शनिवार, 15 नवंबर 2014

मनुष्यता का भविष्य !

अरुण माहेश्वरी


आज सन माउक्रोसिस्टम्स के सह-संस्थापक, कमप्यूटर तकनीक के क्षेत्र के एक बादशाह विनोद खोसला की 11 जून 2014 की फोर्ब्स पर पोस्ट को पढ़ कर गहरे सोच में पड़ गया । चीज़ें जिस गति से बदल रही है, उसका आसानी से अंदाज नहीं लगाया जा सकता है । 

विनोद खोसला कमप्यूटर की दुनिया का एक विश्वप्रसिद्ध नाम है, जिसने कमप्यूटर की जावा प्रोग्रामिंग की भाषा और नेटवर्क फाइलिंग सिस्टम को तैयार करने में प्रमुख भूमिका अदा की थी। आज उनकी कंपनी खोसला वेंचर्स सूचना तकनीक के क्षेत्र में काम करने वाली दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियों में एक हैं। 

अपनी इस पोस्ट, ”The Next Technology Revolution Will Drive Abundance And Income Disparity” की शुरूआत ही वे इस बात से करते हैं कि आगे आने वाले समय में और भी बड़ी-बड़ी तकनीकी क्रांतियां होने वाली हैं, लेकिन जिस एक चीज का मनुष्य पर सबसे अधिक असर पड़ेगा, वह है ऐसी प्रणालियों का निर्माण जिनमें मनुष्य के विचार करने की शक्ति से कहीं ज्यादा गहराई से विचार करने की, निर्णय लेने की क्षमताएं होगी। विचारशील मशीन, जिसे दूसरे शब्दों में कृत्रिम बुद्धि कहा जाता है, उसमें जटिल से जटिल विषयों पर निर्णय लेने में समर्थ तकनीकी प्रणाली के निर्माण की दिशा में बड़ी तेजी से काम चल रहा है। 

उदाहरण के तौर पर, पांच साल पहले तक गाड़ी चलाना कमप्यूटर के लिये एक बेहद कठिन चीज समझी जाती थी, लेकिन अब यह एक सचाई बन चुकी है। 

खोसला लिखते हैं कि इस बात पर बिना मगजपच्ची किये कि क्या-क्या संभव है, कम से कम इतना जरूर कहा जा सकता है कि सृजनात्मकता के क्षेत्र में, भावनाओं और समझदारी के क्षेत्र में, मसलन, श्रोताओं को मुग्ध करने वाली संगीत की सबसे अच्छी बंदिश, पाठकों के मन को छूने वाली प्रेम कहानी या अन्य रचनात्मक लेखन में तो यह प्रणाली बहुत ही कारगर साबित होगी, क्योंकि उसके पास श्रोताओं और पाठकों को छूने वाले तमाम पक्षों और संगीत तथा लेखन के अब तक के विकास की पूरी जानकारी होगी। 

इस विषय पर आगे और विस्तार से जाते हुए खोसला बताते हैं कि मनुष्य की श्रम-शक्ति और मानवीय विचारशीलता की जरूरत जितनी कम होगी, पूंजी की तुलना में श्रम शक्ति की और विचारशील मशीन की तुलना में मनुष्य के विचारों की कीमत उतनी ही कम होती जायेगी। ‘‘प्रचुरता और आमदनी में बढ़ती हुई विषमता के युग में हमें पूंजीवाद के एक ऐसे नये संस्करण की जरूरत पड़ सकती है जो सिर्फ अधिक से अधिक दक्षता के साथ उत्पादन पर केन्द्रित न रह कर पूंजीवाद के अन्य अवांछित सामाजिक परिणामों से बचाने के काम पर केन्द्रित होगा।’’ 

अपने इस लेख में खोसला ने विचारवान मशीन के निर्माण के उन तमाम क्षेत्रों की ठोस रूप में चर्चा की हैं जिनमें खुद उनकी कंपनी तेजी से काम कर रही है और जिनके चलते खेतिहर मजदूरों, गोदामों में काम करने वाले मजदूरों, हैमबर्गर बनाने वालों, कानूनी शोधकर्ताओं, वित्तीय निवेश के मध्यस्थों तथा हृदय रोग और ईएनटी रोग के विशेषज्ञों, मनोवैज्ञानिकों आदि की कोई जरूरत नहीं रह जायेगी। इनके कामों को मशीनें कहीं ज्यादा दक्षता के साथ कर दिया करेगी।  

उनका साफ कहना है कि अतीत के आर्थिक इतिहास में, हर तकनीकी क्रांति से जहां कुछ प्रकार के रोजगार खत्म हुए तो वहीं कुछ दूसरे प्रकार के रोजगार पैदा हुए। लेकिन आगे ऐसा नहीं होगा। ‘‘आर्थिक सिद्धांत मुख्य रूप से कार्य-कारण के बजाय अतीत के अनुभवों पर टिके होते हैं, लेकिन यदि रोजगार पैदा करने के मूल चालक ही बदल जाए तो उसके परिणाम बिल्कुल अलग होसकते हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से तकनीक आदमी की क्षमताओं को बढ़ाती और तीव्र करती रही है, जिससे मनुष्य की उत्पादनशीलता बढ़ी है। लेकिन यदि किसी भी ख़ास काम के लिये बुद्धि और ज्ञान, इन दोनों मामलों में बुद्धिमान मशीन आदमी से श्रेष्ठ बन जाती है तो कर्मचारियों की कोई जरूरत ही नहीं रह जायेगी और इसके चलते आदमी का श्रम दिन प्रति दिन सस्ता होता जायेगा।’’ उनकी राय में कोई भी आर्थिक सिद्धांत बेकार साबित होगा यदि उसमें अतीत की तकनीकी क्रांतियों और इन नयी विचारशील मशीनी तकनीक के बीच के फर्क की समझ नहीं होगी।  

इस सिलसिले में खोसला कार्ल माक्‍र्स को उद्धृत करते हैं - ‘‘इतिहास की गाड़ी जब किसी घुमावदार मोड़ पर आती है तो बुद्धिजीवी उससे झटक कर औंधे मूंह गिर जाते हैं।’’ अर्थशास्त्रियों का अतीत के अनुभवों को अपना अधिष्ठान बनाने का ढंग भविष्य के लिये वैध साबित नहीं होगा । एक नये कार्य-कारण संबंध से पुराने, ऐतिहासिक परस्पर-संबंध टूट सकते हैं। जो लोग कमप्यूटरीकरण से रोजगार पर पड़ने वाले प्रभाव का हिसाब-किताब किया करते हैं, और अब भी कर रहे हैं, वे इस बात को समझ ही नहीं रहे हैं कि आगे तकनीक क्या रूप लेने वाली है और उनके सारे अनुमान अतीत के अनेक ‘सत्यों’ की तरह झूठे साबित हो सकते हैं।

मैं यहां विनोद खोसला के इस लेख का लिंक दे रहा हूं। मित्रों से अनुरोध है कि वे इस पूरे लेख को गंभीरता से पढ़ें और इसपर मनन भी करें। विनोद खोसला मनुष्य और उसकी सृजनशीलता तक के सामने आने वाली इन सारी गंभीर चुनौतियों को समझने के बावजूद, पूंजीवाद के एक कट्टर समर्थक के नाते, इस प्रक्रिया को और तेज करने पर ही बल दे रहे हैं।  लेकिन हमारे मन में यह सवाल आरहा हैं कि यदि किसी समाज में श्रम शक्ति का मूल्य नहीं रहता तो फिर पूँजी का भी क्या मूल्य रह जायेगा ? श्रमिक और पूँजीपति का अस्तित्व परस्पर निर्भर है । यदि पूँजीपति की भूमिका उत्पादन के काम में ख़त्म हो जाती है, श्रमिक की तरह ही उसके अस्तित्व का भी कोई कारण बचा नहीं रह जाता । अगर कुछ बचा रह जाता है, तो वह है, राज्य की भूमिका । समाज के अंदर वर्गीय अन्तर्विरोधों के अंत के साथ राज्य के वर्गीय चरित्र का भी लोप हो जाता है । क्या सचमुच, एक शोषण-विहीन, राज्य-विहीन समाज के निर्माण का मार्क्स का यूटोपिया आदमी की जद के इतना क़रीब है ?


http://www.forbes.com/sites/valleyvoices/2014/11/06/the-next-technology-revolution-will-drive-abundance-and-income-disparity/

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