Virendra Yadav ने कल (3 अगस्त को) अपनी एक पोस्ट में लिखा है कि " राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अब वैचारिक जगत( माईंड स्पेस) पर कब्ज़ा ज़माने के लिए लिटररी फेस्टिवल और अन्य 'सांस्कृतिक' गतिविधियों के आयोजन की सार्वजनिक घोषणा कर दी है. ... 'माईंड स्पेस' पर कब्ज़ा फासीवाद की आजमाई हुयी व्यूहरचना है ,इसे निष्प्रभावी करने के लिए निगहबानी जरूरी है."
विरेंद्र जी की बात से सहमति के बावजूद हम कहना चाहेंगे कि क्या वे 'माईंड स्पेश' पर क़ब्ज़ा जमायेंगे लेखकों को बैल समझने वाले महेश शर्मा जैसों के बल पर ? सचाई यह है कि ये हिटलर के अनुयायी हैं और किसी भी दूसरे उपाय से ज्यादा हमेशा अपने 'घूँसे के बोलने' पर विश्वास करते हैं । वह जीवन का कोई भी क्षेत्र क्यों न रहने । इस मामले में साहित्य और संस्कृति का क्षेत्र कोई अपवाद नहीं है ।
इनके 'तूफ़ानी दस्तों' में अभी कौन सबसे ज्यादा सक्रिय है ? गोरक्षक । इन गोरक्षकों की कार्य-पद्धति देखियें । ये शुद्ध रूप से माफ़िया गिरोहों की तरह काम करते हैं । खुले आम वसूलियाँ करते हैं और मारते, डराते-धमकाते भी हैं । सरकारी संरक्षण में इन्होंने गो-शालाओं का भी एक बड़ा सा ताना-बाना तैयार कर लिया है जो ऐसी तमाम आपराधिक गतिविधियों के केंद्रों के रूप में काम कर रहा है । इनके आतंक का फल है कि इसने आम लोगों को अन्याय और आतंक का तमाशबीन बनाना शुरू कर दिया है । और तो और, कई जगहों पर डरे हुए आम लोग इनके कुकर्मों में शामिल भी होने लगे हैं ।
नामवर जी के जन्मदिन समारोह के मंच पर राजनाथ सिंह की बातों में भी 'सीमा का अतिक्रमण न करने' की प्रच्छन्न धमकी छिपी हुई थी । साहित्य में वे इसी प्रकार अपना स्पेश तैयार करेंगे ।
इन ताक़तों का वास्तविक प्रत्युत्तर सिर्फ बुद्धिजीवियों के पास नहीं हो सकता है । इनका मुक़ाबला व्यापक प्रचार के साथ ही व्यापकतम जन-लामबंदी से ही किया जा सकता है । इस मामले में अभी तो कुछ दलित संगठन एक भूमिका अदा करते दिखाई दे रहे हैं । कांग्रेस दल में भी कुछ सकारात्मक हरकतें दिखाई देने लगी हैं । ख़ास तौर पर उत्तर प्रदेश में इनकी बुरी तरह पराजय अभी सुनिश्चित लग रही है । लेकिन इन चंद सकारात्मक संकेतों के बीच भी सबसे अधिक चिंताजनक बात यह है कि हमारे देश की वामपंथी ताक़तों को जैसे लकवा मार गया है ।
ऐसे एक कठिन, चुनौती भरे समय में कुछ वामपंथी नेता अपने संगठनों में एक प्रकार का छद्म सैद्धांतिक संघर्ष चला रहे हैं, अर्थात सिद्धांतवादिता का स्वांग भर रहे हैं । 'वर्ग-शत्रु' और 'वर्ग-मित्र' की तरह की बातों में उलझा कर इन फासिस्टों के खिलाफ व्यापकतम मोर्चे के गठन को व्याहत कर रहे हैं । सांप्रदायिकता को वैश्वीकरण से जोड़ कर सांप्रदायिकता और वैश्वीकरण, दोनों के बारे में हमारी समझ को धुँधला कर रहे हैं । ऊल-ज़लूल दलीलों से जनतंत्र और फासीवाद के बीच के फर्क के बारे उलझनें पैदा कर रहे हैं । वैश्वीकरण की तरह की एक पूँजीवादी सामाजिक-आर्थिक परिघटना को महज़ एक प्रकार का सांस्कृतिक और विचारधारात्मक अघटन (catastrophe) बना कर पेश कर रहे हैं ।
इन्होंने मज़दूर वर्ग को सत्ता की लड़ाई से विरत करने का काम पहले भी किया हैं और अभी भी करते दिखाई दे रहे हैं । भारतीय वामपंथ में नेतृत्व के एक तबक़े की इस मामले में अपनी एक मुकम्मल तस्वीर बन चुकी है, जिसे हम बार-बार ज्योति बसु को प्रधानमंत्री न बनने देने और यूपीए-1 सरकार से अकारण ही समर्थन वापस लेने की तरह की प्रमुख घटनाओं के हवाले से कहते आ रहे हैं । यही तबक़ा आज भी वामपंथ में एक पंगुता पैदा करने वाली सैद्धांतिक क़वायदों में लगा हुआ दिखाई देता हैं ।
वामपंथ के ऐसे नेतृत्व का रुख़ हमें जर्मनी में बर्नस्टीन और रोज़ा लुक्सेमबर्ग के बीच की बहस की याद दिलाता है । बर्नस्टीन सत्ता पर आने की सर्वहारा की हर कोशिश को बहुत जल्दबाज़ी और असामयिक बताते थे और लुक्सेमबर्ग का कहना था कि समाजवाद की तरह की बड़ी चीज को कभी भी एक झटके में हासिल नहीं किया जा सकता है । सर्वहारा की सत्ता पाने की कोशिशों को इस प्रकार बार-बार 'असामयिक' और 'जल्दबाजी' बताना अंतत: राजसत्ता पर क़ाबिज़ होने की सर्वहारा की आकांक्षा मात्र का विरोध करने के समान होता है ।
हमें लगता है कि वामपंथी बुद्धिजीवियों का आज एक प्रमुख दायित्व वामपंथ को उसकी पंगुता से मुक्त कराने का भी है । झूठी लड़ाइयों और बातों को उठा कर फासीवाद-विरोधी व्यापक एकता में समस्याएँ पैदा करने वालों की ग़लत समझ को दूर करने की ज़रूरत है । अन्यथा, वही कहावत चरितार्थ होगी कि 'मरेंगे तो जरूर लेकिन चालाकियाँ करते हुए मरेंगे' ।
यह कार्यनीतिगत चालाकियों का समय नहीं है । इस बात को वामपंथी नेताओं को समझाने की ज़रूरत है । अभी वे सिकुड़ कर कुछ निजी स्वार्थों की, संगठनों के बचे-खुचे ढाँचों पर क़ब्ज़े की लड़ाइयों में लगे हुए दिखाई देने लगे हैं । इस दलदल से उन्हें बाहर के दबाव से ही निकाला जा सकता है । पार्टियों के अंदर तर्क का नहीं, बहुमत-अल्पमत का खेल चलता हुआ दिख रहा है । वामपंथी नेतृत्व का प्रभावी तबक़ा अपने में सिमट जाने वाली उस उग्र भंगिमा को अपनाये हुए हैं जो अपने से बाहर की हर चीज को देखने से इंकार करती है । प्रो. इरफ़ान हबीब के प्रश्नों के प्रति प्रकाश करात का रुख़ इसी बात का प्रमाण है । उन्हें अपने से बाहर झाँकने के लिये मजबूर करना होगा ।
हमारा यह दृढ़ विश्वास है कि ज़ख़्म को वही चाक़ू भर सकता है जो उसे चीर देता है । वामपंथ को उसके अपने इतिहास और स्थान-समय से काट कर किसी मिथक या रहस्य का रूप नहीं दिया जाना चाहिए । रहस्यमय दैविक रूप के प्रति सिर्फ उनका आग्रह होता हैं, जो अपने पर किसी भी प्रकार के सवाल के औचित्य से इंकार करना चाहते हैं । हमें लगता है कि वामपंथी बुद्धिजीवियों की वामपंथ को 'सिद्धांतों' की झूठी मीनार से उतार कर आज की राजनीति की ठोस ज़मीन पर लाने में एक बड़ी भूमिका हो सकती है । यह भी खुद में सांप्रदायिक फासीवाद के विरुद्ध व्यापक जन-लामबंदी को संभव बनाने की दिशा में बुद्धिजीवियों का बहुत सकारात्मक योगदान होगा ।
जहाँ तक सांप्रदायिक फासीवाद के खिलाफ लगातार प्रचार अभियान चलाना, उसे अलग-थलग करने के दूसरे तमाम उपायों का सवाल हैं, वे तो सर्वोपरि हैं । इसमें किसी भी प्रकार की कमी या समझौता-परस्ती सीधे-सीधे आत्म-घात होगा ।
विरेंद्र जी की बात से सहमति के बावजूद हम कहना चाहेंगे कि क्या वे 'माईंड स्पेश' पर क़ब्ज़ा जमायेंगे लेखकों को बैल समझने वाले महेश शर्मा जैसों के बल पर ? सचाई यह है कि ये हिटलर के अनुयायी हैं और किसी भी दूसरे उपाय से ज्यादा हमेशा अपने 'घूँसे के बोलने' पर विश्वास करते हैं । वह जीवन का कोई भी क्षेत्र क्यों न रहने । इस मामले में साहित्य और संस्कृति का क्षेत्र कोई अपवाद नहीं है ।
इनके 'तूफ़ानी दस्तों' में अभी कौन सबसे ज्यादा सक्रिय है ? गोरक्षक । इन गोरक्षकों की कार्य-पद्धति देखियें । ये शुद्ध रूप से माफ़िया गिरोहों की तरह काम करते हैं । खुले आम वसूलियाँ करते हैं और मारते, डराते-धमकाते भी हैं । सरकारी संरक्षण में इन्होंने गो-शालाओं का भी एक बड़ा सा ताना-बाना तैयार कर लिया है जो ऐसी तमाम आपराधिक गतिविधियों के केंद्रों के रूप में काम कर रहा है । इनके आतंक का फल है कि इसने आम लोगों को अन्याय और आतंक का तमाशबीन बनाना शुरू कर दिया है । और तो और, कई जगहों पर डरे हुए आम लोग इनके कुकर्मों में शामिल भी होने लगे हैं ।
नामवर जी के जन्मदिन समारोह के मंच पर राजनाथ सिंह की बातों में भी 'सीमा का अतिक्रमण न करने' की प्रच्छन्न धमकी छिपी हुई थी । साहित्य में वे इसी प्रकार अपना स्पेश तैयार करेंगे ।
इन ताक़तों का वास्तविक प्रत्युत्तर सिर्फ बुद्धिजीवियों के पास नहीं हो सकता है । इनका मुक़ाबला व्यापक प्रचार के साथ ही व्यापकतम जन-लामबंदी से ही किया जा सकता है । इस मामले में अभी तो कुछ दलित संगठन एक भूमिका अदा करते दिखाई दे रहे हैं । कांग्रेस दल में भी कुछ सकारात्मक हरकतें दिखाई देने लगी हैं । ख़ास तौर पर उत्तर प्रदेश में इनकी बुरी तरह पराजय अभी सुनिश्चित लग रही है । लेकिन इन चंद सकारात्मक संकेतों के बीच भी सबसे अधिक चिंताजनक बात यह है कि हमारे देश की वामपंथी ताक़तों को जैसे लकवा मार गया है ।
ऐसे एक कठिन, चुनौती भरे समय में कुछ वामपंथी नेता अपने संगठनों में एक प्रकार का छद्म सैद्धांतिक संघर्ष चला रहे हैं, अर्थात सिद्धांतवादिता का स्वांग भर रहे हैं । 'वर्ग-शत्रु' और 'वर्ग-मित्र' की तरह की बातों में उलझा कर इन फासिस्टों के खिलाफ व्यापकतम मोर्चे के गठन को व्याहत कर रहे हैं । सांप्रदायिकता को वैश्वीकरण से जोड़ कर सांप्रदायिकता और वैश्वीकरण, दोनों के बारे में हमारी समझ को धुँधला कर रहे हैं । ऊल-ज़लूल दलीलों से जनतंत्र और फासीवाद के बीच के फर्क के बारे उलझनें पैदा कर रहे हैं । वैश्वीकरण की तरह की एक पूँजीवादी सामाजिक-आर्थिक परिघटना को महज़ एक प्रकार का सांस्कृतिक और विचारधारात्मक अघटन (catastrophe) बना कर पेश कर रहे हैं ।
इन्होंने मज़दूर वर्ग को सत्ता की लड़ाई से विरत करने का काम पहले भी किया हैं और अभी भी करते दिखाई दे रहे हैं । भारतीय वामपंथ में नेतृत्व के एक तबक़े की इस मामले में अपनी एक मुकम्मल तस्वीर बन चुकी है, जिसे हम बार-बार ज्योति बसु को प्रधानमंत्री न बनने देने और यूपीए-1 सरकार से अकारण ही समर्थन वापस लेने की तरह की प्रमुख घटनाओं के हवाले से कहते आ रहे हैं । यही तबक़ा आज भी वामपंथ में एक पंगुता पैदा करने वाली सैद्धांतिक क़वायदों में लगा हुआ दिखाई देता हैं ।
वामपंथ के ऐसे नेतृत्व का रुख़ हमें जर्मनी में बर्नस्टीन और रोज़ा लुक्सेमबर्ग के बीच की बहस की याद दिलाता है । बर्नस्टीन सत्ता पर आने की सर्वहारा की हर कोशिश को बहुत जल्दबाज़ी और असामयिक बताते थे और लुक्सेमबर्ग का कहना था कि समाजवाद की तरह की बड़ी चीज को कभी भी एक झटके में हासिल नहीं किया जा सकता है । सर्वहारा की सत्ता पाने की कोशिशों को इस प्रकार बार-बार 'असामयिक' और 'जल्दबाजी' बताना अंतत: राजसत्ता पर क़ाबिज़ होने की सर्वहारा की आकांक्षा मात्र का विरोध करने के समान होता है ।
हमें लगता है कि वामपंथी बुद्धिजीवियों का आज एक प्रमुख दायित्व वामपंथ को उसकी पंगुता से मुक्त कराने का भी है । झूठी लड़ाइयों और बातों को उठा कर फासीवाद-विरोधी व्यापक एकता में समस्याएँ पैदा करने वालों की ग़लत समझ को दूर करने की ज़रूरत है । अन्यथा, वही कहावत चरितार्थ होगी कि 'मरेंगे तो जरूर लेकिन चालाकियाँ करते हुए मरेंगे' ।
यह कार्यनीतिगत चालाकियों का समय नहीं है । इस बात को वामपंथी नेताओं को समझाने की ज़रूरत है । अभी वे सिकुड़ कर कुछ निजी स्वार्थों की, संगठनों के बचे-खुचे ढाँचों पर क़ब्ज़े की लड़ाइयों में लगे हुए दिखाई देने लगे हैं । इस दलदल से उन्हें बाहर के दबाव से ही निकाला जा सकता है । पार्टियों के अंदर तर्क का नहीं, बहुमत-अल्पमत का खेल चलता हुआ दिख रहा है । वामपंथी नेतृत्व का प्रभावी तबक़ा अपने में सिमट जाने वाली उस उग्र भंगिमा को अपनाये हुए हैं जो अपने से बाहर की हर चीज को देखने से इंकार करती है । प्रो. इरफ़ान हबीब के प्रश्नों के प्रति प्रकाश करात का रुख़ इसी बात का प्रमाण है । उन्हें अपने से बाहर झाँकने के लिये मजबूर करना होगा ।
हमारा यह दृढ़ विश्वास है कि ज़ख़्म को वही चाक़ू भर सकता है जो उसे चीर देता है । वामपंथ को उसके अपने इतिहास और स्थान-समय से काट कर किसी मिथक या रहस्य का रूप नहीं दिया जाना चाहिए । रहस्यमय दैविक रूप के प्रति सिर्फ उनका आग्रह होता हैं, जो अपने पर किसी भी प्रकार के सवाल के औचित्य से इंकार करना चाहते हैं । हमें लगता है कि वामपंथी बुद्धिजीवियों की वामपंथ को 'सिद्धांतों' की झूठी मीनार से उतार कर आज की राजनीति की ठोस ज़मीन पर लाने में एक बड़ी भूमिका हो सकती है । यह भी खुद में सांप्रदायिक फासीवाद के विरुद्ध व्यापक जन-लामबंदी को संभव बनाने की दिशा में बुद्धिजीवियों का बहुत सकारात्मक योगदान होगा ।
जहाँ तक सांप्रदायिक फासीवाद के खिलाफ लगातार प्रचार अभियान चलाना, उसे अलग-थलग करने के दूसरे तमाम उपायों का सवाल हैं, वे तो सर्वोपरि हैं । इसमें किसी भी प्रकार की कमी या समझौता-परस्ती सीधे-सीधे आत्म-घात होगा ।
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