मंगलवार, 24 फ़रवरी 2015

‘स्वरागिनी’ की झगड़ालू औरतें !


‘कलर्स’ चैनल पर एक नये सीरियल ‘स्वरागिनी’ के विज्ञापन ने हमारा ध्यान खींचा है। विज्ञापन में दो पड़ौसी महिलाओं की नोक-झोक का दृश्य है। एक बोरिया और बंधेज की साड़ी पहनी राजस्थानी महिला हाथ में सरौता उठाये हुए है और दूसरी बंगाली तांत की साड़ी पहनी महिला रसोई की खुरपी लिये है।
राजस्थानी महिला चिल्लाती है - ‘ऐऽ बंगालन ! सुबह-सुबह मास-मच्छी !
बंगाली स्त्री के हाथ में एक मछली आ जाती है। उसे लहराते हुए उतनी ही ऊंची आवाज में पलट कर जवाब देती है - ‘ऐऽ मारवाड़न! अगर मच्छी खाई होती तो वर्षों पहले ही बुद्धि खुल जाती।’
‘ऐऽ, पुरानी बात मत कर वरना यहीं पर सारी इज्जत उतर जायेगी।’ मारवाड़ी स्त्री जवाब देती है।
अचानक ही दिमाग में कोलकाता में बंगाली और मारवाड़ी समुदाय के लगभग 200 सालों के सह-अस्तित्व की बात कौंध जाती है। 1813 के चार्टर्ड एक्ट ने भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी की प्रतिद्वंद्वी दूसरी अंग्रेज कंपनियों के आने का रास्ता साफ किया, तो कोलकाता में बंगाली जमींदार बाबुओं के प्रतिद्वंद्वी राजपुताना के महाजनी साहूकारों की भी बाढ़ ला दी। भारत में व्यापार के इस स्वर्ण युग में अंग्रेज कंपनियों के मालों को बेचने और उनके लिये कच्चा माल जुटाने में ये दोनों तबके समान रूप से लगे हुए थे। 1860 में दिल्ली-कोलकाता रेलमार्ग से तो बड़ाबाजार की गद्दियों के इर्द-गिर्द एक मिनि राजस्थान ही आ बसा।
दो समुदायों का इतना लंबा सह-अस्तित्व, लेकिन आज भी देखने पर लगता है जैसे शहर के अंदर दो अलग-अलग स्वायत्त द्वीप। खान-पान से लेकर आचार-आचरण तक - सब मामलों में काफी भिन्न।
ऐसा क्यों हुआ? गांधीजी ने आजाद भारत में बंगाल के पहले मुख्यमंत्री प्रफुल्लचंद्र घोष को पत्र लिख कर कहा था कि देखना, तुम्हारे काबिना में एक मारवाड़ी मंत्री जरूर हो। उनका यह पत्र आज भी कोलकाता म्यूजियम में सुरक्षित है। 1947 से 1967 तक, जब तक राज्य में कांग्रेस की सरकारें रही, यह परंपरा कायम रही। ईश्वर दास जालान बंगाल विधान सभा के अध्यक्ष हुए, तो एक समय विजय सिंह नाहर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर रहे। लेकिन फिर भी, इन दो समाजों के बीच आज भी जैसी सांस्कृतिक दूरी दिखाई देती है, वह आश्चर्यजनक है।
ऐसे में, ‘स्वरागिनी’ जैसा यह सीरियल, जिसमें इन दो समुदायों के बीच पड़ौसियों वाली स्वाभाविक नोक-झोंक की झलक मिलती है, हमारे मन में गहरी उत्सुकता पैदा कर रही है। प्रश्न उठ रहा है कि क्या इधर के दिनों में, वैश्वीकरण की सबको एकमेक कर देने की आंधी से, समाज की तहों में अलगाव की दीवारें तेजी से दरकने लगी है?
इसी जिज्ञासावश ‘स्वरागिनी’ का यह विज्ञापन आकर्षक लग रहा हैं। आगे सीरियल में क्या होगा, हम नहीं जानते। निश्चित तौर पर इस सीरियल की कहानी से हमारे प्रश्न का शायद ही कोई जवाब मिल सके क्योंकि अंत में तो इसे दूसरे सभी सीरियलों की तरह ही सस्ते बाजारूपन की भेंट ही चढ़ना है। फिर भी, इन दो समुदायों में पड़ौसियों वाली अन्तरक्रिया का यह मामूली संकेत ही काफी अर्थपूर्ण नजर आता है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें