जल रहे हरियाणा को संभालने फौज जा रही है।
जेएनयू के प्रकरण में संघ परिवारियों की ओर से छात्रों के खिलाफ प्रचार के लिये कुछ फौजियों को उतारा गया था।
टेलिविजन चैनलों पर सरकारी प्रवक्ता के तौर पर पूर्व सैनिक अधिकारियों को अक्सर उतारा जाता है।
इन सब संदर्भ में याद आती है ‘लुई बोनापार्ट की अठारहवीं ब्रुमेर’ में कार्ल मार्क्स के इस विश्लेषण की, जब वे लिखते हैं - ‘‘ इस प्रकार समय-समय पर फौजी बारिक और पड़ाव का दबाव फ्रांसीसी समाज के मस्तिष्क पर डाल कर उसे ठंडा कर देना; इस प्रकार तलवार और बंदूक को समय-समय पर न्यायाधीश और प्रशासक, अभिभावक और सेंसर बनने देना, उन्हें पुलिसमैन और रात के संतरी का काम करने देना ; इस प्रकार फौजी मूंछ और फौजी वर्दी को समय-समय पर, ढिंढोरा पीट कर, समाज की सबसे बड़ी बुद्धिमत्ता एवं समाज का उपदेष्टा घोषित करना - यह सब करने के बाद क्या अंत में यह लाजिमी न था कि फौजी बारिक और पड़ाव, तलवार और बंदूक, मूंछ और वर्दी को एक दिन यह सूझ पैदा होती कि क्यों न अपने शासन को सर्वोच्च घोषित करके एक ही बार में समाज का उद्धार कर दिया जाये तथा नागरिक समाज को अपना शासन आप करने की चिंता से सब दिनों के लिए मुक्त कर दिया जाये ?’’
कितनी गहरी चेतावनी छिपी हुई है मार्क्स के इस कथन में हमारे लिये। हमारे शासक दल का सेना पर ज्यादा से ज्यादा आश्रित होना हमारी जनतांत्रिक व्यवस्था के लिये कैसे-कैसे खतरे पैदा कर सकता है, सोच कर डर लगता है।
जेएनयू के प्रकरण में संघ परिवारियों की ओर से छात्रों के खिलाफ प्रचार के लिये कुछ फौजियों को उतारा गया था।
टेलिविजन चैनलों पर सरकारी प्रवक्ता के तौर पर पूर्व सैनिक अधिकारियों को अक्सर उतारा जाता है।
इन सब संदर्भ में याद आती है ‘लुई बोनापार्ट की अठारहवीं ब्रुमेर’ में कार्ल मार्क्स के इस विश्लेषण की, जब वे लिखते हैं - ‘‘ इस प्रकार समय-समय पर फौजी बारिक और पड़ाव का दबाव फ्रांसीसी समाज के मस्तिष्क पर डाल कर उसे ठंडा कर देना; इस प्रकार तलवार और बंदूक को समय-समय पर न्यायाधीश और प्रशासक, अभिभावक और सेंसर बनने देना, उन्हें पुलिसमैन और रात के संतरी का काम करने देना ; इस प्रकार फौजी मूंछ और फौजी वर्दी को समय-समय पर, ढिंढोरा पीट कर, समाज की सबसे बड़ी बुद्धिमत्ता एवं समाज का उपदेष्टा घोषित करना - यह सब करने के बाद क्या अंत में यह लाजिमी न था कि फौजी बारिक और पड़ाव, तलवार और बंदूक, मूंछ और वर्दी को एक दिन यह सूझ पैदा होती कि क्यों न अपने शासन को सर्वोच्च घोषित करके एक ही बार में समाज का उद्धार कर दिया जाये तथा नागरिक समाज को अपना शासन आप करने की चिंता से सब दिनों के लिए मुक्त कर दिया जाये ?’’
कितनी गहरी चेतावनी छिपी हुई है मार्क्स के इस कथन में हमारे लिये। हमारे शासक दल का सेना पर ज्यादा से ज्यादा आश्रित होना हमारी जनतांत्रिक व्यवस्था के लिये कैसे-कैसे खतरे पैदा कर सकता है, सोच कर डर लगता है।
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