आज हरीश जी की समग्र रचनाओं के इन पांच खंडों के लोकार्पण का यह अवसर हमारे लिये क्या मायने रखता है, इसे सही ढंग से बयान करना काफी कठिन लगता है। यह कुछ ऐसा ही है जैसे स्वयं आपकी सांस्कृतिक-साहित्यिक चेतना का एक अंश आपके सामने पांच खंडों के एक ठोस, भौतिक रूप में उपस्थित हो गया हो। आदमी की चेतना के अपरिमित विस्तार का इस प्रकार पुस्तकों के पांच खंडों में सिमट कर दिखाई देने लगना, आप अनुमान लगा सकते हैं, यह अपने पीछे एक कैसे शून्य के अंधकार को उत्पन्न करता होगा। एक बड़े काम के संपन्न होने से खुशी होती है, तो उतनी ही बड़ी जैसे एक रिक्तता भी पैदा होती है, जिसे हम अक्सर कुछ उत्सवों के रोमांच से भर कर अपना मन भुलाया करते हैं। कहना न होगा, यह लोकार्पण समारोह हमारे लिये हमारे अपने अंदर के एक विरेचन का और नई खुशियों के प्रारंभ का संयोग बिंदु है। आगे अब यह काम अपनी एक नई भूमिका में, व्यापक पाठक समाज को संस्कारित करने की सामाजिक भूमिका में कैसे और कितना दिखाई देगा, वह भविष्य ही बतायेगा। जहां तक हमारा अपना सवाल है, हमारे लिये एक सुविधा की स्थिति यह है कि हम हमेशा बहु-विध विषयों के विमर्शों में उलझे रहते हैं, अन्यथा हमारे सामने आज ही सबसे बड़ा यह सवाल उठ खड़ा होता कि - आगे क्या !
अपने इस एक प्रकार के निजी नोट के साथ ही, जब मैं एक नये भविष्य के संयोग-बिंदु का जिक्र कर रहा हूं तो पूरा विषय हमारी निजता से हट कर एक व्यापक सामाजिक परिप्रेक्ष्य में चला जाता है। और हरीश जी की रचनाओं से गहराई से गुजरने के बाद यह कहने में मुझे कोई हिचक नहीं है कि यह आयोजन सिर्फ इस बीकानेर शहर के सांस्कृतिक जीवन के लिये नहीं, हिंदी के पूरे साहित्य जगत में विचार और चिंतन के नये समीकरणों का एक श्रीगणेश साबित हो, तो मुझे आश्चर्य नहीं होगा।
मित्रों, हमने अपने जीवन के लगभग पचास साल तक हरीश जी को देखा, सुना, पढ़ा और उनके गीतों को गुनगुनाया भी है। जैसा कि हमने शुरू में ही कहा, वे हमारे जीवन में कुछ इस कदर समाये हुए थे कि उनकी अपने से अलग किसी भी तस्वीर को देखने-समझने की हमारी कोई तैयारी ही नहीं थी। स्वाभाविक जीवन की लय पर भी क्या कभी कोई विचार करता है !
लेकिन सबसे पहले उनकी एक लंबी कविता ‘नष्टोमोह’ पर, और बाद में उनकी 75वीं सालगिरह के मौके पर बीकानेर में हुए आयोजन के लिये हमने जब उन्हें अपने लिखने के विषय के तौर पर देखा, तो वह अनुभव सचमुच हमारे लिये अपने जीवन की स्वाभाविक लय में एक नई झंकार की अनुभूति की तरह का रहा। वह सब, जो हम घर पर नित्य-प्रतिदिन गाते-गुनगुनाते थे, हमसे स्वतंत्र होकर साहित्यिक कृतियों के रूप में कुछ ऐसे प्रतीत होने लगे, जैसे मार्क्स मनुष्यों द्वारा उत्पादित माल के बारे में कहते हैं - ‘‘ईश्वर की तरह ही मनुष्य समाज की सृष्टि फिर भी मनुष्यों से स्वतंत्र मान लिया गया एक सर्वव्यापी शाश्वत, अनादि सत्य।’’
सचमुच यह हमारे लिये अपने यथार्थ, आम जीवन की पगडंडियों से साहित्य के एक अलग मायावी, अनोखे संसार में प्रवेश का अनुभव था। अपने जीवन की ही अनुभूतियों का एक नया साक्षात्कार। जब हरीश जी की 75वीं सालगिरह के मौके पर हमने अपनी अंतरंगता से जाने हुए उनके साहित्य पर लिखा, उसी समय हमने उनके अंतिम लगभग तीन दशकों के साहित्य के बारे में कहा था कि यह उनकी रचना यात्रा का एक ऐसा नया क्षेत्र है, जिसके साथ मेरा पहले के साहित्य की तरह का कोई नैसर्गिक जुड़ाव नहीं बन पाया था। तथापि, एक नजर डालने पर ही तब हमें ऐसा लगा था कि ‘60 के पहले तक के हरीश भादानी, ‘60 के बाद से ‘70 के मध्य तक के हरीश भादानी, ‘75 से ‘82 तक के नये जनसंघर्षों के हरीश भादानी और उसके बाद फिर अंत के लगभग तीन दशकों के हरीश भादनी का जीवन कोई ठहरा हुआ जीवन नहीं था, बल्कि वह उनकी रचना यात्रा के एक और नये उत्कर्ष का काल था जिसकी अतल गहराइयों में हमें प्रवेश करना तब तक बाकी था।
और सचमुच, जब साहित्य अकादमी की प्रतिष्ठित श्रृंखला ‘भारतीय साहित्य के निर्माता’ के अन्तर्गत मुझे उनके समग्र रचनात्मक व्यक्तित्व पर लिखने का मौका मिला तो उनकी 75वीं सालगिरह के मौके पर लिखे गए अपने लेख के अनुमान को हमने शत-प्रतिशत सही पाया। साहित्य अकादमी की वह पुस्तिका इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। यह मामूली बात नहीं है कि उनके इन्हीं अंतिम तीन दशकों की रचनाओं के एक संकलन, ‘सयुजा सखाया’ को उस पुस्तिका में हमने हरीश भादानी की ‘गीतांजलि’ तक कहा है।
वैसे, हिंदी में साहित्य के देश भर के रसिक पाठक हरीश भादानी को उनके तीन गीतों, ‘मैंने नहीं कल ने बुलाया है’, ‘रोटी नाम सत है’ और ‘रेत में नहाया है मन’ की वजह से हमेशा अतीव श्रद्धा के साथ याद करते हैं। ‘रेत में नहाया है मन’ को पढ़ते हुए मैंने उसे किस रूप में देखा, उसकी चर्चा करके ही मैं यहां अपनी बात को खत्म करूंगा।
जिस समय हरीश जी ने इस गीत की रचना की, वह उनके जीवन के सबसे कठिन आर्थिक संघर्षों का समय था। उस समय जब वे गहरे दुख और विषाद से भरे हुए एक के बाद एक गीत, ‘चले कहां से/ गए कहां तक/ याद नहीं है/’ या ‘समय व्याकरण समझाएं/हमें अ-आ नहीं आए‘ या ‘टूटी गजल न गा पायेंगे/...सन्नाटा न स्वरा पायेंगे’ की तरह के गीत लिख रहे थे, अवसाद के उसी दौर में उनके अंदर से अपनी धरती से प्रेम और उल्लास का एक नया सोता फूट पड़ता है। हमने उस पर लिखा था कि ‘‘ अवसाद जितना गहरा, उल्लास भी उतना ही प्रबल। दुख ही तो है सुख की परिमिति। शोर से मौन और मौन से संगीत।...वे अपनी धरती से जुड़ाव, जीवन पर विश्वास और मरुभूमि के सौन्दर्य के इस अमर गीत का सृजन करते हैं - रेत में नहाया है मन।
धरती से प्रेम का एक बिल्कुल नया गीत। गैब्रियल गार्सिया मारकेस की एक कहानी है -सराला एरेंदिरा। इसमें एरेंदिरा के हाथ का आईना कभी लाल हो जाता है तो कभी नीला, कभी हरी रोशनी से भर जाता है। एरेंदिरा की दादी कहती है - ‘‘तुम्हें प्रेम हो गया है। प्रेम में पड़ने पर ऐसा ही होता है।’’ सचमुच, प्रेम में ही रेत कभी धुंआती है, झलमलाती है, पिघलती है, बुदबुदाती है - मरुभूमि - समंदर का किनारा, नदी के तट बन जाती है। प्रेम में पागल आदमी की कांख में आंधियां दबी होती है, वह धूप की चप्पल, तांबे के कपड़े पहन घूमता है। इतना लीन जैसे आसन बिछा अपने अस्तित्व को खो बैठा हो।’’
सचमुच, ऐसा ही है हरीश जी के रचना संसार का सौन्दर्य।
अब उनका समग्र साहित्य आप सबके सामने है। राजस्थान की इस मरुभूमि ने हिंदी के साहित्य जगत को किस प्रकार समृद्ध करने में एक महती भूमिका अदा की है, इसका प्रमाण है यह ‘समग्र रचनावली’। हिंदी साहित्य में राजस्थान के आम लोगों के जीवन-संघर्षों को इतने सशक्त रूप में ले जाने वाले अपने प्रकार के इस अनूठे शब्द-साधक की स्मृतियां यहां के लोगों के सामान्य सांस्कृतिक बोध में जितनी रची-बसी रहेगी, उपभोक्तावाद की लाख आंधियां भी उसे सांस्कृतिक दृष्टि से कभी विपन्न नहीं कर पायेगी। हमारी यही कामना है कि इस शहर, इस प्रांत और पूरे हिंदी जगत के संवेदनशील लोग उनकी स्मृतियों को सदा जीवंत बनाये रखने के लिये प्रयत्नशील रहेंगे। बीकानेर के साहित्य प्रेमियों ने उनके जन्मदिन और प्रयाण दिवस, दोनों को ही एक महत्वपूर्ण साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजन के दिन की तरह मनाने की एक परंपरा बना रखी है। आजकल सोशल मीडिया की बदौलत पूरे देश में भी इन दो अवसरों पर उन्हें अवश्य स्मरण किया जाता है। हमारी यही कामना है कि यह सिलसिला पूरे राज्य और देश के स्तर पर और भी बड़े पैमाने पर चलें, एक जन-सांस्कृतिक आंदोलन और राजस्थान की सांस्कृतिक अस्मिता से जुड़े समारोह का रूप लें।
आज के इस कार्यक्रम में आप सभी महानुभावों की भागीदारी के लिये आंतरिक आभार व्यक्त करते हुए मैं अपनी बात यहीं समाप्त करता हूं।
धन्यवाद।
अरुण माहेश्वरी
1 अक्तूबर 2016
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