-अरुण माहेश्वरी
कल सुबह साढ़े दस बजे सुप्रीम कोर्ट सिंगुर मामले में अपनी राय सुनाने वाला है। कुछ लोगों का, खास तौर पर बुद्धिजीवियों के एक हलके का यह मानना रहा है कि पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा की पराजय में सिंगुर मामले की एक प्रमुख भूमिका थी। गौर करने की बात है कि वाम मोर्चा की पराजय के बाद, पांच साल बीत गये, इसी साल विधानसभा का एक और चुनाव होगया, लेकिन सिंगुर का विषय शुद्ध रूप से एक कानूनी विषय बन कर ठंडे बस्ते में पड़ा रह गया। इन पांच सालों में, और पिछले विधानसभा चुनाव में भी इस विषय पर किसी प्रकार की कोई राजनीतिक चर्चा या उत्तेजना देखने को नहीं मिली।
यह अकेला तथ्य क्या यह बताने के लिये काफी नहीं है कि वाममोर्चा के पराजय की राजनीतिक प्रक्रिया में सिंगुर कोई प्रमुख विषय नहीं था। बल्कि इसके दूसरे ही तमाम कारण थे जिन्हें काफी हद तक वाममोर्चा सरकार के अंदर ही खोजना होगा। यदि वाममोर्चा सरकार के पतन की राजनीतिक प्रक्रिया में सिंगुर कोई केंद्रीय मसला होता तो वह इस प्रकार सिर्फ एक कानूनी लड़ाई का विषय बन कर न रह गया होता, उसकी राजनीतिक गूंज-अनुगूंज बाद में भी निश्चित तौर पर सुनाई देती।
सिंगुर तथा देश मे जमीन के अधिग्रहण की दूसरी कई घटनाओं की पृष्ठभूमि में भूमि अधिग्रहण के विषय ने एक समय बड़े राष्ट्रीय राजनीतिक विषय का रूप ले लिया था। आनन-फानन में केंद्रीय स्तर पर जमीन अधिग्रहण के बाबा आदम के जमाने के कानून की जगह एक नया विधेयक तैयार कराया गया। उस पर तमाम स्तरों पर भारी बहसें हुईं। लेकिन आज वही विधेयक केंद्रीय सरकार के पास लंबे काल से लंबित ट्रैफिकिंग कानून, महिला आरक्षण कानून की तरह ही दूसरे कई महत्वपूर्ण कानूनों की तरह अधर में लटक गया है। संसद के एक के बाद एक सत्र बीत जाते हैं, लेकिन भूमि अधिग्रहण विधेयक लगता है जैसे विस्मृति के किसी अतल अंधेरे में डुबो दिया गया है।
यह इस बात का एक और प्रमाण है कि हमारी संसदीय जनतांत्रिक व्यवस्था की देश की शोषण पर टिकी उत्पादन-व्यवस्था के साथ किसी प्रकार का कोई टकराहट नहीं है। सामयिक तौर पर समाज में उठने वाले तूफानों की कुछ थपेड़े इस पर पड़ती दिखाई देती है, लेकिन उतने समय तक ही जब तक यह तूफान जारी रहता है। व्यवस्था का सारा ताम-झाम किसी तरह उस तूफान के गुजर जाने तक का इंतजार करने के लिये हैं। और किसी भी वजह से ऐसा कोई कानून पारित भी हो जाता है तो जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार के दूसरे कानूनों की तरह ही बाद में भी उन्हें निरस्त करने की कानूनी, गैर-कानूनी सामाजिक प्रक्रियाएं बाकायदा जारी रहती है।
बहरहाल, जहां तक सिंगुर के मामले में सुप्रीम कोर्ट की राय का सवाल है, उससे सबसे पहले तो यह पता चलेगा कि 2006 में जब वाममोर्चा सरकार ने सिंगुर में जमीन का अधिग्रहण किया, वह अधिग्रहण कानून-सम्मत था या नहीं। इसके अलावा, 2011 में ममता बनर्जी की सरकार ने सिंगुर के मामले में जो एक विशेष कानून बनाया था, जिसे कोलकाता हाईकोर्ट की डिविजन बेंच ने गैर-कानूनी करार दिया, उसकी भी कानूनन क्या स्थिति है।
सुप्रीम कोर्ट की राय देश के वर्तमान कानून पर ही टिकी रहेगी। इस राय से वह काम नहीं हो सकता जिसके लिये संसद के जरिये संविधान संशोधन विधेयक तैयार किया गया है। इसीलिये, हमारी नजर में, इस राय में किसी प्रकार की नई संभावना को देखना मुमकिन नहीं है। वाममोर्चा सरकार ने भले ही इसके राजनीतिक पक्षों पर ज्यादा ध्यान न दिया हो, लेकिन इसके कानूनी पहलू के बारे में वह काफी साफ थी। कल की राय से संभव है, इस पूरे प्रसंग का अब क्रियाकर्म हो जायेगा, बशर्ते सुप्रीम कोर्ट के दो न्यायाधीशों की यह बेंच इस विषय को और ज्यादा दिनों तक लंबित रखने के उद्देश्य से बड़ी बेंच के सुपुर्द नहीं करती है।
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