बुधवार, 7 दिसंबर 2016

स्वेच्छाचार के दुष्परिणामों का डर

-अरुण माहेश्वरी



प्रधानमंत्री के सीधे निर्देश पर तथाकथित सर्जिकल स्ट्राइक के बाद से भारत-पाक सीमा पर लगातार गोलाबारी चल रही है । जम्मू और कश्मीर में बुरहान वानी के इनकाउंटर के बाद से हर रोज सेना पर आतंकवादी हमलें हो रहे हैं। तथ्य है कि मोदी सरकार के बनने के बाद पिछले अढ़ाई सालों में लगभग 180 जवानों की सीमा पर, अथवा कश्मीर में शहादत हो चुकी है। 29 सितंबर की ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ के बाद 34 जवान जान गंवा चुके हैं। और तो और, अब कश्मीर में सेना के अपने ठिकानों पर, जिन्हें सबसे अधिक सुरक्षित क्षेत्र माना जा सकता है, हमलें बढ़ते जा रहे हैं। 29 नवंबर को नगरोटा के सैनिक शिविर पर तीन आतंकवादियों ने हमला करके सात जवानों को शहीद कर दिया। 

कुल मिला कर इतना तो साफ है कि जो भी घट रहा है उसकी कीमत हमारी फौज के लोगों को चुकानी पड़ रही है। पाकिस्तान पहले जहां था, वहीं आज भी है। इस बीच अगर कुछ बदला है तो वह है भारत में मोदी सरकार की स्थापना । और इसीलिये, पहले की तुलना में भारत-पाक सीमा की स्थिति में या जम्मू और कश्मीर में आतंकवाद की स्थिति बदतर हुई  है तो उसकी जिम्मेदारी से मोदी सरकार अपने को पूरी तरह से मुक्त नहीं कर सकती है। जनवरी महीने में आतंकवादियों के पठानकोट हमले के ठीक बाद सेना के सेवानिवृत उप प्रमुख लेफ्टिनेंट कर्नल फिलिप कैम्पोज ने सेना के ठिकानों की रक्षा के लिये एक रिपोर्ट तैयार करके तत्काल कार्रवाई के लिये कई सुझाव दिये थे। लेकिन उन सिफारिशों का क्या हुआ, साल भर बीतने वाला है, किसी को कोई अनुमान नहीं है।

हमारी चिंता का विषय यह है कि अगर सीमा पर या कश्मीर में यह सिलसिला इसी प्रकार जारी रहा तो वे दिन दूर नहीं हैं जब भारत में भी सिविलियन और सैनिक सत्ताओं के बीच तनाव और टकराहटों की वैसी ही खबरें आने लगेगी जैसी खबरें पाकिस्तान की राजनीति का एक अभिन्न अंग बन चुकी है। सामान्य तौर पर सेना के काम करने के अपने सामरिक तर्क होते हैं। उसके लिये राष्ट्र की सुरक्षा और शासक राजनीतिक दल के राजनीतिक हित हमेशा एक नहीं हो सकते हैं। एकाध बार किसी प्रधानमंत्री की सनक के अनुसार काम करने के बावजूद यह सिलसिला अनंत काल तक नहीं चला करता है। सिविलियन सरकार से वह भी भारत के दूसरे सभी नागरिकों की तरह अपने दायित्वों के निर्वाह की अपेक्षा रखती है। सेना के अधिकारी आखिर कब तक बिना किसी सामरिक तर्क के, सिर्फ भाजपा के उग्र राष्ट्रवादी राजनीतिक एजेंडे के लिये सेना के लोगों की बलि चढ़ाये जाने पर चुप्पी साधे रहेंगे ? वे कब तक हमारे रक्षा मंत्री की इस प्रकार की मूर्खतापूर्ण दलीलों को स्वीकारते रहेंगे कि नोटबंदी ने कश्मीर के आतंकवादियों की कमर तोड़ दी है; पत्थरबाजी कम हो गयी है !

आज नोटबंदी के कारण वैसे ही समूचा जन-जीवन अस्थिर है। ऊपर से इस सरकार ने सभी स्थापित संस्थाओं की मर्यादाओं को भी दाव पर लगा दिया है। जजों की नियुक्ति के मसले पर सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ मोर्चा खोल कर न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच एक स्थायी तनाव बना हुआ है। इसके अलावा, घरेलू सुरक्षा और सीमा की सुरक्षा की तरह के हर मामले में राजनीतिक और कूटनीतिक सूझबूझ की कमी के चलते इस सरकार की सेना पर बढ़ती हुई भारी निर्भरशीलता के बहुआयामी खतरे हैं। यह एक ओर जहां सेना को अलग, नये शक्ति केंद्र के रूप में विकसित कर सकती है, वहीं सेना के लगातार मनमाने दुष्प्रयोग से भारत में सिविलियन और नागरिक सत्ताओं के बीच एक ऐसे तनाव के बीज डाल सकती है, जिससे अब तक का भारत पूरी तरह से अपरिचित रहा है।

वैसे ही, सेना और सरकार के बीच एक लंबे अर्से से वेतन आयोग की सिफारिशों और वन रैंक वन पेंशन (ओरोप) की तरह के मुद्दों पर अंदर ही अंदर एक तनाव बना हुआ है। अब तक के वेतन आयोगों की सिफारिशों से सेना संस्थान कभी भी खुश नहीं रहा है। सभी सेना-प्रमुखों ने पिछले मसलों का बिना हल किये सेना के बारे में सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों को अभी लागू न करने की मांग की है। सेना की ओर से वेतन आयोग में अपने प्रतिनिधित्व की मांग लगातार उठती रही है, लेकिन आज तक किसी भी सरकार ने उसे स्वीकृति नहीं दी है। पिछले दिनों जब दिवाली के मौके पर नेताओं ने जवानों के प्रति उद्गार व्यक्त करते हुए उन्हें दीवाली की भरपूर बख्शीश देने की बात कही तो उस पर बाज हलकों से तीखी प्रतिक्रिया आई थी कि क्या जवानों को बख्शीश के नाम पर भीख देने की बात कही जा रही है ! 


अगर यह सब इसी प्रकार चलता रहा तो वह समय ज्यादा दूर नहीं है जब कोई भी सेनाध्यक्ष उठ कर खुले आम सरकार के फैसलों में सामरिक तर्क के अभाव के नाम पर उसे चुनौती दे सकता है। नागरकोट हमले के बाद खुद सेना प्रमुख दलबीर सिंह नागरकोट पहुंचे थे। अब तक उन्होंने वहां के सैनिक शिविर की सुरक्षा की स्थिति के बारे में कुछ नहीं कहा है, लेकिन वे निश्चित तौर पर देख रहे होंगे कि लाल फीताशाही की जकड़नों ने इन शिविरों की क्या दुर्दशा बना रखी है। ऐसे में, शासक दल की पसंद के जजों की तलाश की तरह ही सरकार अपनी पसंद के सेना के अधिकारियों की तलाश की अंधी दौड़ में लग जाती है तो उससे कौन सा नया संकट पैदा हो सकता है, इसका सही-सही अनुमान लगाना अभी कठिन है। हाल में सीबीआई के प्रमुख के पद पर गुजरात कैडर के उस आईपीएस अधिकारी की अस्थायी नियुक्ति की गई है जिसने मोदी सरकार के इशारे पर गुजरात में गोधरा कांड की पहली तफ्तीश की थी। इस प्रकार,  जब सरकार का संचालन राजनीतिक विवेक और सूझबूझ के बजाय अज्ञान और तुगलकी सनक से किया जाने लगे तो उससे कई प्रकार की विकृतियों के पैदा होने की आशंका बनी रहती है।

कहना न होगा, भारत-पाक सीमा पर बने हुए तनाव और कश्मीर की समस्या के प्रति मोदी सरकार के कोरा शौर्य-प्रदर्शन वाले इस रुख में ऐसे सभी खतरे निहित हैं।

इस पूरे संदर्भ में हाल में पश्चिम बंगाल के 19 टोल नाकों पर अचानक हुई सेना की कार्रवाई और उससे उठा विवाद और भी ज्यादा तात्पर्यपूर्ण दिखाई देने लगता है। इस विषय पर संसद में बयान देते हुए सरकार की ओर से कहा गया कि यह सेना की एक सामान्य कार्रवाई है। भारत के और भी कई स्थानों पर यही व्यायाम किया गया है ताकि किसी भी ‘राष्ट्रीय आपातकाल’ के वक्त सेना अपना काम कर सके। सरकार का यह बयान कितने खतरनाक संकेतों से भरा हुआ है, इसे कोई भी आसानी से समझ सकता है। राष्ट्रीय आपातकाल में सेना की भूमिका का क्या अर्थ है ? क्या यह प्रत्यक्ष तौर पर घरेलू प्रशासन में सेना की भूमिका को आमंत्रण देने की तरह नहीं है ? ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ और नोटबंदी की तरह के मोदी जी के अब तक के सभी सनकी कदमों को देखते हुए, जिनके मूल में अपने अहम की तुष्टि ज्यादा दिखाई देती है, सेना की इस कार्रवाई में अगर कोई किसी प्रकार के नये आंतरिक आपातकाल के अशनि संकेत देखता है, तो इसे कोई अतिशयोक्ति नहीं कहा जा सकता है। 

कार्ल मार्क्स की प्रसिद्ध कृति ‘लुई बोनापार्त की अठारहवीं ब्रूमेर’ में एक जगह फौज के बार-बार इस्तेमाल किये जाने के बारे में वे लिखते हैं -‘‘ इस प्रकार फौजी बारिक और पड़ाव का दबाव फ्रांसीसी समाज के मस्तिष्क पर डालकर उसे ठंडा कर देना ; इस प्रकार तलवार और बंदूक को समय-समय पर न्यायाधीश और प्रशासक, अभिभावक और सेंसर बनने देना, उन्हें पुलिसमैन और रात के संतरी का काम देना; इस प्रकार फौजी मूंछ और फौजी वर्दी को समय-समय पर, ढिंढोरा पीट कर, समाज की सबसे बड़ी बुद्धिमत्ता एवं समाज का उपदेष्टा घोषित करना - यह सब करने के बाद क्या अंत में यह लाजिमी न था कि फौजी बारिक और पड़ाव, तलवार और बंदूक, मूंछ और वर्दी को एक दिन यह सूझ पैदा होती कि क्यों न अपने शासन को सर्वाच्च घोषित करके एक ही बार समाज का उद्धार कर दिया जाये तथा नागरिक समाज को अपना शासन आप करने की चिंता से सब दिनों के लिए मुक्त कर दिया जाये ?’’  

http://www.sanmarg.in/

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