गुरुवार, 1 दिसंबर 2016

नोटबंदी पर चर्चा का विषय अब बदल चुका है


-अरुण माहेश्वरी

नोट बंदी के बारे में समूची चर्चा अब काला धन को खत्म करने के विषय से हट कर क्रमश: इससे पैदा हो रही आम लोगों के जीवन में कठिनाइयों और अर्थ-व्यवस्था पर इसके दूरगामी दुष्परिणामों पर केंद्रित होती जा रही है।

बैंक वालों का ही कहना है कि अब तक पुरानी करेंसी के साठ प्रतिशत से ज्यादा नोट बैंकों में जमा हो गये है। आगामी एक महीने के अंदर इनकी संख्या 90 से 95 प्रतिशत तक पहुंच जायेगी। जब सारे पुराने नोट बैंकों में वापस ही आ जायेंगे, तब इससे जुड़ा काला धन वाला मसला तो विचार का विषय ही नहीं रह जायेगा। कुल मिला कर हुआ यह कि सरकार ने लगभग एक लाख पचीस हजार करोड़ रुपये खर्च करके लोगों के पुराने नोटों को नये नोटों में बदल दिया। 1000 और 500 के जो जाली नोट थे, उन्हें चलन से निकाल दिया गया।

चर्चा सिर्फ इस बात पर सिमट गई है कि मोदी जी ने सनक में आकर जो यह कदम उठाया, उसके जन-जीवन पर पड़े रहे भारी दुष्प्रभावों से कैसे बचा जाए। सरकार दिन-रात एक करके नये नोट छाप रही है, उन्हें तेजी से बैंकों तक पहुंचाने की कोशिश में लगी हुई है। लोगों को तनख्वाहें मिल जाए, उनमें बढ़ रहा गुस्सा काबू के बाहर न चला जाए। सरकार की रूह कांप रही है भीड़ में खड़े लोगों के चेहरों पर बनती बिगड़ती लकीरों से। राम-राम करते वह भी एक-एक दिन बिता रही है, यह उम्मीद देते हुए कि जल्द ही हालत सुधर जायेगी। वह जानती है कि उसके द्वारा दी जाने वाली दिलासा झूठी है।

दूसरी ओर, आम लोग सोच रहे हैं कि अभी तो पत्थर के नीचे हाथ दबा है। वे महसूस कर रहे है कि यह तो वहीं हुआ कि अपना ही माल जाए और आप ही चोर कहलाए। उनकी इतनी सी चिंता है कि किसी प्रकार अबकी बचे तो घर रचे। एक बार तो उन्होंने डर के मारे बैंकों में अपना सारा संचित धन जमा करा दिया, लेकिन आगे के लिये जीवन का एक सबसे बड़ा सबक लिया कि वे अपना धन अपनी छाती तले ही रखेंगे। सरकार कुछ भी क्यों न उपदेश दे, पेटीएम या बैंकों को कार्ड के एवज में दलाली के झूठे पैसे देकर अपने धन को लेकर वे और सांसत में नहीं जीयेंगे।

सरकार भी जानती है कि संविधान के विरुद्ध वह कितने दिनों तक लोगों को अपना धन अपने पास रखने से रोक सकेगी ? इसीलिये उसे अपने द्वारा ही पैदा किये गये इस संकट से निकलने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है। तय है कि नोटों की भरपूर आपूर्ति के बाद भी यह संकट तो जल्द दूर नहीं होगा। इसीलिये, भारत की तरह की नगदी पर टिकी अर्थ-व्यवस्था में नगदी के संकट से पैदा होने वाली विकृतियों से वह देश को नहीं बचा पायेगी।

जैसे-जैसे दिन बीतेंगे, मोदी जी के इस तुगलकी फैसले से दुनिया की सबसे तेज गति से बढ़ रही अर्थ-व्यवस्था के चक्के के बुरी तरह से नोटबंदी के दलदल में फंस जाने का अहसास गहरा होता जायेगा। इसके साथ ही इस सरकार का राजनीतिक संकट भी गहरायेगा। देखने की बात यह रहेगी कि देश को इस तुगलकी निजाम से कैसे मुक्ति मिलेगी !

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