शनिवार, 8 नवंबर 2014

‘हिंदी प्रलाप’


आज, 9 नवंबर 2014, रविवार के ‘जनसत्ता’ में हिंदी के वयोवृद्ध वरिष्ठ लेखक डा. लक्ष्मीधर मालवीय का एक महत्वपूर्ण लेख है - ‘जय हिंद्(ई)'। नाना स्तरों पर नाना रूपों में चलने वाले ‘अनर्गल (हिंदी) प्रलाप’ के उबलते दूध में खट्टे नींबू की एक बूंद। मालवीय जी का कहना हैं :
1.हिंदी बनाम अंग्रेजी की सारी बहस धूल की रस्सी बटने की तरह ही वृथा है।
2.‘‘हिंदी मातृभाषा तो दूर, सामान्य अर्थ में भाषा भी नहीं है।’’
3.‘‘हिंदी भाषा नहीं, बहुभाषी ‘तर्जुमाकार है।’’ सिर्फ एक औजार, खास काम को साधने का औजार। यह ‘‘सिर्फ तर्जुमा करती है, आशु दुभाषिया है।’’
4.1956 में जब हिन्दी को राजभाषा बनाया गया, वह ‘अंधी गली में ले जाने वाली गलत राह’ पर बढ़ा हुआ कदम था। अब लौट चलना चाहिये उसी दोराहे पर जहां हिंदी को राज्य-राष्ट्र भाषा बनाया गया।
5.‘‘हिंदी से सरकार का स्पर्श भी न रह जाना चाहिए।’’ यह ‘शासकीय दीमक’ का स्पर्श है।
6.‘‘हिंदी के प्रोफेसर डाक्टर लक्ष्मीधर मालवीय की लिखित और मौखिक ‘हिंदी’ ही ऐसी क्यों होती है कि उसे समझने के लिए उसका सरल हिंदी में अनुवाद कराना पड़ता है।...हिंदी में जो जितना ही उच्च शिक्षा प्राप्त है, उसी के अनुपात में उसकी हिंदी भी ‘उच्च’ है।
7.‘‘यह विश्वविद्यालय की ‘हिंदी विभागी’ अभागी हिंदी है।’’ ‘प्रोफेसरी हिंदी’। ‘‘मतिमंद आचार्य अपने ‘डॉली द क्लोन’ मतिमंदों की अगली पीढि़यां-दर-पीढि़यां छोड़ते गए हैं। राष्ट्रभाषा हिंदी के जन्मदाता ये ही क्लोन है।
8.‘‘इसलिए जनहित देशहित के लिए क्लोनों की नसबंदी करना प्रथम आवश्यकता है !...कोलकाता से लेकर दिल्ली, चंडीगढ़ तक गऊ पट्टी के सभी विश्वविद्याल के सभी ‘हिंदी’ विभागों का कार्य स्थगित कर...उनकी जांच-परख कराना अतिआवश्यक है। ...जन-धन के व्यय की जांच करना शासन का कत्‍र्तव्य है।
9.‘‘हिंदी के अध्यापक को उर्दू-फारसी वर्णमाला का कामचलाऊ नहीं, पूरा ज्ञान होना अनिवार्य है। उर्दू-फारसी की पेशकश हिंदू-मुसलिम एकता बढ़ाने का स्वांग नहीं, एकदम उपयोगिता के स्तर पर है।’’
10.‘‘जो हिंदी विभाग कुछ नहीं कर रहे - और न करने की क्षमता रखते हैं, उन्हें ऐसे ही चलने देना चाहें तो चलने दें। आखिर लावारिस बच्चों के अनाथालय है कि नहीं।’’
11.‘‘शासन हिंदी को अपने नागपाश से छोड़ना तो दूर, उसे ढीला तक न करेगा। क्योंकि एक तो इससे, कम से कम वर्तमान प्रशासन की दृष्टि में, ‘हिंदी’ भावुकता के स्तर पर, ‘हिंदू’ ‘हिंदुस्तान’ के तरन्नुम में आ गई - ‘हिंदी’ से हर्रा लगे न फिटकरी, उसके अहम की तुष्टि होती है - देखो, हम हिंदी को आगे ले आ रहे हैं। उसके लिए भाषा या संप्रेषण का साधन न होकर हिदी तीर्थयात्रा के समान गदगद भावुकता है।
12.और अंत में, ‘‘हमारे दक्षिणात्य देशभाइयों ने हमवतनों की संकट की घड़ी में सदा आगे बढ़ कर रक्षा की है! ...इन दक्षिणात्यों की चौकस बनी रहने तक इस ‘हिंदी’ को हम सब पर थोपा न जा सकेगा। इत्यलम्।’’

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