आज मित्र Chaitanya Nagar की एक पोस्ट पढ़ी - बकवाद और चुप्पीवाद के बीच का रास्ता । इससे एक अजीब सी अनुभूति हुई । यहाँ दोनों को ही 'वाद' कहा गया है -अर्थात बोलने और ख़ामोश रहने की विचारधारा ।
सचमुच, बोलना अगर आदमी की एक बाह्य क्रिया, उसका एक ठोस व्यवहार है , तो चुप रहना एक आंतरिक क्रिया, मानसिक व्यवहार कहा जा सकता है । वेदांतों में आदमी की आस्था का एक बड़ा स्रोत यह भी माना गया है कि आदमी को कर्मकांडों के नुस्ख़े दे दो, स्वत: उससे उसमें आस्था के बीज पड़ जायेंगे । अंतत: मनुष्यों की आस्था पर खेलने के हर खेल का किसी न किसी रूप में यही नुस्ख़ा होता है । इसे आप अपने इर्द-गिर्द रोज और हर क्षण, असंख्य रूपों में होते देख सकते हैं ।
लेकिन गहराई से देखें तो जीवन के भौतिक उपकरणों से उत्पन्न आत्मानुभूति और उस आत्मानुभूति पर आधारित हमारे व्यवहार के बीच एक गहरी खाई होती है । हमारे व्यवहारिक क्रियाकलापों और आंतरिक जिज्ञासाओं, विश्वासों में कोई मेल नहीं होता । ये दोनों समानांतर धाराओं की तरह हमेशा एक दूसरे से अलग ही रहते है । इसीलिये जब चैतन्य इन दोनों के 'बीच का रास्ता' की बात करते हैं तब यह रास्ता हमें इनके बीच किसी मध्यस्थता या इनको जोड़ने का रास्ता नहीं लगता बल्कि इन्हें स्थाई तौर पर अलग रखने की खाई जैसा लगता है । दरअसल, जब भी कोई विश्वास और व्यवहार को पूरी तरह से जोड़ कर रखने की कोशिश करता है तो लगता है जैसे वह रंगमंच पर कोई परिहास से भरा हुआ नाटक पेश कर रहा हैं । क्योंकि इस प्रकार की वैचारिकता का व्यवहारिक प्रदर्शन या जैविक व्यवहार का आस्थावादी प्रदर्शन सिर्फ एक प्रहसन में ही मुमकिन है । ब्रेख़्त के नाटकों का पूरा ढाँचा इसी प्रकार के एक गहरे मसखरेपन पर टिका हुआ है ।
हमने कोलकाता में विजय तेंदुलकर के मराठी नाटक 'चुप अदालत चल रही है' को बांग्ला और फिर हिंदी, दोनों में ही देखा था । बांग्ला में प्रसिद्ध 'बहुरूपी' नाट्यमंडली ने इसे खेला था जिसमें किंवदंती अभिनेत्री तृप्ति मित्रा ने अभिनय किया था और हिंदी में 'रंगकर्मी' ने , जिसमें शायद उषा गांगुली ने अभिनय किया था । इस पूरे नाटक की बुनावट ब्रेख्तियन ढर्रे की ही है जिसमें पात्र महज अभिनय करने के लिये इकट्ठा होते हैं और अभिनय के क्रम में ही जिसे वे नाटक समझ रहे थे, वह उनके विश्वास और सच का रूप ले लेता है और जिसे वे अपना सच या विश्वास मान कर चल रहे थे, वह कोरा नाटक या दिखावा प्रतीत होने लगता है ।
कहने का मतलब यही है कि जब तक आप जीवन में हर क्षण खेले जा रहे इन प्रहसनों को देखने की, बकवास और चुप्पी के अभिनयों के सत्य को देखने की दृष्टि हासिल नहीं करेंगे, इनके बीच मेलबंधन के भ्रम में खोये रहेंगे ।
इसीलिये बकवाद और चुप्पीवाद एक नहीं हो सकते । ये दो अलग-अलग समानांतर धाराएँ हैं । कुछ इससे लो, कुछ उससे लो का फ़ार्मूला किसी प्रहसन (कॉमेडी) की थीम बन सकता है, जीवन व्यवहार का नुस्ख़ा नहीं । किसी भी गहरी अन्तरदृष्टि से सम्पन्न लेखक की शक्ति का स्रोत इसी बात में होता है कि वह जीवन-व्यवहार के इन प्रहसनों को कितना और कैसे देख पाता है, चित्रित कर पाता है । लेखन में जीवन की यही प्रस्तुति, जिसे लोग एक प्रकार की छलना भी कहते हैं, लेखक की शक्ति और लेखन का सौन्दर्य है ।
ग़ालिब साहब कहते हैं :
बाज़ीचा-ऐ-अत्फाल है दुनिया मेरे आगे
होता है शब्-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे
[ बाज़ीचा = खेल, अत्फाल = बच्चे]
और भी -
बेखुदी बेसबब नहीं गालिब।
कुछ तो है जिसकी पर्दागारी है।
सचमुच, बोलना अगर आदमी की एक बाह्य क्रिया, उसका एक ठोस व्यवहार है , तो चुप रहना एक आंतरिक क्रिया, मानसिक व्यवहार कहा जा सकता है । वेदांतों में आदमी की आस्था का एक बड़ा स्रोत यह भी माना गया है कि आदमी को कर्मकांडों के नुस्ख़े दे दो, स्वत: उससे उसमें आस्था के बीज पड़ जायेंगे । अंतत: मनुष्यों की आस्था पर खेलने के हर खेल का किसी न किसी रूप में यही नुस्ख़ा होता है । इसे आप अपने इर्द-गिर्द रोज और हर क्षण, असंख्य रूपों में होते देख सकते हैं ।
लेकिन गहराई से देखें तो जीवन के भौतिक उपकरणों से उत्पन्न आत्मानुभूति और उस आत्मानुभूति पर आधारित हमारे व्यवहार के बीच एक गहरी खाई होती है । हमारे व्यवहारिक क्रियाकलापों और आंतरिक जिज्ञासाओं, विश्वासों में कोई मेल नहीं होता । ये दोनों समानांतर धाराओं की तरह हमेशा एक दूसरे से अलग ही रहते है । इसीलिये जब चैतन्य इन दोनों के 'बीच का रास्ता' की बात करते हैं तब यह रास्ता हमें इनके बीच किसी मध्यस्थता या इनको जोड़ने का रास्ता नहीं लगता बल्कि इन्हें स्थाई तौर पर अलग रखने की खाई जैसा लगता है । दरअसल, जब भी कोई विश्वास और व्यवहार को पूरी तरह से जोड़ कर रखने की कोशिश करता है तो लगता है जैसे वह रंगमंच पर कोई परिहास से भरा हुआ नाटक पेश कर रहा हैं । क्योंकि इस प्रकार की वैचारिकता का व्यवहारिक प्रदर्शन या जैविक व्यवहार का आस्थावादी प्रदर्शन सिर्फ एक प्रहसन में ही मुमकिन है । ब्रेख़्त के नाटकों का पूरा ढाँचा इसी प्रकार के एक गहरे मसखरेपन पर टिका हुआ है ।
हमने कोलकाता में विजय तेंदुलकर के मराठी नाटक 'चुप अदालत चल रही है' को बांग्ला और फिर हिंदी, दोनों में ही देखा था । बांग्ला में प्रसिद्ध 'बहुरूपी' नाट्यमंडली ने इसे खेला था जिसमें किंवदंती अभिनेत्री तृप्ति मित्रा ने अभिनय किया था और हिंदी में 'रंगकर्मी' ने , जिसमें शायद उषा गांगुली ने अभिनय किया था । इस पूरे नाटक की बुनावट ब्रेख्तियन ढर्रे की ही है जिसमें पात्र महज अभिनय करने के लिये इकट्ठा होते हैं और अभिनय के क्रम में ही जिसे वे नाटक समझ रहे थे, वह उनके विश्वास और सच का रूप ले लेता है और जिसे वे अपना सच या विश्वास मान कर चल रहे थे, वह कोरा नाटक या दिखावा प्रतीत होने लगता है ।
कहने का मतलब यही है कि जब तक आप जीवन में हर क्षण खेले जा रहे इन प्रहसनों को देखने की, बकवास और चुप्पी के अभिनयों के सत्य को देखने की दृष्टि हासिल नहीं करेंगे, इनके बीच मेलबंधन के भ्रम में खोये रहेंगे ।
इसीलिये बकवाद और चुप्पीवाद एक नहीं हो सकते । ये दो अलग-अलग समानांतर धाराएँ हैं । कुछ इससे लो, कुछ उससे लो का फ़ार्मूला किसी प्रहसन (कॉमेडी) की थीम बन सकता है, जीवन व्यवहार का नुस्ख़ा नहीं । किसी भी गहरी अन्तरदृष्टि से सम्पन्न लेखक की शक्ति का स्रोत इसी बात में होता है कि वह जीवन-व्यवहार के इन प्रहसनों को कितना और कैसे देख पाता है, चित्रित कर पाता है । लेखन में जीवन की यही प्रस्तुति, जिसे लोग एक प्रकार की छलना भी कहते हैं, लेखक की शक्ति और लेखन का सौन्दर्य है ।
ग़ालिब साहब कहते हैं :
बाज़ीचा-ऐ-अत्फाल है दुनिया मेरे आगे
होता है शब्-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे
[ बाज़ीचा = खेल, अत्फाल = बच्चे]
और भी -
बेखुदी बेसबब नहीं गालिब।
कुछ तो है जिसकी पर्दागारी है।
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