अरुण माहेश्वरी
ग्रीस के लोगों ने भारी बहुमत के साथ अपनी सरकार के इस प्रस्ताव को स्वीकार लिया है कि वे आर्थिक मामलों में किसी भी महाजन देश या संघ की मनमानी शर्तों को नहीं मानेंगे। 5 जुलाई के जनमत-संग्रह में उनसे पूछा गया था कि यूरोपीय संघ के ऋणदाता देश कथित ‘मितव्ययिता’ को जारी रखते हुए अर्थ-व्यवस्था के समायोजन की जो शर्तें रख रहे हैं, उन्हें माना जाएं या ठुकरा दिया जाए।
पूरे ग्रीस में भारी प्रचार था कि यदि इन शर्तों को नहीं माना जाता है तो दूसरे दिन से ही ग्रीस में दवाएं नहीं मिलेगी, ईंधन मिलना बंद हो जायेगा ; ग्रीस यूरो क्षेत्र में नहीं रह पायेगा और अंत में यूरोपीय संघ से भी वह निष्काषित होगा। लेकिन, अंतत: ग्रीस की जनता के लिये ‘मितव्ययिता और संयम’ के पिछले पांच साल से भी ज्यादा समय के अनुभव भविष्य की इन आशंकाओं से कहीं ज्यादा भारी साबित हुए। कर्जदारों के ‘मितव्ययिता’ के नुस्खों ने वहां की अर्थ-व्यवस्था को मृत्यु के कगार तक पहुंचा दिया था। वह सूख कर कांटा हो रही थी। लोगों के पास न रोजगार था और न बैंकों में जमा राशि की सुरक्षा की गारंटी। यूरो मुद्रा के तमगे की झूठी शान से उनका घर नहीं चल पा रहा था। मामला अमीरों की यूरो-प्रीति बनाम गरीबों की जीवन रक्षा की लड़ाई में तब्दील हो चुका था। यूरो हो या ड्राक्मास, लोगों को जीवन में वास्तविक सुख-चैन चाहिए, न कि लालाजी की कभी फाख्ता उड़ाने वाली थोथी शान।
बहरहाल, इस जनमत-संग्रह का कुछ भी परिणाम क्यों न आया हो, इसने अपने पीछे कई ऐसे अनसुलझे सवाल जरूर छोड़ दिये हैं जिनसे बिना टकराए हमारी दृष्टि में आज के यूरोप और विश्वपूंजीवाद की वास्तविकता को समझना असंभव होगा।
इसमें सबसे पहला सवाल तो यही है कि आखिर यह 28 देशों का यूरोपीय संघ और इनमें 19 देशों का यूरो क्षेत्र किस गरज से बना था ?
एक साइप्रस और माल्टा की तरह के भूमध्यसागर के द्वीप देशों को छोड़ दिया जाए तो यूरोपीय संघ में शामिल यूरोप के ये तमाम ऐसे देश है जिनका अतीत उपनिवेशवाद का अतीत रहा है। दुनिया की आबादी के दसवे हिस्से से भी कम आबादी के इन देशों के पृथ्वी के क्षेत्रफल के आधे हिस्से पर उपनिवेश थे। इनमें चीन, तुर्की और फारस की तरह के अद्र्ध-उपनिवेशों को जोड़ दे तो तकरीबन 60 प्रतिशत धरती इनकी थी। 15वीं शताब्दी से शुरू हुए इनके औपनिवेशिक अभियानों का अंत 20वीं सदी के सबसे विध्वंसक द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के साथ हुआ। यूरोप के इन पांच सौ सालों का इतिहास यह है कि ये देश हमेशा आपस में युद्धों में लगे रहे, क्योंकि इनकी युद्ध की ताकत ही इनकी औपनिवेशिक शक्ति का आधार होती थी।
दूसरे देशों की लूट-मार करने, उनका उत्पीड़न करने के लिये किये जाने वाले युद्धों की ताकत को ही पूंजीवाद के इतिहास में राष्ट्रवाद कहा जाता है। इस राष्ट्रवाद का सबसे उग्र और क्रूर रूप द्वितीय विश्व-युद्ध में सामने आया था, जब दुनिया के भाग-बंटवारे में पिछड़ चुकी जर्मनी, इटली और स्पेन की सरकारों ने आपस में मिल कर सारी दुनिया पर अपना अधिकार कायम करने का महा-विनाशकारी युद्ध छेड़ा, करोड़ों-करोड़ों लोगों को कीड़े-मकोड़ों की तरह मसल डाला और मनुष्यता के खिलाफ अपराधों के सबसे घृणित पृष्ठों की रचना की। उस युद्ध में उनके साथ पूरब का जापान भी इसी उद्देश्य से उतर पड़ा था क्योंकि उसे भी अपनी सैनिक शक्ति के अनुपात में अपने प्रभुत्व के क्षेत्र चाहिए थे।
यूरोप का युद्धों से भरा इतिहास इस बात का गवाह है कि जब तक इन देशों के सामने उपनिवेश बनाने की संभावनाएं बची हुई थी, ये आपस में लडते़ रहे। दुनिया में संयुक्त राज्य अमेरिका और उसकी बढ़ती हुई आर्थिक-सामरिक शक्ति की तरह के उदाहरण मौजूद होने पर भी यूरोप के संयुक्त राज्य की तरह के प्रस्तावों को इन देशों की सरकारों ने कभी भी गंभीरता से नहीं लिया था।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जब सारी दुनिया के देश एक-एक कर आजाद होने लगे, तब भी, यह सच है कि इन प्रभु देशों की आर्थिक स्थिति पर कोई खराब असर नहीं पड़ा था। पूरी दुनिया में इनकी पूंजी लगी हुई थी और गुलाम देशों को छोड़ कर जाते-जाते भी वे नव-स्वाधीन देशों के पूंजीपति वर्गों के प्रतिनिधियों से ऐसी तमाम संधियां करने में सफल हुए थे, जिनसे उनकी पूंजी पर कोई आंच न आने पायें, उनकी पूंजी सुरक्षित रहे और उस पर मुनाफा, पूरे बोनस के साथ उनके घर नियमित पहुंचता रहे। केनेथ गॉलब्रेथ के शब्दों में - उपनिवेशों को आजाद करके इन देशों ने उल्टे अपने नुकसान वाले खर्चों से मुक्ति पा ली और अपने लाभ के प्रमुख स्रोतों को सुरक्षित बनाये रखा। द्वितीय विश्व युद्ध में यूरोप की जो तबाही हुई, उसे अमेरिकी ब्रेटनवुड संस्थाओं और मार्शल प्लान के बूते, बहुस्तरीय अन्तरराष्ट्रीय मंचों के जरिये संभाल लिया गया।
फलत:, आज भी स्थिति यह है कि जिन 28 देशों को मिला कर यूरोपीय संघ का गठन हुआ, उनमें से 26 देश ऐसे हैं जो मानव विकास सूचकांक के पैमाने पर अभी सर्वोच्च स्थानों पर आते हैं। यूरोप के इस हिस्से में दुनिया की आबादी का सिर्फ साढ़े सात प्रतिशत वास करता है, उसमें भी अच्छा खासा हिस्सा बूढ़े लोगों का है, फिर भी दुनिया के सकल घरेलू उत्पाद में इन देशों का हिस्सा अभी भी लगभग 24 प्रतिशत के बराबर है।
इसके अलावा मामला सिर्फ आर्थिक संपन्नता या विपन्नता का भी नहीं है। उपनिवेशों के हाथ से चले जाने के बाद भी कमोबेस यूरोप के इन देशों की आर्थिक संपन्नता के बने रहने के बावजूद कुछ दूसरे और भी महत्वपूर्ण प्रसंग है जो इधर के तमाम सालों में यूरोप को बुरी तरह से सताते रहे हैं। इनमें एक बड़ा सवाल विश्व-सभ्यता पर यूरोप के वर्चस्व को कायम रखने का भी है, जो द्वितीय विश्वयुद्ध के काल तक निर्विवाद रूप से अक्षुण्ण बना हुआ था।
आज की सचाई यह है कि पिछले 70 सालों के घटना-क्रम में यूरोपीय राष्ट्रवाद की जड़ें हिल चुकी है। पूंजीवादी दुनिया का केंद्र यूरोप से खिसक कर हमेशा के लिये अमेरिका में चला गया है। उसकी विशाल सामरिक शक्ति के सामने यूरोप बौना है। पूंजीवादी दुनिया में वर्चस्व के मूल में आज भी सामरिक शक्ति की प्रधानता बनी हुई है, लेकिन इस मामले में यूरोप अमेरिका के सामने कहीं नहीं टिकता। इसका यूरोप के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन पर जो गहरा असर पड़ा है, इसके दबाव को वहां के शासक वर्ग हर क्षण अपनी धड़कनों तक पर महसूस करते हैं। यह अमेरिका का ही प्रताप है कि जो अंग्रेजी भाषा यूरोप के सिर्फ 12 प्रतिशत लोगों की भाषा है, अभी यूरोप में उसका अपने दैनंदिन जीवन में प्रयोग करने वालों की संख्या 49 प्रतिशत तक पहुंच गई है।
यह एक प्रकार से संयुक्त रूप से पूरे यूरोप की अस्मिता के संकट का प्रश्न है। आज भी किसी न किसी प्रकार से अपने राजतंत्र के दिनों के अतीत से चिपका हुआ यूरोप बुढ़ापे के कारण कमजोर पड़ने लगा है। ऊपर से उसका पैशाचिक, युद्धोन्मादी अतीत उसपर प्रेत की छाया की तरह मंडराता रहता है। पोलैंड में रैनेसांस के सबसे पुराने शहर क्रैकोव से सिर्फ 70 किलोमीटर की दूरी पर आश्विट्स का वह कसाई खाना है जहां हिटलर ने लाखों यहूदियों को काटा था और आदमी को असंभव यातनाएं देने की तरकीबें इजाद की थी। जितने लोग रैनेसांस के इस सबसे बड़े केंद्र क्रैकोव को देखने नहीं जाते, उससे काफी ज्यादा लोग मानवता के इस वध-स्थल, क्रूरता के ‘कीर्तिमान’ को देखने जाते हैं। यूरोप के चप्पे-चप्पे में इतिहास की इन क्रूरताओं के निशान देखे जा सकते हैं।
यूरोप के पूंजीवादी शासकों को चुनौती देने वाला रूस का समाजवाद भले ही आज अस्तित्व में न हो, लेकिन अमेरिका के राजतंत्र-विहीन पूंजीवाद के सामने उसकी चमक पूरी तरह से म्लान हो चुकी है। इधर पूरब में चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आर्थिक ताकत बन चुका है। भारत सहित और भी विकासशील देशों का दुनिया के जीडीपी में योगदान दिनों-दिन बढ़ रहा है। दीपक नैय्यर की किताब ‘कैच अप’ में पूर्व-औपनिवेशिक देशों के उठ खड़े होने का जो दिलचस्प आख्यान है, उसमें बताया गया है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से आर्थिक शक्ति का पेंडुलम जीडीपी में योगदान और प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि के मानदंड पर खास तौर पर एशिया के विकासशील देशों की ओर बढ़ रहा है।
यूरोप की जो सरकारें सैनिक शक्ति के बल पर एशिया, अफ्रीका और लातिन अमेरिका की जातियों को लूटने-मारने, उनका उत्पीड़न करने और अपनी वित्तीय पूंजी के इंतजाम की अरबपतियों की राष्ट्रीय समितियों की तरह मुस्तैदी से काम किया करती थी, अब वे क्रमश: अपने हितों की रक्षा के लिये अमेरिकी सैनिक शक्ति का मूंह जोहती दिखाई देती है। वे नैटो पर आश्रित है जिसका नेतृत्व अमेरिका के हाथ में है। युगोस्लाव संकट, स्लोवेनिया, क्रोएशिया, कोसोवो के मामलों में भी नाटो के बल पर ही इनके लिये कुछ करना संभव हो पाया था।
दुनिया की इस बदल चुकी परिस्थिति में, जब सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप में समाजवाद के पतन के बाद अमेरिका के एकध्रुवीय विश्व का नक्शा पूरी तरह साफ हो चुका था, बड़ी मुश्किल से यूरोप के इन बुढ़ाते देशों को होश आया। उन्होंने हिसाब लगाया कि यदि यूरोप के सारे देश किसी एक संघ में इकट्ठा होते हैं, तो उनकी संयुक्त आर्थिक शक्ति किसी भी देश अथवा संघ के मुकाबला काफी ज्यादा होगी। यह सच भी है कि आज यूरोपीय संघ का संयुक्त रूप में दुनिया के जीडीपी में सबसे बड़ा योगदान है। 1993 की मैस्त्रीक संधि हुई, अमेरिका के वर्चस्व का मुकाबला करने और दुनिया पर प्रभुत्व के अपने पुराने दिनों की वापसी के स्वप्नों के आधार पर ही ईईसी का विस्तार करते हुए यूरोपीय संघ और फिर यूरोपीय पार्लियामेंट, एक मुद्रा, एक न्याय-व्यवस्था आदि के विशाल तंत्र की नींव रखी गई।
यूरोपीय संघ के गठन की इस पूरी अवधारणा में इसके संघटक देशों की जनता के कल्याण की कोई भावना नहीं थी। यूरोपीय संघ के तत्वावधान में ही स्लोवाकिया के देशों, ग्रीस और स्पेन के लोगों का लगातार गिरता हुआ जीवन-स्तर, संघ के बड़े महाजन देशों का अपने मुनाफे की रक्षा के प्रति उग्र दृष्टिकोण इसे बताने के लिये काफी है। 1999 में कोसोवो संकट में नाटो द्वारा सैनिक बल के प्रयोग से यूूरोपीय संघ के सामरिक मंसूबों की भी एक झलक मिली थी।
इससे एक बात साफ है कि यूरोपीय संघ का गठन शुद्ध रूप से प्रतिक्रियावादी उद्देश्यों से किया गया था। अपनी वित्तीय पूंजी के हितों की रक्षा के लिये गठित एक बहुराष्ट्रीय समिति के तौर पर। लेकिन फिर भी, जिस एक बात को इन बूढ़े चालाक देशों की सरकारें भूल गयी, वह यह थी कि पूंजी के अन्तरराष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिये हमेशा भारी सैनिक सरंजामों का होना अनिवार्य है। और इस मामले में वे अमेरिका से इतना पीछे है कि अब कभी भी पूंजीवादी विश्व के सरगना का स्थान नहीं ले सकते।
यूरोपीय संघ में ग्रीस के मौजूदा संकट का यह एक अहम पहलू है। ग्रीस ने यूरोपीय संघ की कर्ज को लौटाने की शर्तों को मानने से इंकार कर दिया है। यूरोपीय संघ की मुसीबत यह है कि उसके पास अब वह ताकत नहीं है कि उसके बल पर वह ग्रीस के खिलाफ कोई युद्ध छेड़ दे। इसके लिये उसे अमेरिका की शरण में जाना होगा। और अमेरिका, जो अभी भूमध्यसागर के दक्षिणी तट, मध्यपूर्व में अपने प्रभुत्व विस्तार के इतने बड़े अभियान में उतरा हुआ है, उसे अकारण ही इस उत्तरी तट के देश में उतरना गंवारा नहीं होगा।
ग्रीस के संकट से विश्व राजनीति का यह एक सबसे महत्वपूर्ण पहलू उभर कर सामने आया है। ग्रीस की सिर्जिया सरकार ने यूरोपीय संघ की शर्तों को ठुकरा कर युरोपीय वित्तीय पूंजी के हितों में काम करने के लिये तैयार किये गये संघ को ठुकराने की दिशा में कदम बढ़ाया है। यह यूरोप की धरती पर पूंजी के शासन से इंकार की एक नई शुरूआत होगी।
इस जनमत-संग्रह में ग्रीस की कम्युनिस्ट पार्टी ने लोगों से यह अपील की थी कि वे न सिर्फ यूरोपीय महाजन देशों के प्रस्ताव को ही ठुकराये, बल्कि इसके साथ ही ग्रीस की वर्तमान सिर्जिया सरकार को भी ठुकरा दें। वहां की कम्युनिस्ट पार्टी का मानना है कि ग्रीस की समस्या का समाधान यूरो की जगह पुरानी मुद्रा ड्राक्मास को अपनाने मात्र में नहीं है। लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी के इस वामपंथी बचकानेपन को इस जनमत-संग्रह में जरा सा भी समर्थन नहीं मिला।
हमें तो आज ऐसा लगता है कि जिस यूरोप में कभी साम्राज्यवाद की सबसे कमजोर कड़ी रूस में पूंजीवाद का अंत हुआ था, अभी की स्थिति में पूरा यूरोप ही क्रमश: साम्राज्यवाद की कमजोर कड़ी बनता जा रहा है। यूरोपीय संघ का पतन यूरोप में मानवता के एक नये युग के प्रारंभ के लिये जरूरी है।
ग्रीस के लोगों ने भारी बहुमत के साथ अपनी सरकार के इस प्रस्ताव को स्वीकार लिया है कि वे आर्थिक मामलों में किसी भी महाजन देश या संघ की मनमानी शर्तों को नहीं मानेंगे। 5 जुलाई के जनमत-संग्रह में उनसे पूछा गया था कि यूरोपीय संघ के ऋणदाता देश कथित ‘मितव्ययिता’ को जारी रखते हुए अर्थ-व्यवस्था के समायोजन की जो शर्तें रख रहे हैं, उन्हें माना जाएं या ठुकरा दिया जाए।
पूरे ग्रीस में भारी प्रचार था कि यदि इन शर्तों को नहीं माना जाता है तो दूसरे दिन से ही ग्रीस में दवाएं नहीं मिलेगी, ईंधन मिलना बंद हो जायेगा ; ग्रीस यूरो क्षेत्र में नहीं रह पायेगा और अंत में यूरोपीय संघ से भी वह निष्काषित होगा। लेकिन, अंतत: ग्रीस की जनता के लिये ‘मितव्ययिता और संयम’ के पिछले पांच साल से भी ज्यादा समय के अनुभव भविष्य की इन आशंकाओं से कहीं ज्यादा भारी साबित हुए। कर्जदारों के ‘मितव्ययिता’ के नुस्खों ने वहां की अर्थ-व्यवस्था को मृत्यु के कगार तक पहुंचा दिया था। वह सूख कर कांटा हो रही थी। लोगों के पास न रोजगार था और न बैंकों में जमा राशि की सुरक्षा की गारंटी। यूरो मुद्रा के तमगे की झूठी शान से उनका घर नहीं चल पा रहा था। मामला अमीरों की यूरो-प्रीति बनाम गरीबों की जीवन रक्षा की लड़ाई में तब्दील हो चुका था। यूरो हो या ड्राक्मास, लोगों को जीवन में वास्तविक सुख-चैन चाहिए, न कि लालाजी की कभी फाख्ता उड़ाने वाली थोथी शान।
बहरहाल, इस जनमत-संग्रह का कुछ भी परिणाम क्यों न आया हो, इसने अपने पीछे कई ऐसे अनसुलझे सवाल जरूर छोड़ दिये हैं जिनसे बिना टकराए हमारी दृष्टि में आज के यूरोप और विश्वपूंजीवाद की वास्तविकता को समझना असंभव होगा।
इसमें सबसे पहला सवाल तो यही है कि आखिर यह 28 देशों का यूरोपीय संघ और इनमें 19 देशों का यूरो क्षेत्र किस गरज से बना था ?
एक साइप्रस और माल्टा की तरह के भूमध्यसागर के द्वीप देशों को छोड़ दिया जाए तो यूरोपीय संघ में शामिल यूरोप के ये तमाम ऐसे देश है जिनका अतीत उपनिवेशवाद का अतीत रहा है। दुनिया की आबादी के दसवे हिस्से से भी कम आबादी के इन देशों के पृथ्वी के क्षेत्रफल के आधे हिस्से पर उपनिवेश थे। इनमें चीन, तुर्की और फारस की तरह के अद्र्ध-उपनिवेशों को जोड़ दे तो तकरीबन 60 प्रतिशत धरती इनकी थी। 15वीं शताब्दी से शुरू हुए इनके औपनिवेशिक अभियानों का अंत 20वीं सदी के सबसे विध्वंसक द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के साथ हुआ। यूरोप के इन पांच सौ सालों का इतिहास यह है कि ये देश हमेशा आपस में युद्धों में लगे रहे, क्योंकि इनकी युद्ध की ताकत ही इनकी औपनिवेशिक शक्ति का आधार होती थी।
दूसरे देशों की लूट-मार करने, उनका उत्पीड़न करने के लिये किये जाने वाले युद्धों की ताकत को ही पूंजीवाद के इतिहास में राष्ट्रवाद कहा जाता है। इस राष्ट्रवाद का सबसे उग्र और क्रूर रूप द्वितीय विश्व-युद्ध में सामने आया था, जब दुनिया के भाग-बंटवारे में पिछड़ चुकी जर्मनी, इटली और स्पेन की सरकारों ने आपस में मिल कर सारी दुनिया पर अपना अधिकार कायम करने का महा-विनाशकारी युद्ध छेड़ा, करोड़ों-करोड़ों लोगों को कीड़े-मकोड़ों की तरह मसल डाला और मनुष्यता के खिलाफ अपराधों के सबसे घृणित पृष्ठों की रचना की। उस युद्ध में उनके साथ पूरब का जापान भी इसी उद्देश्य से उतर पड़ा था क्योंकि उसे भी अपनी सैनिक शक्ति के अनुपात में अपने प्रभुत्व के क्षेत्र चाहिए थे।
यूरोप का युद्धों से भरा इतिहास इस बात का गवाह है कि जब तक इन देशों के सामने उपनिवेश बनाने की संभावनाएं बची हुई थी, ये आपस में लडते़ रहे। दुनिया में संयुक्त राज्य अमेरिका और उसकी बढ़ती हुई आर्थिक-सामरिक शक्ति की तरह के उदाहरण मौजूद होने पर भी यूरोप के संयुक्त राज्य की तरह के प्रस्तावों को इन देशों की सरकारों ने कभी भी गंभीरता से नहीं लिया था।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जब सारी दुनिया के देश एक-एक कर आजाद होने लगे, तब भी, यह सच है कि इन प्रभु देशों की आर्थिक स्थिति पर कोई खराब असर नहीं पड़ा था। पूरी दुनिया में इनकी पूंजी लगी हुई थी और गुलाम देशों को छोड़ कर जाते-जाते भी वे नव-स्वाधीन देशों के पूंजीपति वर्गों के प्रतिनिधियों से ऐसी तमाम संधियां करने में सफल हुए थे, जिनसे उनकी पूंजी पर कोई आंच न आने पायें, उनकी पूंजी सुरक्षित रहे और उस पर मुनाफा, पूरे बोनस के साथ उनके घर नियमित पहुंचता रहे। केनेथ गॉलब्रेथ के शब्दों में - उपनिवेशों को आजाद करके इन देशों ने उल्टे अपने नुकसान वाले खर्चों से मुक्ति पा ली और अपने लाभ के प्रमुख स्रोतों को सुरक्षित बनाये रखा। द्वितीय विश्व युद्ध में यूरोप की जो तबाही हुई, उसे अमेरिकी ब्रेटनवुड संस्थाओं और मार्शल प्लान के बूते, बहुस्तरीय अन्तरराष्ट्रीय मंचों के जरिये संभाल लिया गया।
फलत:, आज भी स्थिति यह है कि जिन 28 देशों को मिला कर यूरोपीय संघ का गठन हुआ, उनमें से 26 देश ऐसे हैं जो मानव विकास सूचकांक के पैमाने पर अभी सर्वोच्च स्थानों पर आते हैं। यूरोप के इस हिस्से में दुनिया की आबादी का सिर्फ साढ़े सात प्रतिशत वास करता है, उसमें भी अच्छा खासा हिस्सा बूढ़े लोगों का है, फिर भी दुनिया के सकल घरेलू उत्पाद में इन देशों का हिस्सा अभी भी लगभग 24 प्रतिशत के बराबर है।
इसके अलावा मामला सिर्फ आर्थिक संपन्नता या विपन्नता का भी नहीं है। उपनिवेशों के हाथ से चले जाने के बाद भी कमोबेस यूरोप के इन देशों की आर्थिक संपन्नता के बने रहने के बावजूद कुछ दूसरे और भी महत्वपूर्ण प्रसंग है जो इधर के तमाम सालों में यूरोप को बुरी तरह से सताते रहे हैं। इनमें एक बड़ा सवाल विश्व-सभ्यता पर यूरोप के वर्चस्व को कायम रखने का भी है, जो द्वितीय विश्वयुद्ध के काल तक निर्विवाद रूप से अक्षुण्ण बना हुआ था।
आज की सचाई यह है कि पिछले 70 सालों के घटना-क्रम में यूरोपीय राष्ट्रवाद की जड़ें हिल चुकी है। पूंजीवादी दुनिया का केंद्र यूरोप से खिसक कर हमेशा के लिये अमेरिका में चला गया है। उसकी विशाल सामरिक शक्ति के सामने यूरोप बौना है। पूंजीवादी दुनिया में वर्चस्व के मूल में आज भी सामरिक शक्ति की प्रधानता बनी हुई है, लेकिन इस मामले में यूरोप अमेरिका के सामने कहीं नहीं टिकता। इसका यूरोप के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन पर जो गहरा असर पड़ा है, इसके दबाव को वहां के शासक वर्ग हर क्षण अपनी धड़कनों तक पर महसूस करते हैं। यह अमेरिका का ही प्रताप है कि जो अंग्रेजी भाषा यूरोप के सिर्फ 12 प्रतिशत लोगों की भाषा है, अभी यूरोप में उसका अपने दैनंदिन जीवन में प्रयोग करने वालों की संख्या 49 प्रतिशत तक पहुंच गई है।
यह एक प्रकार से संयुक्त रूप से पूरे यूरोप की अस्मिता के संकट का प्रश्न है। आज भी किसी न किसी प्रकार से अपने राजतंत्र के दिनों के अतीत से चिपका हुआ यूरोप बुढ़ापे के कारण कमजोर पड़ने लगा है। ऊपर से उसका पैशाचिक, युद्धोन्मादी अतीत उसपर प्रेत की छाया की तरह मंडराता रहता है। पोलैंड में रैनेसांस के सबसे पुराने शहर क्रैकोव से सिर्फ 70 किलोमीटर की दूरी पर आश्विट्स का वह कसाई खाना है जहां हिटलर ने लाखों यहूदियों को काटा था और आदमी को असंभव यातनाएं देने की तरकीबें इजाद की थी। जितने लोग रैनेसांस के इस सबसे बड़े केंद्र क्रैकोव को देखने नहीं जाते, उससे काफी ज्यादा लोग मानवता के इस वध-स्थल, क्रूरता के ‘कीर्तिमान’ को देखने जाते हैं। यूरोप के चप्पे-चप्पे में इतिहास की इन क्रूरताओं के निशान देखे जा सकते हैं।
यूरोप के पूंजीवादी शासकों को चुनौती देने वाला रूस का समाजवाद भले ही आज अस्तित्व में न हो, लेकिन अमेरिका के राजतंत्र-विहीन पूंजीवाद के सामने उसकी चमक पूरी तरह से म्लान हो चुकी है। इधर पूरब में चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आर्थिक ताकत बन चुका है। भारत सहित और भी विकासशील देशों का दुनिया के जीडीपी में योगदान दिनों-दिन बढ़ रहा है। दीपक नैय्यर की किताब ‘कैच अप’ में पूर्व-औपनिवेशिक देशों के उठ खड़े होने का जो दिलचस्प आख्यान है, उसमें बताया गया है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से आर्थिक शक्ति का पेंडुलम जीडीपी में योगदान और प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि के मानदंड पर खास तौर पर एशिया के विकासशील देशों की ओर बढ़ रहा है।
यूरोप की जो सरकारें सैनिक शक्ति के बल पर एशिया, अफ्रीका और लातिन अमेरिका की जातियों को लूटने-मारने, उनका उत्पीड़न करने और अपनी वित्तीय पूंजी के इंतजाम की अरबपतियों की राष्ट्रीय समितियों की तरह मुस्तैदी से काम किया करती थी, अब वे क्रमश: अपने हितों की रक्षा के लिये अमेरिकी सैनिक शक्ति का मूंह जोहती दिखाई देती है। वे नैटो पर आश्रित है जिसका नेतृत्व अमेरिका के हाथ में है। युगोस्लाव संकट, स्लोवेनिया, क्रोएशिया, कोसोवो के मामलों में भी नाटो के बल पर ही इनके लिये कुछ करना संभव हो पाया था।
दुनिया की इस बदल चुकी परिस्थिति में, जब सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप में समाजवाद के पतन के बाद अमेरिका के एकध्रुवीय विश्व का नक्शा पूरी तरह साफ हो चुका था, बड़ी मुश्किल से यूरोप के इन बुढ़ाते देशों को होश आया। उन्होंने हिसाब लगाया कि यदि यूरोप के सारे देश किसी एक संघ में इकट्ठा होते हैं, तो उनकी संयुक्त आर्थिक शक्ति किसी भी देश अथवा संघ के मुकाबला काफी ज्यादा होगी। यह सच भी है कि आज यूरोपीय संघ का संयुक्त रूप में दुनिया के जीडीपी में सबसे बड़ा योगदान है। 1993 की मैस्त्रीक संधि हुई, अमेरिका के वर्चस्व का मुकाबला करने और दुनिया पर प्रभुत्व के अपने पुराने दिनों की वापसी के स्वप्नों के आधार पर ही ईईसी का विस्तार करते हुए यूरोपीय संघ और फिर यूरोपीय पार्लियामेंट, एक मुद्रा, एक न्याय-व्यवस्था आदि के विशाल तंत्र की नींव रखी गई।
यूरोपीय संघ के गठन की इस पूरी अवधारणा में इसके संघटक देशों की जनता के कल्याण की कोई भावना नहीं थी। यूरोपीय संघ के तत्वावधान में ही स्लोवाकिया के देशों, ग्रीस और स्पेन के लोगों का लगातार गिरता हुआ जीवन-स्तर, संघ के बड़े महाजन देशों का अपने मुनाफे की रक्षा के प्रति उग्र दृष्टिकोण इसे बताने के लिये काफी है। 1999 में कोसोवो संकट में नाटो द्वारा सैनिक बल के प्रयोग से यूूरोपीय संघ के सामरिक मंसूबों की भी एक झलक मिली थी।
इससे एक बात साफ है कि यूरोपीय संघ का गठन शुद्ध रूप से प्रतिक्रियावादी उद्देश्यों से किया गया था। अपनी वित्तीय पूंजी के हितों की रक्षा के लिये गठित एक बहुराष्ट्रीय समिति के तौर पर। लेकिन फिर भी, जिस एक बात को इन बूढ़े चालाक देशों की सरकारें भूल गयी, वह यह थी कि पूंजी के अन्तरराष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिये हमेशा भारी सैनिक सरंजामों का होना अनिवार्य है। और इस मामले में वे अमेरिका से इतना पीछे है कि अब कभी भी पूंजीवादी विश्व के सरगना का स्थान नहीं ले सकते।
यूरोपीय संघ में ग्रीस के मौजूदा संकट का यह एक अहम पहलू है। ग्रीस ने यूरोपीय संघ की कर्ज को लौटाने की शर्तों को मानने से इंकार कर दिया है। यूरोपीय संघ की मुसीबत यह है कि उसके पास अब वह ताकत नहीं है कि उसके बल पर वह ग्रीस के खिलाफ कोई युद्ध छेड़ दे। इसके लिये उसे अमेरिका की शरण में जाना होगा। और अमेरिका, जो अभी भूमध्यसागर के दक्षिणी तट, मध्यपूर्व में अपने प्रभुत्व विस्तार के इतने बड़े अभियान में उतरा हुआ है, उसे अकारण ही इस उत्तरी तट के देश में उतरना गंवारा नहीं होगा।
ग्रीस के संकट से विश्व राजनीति का यह एक सबसे महत्वपूर्ण पहलू उभर कर सामने आया है। ग्रीस की सिर्जिया सरकार ने यूरोपीय संघ की शर्तों को ठुकरा कर युरोपीय वित्तीय पूंजी के हितों में काम करने के लिये तैयार किये गये संघ को ठुकराने की दिशा में कदम बढ़ाया है। यह यूरोप की धरती पर पूंजी के शासन से इंकार की एक नई शुरूआत होगी।
इस जनमत-संग्रह में ग्रीस की कम्युनिस्ट पार्टी ने लोगों से यह अपील की थी कि वे न सिर्फ यूरोपीय महाजन देशों के प्रस्ताव को ही ठुकराये, बल्कि इसके साथ ही ग्रीस की वर्तमान सिर्जिया सरकार को भी ठुकरा दें। वहां की कम्युनिस्ट पार्टी का मानना है कि ग्रीस की समस्या का समाधान यूरो की जगह पुरानी मुद्रा ड्राक्मास को अपनाने मात्र में नहीं है। लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी के इस वामपंथी बचकानेपन को इस जनमत-संग्रह में जरा सा भी समर्थन नहीं मिला।
हमें तो आज ऐसा लगता है कि जिस यूरोप में कभी साम्राज्यवाद की सबसे कमजोर कड़ी रूस में पूंजीवाद का अंत हुआ था, अभी की स्थिति में पूरा यूरोप ही क्रमश: साम्राज्यवाद की कमजोर कड़ी बनता जा रहा है। यूरोपीय संघ का पतन यूरोप में मानवता के एक नये युग के प्रारंभ के लिये जरूरी है।
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