-अरुण माहेश्वरी
आज ही अखबारों में गुजरात में 2002 के जनसंहार की एक सबसे जघन्य घटना गुलबर्ग सोसाइटी के मामले में अदालत के फैसले की खबर छपी है। तीस्ता सीतलवाड और अहसान ज़ाफरी की पत्नी जाकिया जाफरी ने कहा है कि वे अदालत की इस राय से संतुष्ट नहीं है।
आज ही हमने ‘इकोनोमिस्ट’ पत्रिका के ताजा अंक को देखा है जिसका मुख्य विषय है - ‘‘ बोलने की स्वतंत्रता पर रोक बढ़ रही है। यह समय है बोलने का।’’
और आज ही हमने ‘तहलका’ की एक प्रमुख पत्रकार राणा अयूब की किताब ‘गुजरात फाइल्स’ को पढ़ कर समाप्त किया है जिसके अंतिम अंश में लिखा गया है - ‘‘ तरुण (तरुण तेजपाल) ने कहा, ‘‘देखो राणा, बंगारू लक्ष्मण पर तहलका स्टिंग के बाद उन्होंने हमारा दफ्तर बंद करा दिया। मोदी सबसे ताकतवर आदमी बनने वाले हैं। यदि हम उनको छूएंगे तो हम खत्म कर दिये जायेंगे।...
‘‘दो दिन बाद मैंने अपने फोन से यूनिनोर के सिम को निकाल कर, तोड़ कर कूड़ेदानी में फेंक दिया। फोन के साथ भी वही किया। उसी दिन मैथिली को हमेशा के लिये विदा कर दिया गया।’’
मैथिली उर्फ मैथिली त्यागी -
एक कायस्थ संस्कृत पंडित और आरएसएस वाले की बेटी। उसका जन्म हुआ था गुजरात के 2002 और उसके बाद हुए एक के बाद एक फर्जी एनकाउंटर के पीछे के सच की कहानी को उजागर करने के एक दुस्साहसी अभियान से, और उसकी मृत्यु हो गयी उसकी इस कहानी के प्रकाशन की संभावना के अंत के साथ। यह उस राणा अयूब का नया अवतार था जो तहलका के पृष्ठों पर पहले ही अपनी कई खोजी रिपोर्टों के चलते काफी प्रसिद्ध हो चुकी थी। इस किताब में जिस अभियान की कहानी है उसमें वह एक अमेरिकी फिल्म कंपनी की ओर से गुजरात के बारे में फिल्म बनाने के लिये अपने फ्रांसीसी सहयोगी माइक के साथ मैथिली त्यागी के रूप में अमेरिका से गुजरात आई थी।
‘एपिक’ चैनल पर ‘सियासत’ शीर्षक से एक सीरियल चलता है - महलों के ाड़यंत्रों की कहानियों का सीरियल। षड़यंत्रों, हत्याओं और सत्ता की चरम महत्वाकांक्षाओं से जुड़ी महलों की जघन्य कहानियों का सीरियल। ऐसा लगेगा मानो मध्ययुग में, राजाओं-बादशाहों के जमाने में राजनीति सिर्फ आदमी की सत्ता की हवस की शुद्ध हत्यारी और घिनौनी हरकतों का पर्याय थी। इसीलिये आधुनिक जनतंत्र के आज के काल में पश्चिम में मैकियावेली और हमारे यहां कुछ हद तक चाणक्य भी एक गाली माने जाते हैं। लेकिन राणा अयूब की इस किताब को पढ़ कर लगेगा कि राजनीति आज भी अपने इस घृणास्पद, ाड़यंत्रकारी और हवस से भरे रूप से मुक्त नहीं हुई है। बल्कि इसके खिलाडि़यों की छुद्रता के अनुपात में ही राजनीति अब भी हत्या और साजिशों का पर्याय बनी हुई है !
हमारी मुश्किल यह है कि समाज से राजनीति तक का सफर पार्टियों और समूहों के कितने ही छोटे-छोटे बंद दरवाजों के अंदर से क्यों न जाता हो, इससे किसी का निजात पाना मुमकिन नहीं है, क्योंकि अंतत: इसीके जरिये हर छोटी-बड़ी सत्ता का व्यापक समाज में विलय संभव होता है।
राणा अयूब की यह किताब ‘गुजरात फाइल्स (एनॉटमी ऑफ कवरअप)’ किसी भी रोमांचक, बल्कि लोमहर्षक जासूसी उपन्यास से कम नहीं है जिसमें लेखिका अपनी वेष-भूषा, अपनी पूरी पहचान को बदल कर राज्य के कुछ परम शक्तिशाली राजनीतिक अपराधियों और राजनीति-पुलिसतंत्र की अपराधी धुरी के सत्य को उजागर करने के एक जोखिम भरे अभियान में उतर जाती है, सिर्फ अपनी बुद्धि, साहस और जिद के बल पर।
अब तक 2002 के गुजरात के जन-संहार और समीर खान, पठान, सादिक जमाल, इशरतजहां, सोहराबुद्दीन, कौसलबीं, तुलसीराम प्रजापति आदि के फर्जी एनकाउंटरों की कई कहानियां सामने आ चुकी है और इन पर कई सारी दुनिया में सरही गई डाक्यूमेंट्री भी बन चुकी है। इसके अलावा, प्रधानमंत्री बनने के पहले तक नरेंद्र मोदी पर अमेरिका में प्रतिबंध की बात भी सब जानते हैं। अर्थात सारी दुनिया गुजरात और सन् 2002 की सचाई से वाकिफ है। वह जानती है कि किस प्रकार संघ परिवार नामक भारत के एक सबसे बड़े षड़यंत्रकारी गिरोह ने गुजरात के लोगों को धोखा देकर उनसे उनकी मानवीय अस्मिता को छीन लिया था, और हैवानियत को गुजराती गौरव का नाम देकर आज भी वहां के जीवन को जकड़े हुए है। फिर भी राणा अयूब की इस किताब का आकर्षण इस बात में है कि इसमें गुजरात के इस हत्यारे दौर के पीछे के नायकों को जैसे सशरीर उपस्थित कर दिया गया है। ये लोग बाबू बजरंगी की तरह के हत्यारे दंगाई या डी. जी. वंजारा की तरह के घुटे हुए एनकाउंटर स्पेशलिस्ट नहीं है, जिनकी कहानियां उन्हीं की जुबानी अखबारों में और डाक्यूमेंट्रियों में कई रूप में आ चुकी हैं। इस किताब में पर्दे के पीछे के ऊंचे पदों पर बैठे ऐसे लोगों को सामने लाया गया है जो इन सारी गतिविधियों को देख रहे थे, इन अपराधों की गंभीरता को समझ रहे थे, लेकिन या तो नीरव दर्शक थे या राजनीतिक आकाओं के दबाव अथवा अपने वैचारिक रूझानों के कारण इनमें शामिल भी थे।
इसमें सबसे ज्यादा गौर करने की चीज यह है कि इस अपराध कथा का केंद्रीय चरित्र है अमित शाह, आज भारतीय जनता पार्टी का केंद्रीय अध्यक्ष, और कहा जा सकता है, अपने आका मोदी जी की काया से काफी ज्यादा भारतीय राजनीति पर छाई हुई सबसे बड़ी काली छाया। उन्हीं के इर्द-गिर्द गुजरात के इस काल की सारी अपराधपूर्ण राजनीतिक-कथाओं का मकड़जाल किस प्रकार बुना गया था, इसी की एक सच्ची कहानी है यह किताब।
इसमें सबसे उल्लेखनीय बातचीत है राज्य के एक दलित, बड़े पूर्व पुलिस अधिकारी राजन प्रियदर्शी से राणा की बातचीत। उसे इस बात का गर्व है कि उसने गृहमंत्री अमित शाह के किसी भी गैर-कानूनी आदेश का पालन नहीं किया।
उसके शब्दों में - ‘‘This
man Narendra Modi has been responsible for killing of Muslims across (the
state)…They killed a young girl in an encounter…she was from Mumbra. The story
created was she was a terrorist, who had come to Gujarat to kill Modi….They
bumped off that Sohrabuddin and Tulsi Prajapati at the behest of the minister.
This minister Amit Shah, he never used to believe in human rights.”
इस किताब के अनुसार, राजन प्रियदर्शी को एक बार अपने बंगले पर बुला कर अमित शाह कहते हैं - ‘‘अच्छा आपने एक बंदे को अरेस्ट किया है ना, जो अभी आया है एटीएस में, उसको मार डालना है।’’
“I
didn’t react and then he said, “देखो मार डालो, ऐसे आदमी को जीने का कोई हक नहीं है।
“So
I immediately came to my office and called meeting of my juniors. I feared that
Amit Shah would give them direct orders and get him killed. So I told them, see
I have been given orders to kill him, but no body is going to touch him, just
interrogate him. I have been told, I am not doing it so you also are not supposed
to do it.” (page -59)
कहना न होगा कि राजन प्रियदर्शी का यह कथन नरेन्द्र मोदी और उनके समूह को एक झटके में पूरी तरह से एक नई पहचान देने वाला कथन है। इसके बाद वे किसी को भी राजनीतिज्ञों का नहीं, पूरी तरह से हत्यारों का माफिया गिरोह प्रतीत होने लगे तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी।
प्रियदर्शी के अलावा पूर्व सचिव अशोक नारायण, इंटेलिजेंस के प्रमुख जी. सी. रायगर, अहमदाबाद के पूर्व पुलिस कमीश्नर पी. सी. पांडे, पूर्व डीजी चक्रवर्थी, विधायक माया कोडनानी, पुलिस अधिकारी गीता जोहरी, हरेन पांड्या की पत्नी जाग्रुती पांड्या से हुई राणा अयूब की लंबी बातचीत के स्टिंग से गुजरात में सत्ता के गलियारों की जो सूरत निकल कर आती है, वह जितनी रोमांचक है, उतनी ही डरावनी भी है।
इस किताब की भूमिका लिखी है मुंबई के दंगों की जांच की रिपोर्ट देने वाले श्रीकृष्णा आयोग के अध्यक्ष न्यायाधीश बी. एन. श्रीकृष्णा ने। उन्होंने अपनी भूमिका के अंत में बिल्कुल सही लिखा है कि ‘‘इस किताब में जो कुछ कहा गया है उसे कोई प्रमाणित तो नहीं कर सकता है, लेकिन लेखिका के साहस और जिसे वह सत्य मानती है उसे सामने लाने के उनके जोश की तारीफ करनी ही होगी।’’
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