जोशी छाप’। इसपर शायद कुछ भी कहना नागवार होगा। कोरे अहंकार से भरी प्रगल्भित बौद्धिकता इसे ही कहते है।
आगे आती है, इस फिल्म के बारे में अपूर्वानंद की सबसे बड़ी शिकायत, जिससे उनकी टिप्पणी का ‘नैतिकता’ वाला शीर्षक भी बनता है। वे कहते हैं कि इस फिल्म में विशाल भारद्वाज को जिस एक चीज के लिये कभी माफ नहीं किया जा सकता, वह है - ‘स्त्री पात्रों का चरित्रांकन’। इस विषय पर नैतिक आवेश से भरा उनका लहजा कुछ वैसा ही है जैसे कोई किसी लेखक से इस बात पर क्रुद्ध हो कि उसने हिंदू पात्र का ऐसा चरित्रांकन क्यों किया; मुस्लिम पात्र को ऐसे क्यों पेश क्यों किया; ब्राह्मण का, यादव का या चमार के साथ ऐसा क्यों किया ! सांप्रदायिकता और जाति के पूर्वाग्रहों से मुक्त मानववादी अपूर्वानंद का इल्जाम हैं - स्त्रियों का चरित्रांकन ऐसा क्यों किया?

पात्रों को हमेशा प्रतिनिधि-रूप में देखने-समझने की यह एक बहुत ही पिटी-पिटाई समीक्षा दृष्टि है। इसी बीमारी ने न जाने दुनिया के कितने आलोचकों को रचनात्मक साहित्य के खलनायकों की श्रेणी में खड़ा कर दिया है। समाजवादी यथार्थवाद को तो इसी बीमारी ने असमय मौत के घाट उतार दिया। यह अपने प्रकार की एक ‘नैतिक पुलिसगिरी’ भी है जिसका रचनात्मक साहित्य से हमेशा छत्तीस का रिश्ता होता है। अपूर्वानंद कहते हैं - पति की हत्या होगयी और पत्नी देवर के साथ गाने सुन रही है! क्या गजब है! वे शायद नहीं जानते कि हैमलेट के चरित्र की जटिल संरचना में मां की बेवफाई की एक प्रमुख भूमिका थी।
इसीप्रकार, फिल्म की पूरी कहानी को अपने किसी इप्सित ढांचे में ढालने की इच्छा रखने वाले अपूर्वानंद जी शिकायत करते हैं - इसमें कश्मीर की स्त्रियों का राजनीतिकरण क्यों नहीं दिखाया गया है ? वही, हर चीज को, चरित्र हो या परिवेश या घटना, ‘प्रतिनिधिमूलक’ देखने की बीमारी! ऐसा लगता है मानो कश्मीर की अराजनीतिक स्त्रियों की कोई कहानी हो ही नहीं सकती!

अपूर्वानंद की टिप्पणी से एक बात साफ है कि वे यह तो जानते हैं कि ‘हैदर’ फिल्म ‘हैमलेट’ पर अवलंबित है, लेकिन यह नहीं जानते कि ‘हैमलेट’ क्या है। अन्यथा ऐसी फब्ती शायद पढ़ने को नहीं मिलती - ‘‘किसी भी अच्छी हिन्दी फिल्म की तरह इन दोनों औरतों को फिल्म के अंत में अपनी जान देकर प्रायश्चित करना होता है।’’

‘हैमलेट’ के दुखांत का सार तो यही है कि होने न होने की धुंध की परिस्थितियों में प्रतिशोध और षड़यंत्रों में लिपटी जिंदगियों के अंत में लाशों के ढेर के सिवाय कुछ नहीं बचता। शेक्सपियर का हैमलेट भी मर जाता है, भारद्वाज का हैदर कुहासे में लुप्त होता है। दोनों स्थितियों में, संकेत सर्वनाश का ही है।

अपूर्वानंद की टिप्पणी की बाकी बातें उनकी बगल में बात-बेबात हंसने वाले दर्शकों की उपस्थिति से खिन्न एक ‘बौद्धिक’ की असंलग्नता का परिणाम है। हमारी दिक्कत यह है कि हमने यह फिल्म कोलकाता के एक पीवीआर के खचाखच भरे हुए हॉल में सांस थामे हुए दर्शकों के गहरे सन्नाटे में देखी थी। हैमलेट नाटक को पढ़ते हुए हम जिसप्रकार उद्वेलित होते रहे हैं, इस फिल्म को देख कर वैसी ही उत्तेजना और आनंद का अनुभव हुआ। अपूर्वानंद की टिप्पणी की गहराइयों में जाने के बाद हमारी यह राय और पुख्ता हुई कि ‘हैदर’ हिन्दी की एक एपिक, अविस्मरणीय फिल्म है।

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