सोमवार, 28 दिसंबर 2015

विचार का एक प्रमुख विषय : जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद

संगठन के विषयों पर सीपीआई (एम) का महाधिवेशन


-अरुण माहेश्वरी

संगठन के सवालों पर सीपीआई(एम) का महाधिवेशन (27 दिसंबर-31 दिसंबर 2015) कोलकाता में चल रहा है।

इस महाधिवेशन में लिये गये संगठन संबंधी नीतिगत निर्णयों के बारे में सही ढंग से तभी कोई बात हो सकती है, जब इसमें अपनाये गये दस्तावेज हर किसी को विचार के लिये उपलब्ध होंगे। लेकिन सीपीआई(एम) के मुखपत्र गणशक्ति और यहां के दूसरे स्थानीय अखबारों से तथा पार्टी के नेताओं के संवाददाता सम्मेलनों से अब तक जो बात सामने आई है, उसमें यह साफ तौर पर कहा गया है कि नये सिरे से सीपीआई(एम) को एक जन पार्टी के रूप में तैयार किया जायेगा।

अगर यह सच है तो यह प्रकारांतर से इस बात की स्वीकृति है कि 1978 के सलकिया प्लेनम में जन-क्रांतिकारी पार्टी के निर्माण का जो नारा दिया गया था, उस पर अमल में अब तक पार्टी विफल रही है।

हम नहीं जानते, इस विफलता को किन तथ्यों और मानदंडों के आधारों पर आंका गया है। कम्युनिस्ट पार्टी के संचालन के सबसे पवित्र और अनुलंघनीय सिद्धांत के रूप में ‘जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद’ की दुहाई दी जाती रही है और जन-क्रांतिकारी पार्टी के निर्माण के लिये भी इससे भिन्न किसी दूसरे सांगठनिक सिद्धांत का रास्ता नहीं अपनाया गया है। फिर आखिर यह विफलता क्यों ? कैसे जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद सिर्फ यहीं पर नहीं, बल्कि सारी दुनिया की कम्युनिस्ट पार्टियों में कोरे केंद्रीयतावाद में तब्दील हो कर रह जाता है!

यह जितना सैद्धांतिक सवाल है, उतना ही एक दार्शनिक प्रश्न भी है। जनतंत्र की कोई भी प्रकृत अवधारणा उसे व्यापक जनता और समाज से काट कर कभी चरितार्थ नहीं हो सकती। विचार का कोई भी रूप जब व्यापक जनता से कट कर चंद चुने हुए लोगों के विशेषाधिकार का प्रश्न बन जाता है, वहीं से उसके जनतांत्रिक तत्व की हानि शुरू हो जाती है। पूंजीवादी जनतंत्र सच्चा जनतंत्र नहीं है, क्योंकि वह एक खास वर्ग के हितों से जुड़ा होता है।

जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद के ‘जनतांत्रिक पहलू’ की सुरक्षा की पहली शर्त यह है कि वह महज पार्टी का अंदुरूनी विषय बन कर न रहे। पार्टी के संगठन में व्यापक समाज की दखलंदाजी को सुनिश्चित करके ही जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद में जनतंत्र चरितार्थ हो सकता है।

लेकिन कम्युनिस्ट पार्टियों का अब तक का अनुभव काफी हद तक इसके विपरीत रहा है। जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद संगठन का कोई जैविक सिद्धांत न होकर उसके संचालन का महज एक यांत्रिक सिद्धांत रहा है। यह मुट्ठीभर पार्टी सदस्यों और नेताओं का निजी मामला रहा है। इसके जरिये पार्टी के संगठन में व्यापक समाज की दखल के रास्ते कभी नहीं खुल पाये हैं।
यह रोग सिर्फ कम्युनिस्ट पार्टियों में नहीं, भारत की दूसरी सभी राजनीतिक पार्टियों में भी समान रूप से बना हुआ है। ‘जनता के बीच सीधे अपनी बात न कह कर पार्टी फोरम पर बात करने’ की दलीलें हर पार्टी की ओर से बार-बार दोहराई जाती है।

जनतंत्र मात्र की क्रियाशीलता के अंदर के ऐसे अवरोधों को सारी दुनिया में महसूस किया जा रहा है और इसीलिये जनभागीदारी वाले जनतंत्र (Participatory Democracy) की अक्सर चर्चा की जाती है।

इस बीमारी को ठोस रूप में समझने के लिये एक इस तथ्य पर गौर किया जा सकता है कि पश्चिम बंगाल में लंबे काल से इतनी ताकतवर पार्टी होने के बावजूद उसका ‘जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद’ इसके सभी स्तरों पर नेतृत्व में अपराधियों और समाज-विरोधियों के प्रभुत्व को रोकने में विफल रहा है। अगर व्यापक जनता और समाज की पार्टी के संगठन में कोई सीधी दखल होती, तो गोपनीय ढंग से पार्टी में अपराधियों की पैठ कभी संभव नहीं हो सकती थी।

इसीलिये, जैसे जनतंत्र को उसके पूंजीवादी तानाशाही के रूप से मुक्त करने की जरूरत है, वैसे ही क्रांतिकारी पार्टी को संगठन को व्यापक समाज से अलग, चंद लोगों, अर्थात पार्टी सदस्यों और नेताओं की तानाशाही से मुक्त करने की जरूरत है। जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद में जनतंत्र के तत्व की हिफाजत व्यापक जनता और समाज के जरिये होगी, न कि पार्टी के अंदर की बहसों में अल्पमत पर बहुमत की राय को स्वीकार कर चलने की किसी यांत्रिक प्रक्रिया से।

यह तभी होगा, जब हर पार्टी सदस्य को, वह पार्टी के अंदर बहुमत में हो या अल्पमत में, व्यापक जनता के बीच जाकर सीधे अपनी बात रखने की बाकायदा इजाजत होगी। हर पार्टी सदस्य की जनता के बीच सीधे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में किसी भी प्रकार के अनुशासन की बाधा का कोई स्थान नहीं होगा।

हमारी राय में जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद में जनतंत्र के तत्व को इस प्रकार से सजीव बना कर न सिर्फ कम्युनिस्ट पार्टी अपने को वास्तव अर्थों में एक जनपार्टी बना पायेगी, बल्कि समाज के सामने राजनीतिक दलों के संगठन का एक प्रकृत जनतांत्रिक विकल्प पेश कर पायेगी। 

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