-अरुण माहेश्वरी
सचमुच यह देख कर हैरत होती है कि भारत में जब नोटबंदी के कारण इतनी अफरा-तफरी मची हुई है, तब विदेशी अखबार इसके प्रति लगभग पूरी तरह से उदासीन बने हुए हैं। चंद रोज पहले ‘इकोनोमिस्ट’ पत्रिका में, नोटबंदी के लगभग पचीस दिन बाद, 3 दिसंबर के अंक में, ‘मोदी का घपला’ शीर्षक से एक छोटी सी टिप्पणी छपी थी, जिसे अपनी टिप्पणी के साथ हमने शेयर किया था। फिर और मित्रों ने भी उसे काफी साझा किया। उसके बाद से अब तक ‘इकोनोमिस्ट’ भी इस विषय पर चुप हैं। इसके अलावा गार्जियन, न्यूयार्क टाइम्स, या दूसरे अखबार भी ऐसी ही कोई छोटी-मोटी टिप्पणी के बाद शांत पड़े हैं।
भारत के लोगों के लिये जीवन-मरण का प्रश्न बनी हुई इस इतनी बड़ी घटना पर विदेशी पत्रकारों और अर्थशास्त्रियों की यह खामोशी हमें न सिर्फ हैरान करती है, बल्कि इस सारे मसले को बिल्कुल नये रूप में देखने के लिये भी मजबूर करती है। हमें लगता है कि जैसे सीरिया में चल रहा कत्ले आम, पूरे मध्यपूर्व के देशों के धूलिसात हो जाने का खतरा या अफगानिस्तान, पाकिस्तान में रोज आतंकवादियों के बमों से लोगों का मरना पश्चिम के अखबारों के लिये कोई विशेष अर्थ नहीं रखता, क्या भारत में नोटबंदी भी उनकी नजर में कुछ वैसा ही नहीं है, जिसमें भारत के गरीब लोगों की भारी परेशानियां उनके लिये कोई मायने नहीं रखती ?
पश्चिम के लोगों का खास तौर पर दक्षिण एशिया के देशों के बारे में हमेशा से कुछ इसी प्रकार का नजरिया रहा है कि यहां के लोग इस धरती पर महज एक भार है। इनके न रहने में ही सार है। गुन्नार मिर्डल ने अपने तीन खंडों वाले बृहद ग्रंथ, ‘एशियन ड्रामा’ (1982) में इन देशों को सड़े हुए देश बताया था। उसने लिखा था कि औपनिवेशिक जंजीरों से मुक्ति के बाद भी दक्षिण एशिया के देशों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में कोई फर्क नहीं आया है। सिर्फ आबादी में वृद्धि की दर तेज हुई है। (The only major change has been the recent rapid acceleration in the rate of population increase)
पश्चिम वालों का दक्षिण एशिया को देखने का यह नजरिया उनके खास उपनिवेशवादी शासकों के रवैये को दर्शाता है। भारत में अंग्रेजों का दो सौ साल तक शासन रहा, उस शासन के दौरान हर दूसरे साल हजारो-लाखों लोग अकाल और महामारियों की चपेट में खत्म होते रहे, लेकिन भारत की जनता को उसकी गरीबी और जहालत से कैसे मुक्त किया जाए, इस पर उन्होंने न कभी कोई शोध-अनुसंधान किया और न ही कभी इनके जीवन में सुधार का कोई नीतिगत ढांचा तैयार किया। भारत के लोगों के जीवन और जीविका के सवाल उनके सांस्कृतिक पुरातत्ववादियों की रुचि के विषय होते थे, जो इनकी एक अजीबो-गरीब रूढ़ प्रकार की तस्वीर भर पेश करके पश्चिम के लोगों के अहम की तुष्टि किया करते थे।
भारत की तरह के पिछड़े हुए देशों की ओर उनका ध्यान सिर्फ द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद, शीतयुद्ध के काल में गया, जब कम्युनिज्म का मुकाबला करने के अपनी विदेश नीति के हितों में उन्होंने इन देशों की सुध लेना जरूरी समझा। इस मामले में हम सोवियत संघ को भी उनसे अलग नहीं रख सकते हैं, जिसने अपने विदेश नीति के हितों के लिये भारत जैसे देशों के साथ सहयोग तो किया, लेकिन भारतीय समाज और दक्षिण एशिया के अन्य देशों के समाजों की समस्याओं के बारे में वैज्ञानिक अध्ययन के लिये शोध कार्यों के मामले में वे भी बहुत ज्यादा उत्साहित कभी नहीं रहे।
इस तुलना में, आजादी की लड़ाई के बीच से खुद भारत के इतिहासकारों और अर्थशास्त्रियों की एक पूरी पीढ़ी सामने आई, भारत के अपने सांख्यिकी संस्थानों, योजना आयोग आदि संस्थानों का गठन हुआ और विश्वयुद्ध के बाद की विश्व परिस्थिति में गुट-निरपेक्ष देशों के नेता के रूप में भारत सरकार ने अपने स्वाधीन विकास की एक रूपरेखा तैयार की। इसका एक फौरी लाभ तो यह हुआ कि अकाल भारत से सदा के लिये विदा हो गये । जाहिर है, पश्चिमी उपनिवेशवादियों के बुनियादी औपनिवेशिक रुख के कारण ही भारत में हर प्रकार की विदेशी सहायता को भी हमेशा बेहद संदेह की नजर से देखा जाता था। बुल्गारिया के लेखक टिबर मेंडे की किताब, ‘फ्राम एड टू रीकोलोनाइजेशन’ (1972) की भारत में लोकप्रियता का हमें आज भी स्मरण है।
इस सिलसिले में हमें फिर गुन्नार मिर्डल की बात याद आती है, जब वह लिखता है कि इधर के सालों में, जब से दक्षिण एशिया के प्रति पश्चिम में कुछ रुचि बढ़ी है, इन विकसित देशों के शोधार्थियों का दक्षिण एशिया के प्रति नजरिया एक बाहरी व्यक्ति का नजरिया रहा है। मिर्डल उनके इस बाहरीपन को इन देशों के वस्तुनिष्ठ अध्ययन के लिये वरदान मानते हुए कहते है कि इस नजरिये में वही फर्क है, जैसे दांत के दर्द के प्रति एक रोगी के नजरिये और एक डाक्टर के नजरिये में फर्क होता है। वे मानते हैं कि संभव है, बाहरी व्यक्ति की दृष्टि में उथलापन हो, लेकिन दृष्टि का उथलापन तो इन देशों के अन्दुरूनी व्यक्ति की दृष्टि में भी हो सकता है।
बहरहाल, हमारी समझ में मूल बात रोग की पहचान और उसके निदान के प्रति डाक्टर की निष्ठा और संजीदगी में है। और, सभी उपनिवेशों के लोगों के जीवन का अनुभव इस बात का गवाह है कि उपनिवेशवादियों का बाहरीपन कभी भी उपनिवेशों की जनता के प्रति सहानुभूति और संजीदगी का परिचय नहीं दे सकता है। ऐसे चिकित्सक से कैसे कोई किसी भलाई की उम्मीद रख सकता है !
आज नोटबंदी के सिलसिले में हमारे दिमाग में ये सारी बातें अकारण ही नहीं आ रही है। इस पूरे विषय में हमें जो सबसे अधिक परेशान करने वाली बात लग रही है, वह है मोदी जी और उनकी पार्टी का भारत के लोगों की दुर्दशा के प्रति एक बाहरी व्यक्ति की तरह का निष्ठुरता से भरा उदासीनता वाला नजरिया। इनके सारे तर्कों से, डिजिटलाइजेशन, कैशलेस आदि की तरह की बातों से, भारतीय जीवन के बारे में इनकी पूरी समझ के ब्यौरों से एक बात साफ है कि उनमें भारत के लोगों और उनके जीवन के प्रति लगभग एक वैसा ही नफरत का भाव भरा हुआ है, जैसा कि पश्चिम के औपनिवेशिक मानसिकता वाले लोगों का है। इस देश के करोड़ों गरीब लोगों के जीवन से उनका रत्ती भर भी सरोकार नहीं है। सब नष्ट हो जाए, पश्चिम एशिया के देशों की तरह यह देश भी धूलिसात हो जाए, कोई फर्क नहीं पड़ता। सिर्फ विकास का वह मॉडल कायम हो जाए, जिसे पश्चिम के लोगों ने एक आदर्श मॉडल मान रखा है, और जिसे इन्होंने अपने प्राणों में बसा रखा है !
मोदी जी का त्राहिमाम करते लोगों के प्रति जो निर्दय, औपनिवेशिक शासकों वाला भाव है, वह शायद इसलिये भी है क्योंकि वे जिस राजनीतिक विचारधारा की उपज है, वह विचारधारा उपनिवेशवाद के खिलाफ भारत के लोगों की आजादी की लड़ाई के विरोध के अंदर से पैदा हुई है। यही वजह है कि हमें आज कांग्रेस, वामपंथी और दूसरी सभी पार्टियां, जिनकी जड़ें किसी न किसी प्रकार से भारत की आजादी की लड़ाई में रही है, मोदी पार्टी की तुलना में हर लिहाज से ज्यादा बेहतर और उचित जान पड़ती है। भ्रष्टाचार आदि के मामले तो भारत का हर आदमी जानता है कि बीजेपी किसी भी दूसरी पार्टी से इस मामले में दो कदम आगे ही है, कम नहीं। वर्ना हजारों करोड़ रुपये के खर्च से मोदी जी सत्ता पर न आए होते ! लेकिन सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि आज मोदी पार्टी बन चुकी बीजेपी ने वस्तुत: भारत में औपनिवेशिक शासकों की पार्टी का रूप ले लिया दिखाई पड़ता है।
इसीलिये, हमने एक मित्र Harsh Deo की पोस्ट पर, जिसमें उन्होंने यूपी में अमित शाह की सांसे फूलने की बात कही है, लिखा है कि बीजेपी को हराना आज अंग्रेजों को हराने के समान है। यही वह बिन्दु है, जहां भारत के लोगों की आज की दुर्दशा के प्रति पश्चिमी मीडिया की उदासीनता और भारत सरकार की निष्ठुरता में हमें साफ तौर पर एक मेल दिखाई देता है।
सचमुच यह देख कर हैरत होती है कि भारत में जब नोटबंदी के कारण इतनी अफरा-तफरी मची हुई है, तब विदेशी अखबार इसके प्रति लगभग पूरी तरह से उदासीन बने हुए हैं। चंद रोज पहले ‘इकोनोमिस्ट’ पत्रिका में, नोटबंदी के लगभग पचीस दिन बाद, 3 दिसंबर के अंक में, ‘मोदी का घपला’ शीर्षक से एक छोटी सी टिप्पणी छपी थी, जिसे अपनी टिप्पणी के साथ हमने शेयर किया था। फिर और मित्रों ने भी उसे काफी साझा किया। उसके बाद से अब तक ‘इकोनोमिस्ट’ भी इस विषय पर चुप हैं। इसके अलावा गार्जियन, न्यूयार्क टाइम्स, या दूसरे अखबार भी ऐसी ही कोई छोटी-मोटी टिप्पणी के बाद शांत पड़े हैं।
भारत के लोगों के लिये जीवन-मरण का प्रश्न बनी हुई इस इतनी बड़ी घटना पर विदेशी पत्रकारों और अर्थशास्त्रियों की यह खामोशी हमें न सिर्फ हैरान करती है, बल्कि इस सारे मसले को बिल्कुल नये रूप में देखने के लिये भी मजबूर करती है। हमें लगता है कि जैसे सीरिया में चल रहा कत्ले आम, पूरे मध्यपूर्व के देशों के धूलिसात हो जाने का खतरा या अफगानिस्तान, पाकिस्तान में रोज आतंकवादियों के बमों से लोगों का मरना पश्चिम के अखबारों के लिये कोई विशेष अर्थ नहीं रखता, क्या भारत में नोटबंदी भी उनकी नजर में कुछ वैसा ही नहीं है, जिसमें भारत के गरीब लोगों की भारी परेशानियां उनके लिये कोई मायने नहीं रखती ?
पश्चिम के लोगों का खास तौर पर दक्षिण एशिया के देशों के बारे में हमेशा से कुछ इसी प्रकार का नजरिया रहा है कि यहां के लोग इस धरती पर महज एक भार है। इनके न रहने में ही सार है। गुन्नार मिर्डल ने अपने तीन खंडों वाले बृहद ग्रंथ, ‘एशियन ड्रामा’ (1982) में इन देशों को सड़े हुए देश बताया था। उसने लिखा था कि औपनिवेशिक जंजीरों से मुक्ति के बाद भी दक्षिण एशिया के देशों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में कोई फर्क नहीं आया है। सिर्फ आबादी में वृद्धि की दर तेज हुई है। (The only major change has been the recent rapid acceleration in the rate of population increase)
पश्चिम वालों का दक्षिण एशिया को देखने का यह नजरिया उनके खास उपनिवेशवादी शासकों के रवैये को दर्शाता है। भारत में अंग्रेजों का दो सौ साल तक शासन रहा, उस शासन के दौरान हर दूसरे साल हजारो-लाखों लोग अकाल और महामारियों की चपेट में खत्म होते रहे, लेकिन भारत की जनता को उसकी गरीबी और जहालत से कैसे मुक्त किया जाए, इस पर उन्होंने न कभी कोई शोध-अनुसंधान किया और न ही कभी इनके जीवन में सुधार का कोई नीतिगत ढांचा तैयार किया। भारत के लोगों के जीवन और जीविका के सवाल उनके सांस्कृतिक पुरातत्ववादियों की रुचि के विषय होते थे, जो इनकी एक अजीबो-गरीब रूढ़ प्रकार की तस्वीर भर पेश करके पश्चिम के लोगों के अहम की तुष्टि किया करते थे।
भारत की तरह के पिछड़े हुए देशों की ओर उनका ध्यान सिर्फ द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद, शीतयुद्ध के काल में गया, जब कम्युनिज्म का मुकाबला करने के अपनी विदेश नीति के हितों में उन्होंने इन देशों की सुध लेना जरूरी समझा। इस मामले में हम सोवियत संघ को भी उनसे अलग नहीं रख सकते हैं, जिसने अपने विदेश नीति के हितों के लिये भारत जैसे देशों के साथ सहयोग तो किया, लेकिन भारतीय समाज और दक्षिण एशिया के अन्य देशों के समाजों की समस्याओं के बारे में वैज्ञानिक अध्ययन के लिये शोध कार्यों के मामले में वे भी बहुत ज्यादा उत्साहित कभी नहीं रहे।
इस तुलना में, आजादी की लड़ाई के बीच से खुद भारत के इतिहासकारों और अर्थशास्त्रियों की एक पूरी पीढ़ी सामने आई, भारत के अपने सांख्यिकी संस्थानों, योजना आयोग आदि संस्थानों का गठन हुआ और विश्वयुद्ध के बाद की विश्व परिस्थिति में गुट-निरपेक्ष देशों के नेता के रूप में भारत सरकार ने अपने स्वाधीन विकास की एक रूपरेखा तैयार की। इसका एक फौरी लाभ तो यह हुआ कि अकाल भारत से सदा के लिये विदा हो गये । जाहिर है, पश्चिमी उपनिवेशवादियों के बुनियादी औपनिवेशिक रुख के कारण ही भारत में हर प्रकार की विदेशी सहायता को भी हमेशा बेहद संदेह की नजर से देखा जाता था। बुल्गारिया के लेखक टिबर मेंडे की किताब, ‘फ्राम एड टू रीकोलोनाइजेशन’ (1972) की भारत में लोकप्रियता का हमें आज भी स्मरण है।
इस सिलसिले में हमें फिर गुन्नार मिर्डल की बात याद आती है, जब वह लिखता है कि इधर के सालों में, जब से दक्षिण एशिया के प्रति पश्चिम में कुछ रुचि बढ़ी है, इन विकसित देशों के शोधार्थियों का दक्षिण एशिया के प्रति नजरिया एक बाहरी व्यक्ति का नजरिया रहा है। मिर्डल उनके इस बाहरीपन को इन देशों के वस्तुनिष्ठ अध्ययन के लिये वरदान मानते हुए कहते है कि इस नजरिये में वही फर्क है, जैसे दांत के दर्द के प्रति एक रोगी के नजरिये और एक डाक्टर के नजरिये में फर्क होता है। वे मानते हैं कि संभव है, बाहरी व्यक्ति की दृष्टि में उथलापन हो, लेकिन दृष्टि का उथलापन तो इन देशों के अन्दुरूनी व्यक्ति की दृष्टि में भी हो सकता है।
बहरहाल, हमारी समझ में मूल बात रोग की पहचान और उसके निदान के प्रति डाक्टर की निष्ठा और संजीदगी में है। और, सभी उपनिवेशों के लोगों के जीवन का अनुभव इस बात का गवाह है कि उपनिवेशवादियों का बाहरीपन कभी भी उपनिवेशों की जनता के प्रति सहानुभूति और संजीदगी का परिचय नहीं दे सकता है। ऐसे चिकित्सक से कैसे कोई किसी भलाई की उम्मीद रख सकता है !
आज नोटबंदी के सिलसिले में हमारे दिमाग में ये सारी बातें अकारण ही नहीं आ रही है। इस पूरे विषय में हमें जो सबसे अधिक परेशान करने वाली बात लग रही है, वह है मोदी जी और उनकी पार्टी का भारत के लोगों की दुर्दशा के प्रति एक बाहरी व्यक्ति की तरह का निष्ठुरता से भरा उदासीनता वाला नजरिया। इनके सारे तर्कों से, डिजिटलाइजेशन, कैशलेस आदि की तरह की बातों से, भारतीय जीवन के बारे में इनकी पूरी समझ के ब्यौरों से एक बात साफ है कि उनमें भारत के लोगों और उनके जीवन के प्रति लगभग एक वैसा ही नफरत का भाव भरा हुआ है, जैसा कि पश्चिम के औपनिवेशिक मानसिकता वाले लोगों का है। इस देश के करोड़ों गरीब लोगों के जीवन से उनका रत्ती भर भी सरोकार नहीं है। सब नष्ट हो जाए, पश्चिम एशिया के देशों की तरह यह देश भी धूलिसात हो जाए, कोई फर्क नहीं पड़ता। सिर्फ विकास का वह मॉडल कायम हो जाए, जिसे पश्चिम के लोगों ने एक आदर्श मॉडल मान रखा है, और जिसे इन्होंने अपने प्राणों में बसा रखा है !
मोदी जी का त्राहिमाम करते लोगों के प्रति जो निर्दय, औपनिवेशिक शासकों वाला भाव है, वह शायद इसलिये भी है क्योंकि वे जिस राजनीतिक विचारधारा की उपज है, वह विचारधारा उपनिवेशवाद के खिलाफ भारत के लोगों की आजादी की लड़ाई के विरोध के अंदर से पैदा हुई है। यही वजह है कि हमें आज कांग्रेस, वामपंथी और दूसरी सभी पार्टियां, जिनकी जड़ें किसी न किसी प्रकार से भारत की आजादी की लड़ाई में रही है, मोदी पार्टी की तुलना में हर लिहाज से ज्यादा बेहतर और उचित जान पड़ती है। भ्रष्टाचार आदि के मामले तो भारत का हर आदमी जानता है कि बीजेपी किसी भी दूसरी पार्टी से इस मामले में दो कदम आगे ही है, कम नहीं। वर्ना हजारों करोड़ रुपये के खर्च से मोदी जी सत्ता पर न आए होते ! लेकिन सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि आज मोदी पार्टी बन चुकी बीजेपी ने वस्तुत: भारत में औपनिवेशिक शासकों की पार्टी का रूप ले लिया दिखाई पड़ता है।
इसीलिये, हमने एक मित्र Harsh Deo की पोस्ट पर, जिसमें उन्होंने यूपी में अमित शाह की सांसे फूलने की बात कही है, लिखा है कि बीजेपी को हराना आज अंग्रेजों को हराने के समान है। यही वह बिन्दु है, जहां भारत के लोगों की आज की दुर्दशा के प्रति पश्चिमी मीडिया की उदासीनता और भारत सरकार की निष्ठुरता में हमें साफ तौर पर एक मेल दिखाई देता है।
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