आम आदमी पार्टी (आप) में आज जो चल रहा है, चिंताजनक है। अभी तक हम सिर्फ यह सोच रहे हैं कि हम दूर बैठे इस पूरी परिघटना के एक दर्शक भर है। मीडिया की लाख रिपोर्टिंग और स्टिंग के बावजूद, अभी उसके कर्णधारों की मानसिकता की पूरी तफसील में जाना शायद हमारे लिये मुश्किल है। मीडिया की हर बात तो एक कहानी होती है।
इसके अलावा हम ‘आप’ के उदय और अब तक के उसके विकास की पूरी परिघटना को किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह के कामों का कोरा करिश्मा नहीं मानते। हमें यह कभी यकीन नहीं हुआ कि अरविंद केजरीवाल सरीखा एक औसत प्रतिभा का व्यक्ति राजनीति से सदा दूर रहने वाले मुट्ठी भर पेशेवरों की मदद से इतनी थोड़ी सी कोशिश से पलक झपकते कुछ ऐसा कर सकता था, जो न सिर्फ दिल्ली के लिये बल्कि पूरे देश के लिये किसी मिसाल जैसा प्रतीत होता है। हमारी हमेशा यह राय रही कि हर ऐसे तेजी से उभरने वाले व्यापक आंदोलन के पीछे कोई न कोई सामाजिक आवश्यकता होती है जिसकी पुरानी पड़ चुकी संस्थाएं पूर्ति नहीं कर पा रही है। इसके अलावा हमें ऐसे किसी भी नये और व्यापक उभार का दूसरा कोई वाजिब कारण नहीं दिखाई देता।
फिर भी, ‘आप’ के अंदर अभी जो चल रहा है वह तो एक अनोखा, सामान्य जीवन का बहुत ही जाना-पहचाना खेल जैसा है। शत्रु की तलाश का खेल। एक सामान्य, ठहरे हुए उबाऊ जीवन में झूठी उत्तेजना पैदा करके उसे मजे में जीने के लिये शत्रु की तलाश जरूरी मानी जाती है। क्षयिष्णु संगठनों में किसी को लंगी मार कर आगे बढ़ने का आज़माया हुआ तरीक़ा । जीवन में यथास्थितिवाद का यह सबसे अधम रूप है जिसका प्राण-तत्व होता है - ईर्ष्या । शत्रु की तलाश का धंधा इसी अधमता का नमूना है। क्या ‘आप’ की घोषित नीति-विहीनता उसके कुछ लोगों में इसी रोग का कारण बन रही है ; उनके जीने की, उनके राजनीतिक अस्तित्व की एक अधम जरूरत ?
अभी हम सिर्फ इतना ही कह सकते हैं कि ‘आप’ के अंदर जो लोग अभी एक दूसरे के शत्रुओं की
तलाश में जुटे हुए हैं, वे प्रकारांतर से ‘आप’ को एक नर्क बना देने के काम में लगे हुए हैं ; भारत की मौजूदा कई दूसरी राजनीतिक पार्टियों की तरह का ही एक साक्षात नरक-कुंड। और कहना न होगा कि जब किसी पार्टी की सारी पूंजी इसी तथ्य की जानकारी में सिमट कर रह जाती है कि अमुक-अमुक व्यक्ति पर विश्वास नहीं किया जाना चाहिए, उसका भविष्य बेहद निराशाजनक हो जाता है।
सार्त्र के नाटक No Exit को याद कीजिये। नर्क पहुंची तीन नीच आत्माओं को खौलते तेल में डुबो कर यातना देने के बजाय एक कमरे में हमेशा-हमेशा के लिये बंद कर दिया जाता है। ये अधम आत्माएं एक दूसरे को ही शत्रु मान कर बिना किसी बाहरी यंत्रणादायी के परस्पर को यंत्रणाएं देने में जुट जाती हैं । बंद कमरा और शत्रु की तलाश की प्रवृत्ति - फिर किसी और नर्क की जरूरत थोड़े होती है ! ‘आप’ को अंधेरे बंद कमरों के ऐसे भूतों से बचते हुए, व्यापक जनता के जीवन-संघर्षों के आंगन की खुली हवा में सांस लेना होगा। जो बौने लोग इसे अपनी मुट्ठियों में कैद कर इसके दम को घोंट देना चाहते हैं उनका कोई भविष्य नहीं है। ‘आप’ का उदय भारतीय समाज और राजनीति की एक ऐतिहासिक जरूरत है।
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