आज 11 जून। हरीश भादानी का जन्मदिन। 1933 में जन्में हिंदी के जनकवि का 83वां जन्मदिन। एक ऐसे कवि का जन्मदिन जिनके बारे में साहित्य अकादमी की ‘भारतीय साहित्य के निर्माता’ श्रृंखला में इसी लेखक ने पुस्तिका का प्रारंभ ही इन शब्दों से किया है -
‘‘ जिन अर्थों में डेनमार्क का कोपेनेहेगन शहर लोककथाओं के अमर लेखक हैंस क्रिश्चियन एंडरसन के नाम से, या चेकोस्लोवाकिया का प्राहा शहर कम्युनिस्ट शासन की विद्रूपताओं के लेखक मिलान कुंदेरा के नाम से और टर्की का इस्तानबुल शहर उसके सम्मोहन के सच और झूठ के कुहासे में लिपटी कथाओं के लेखक ओरहन पामुक के शहर के नाम से जाना जाता है, उसी तरह यदि राजपुताने में अरबिया 1 की स्मृतियों को जगाने वाले विशाल जांगल देश 2 (बीकानेर) के मुडि़या कंकड़ों के पहाड़ पर घाटियों-खाळों 3 के चढ़ानों-ढलानों वाले परकोटे के शहर बीकानेर की अन्तरात्मा के गायक के तौर पर इस शहर को हरीश भादानी का शहर कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। ’’
इस मौके पर हरीश जी की स्मृतियों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए हम यहां उनके दो गीतों को और उनके बारे में हिंदी के कई वरिष्ठ विचारकों के कथन को लेकर लिखे गये एक अध्याय ‘मूल्यांकन के प्रश्न’ को मित्रों से साझा कर रहे हैं -
मूल्यांकन के प्रश्न
हरीश भादानी को थोड़ा भी जानने वाला व्यक्ति उनके बारे में एक जुमले का प्रयोग करता है - ‘आपाद मस्तक कवि’। जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, कविता को ही जीने, खाने, पहनने, ओढ़ने वाला कवि। लेकिन उनके एक मित्र, वरिष्ठ पत्रकार वीर सक्सेना ने कहा - ‘वह तो साहित्य का औलिया था। उसका कहा हर शब्द एक रचना होता था।’
फिर भी, कुछ उच्चाकांक्षी साहित्य प्रवर ऐसे हैं, जो कभी दबे तो कभी दबंग स्वरों में उनके भाषिक प्रयोगों पर आपत्तियां करते रहे, कुछ-कुछ वैसे ही जैसे बंगाल में रवीन्द्रनाथ के पद्यांशों को शुद्ध और प्रांजल बांग्ला भाषा में लिखने की मांग करने वाले प्रश्नपत्रों के रचयिताओं ने किया था, जिसका हम पहले उल्लेख कर चुके हैं।1
शास्त्रों में भी प्रतिभा सहकृत नये शब्दों, पदों और वाक्य विन्यासों को पूरी तरह से मर्यादित माना गया है। भाषाई शुद्धता, व्याकरण का अति-आग्रह भी एक प्रकार की ढर्रेवरता का आग्रह है, जड़ता और रूढि़वादिता है। रचना न हो जैसे अब तक दृष्ट प्रयोगों का अजायबघर हो; एक ऐसा सामुदायिक अनुभव, जो अक्सर तुच्छ धार्मिक कर्मकांडों, रूढि़यों के निजी रोमांच में पर्यवसित होता है। ढर्रेवर लेखन का रोमांच कोरे धार्मिक कर्मकांडों के रोमांच जैसा ही होता है। इसके विपरीत प्रतिभा-संपन्न रचनाकार का तट-बंधों को तोड़ कर बढ़ने वाला निजी प्रवाह रचनाशीलता के सामने आने वाले सामाजिक गतिरोध के हर बिन्दु को कहीं ज्यादा करीब से उजागर करता है, वह भले व्याकरण की तरह का वज्र-गतिरोध ही क्यों न हो। पठन को निदेशित करने वाले रूपकों-बिंबों की एक नयी भाषाई सर्जना, जो अन्तत: पाठक के पूरे मानस को आच्छादित कर लेती है, अपना व्याकरण, सघन और जटिल अनुभूतियों के गतिशील, तरल बिंबों को मूर्त, प्रेषणीय और मर्मस्पर्शी बनाती है। हरीश भादानी मूलत: गीतकार थे। उनके रचाव का संसार शब्दों और संगीत, दोनों की भाषा के समंजन से आकार लेता है। यह शब्द को ध्वनि में और ध्वनि को शब्द में बदलने का एक समानांतर उपक्रम है। शब्द और वाक्य राग और सुरों में बदलते है और राग और सुर शब्दों तथा वाक्य-विन्यासों का रूप लेते हैं। इसकी रिक्तताओं और मौन में, रवीन्द्रनाथ की शब्दावली में, ‘शब्दविहीन शब्दजगत’ और ‘ध्वनिविहीन ध्वनिजगत’ दोनों की भूमिका होती है।
सच कहा जाए तो हिन्दी कविता के व्यापक परिदृश्य में हरीश भादानी एक ऐसा वास्तविक और सशक्त राजस्थानी हस्तक्षेप है, जिसके विस्तृत प्रभाव को ऐसे ही इंकार नहीं जा सकता है। उनका विपुल साहित्य किसी भी साहित्यानुरागी के लिये स्वयं एक गंतव्य है, लंबे रास्ते का एक पड़ाव भर नहीं। यह हरीश भादानी के अन्तरमन का एक संपूर्ण आख्यान है। ‘अन्तर्मन का संपूर्ण आख्यान’ - अर्थात वह भी जो मन में ठोस आकार ले चुका है और वह भी जिसका एक आभास, सिर्फ छाया भर है। समग्रत:, विलयनशील रंगों की एक विशाल तरल छवि का शब्दांकन।
बहरहाल, हरीश भादानी के गीतों के बारे में डा. नामवर सिंह का कहना था कि उनका हजारों पन्नों में फैला विपुल साहित्य और उनका विशाल रचनासंसार एक सर्जनात्मक विस्फोट की अनुभूति पैदा करता है। वे सिर्फ कवि नहीं, चिंतक, विचारक थे। मजदूरों, किसानों को उनके आंदोलनों में नेतृत्व देने वाला क्रांतिकारी कवि ऋगवेद के मर्म को आम लोगों की भाषा में नयी अर्थवत्ता प्रदान करता है। हिंदी में कितने लोग है जिन्होंने ऋगवेद को इतनी गंभीरता से पढ़ा होगा। वे अनेकायामी कवि थे। 2
डा. शिवकुमार मिश्र अपने लेख ‘हरीश भादानी का रचना-कर्म’ में लिखते हैं - ‘‘हरीश भादनी हमारे समय के बेहद संवेदनशील, बेहद संजीदा, अपने कवि-कर्म में अनुभूति और विचार - दोनों को एक साथ जीने वाले तथा आत्म-दर्शन और जग-दर्शन - दोनों के संदर्भों में कवि-कर्म को पूरी निष्ठा के साथ स्वीकार करने वाले कवि हैं। कविता इनके यहां आत्म की खोज भी है और बाह्य दर्शन का बेबाक निदर्शन भी। पांच दशकों की अपनी रचना यात्रा में हरीश भादानी ने समकालीन कविता के कई पड़ावों को लांघा है - बावजूद इसके उनकी अपनी रचनाधर्मिता अपनी जमीन और जमीर पर इस तरह स्थिर और एकाग्र रही है कि बदलते समय के निशान कभी उस पर इतने गाढ़े नहीं हो पाए कि अपनी विसंगतियों-विद्रूपताओं और फैशनधर्मी रुझानों के साथ उसका हिस्सा बन सकें। हरीश भादानी की कविता रेत में डूबे-नहाए उस मन का सहज उद्गार है, जो अपनी रेतीली धरती के कण-कण से एकात्म, उसके सारे ताप-त्रास, तल्खी और बेचैनी को अपनी पोर-पेर में जीता-महसूस करता हुआ भी उससे अभिन्न है, कारण यह उसकी अपनी धरती ही है जो उसे ऐसे अनुभव-संवेदन भी देती है, दे सकी है, जो उसकी थारेषणा को जीवेषणा में बदल कर उसकी कविता में शब्द-रूप पाते हैं।’’
हरीश भादानी के विशद और व्यापक जीवनानुभवों की ओर खास तौर पर संकेत करते हुए वे कहते हैं कि ‘‘उनके जीवन-वृत्त से गुजरने वाला कोई भी पाठक सहज ही जान सकता है कि जिन्दगी के कितने घुमावदार-ऊबड़-खाबड़ रास्तों से चलते हुए वे अपनी उम्र के इस पड़ाव तक पहुंचे हैं। उनके पास अनुभवों के नाम पर जो कुछ है वह अपना कमाया हुआ है, किसी से पाया हुआ नहीं। अनुभव उन्होंने जिन्दगी से सीधी रगड़ करते हुए भी पाए हैं - और दूसरों के सुख-दुख में अपनी सहभागिता के चलते भी। ...अनुभवों के साथ उसने ज्ञान भी कमाया, विचार के ऊंचे से ऊंचे शिखरों तक जाकर, महज स्वाध्याय के बल पर वह सब पाया जिसने उसके अनुभवों को धार दी, दिशा दी। इसी सब का परिणाम, इसी सब की फलश्रुति है, हरीश भादानी की शब्द साधना। अनुभवों के स्तर पर जितनी जीवंत, विचार और ज्ञान के स्तर पर उतनी ही प्रखर और परिपक्व। हरीश भादानी के अर्जित ज्ञान तथा विचार-सम्पदा का वैशिष्ट्य यह है कि वह जितनी परंपरा-पुष्ट है, उतनी ही आधुनिक समय की सबसे अग्रगामी -प्रगतिशील और भारतीय चिन्ताओं से जुड़ी हुई।...हमारा संकेत यहां वैज्ञानिक समाजवाद के पुरस्कर्ता उस माक्र्सवादी दर्शन तथा चिंतन की ओर है, हरीश भादानी का कवि विचार के स्तर पर जिससे प्रतिबद्ध है।...वेद, उपनिषद महाभारत, रामायण आदि के जितने भी संदर्भ, वृत्तांत, चरित्र, प्रसंग, स्थितियां उनकी कविताओं में आए हैं, वे विगत के अपने महत्व के साथ बराबर अपनी नई अर्थवत्ता में, नई व्यंजनाओं के साथ ही आए हैं।’’
डा. मिश्र ने अपने इस लेख में हरीश जी की काव्याभिव्यक्ति के प्रसंग को भी उठाया है। वे लिखते हैं - ‘‘जहां तक अनुभुति का संबंध है, हम कह चुके हैं कि अनुभवों का एक विशद संसार उसमें है और वे अनुभव बड़ी शिद्दत से अर्जित अनुभव हैं - जो किसी भी सहृदय के लिये सहज ही गम्य है। परंतु अभिव्यक्ति के स्तर पर वे हर किसी के लिये सुगम नहीं है। वे इतने निपट देशज अंदाज में रूपायित हुए हैं, भाषा-बोली-बानी, यहां तक कि कथन-भंगिमाएं, इतनी स्थानिक है, क्रिया रूप इतने कवि के अपने स्थानीय मिजाज से रंगे हुए हैं, बोली-बानी का लहजा तक इतना अधिक स्थानीय है कि रेतीली धरती के संसार से इतर का पाठक अभिव्यक्ति की इतनी सघन स्थानीयता को चीरते हुए अनुभूति के मर्म तक पहुंचने में कठिनाई का अनुभव कर सकता है। परंतु यह हरीश भादानी की काव्याभिव्यक्ति का अपना विशिष्ट अंदाज है, और उनके अपने मिजाज का एक अविभाज्य हिस्सा है। उसमें तनिक भी अतिरिक्त आयास नहीं है - वह उनके कवि स्वभाव की सहज प्रस्तुति है। अभिव्यक्ति की यह निपट देशीयता, स्थानीयता या विशिष्टता ही है, कदाचित जिसके नाते हरीश भादानी की कविता समकालीन हिन्दी कविता के वृहत्तर परिदृश्य में उस मुख्यता के साथ नहीं पहचानी गई, जिस मुख्यता के साथ उनकी अपनी धरती के उनके कुछ समानधर्मा रचानाकार अपने स्थानीय रंगों के बावजूद समकालीन कविता के बड़े परिदृश्य में चर्चित हुए। इसे हरीश भादानी की काव्याभिव्यक्ति की सीमा भी माना जा सकता है, जबकि मेरी दृष्टि में यह उसका स्वभाव है।’’
डा. मिश्र के इस महत्वपूर्ण लेख में जनगीतकार हरीश भादानी की व्यापक लोकप्रियता की भी चर्चा है। वे कहते हैं कि ‘‘इस जुझारू जनगीतकार से हिंदी का वह वृहत् पाठक और श्रोता-समाज बखूबी परिचित है, जिसने उन्हें हजारों-हजार श्रोताओं के बीच अपनी जनधर्मी रचनाओं का पाठ करते सुना है। कुछ हरीश भादानी का अपना स्वर, कुछ उनकी अदायगी और अधिकतर उनकी कविताओं के बोल, उनका ओजस्वी उद्बोधन - उनकी ये कविताएं श्रोता समाज को भीतर तक उद्वेलित कर देती है - उसे एक जुझारू मनोभूमि में ले आती है। कदाचित ऐसी ही बेधक, अपनी संक्रामकता में श्रोता-समाज को मंत्र-बिद्ध करने वाली रचनाओं को लेकर ही प्लेटो ने कवि को अपने आदर्श समाज से बाहर करने की बात की थी।’’
अपने लेख का अंत डा. मिश्र ने इन शब्दों से किया है - ‘‘समग्रत: हरीश भादानी का रचनात्मक प्रदेय बहुआयामी है। एक स्तर पर वह जितना गहन-गंभीर, प्रशांत और उनके आत्म तथा जग-दर्शन का बड़ी कड़ी साधना के उपरांत पाया गया सुफल है तो दूसरे स्तर पर यह उतना ही सहज, अपने समय से आंखें मिलाता, समय का आईना भी है। यह हरीश भादानी के कवि का कमाल है कि वे अपने इन दोनों रूपों में सामंजस्य बिठाते हुए समय के साथ भी चल सके हैं और समय को उसकी त्रि-आयामिकता - भूत-वर्तमान और भविष्य में अपने रचना-कर्म में साध सके हैं।’’3
विश्वनाथ त्रिपाठी ने हरीश भादानी पर एक संस्मरणात्मक लेख लिखा है - ‘रेत का सौंदर्य और शक्ति’। इसमें वे लिखते हैं - ‘‘लगभग एक दशक पूर्व जयपुर जाने का प्रोग्राम बना। मेरे मित्र डा. अजय तिवारी से बात हुई तो उन्होंने कहा कि जयपुर में अगर हरीश भादानी मिलें तो उनसे ‘रेत में नहाया है मन’ गीत जरूर सुनियेगा। सौभाग्यवश जयपुर में भादनी जी से भेंट होगयी। वे सुलोचना रांगेय राघव के यहां रुके हुए थे। कार्यक्रम के उपरांत शाम को प्रैस क्लब में उनसे भेंट हुई। ...भादानी ने ‘रेत में नहाया है मन’ गीत का पाठ किया। सच बताऊँ वैसा काव्य-पाठ किसी गीतकार के मुँह से न उसके पहले सुना था न उसके बाद सुना। मैंने इतने अच्छे काव्य-पाठ की कल्पना भी नहीं की थी। काव्य-पाठ के बाद मैंने हरीश भादानी के पैर छुए यद्यपि वे उम्र में मुझसे छोटे ही होंगे। ...
‘‘उनकी वाणी में यह गीत सुनते समय मानों लपट उठती थी। महाकवि निराला ने लिखा है ‘‘मेरे स्वर की रागिनी वन्य’’ अर्थात् मेरे स्वर की रागिनी की लपट की आग। निराला की इस पंक्ति का अर्थ भादानी के ‘रेत में नहाया है मन’ के काव्य-पाठ से साक्षात् होता था। ...
‘‘भादानी की कविता में रेत उपमान, उपमेय या अलंकार नहीं है वह राजस्थान की महाभूतात्मक पहचान है। राजस्थान के अस्तित्व का आधार चि है।
‘‘रेत के बिना राजस्थान नहीं। रेत अपने आप में कोई सरल, सरस, सुस्वादु प्राणदायक वस्तु नहीं है बल्कि वह इस सबके विपरीत है । विपरीत है तो क्या हुआ, है तो राजस्थानी मन:स्थिति और संस्कृति का सर्वस्व। ...निराला ने लिखा था ‘निर्झर बह गया है और रेत रह गया है, निर्झर वांछिततम जीवन स्थितियों का प्रतीक है। निर्झर में जल है। जीवन है। वह सुखद है। प्यास को बुझाने की क्षमता है। और रेत या तो सुख से दूर उन स्थितियों के व्यतीत हो जाने की हूक है या विषम स्थितियों का यथार्थ बोध। निराला राजस्थान के नहीं थे। रेत उनके लिए जीवन स्थितियों की अनिवार्यता नहीं बन सकती थी। भादानी राजस्थान के थे। वे रेत से नहीं बच सकते थे। जिससे नहीं बच सकते उसे अंगीकार कर लेने में ही बुद्धिमत्ता है। बशर्ते आपमें उसे अंगीकार कर लेने की क्षमता हो। मैंने इसके पहले भी लिखा है कि जो अनिवार्य है वह अनैतिक नहीं हो सकता। इस अनैतिक को नैतिक बना पाना कठिन साधना की मांग करता है। अन्ततोगत्वा यह नैतिक, सांस्कृतिक और सौन्दर्यबोधात्मक भी बनता है। भादानी ने यही अकाण्ड कार्य किया है। असाध्य को साधा है।...मैं हरीश भादानी की रेत वाली कविता को राजस्थान की जातीय संस्कृति की प्रतीक कविता समझता और मानता हूं।’’
हरीश जी के और भी कुछ काव्य-बिंबों का उल्लेख करते हुए त्रिपाठी जी कहते हैं - ‘‘भादानी के बिंब समावेशी होते हैं। वे कई स्थितियों को एक-दूसरे से जोड़ते हुए रचे जाते हैं। यह राजस्थानी बोली का ही प्रभाव होगा कि उनकी भाषा में नाम धातुएँ (संज्ञा का क्रिया रूप में उपयोग) खूब है।’’4
डा. राजेन्द्र गौतम अपने लेख ‘नवगीतों में सौंदर्य विधायनी कल्पना’ में हरीश भादानी के गीतों के बारे में लिखते हैं कि उनके ‘‘नवगीतों का एक अलग मुहावरा है। उनमें अनेक अप्रचलित भाषा-प्रयोग है। इनकी भाषागत जटिलता बराबर पाठक की परीक्षा भी लेती चलती है, बहुत सरलता-आग्रही पाठकों के लिए भादानी जी के गीतों के बिम्ब पहेलीनुमा रहे हैं, आलोचकों को भी कुछ असुविधा महसूस हुई होगी।’’ इसी संदर्भ में गौतम जी नवगीतों में पैदा हुए गतिरोध का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि ‘‘हरीश भादानी के नवगीतों में बिम्बपरक नयापन और इनकी टटकी भाषा एक नई आस बंधाती है और नवगीत की अवरुद्धता को तोड़ती है। ...तकाजों का टिफिन, मशीनों का बियाबां, समय का व्याकरण, रेत का कफन , मौन के सांप, स्वरों के पखेरू, शोर का आसमां, बिणजारे आकाश, संशयों के अंधेरे, संकल्पों की हथेली, रोशनी का सूत, भावों की बिणजारिन तकड़ी, धुएं की टोपी, जैसे प्रयोग कोरा चमत्कार नहीं हैं, बल्कि वे गीतों के अर्थों को दूर तक फैलाते भी हैं। ...उनकी क्रियाओं, विशेषणों एवं आंचलिक शब्द प्रयोंगों ने जिस गायन संगुफित शिल्प को रचा है, उसे पाठ के गंभीर विश्लेषण के माध्यम से ही समझा जा सकता है।’’ 5
विमल वर्मा अपने लेख ‘काव्य भाषा में सृजनशील बोध’ में लिखते हैं - ‘‘हरीश जी ने अपनी कविताओं में जिस भाषा के माध्यम से जो भावनात्मक यात्रा की है, उनकी काव्य चेतना में जो स्वरूपगत सांकेतिक शक्ति है, उसमें अभिव्यक्त संवेदनशील आत्मीयता को महसूस करते हुए डा. रामविलास शर्मा द्वारा केदारनाथ अग्रवाल पर की गयी टिप्पणी स्मरण हो उठती है। उन्होंने लिखा है ‘केदार ने छायावादी कविता लिखना और उससे बगावत करना एक साथ ही शुरू किया।’ मेरी समझ में यही बात हरीश जी पर भी लागू होती है।’’
विमल जी ‘रेत में नहाया है मन’ गीत के संदर्भ में कहते हैं कि ‘‘कवि ने राजस्थान की प्रकृति के भयावह रूप को अपनी निजी रचनात्मक भाषा के माध्यम से दृश्यों, स्पर्शों आदि के विभिन्न रूपों में गूंथा है। क्या यहां प्रत्येक शब्द चिन्तन के एक बिन्दु से दूसरे बिन्दु तक पहुंचने में सहयात्री नहीं है? शब्दों को बिम्बों में ढालकर प्रत्यक्ष को संवेदना में बदला गया है। ये बिम्ब ही इस संवेदना को अपना रूप और विधान देते हैं। शायद इसीलिए कहा गया है कि लेखक की कृति को पाठक ही रचता है।...
‘‘रचनाशीलता की निरन्तरता में वह अपनी ही भाषा का संहार कर भाषा की पुनर्रचना करता है।’’6
हरीश भादानी की कविता पर डा. जगदीश्वर चतुर्वेदी का लेख है - ‘इमेज, काल और कविता’। इस लेख का प्रारंभ ही वे इस वाक्य से करते हैं -‘‘कविता की वर्चुअल समीक्षा के लिहाज से हरीश भादानी आदर्श कवि हैं।’’
वे आगे लिखते हैं, ‘‘हरीशजी की कविता इमेजों का जखीरा है। कवि का प्रधान लक्ष्य है इमेजों के जरिये अभिव्यक्त करना।...
‘‘हरीशजी की कविता में खाली स्पेस नहीं होता। शून्य नहीं होता, ऐसी स्थिति नहीं होती कि आप अपनी इच्छा से चाहे तो कुछ भी भर लें। इमेज को सघन बनाने के लिए भाषा के शिल्प के जरिये हरीशजी बार-बार खाली स्पेस को भरते हैं, चुप्पी के क्षेत्रों को खोलते हैं। फलत: कविता अनेकार्थी हो जाती है। जिस इल्युजन को वे कविता में पैदा करते हैं फिर उसी को नष्ट करते हैं। ...
‘‘हरीश जी की कविता इस अर्थ में वर्चुअल परिप्रेक्ष्य से अलग है कि उसमें मनुष्य का बहिष्कार नहीं है। वर्चुअल रियलिटी मनुष्य के बहिष्कार पर टिकी है। जबकि हरीशजी की कविता मनुष्य के अदृश्य संसार का लेखाजोखा है। अदृश्यों को दृश्य बनाने की कविता में कोशिश है। अदृश्य को दृश्य बनाने के चक्कर में लेखक वर्तमान से लेकर अतीत तक की यात्रा करता है।...
‘‘हरीशजी की कविताओं में राजस्थानी, हिन्दी, संस्कृत भाषा के प्रयोग समान रूप में मिलते हैं, इसके अलावा मजदूरों, चरवाहों के बीच के भाषायी प्रयोग भी मिलते हैैं। कविता की लय के लिए लेखक नए-पुराने प्रयोगों के बीच भेद करके नहीं चलता बल्कि जहां जैसा उचित लगता है वहां पर वैसा ही प्रयोग करता है।’’7
हरीश जी के घनिष्ठ और उनके काव्य पर शुरू से गहरी नजर रखने वाले कवि, आलोचक नन्द भारद्वाज अपने लेख ‘रेत की संवेदना का सच और मुक्तिकामी सोच’ में लिखते हैं : ‘‘भाषा के इस देशज व्यवहार की निर्मिति में जहां कवि ने अमूमन अच्छे और सार्थक प्रयोग किये हैं, वहीं कथ्य की मांग के मुताबिक कई नये शब्द गढ़ने का भी उपक्रम किया है। ...कुल मिला कर जन-भाषा के शब्दों को अपनी सर्जना में खपाने और उनसे नया प्रभाव पैदा करने का यह प्रयास कवि की जन-जीवन में गहरी रुचि, आत्मीय संपर्क और जन-संघर्षों के प्रति उनके आन्तरिक लगाव का ही परिचायक है। ...
‘‘उनकी काव्यभाषा के पीछे मरुस्थलीय जीवन के साथ कवि की साझेदारी, थार के देहाती जीवन को उसी के लहजे और मुहावरे में रचने का उनका उल्लास और उस लोक-संस्कार को अपने आचरण का हिस्सा बना लेने की सहज प्रकृति, लोक-संस्कार और निजी जीवन-शैली का निर्णायक योग रहा है। कई बार उनके इस भाषा-व्यवहार से वृहत्तर हिन्दी क्षेत्र के सामान्य पाठक को रचना के अर्थ-ग्रहण में कठिनाई भी होती है, लेकिन इस मामले में रचनाकार के अपने भी कुछ रचनात्मक आग्रह होते हैं और भाषा को लेकर यह छूट अन्य बड़े रचनाकारों ने भी बराबर ली हेै, बल्कि उनके आंचलिक प्रयोगों का व्यापक रूप से स्वागत भी किया गया है, इसलिए हरीश भादानी की काव्य-भाषा का यह रूप इसका अपवाद नहीं है। ठीक इसी अर्थ में समकालीन हिन्दी कविता के बीच इस रेतीली संवेदना वाले रचनाकार का यह रचनात्मक अवदान उनकी अलग पहचान भी निर्मित करता है।’’8
डा. पुरुषोत्तम आसोपा ने भी हरीश भादानी के काव्य की शक्ति और लोकप्रियता के स्रोत की तलाश में उनके भाषाई, ध्वन्यात्मक और बिम्बात्मक प्रयोगों की छान-बीन करने की कोशिश की है। अपने लेख ‘काव्य सृजन के विविध आयाम’ में वे लिखते हैं - ‘‘ भादानी जी का रचना शिल्प अखूट प्रयोगों का विस्तृत संसार है। ...
‘‘(उनकी) कविताओं की शैल्पिक संरचनाएं इस बात की गवाही देती है कि भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए कोई रूप विशेष नहीं चाहिए, भावनाएं स्वयं अपनी स्वाभाविक शक्ति से अपना रूप धारण कर लेती हैं। एक पूरी तरह से चौकन्ने कवि की तरह भादानी जी कविताएं रचते हैं। कविताओं के लिए शब्द चयन से लेकर बिम्ब निर्माण में, उपमानों के प्रयोगों से लेेकर भाषा की बुनावट तक में वे पूरी सावचेती बरतते हैं। अपनी आवश्यकता के लिए अपनी कविताओं की भाषा का नया व्याकरण ही रचते दिखाई देते हैं। ...
‘‘ शब्दानुशासन को न मानने के कारण कबीर को हजारी प्रसाद द्विवेदी ने वाणी का डिक्टेटर कहा था। भादानी जी भाषा के डिक्टेटर तो नहीं है लेकिन शब्द से कहीं ज्यादा अपने अभिप्रेत अर्थ को अधिक महत्व देते हैं। इसीलिये वे सर्वत्र शब्दों को नया अर्थ नया संस्कार, नया व्याकरण देने में प्रयत्नशील रहते हैं। उनकी इस प्रवृत्ति को समीक्षकों ने अनुभव किया है। डा. जीवन सिंह के शब्दों में भादानी जी ने अपनी भाषा का नया मुहावरा स्वयं ईजाद किया है। इसमें स्थानीयता और जनपदीयता को खुलकर खेलने का पूरा अवसर दिया है।...
‘‘इनकी बिम्ब-योजना की सफलता इस बात में है कि ये बड़ी आसानी से विराट काव्यानुभव को सूक्ष्म बिम्ब में या इससे उलट सूक्ष्म बिम्ब से अत्यंत व्यापक भाव को अंकित कर देने में समर्थ रहते हैं। जैसे - शाम के बाद रात्रि का आगमन -‘‘दो छते कंगूरे पर/ दूध का कटोरा था/ धुंधवाती चिमनी में/ उलटा गई हवा/ दिन ढलते ढलते।’’9
‘आलोचना के स्वर’ संकलन में हरीश भादानी के काव्य जगत की विशिष्ट संरचना की जांच करने वाले ऐसे और भी कई लेख है जिनसे पता चलता है कि क्यों और कैसे उनको हिन्दी कविता के व्यापक परिदृश्य में अपने प्रकार का अकेला और सबसे सशक्त राजस्थानी हस्तक्षेप कहा जा सकता है।
हरीश जी की रचनाओं पर हिंदी के कई समीक्षकों ने समय-समय पर कई लेख लिखे हैं। कई विश्वविद्यालयों में शोध भी कराये गये हैं।10 पाठ्य पुस्तकों में भी उनकी एकाध कविताएं पढ़ाई जाती रही है।11
एक ओर व्यापक जन-जन में उनकी रचनाओं की लोकप्रियता और इसके समानान्तर कलात्मक निकष पर भी इस रचनाधर्मिता की अनन्यता श्रेष्ठ साहित्य के कई अनजान पक्षों को प्रकाशित करती है। यही वजह है कि हरीश भादानी का रचना संसार किसी भी मर्मज्ञ पाठक, साहित्यानुरागी और आलोचक के लिये हमेशा गहरी जिज्ञासा और शोध के एक अनंत आकर्षण का क्षेत्र बना रहेगा।
संदर्भ :
1.‘आलोचना के स्वर’, संपादक - श्रीलाल जोशी, सरल विशारद, में नन्दकिशोर आचार्य के लेख ‘समकालीन परिवेश में गीत’ की यह पंक्तियां -‘‘अपने भाषिक आग्रहों में भादानी कहीं-कहीं भटकते भी हैं और उन जैसे वयस्क रचनाकार में अब ऐसा भटकाव कुछ अधिक ही अखरता है। कवि भाषा को नया संस्कार देता है लेकिन ऐसा करते हुए वह उसके मौलिक मिजाज की अवहेलना नहीं करता क्योंकि अपने माध्यम का सम्मान प्रत्येक रचनाकार का दायित्व है।’’ पृ : 131
हरीश भादानी को, एक ‘वयस्क’ रचनाकार को उसकी ‘दायित्वहीनता’ के लिये दीगयी एक उद्दत झिड़की! बड़बोली ‘उच्चाकांक्षा’ का थोथा प्रदर्शन और किसे कहेंगे?
2.हरीश भादानी की 75वीं सालगिरह के आयोजन में डा. नामवर सिंह का वक्तव्य
3.‘आलोचना के स्वर’, संपादक - श्रीलाल जोशी, सरल विशारद, पृ : 9-14
4.वही, पृ : 90-93
5.वही,
6.वही, पृ : 38-41
7.वही, पृ : 47-60
8.वही, पृ : 26-38
9.वही, पृ : 15-25
10.डा. ममता मिश्रा ने वर्दवान विश्वविद्यालय में डा. विमल के निदेशन में ‘हिन्दी की नवगीत परंपरा और हरीश भादानी’ विषय पर सन् 2001 में शोध किया। अखिलेश पांडे ने ‘‘आधुनिक हिंदी कविता में लंबी कविता लेखन परंपरा और हरीश भादानी की लंबी कविताएं’’ विषय पर बीकानेर के महाराजा गंगा सिंह विश्वविद्यालय से डा. मधुलिका शर्मा के निदेशन में सन् 2013 में शोध किया। इनके अलावा और भी कई विश्वविद्यालयों में उनकी रचनाओं के विविध पक्षों पर शोध के काम हुए हैं।
11.राजस्थान के उच्चमाध्यमिक और स्नातक स्तर की हिंदी की पाठ्य पुस्तकों में हरीश भादानी की कविताओं को पढ़ाया जाता रहा हैं।