रविवार, 1 जनवरी 2017

"दक्षिणपंथियों के पास कोई भविष्य दृष्टि नहीं होती"

'दुनिया इन दिनों' में अरुण माहेश्वरी का साक्षात्कार




(अरुण माहेश्वरी मार्क्सवादी आलोचक, चिंतक और विचारक हैं। लंबे समय से वामपंथी आन्दोलन से जुड़े रहे और आज भी निरन्तर सक्रिय हैं। इन्होंने ‘कलम’ पत्रिका का संपादन किया, जिसका ऐतिहासिक महत्त्व है। साथ ही, अर्थशास्त्र, साहित्य आलोचना और समसामयिक राजनीति पर विपुल लेखन किया है। विविध विषयों पर आपकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। साहित्यालोचन से राजनीति तक। ‘एक और ब्रह्मांड’ इनकी अनुपम कृति है। ‘सिरहाने ग्राम्शी’ भी मार्क्सवादी विचार और दर्शन की प्रमुख कृति है। जनकवि हरीश भादानी पर साहित्य अकादमी से इनका जो मोनोग्राफ प्रकाशित हुआ है, वह अनूठा है। इसके अलावा, इस वर्ष हरीश भादानी समग्र का पांच खंडों में इन्होंने सरला माहेश्वरी के साथ संपादन-संकलन कर ऐतिहासिक महत्त्व का कार्य किया है। अरुण माहेश्वरी सोशल मीडिया पर भी काफी सक्रिय हैं और इस माध्यम का वैचारिक लेखन और बहसों के लिए इन्होंने इस्तेमाल किया है। इस पर इनकी किताब भी आई है ‘तूफानी वर्ष 2014 और फेसबुक की इबारतें’। मनोज कुमार झा और वीणा भाटिया ने आज के कुछ महत्त्वपूर्ण और गंभीर सवालों पर इनसे चर्चा की। प्रस्तुत है बातचीत के महत्त्वपूर्ण अंश।)

1. आज देश में जो राजनीतिक परिस्थितियाँ बनी हैं, उसका मूल्याँकन आप किस तरह करते हैं? आरएसएस के सत्ता में आने की पृष्ठभूमि क्या रही है?

अरुण माहेश्वरी  : यह भारत में आजादी के बाद अपनाये गये समाज के आधुनिकीकरण के प्रकल्प की विफलताओं का परिणाम है। आधुनिकता के इस प्रकल्प के साथ ही सामाजिक बराबरी, स्वतंत्रता और धर्म-निरपेक्षता के मूल्य जुड़े हुए थे, जो भारत की आजादी की लड़ाई के अभिन्न अंग थे। लेकिन विकास के पूंजीवादी रास्ते की बदौलत बढ़ती हुई सामाजिक विषमता, भ्रष्टाचार और सामाजिक जीवन में गहरे तक बैठे अन्याय का खत्म न होना व्यापक जनता में एक बड़े मोहभंग का कारण बना और इसका लाभ आरएसएस की तरह की उन ताकतों ने उठा लिया जो अपने जन्म काल से ही आजादी की लड़ाई और उससे जुड़े सभी सामाजिक मूल्यों के विरोध में रही है। यह मोहभंग राजनीति के स्तर पर  कांग्रेस दल के प्रति मोहभंग में व्यक्त हुआ। इसका लाभ आजादी की लड़ाई से ही जुड़ी वामपंथी ताकतों को मिल सकता था और वैसा होने पर उस लड़ाई के लाभों को उनकी तार्किक परिणति तक ले जाना मुमकिन होता। लेकिन वामपंथी ताकतें अपने खुद के सांगठनिक गतिरोधों में इस कदर फंस गई कि उसमें इस अवसर का लाभ उठाने की ताकत ही नहीं रही। ऊपर से सोवियत संघ और समाजवादी विश्व के पराभव ने भी उनकी विश्वसनियता को अच्छा खासा धक्का लगाया। कम्युनिस्ट अन्तरराष्ट्रीय की ही एक टुकड़ी होने के नाते कम्युनिस्ट पार्टियों के सांगठनिक स्वरूप में वे सारी कमजोरियां शुरू से आज तक बनी हुई है जिनके कारण सारी दुनिया में कम्युनिस्ट पार्टियों को गहरा धक्का लगा है, उनकी जनतांत्रिक निष्ठाएं संदेह के घेरे में आगई और इसे उन सभी बीमारियों को झेलना पड़ रहा है जो दुनिया की दूसरी शासक कम्युनिस्ट पार्टियों को भी लगातार सता रही है।

इस विषय में मैंने अलग से एक नोट लिखा था, ‘वामपंथ के पुनर्विन्यास की जरूरत’ पर। उसके लिंक को मैं यहां आपकी जानकारी के लिये जोड़ दे रहा हूं।

https://chaturdik.blogspot.in/2013/11/blog-post_14.html


2. देश में साम्प्रदायिकता के उभार की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर कुछ कहें। क्या देश का   विभाजन अंग्रेजों की साजिश का परिणाम था? आखिर कांग्रेसी नेतृत्व इसका विरोध कर पाने में सफल क्यों नहीं हो सका?

अरुण माहेश्वरी  : इसका एक अपना लंबा इतिहास है। इसी के चलते हमारा देश 1947 में एक बार बंट भी चुका है। इस्लामिक तत्ववाद के समानांतर यहां हिंदू तत्ववादी ताकतें भी आजादी की साझा लड़ाई के साथ ही अपना अस्तित्व बनाए हुए थी। सर सय्यद के मुहम्मडन एडुकेशनल कांफ्रेस(1986) के बाद ही 1905 के अंग्रेजों के बंगभंग के निर्णय और उसकी प्रतिक्रिया में पैदा हुए सांप्रदायिक तनावों की पृष्ठभूमि में 1906 में ढाका में मुस्लिम लीग का गठन हुआ। उस समय राष्ट्रीय कांग्रेस हिंदू-मुस्लिम, सब का साझा मंच होने पर भी कई उग्रपंथी राष्ट्रवादी गुट ऐसे थे जो उग्र हिंदू सांप्रदायिक विचारों से भरे हुए थे। इन संगठनों में मुसलमानों का प्रवेश निषेध था और इनके सदस्य हिंदू-मुस्लिम दंगों में भी भाग लिया करते थे। हिंदू बुद्धिजीवियों के एक बड़े हिस्से में अंग्रेजों के शासन को मुस्लिम बादशाहों-नवाबों के शासन से बेहतर माना जाता था और वे किसी न किसी रूप में मुसलमानों के बरक्स हिंदू श्रेष्ठता की बातें किया करते थे। इस रुझान को उपन्यास सम्राट माने गये बांग्ला के बंकिम चंद्र के लेखन में भी पाया जा सकता है।

बहरहाल, इसी कशमकश के बीच से सबसे पहले 1909 में पंजाब में पंजाब हिंदू सभा की स्थापना हुई जिसकी पहली सभा का सभापतित्व लाला लाजपत राय ने किया था। इसी साल मोर्ले-मिंटो रिफोर्म के जरिये अंग्रेजों ने मुसलमानों के लिये अलग मतदान का अधिकार देने की बात कही थी।

इसी पृष्ठभूमि में पंजाब हिंदू महासभा की तरह के संगठन ने कांग्रेस पर यह आरोप लगाया था कि वह हिंदुओं के हितों की पूरी तरह से रक्षा नहीं कर रही है। इसीसे 1915 में हरिद्वार के कुंभ मेले में अखिल भारतीय हिंदू महासभा की आधारशिला रखी गई। उस सभा में सीधे तौर पर अंग्रेज सरकार के प्रति निष्ठा को जाहिर किया गया था जिसका वहां उपस्थित स्वामी सहजानंद ने विरोध किया था।

इसके साथ परवर्ती दिनों में मदनमोहन मालवीय जुड़े और सन् ‘20 के जमाने में विनायक दामोदर सावरकर जैसे लोगों ने इस पर अपना अधिकार कायम कर लिया। शुरू में उनका तेवर ब्रिटिश राज-विरोधी, क्रांतिकारी था। उसी समय, 1925 में नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना हुई जिसका एकमात्र एजेंडा मुसलमानों के खिलाफ लड़ाई का था। उसने कभी भी अंग्रेजों का विरोध नहीं किया, बल्कि उनकी कृपा से ही वे अपना सांगठनिक विस्तार करते रहे।

आरएसएस के परवर्ती इतिहास पर हमारी एक पूरी किताब ही है, इसीलिये इस प्रसंग को मैं यहां और विस्तार से नहीं कहना चाहता। जन्म के बाद ही सन् ‘30 के जमाने में जब पश्चिम में फासीवादी और नाजीवादी ताकतें सिर उठाने लगी तब इन्होंने पूरी तरह से उनकी विचारधारा और सांगठनिक प़द्धतियों को अपना कर अपना फैलाव शुरू कर दिया। फासिस्टों ने कैसे अपने देश के बाकी सभी अल्पसंख्यकों समुदायों का सफाया कर दिया था और अपना एकछत्र राज कायम किया था, उसके प्रति इनके नेता बहुत आकर्षित थे और उसी के अनुसार वे अपने को तैयार करने में लगे रहते थे। उधर कालापानी से लौट कर आने के बाद सावरकर भी अंग्रेजों के पक्ष में काम करने लगे और आरएसएस के साथ उनके गहरे संबंध हो गये। लेकिन इतिहास का तथ्य यह है कि आजादी के पहले तक भारत में आरएसएस कोई विशेष शक्ति नहीं बन पाई थी। भारत के लोगों पर गांधीजी और नेहरूजी तथा पूरी राष्ट्रीय कांग्रेस का असर इतना गहरा था कि हिंदुओं ने इन सांप्रदायिक ताकतों को अपने से दूर रखा और एक जनतांत्रिक और धर्म-निरपेक्ष भारत के प्रति अपनी निष्ठा को जाहिर किया।

इसीलिये, आज जो सांप्रदायिक ताकतों का उभार हुआ है, उसमें इनके किसी भी प्रकार के सकारात्मक राष्ट्रवादी कामों का नहीं, जनता के जीवन की समस्याओं के उपयुक्त समाधान में असमर्थ साबित हुई आधुनिक, जनतांत्रिक और वामपंथी ताकतों की विफलताओं की भूमिका ही प्रमुख है।



3. भारत में धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा क्या रही है? क्या सर्वधर्म समभाव ही धर्मनिरपेक्षता है या इसका भिन्न चरित्र है?


अरुण माहेश्वरी  : धर्म निरपेक्षता में ‘सर्वधर्म समभाव’ की बात कही जाए या ‘धर्म-विमुखता’ की बात कही जाए, मूलत: इसका संबंध राज्य की भूमिका से है और यह माना जाता है कि राज्य को लोगों के धार्मिक विश्वासों के मामले में किसी प्रकार का दखल नहीं देना चाहिए। इसके अलावा, मानव सभ्यता का इतिहास किसी भी धर्म-निरपेक्ष राज्य से यह उम्मीद करता है कि वह आम लोगों में कम से कम धार्मिक अंधविश्वासों को बढ़ाने वाले कामों से अपने को दूर रखे। मनुष्यता की यात्रा बुद्धि और विवेक की ओर, हर प्रकार के अंधविश्वासों की तिलांजलि देकर विज्ञानमनस्कता की ओर होनी चाहिए। ऐसे में कोई भी आधुनिक राज्य यदि धार्मिकता को किसी भी रूप में बल पहुंचाता है तो वह प्रकारांतर से नागरिकों के मानसिक विकास में बाधक की भूमिका अदा करता है।

अभी सुप्रीम कोर्ट में इस सवाल पर विचार चल रहा है कि चुनावों में किसी भी रूप में धर्म का इस्तेमाल करना क्या उचित है ? सुप्रीम कोर्ट की साफ राय है कि धर्म-निरपेक्ष संविधान इस प्रकार से धर्म का इस्तेमाल करने की अनुमति नहीं देता है। इसे एक प्रकार से राज्य की सारी गतिविधियों पर लागू करके देखा जा सकता है। राज्य भारत के संविधान की भावना से परिचालित होने के नाते उसे धर्म को बढ़ावा देने वाली हर गतिविधि से अपने को यथासंभव दूर रखना चाहिए। सर्वधर्म समभाव का एक धर्म-निरपेक्ष राज्य में मेरे अनुसार यही अर्थ हो सकता है कि राज्य को प्रत्येक धर्म और उससे जुड़े कर्मकांडों से अपने को अलग रखना चाहिए।

4. भाजपा के बरक्स कांग्रेस और समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल आदि को धर्मनिरपेक्ष माना जाता रहा है। पर क्या ये वास्तव में धर्मनिरपेक्ष हैं? क्या ये वोटों की राजनीति के तहत अल्पसंख्यकवाद को बढ़ावा देते नज़र नहीं आते?

अरुण माहेश्वरी  : निश्चित तौर पर भाजपा एक धुर सांप्रदायिक पार्टी है। उसने भारत की राजनीति को धर्म के प्रयोग के जरिये विषैला बनाने में प्रमुख भूमिका अदा की है। उसके चलते राजनीतिक वातावरण में दूसरी प्रतिद्वंद्वी पार्टियां दबाव में रहती है और इसके कारण नाना प्रकार के समझौते करने के लिये मजबूर होती है । लेकिन इस मामले में किसी प्रकार की कोई दुविधा नहीं होनी चाहिए कि भारत में भाजपा और मुस्लिम लीग ऐसी पार्टियां है जो आजादी की लड़ाई की धर्म-निरपेक्ष परंपरा के विरोध से पैदा हुई है। कांग्रेस सहित बाकी सभी पार्टियां आजादी की लड़ाई की परंपरा की पार्टियां है। आज की समाजवादी पार्टी, जनता दल या शिव सेना आदि की तरह की पार्टियां आजादी के बाद की दूषित परिस्थितियों की उपज है। फिर भी, समाजवादी पार्टी, जनता दल की राजनीति में धर्म का स्थान प्रमुख नहीं है, जबकि भाजपा शिवसेना की राजनीति धर्म पर ही टिकी हुई है।

5. प्रोफेसर हरबंस मुखिया ने कहा है कि साम्प्रदायिकता बहुसंख्यक होने के साथ-साथ अल्पसंख्यक भी होती है। एक न हो तो दूसरे का अस्तित्व नहीं हो सकता। अक्सर कांग्रेस और वामपंथी दलों पर यह आरोप लगता रहा कि वे तुष्टिकरण की राजनीति करते हैं। यानी हिन्दू साम्प्रदायिकता के विरोध में वोट बैंक की राजनीति के तहत अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता का समर्थन करने लगते हैं। इस बारे में आपके क्या विचार हैं?

अरुण माहेश्वरी  : तुष्टीकरण का अभियोग आरएसएस-भाजपा के राजनीतिक प्रचार, हिंदू आक्रामकता को बढ़ाने वाले प्रचार का हिस्सा है। सामाजिक ताने-बाने पर ऐसी ताकतों की पकड़ का ही परिणाम है कि आजादी के इतने साल बाद भी सभी जाति और संप्रदाय के लोगों का समान विकास संभव नहीं हो पाया है। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट यही बताती है। एक ओर जब सचाई यह है कि हर लिहाज से मुसलिम समाज पिछले 70 सालों में तुलनात्मक रूप से पिछड़ता चला गया है, तब कांग्रेस जैसे दल पर, जिसने इतने सालों तक देश पर शासन किया, तुष्टिकरण का आरोप लगाना बहुत ही घटिया ढंग से तथ्यों के विकृतिकरण के अलावा और कुछ नहीं है।

जहां तक बहु-संख्यक, अल्प-संख्यक सांप्रदायिकता का मसला है, धार्मिक आधार पर समुदायों की संरचना में ही यह तत्व स्वाभाविक तौर निहित होता है। बहु-संख्यक इसका प्रयोग आक्रमण के लिये करते हैं और अल्प-संख्यक बचाव के लिये। कभी-कभी आक्रमण भी बचाव का ही एक रूप होता है। समुदायों की धार्मिक अस्मिता ही तो एक प्रकार की सांप्रदायिक अस्मिता है। धर्म-निरपेक्ष राज्य का काम है कि वह इस प्रकार की अस्मिताओं की सामाजिकताओं पर नियंत्रण रखे। ऐसी परिस्थितियां बनाये ताकि महज व्यक्तियों के आंतरिक विश्वासों तक ही उनकी भूमिका बची रह जाए।


6. देश ही नहीं, दुनिया भर में गैर जनतांत्रिक कट्टरवादी राजनीतिक ताकतों का वर्चस्व बढ़ा है, वहीं वामपंथी ताकतों का ह्रास हुआ है। ऐसी परिस्थितियाँ क्यों निर्मित हुईं, इस पर प्रकाश डालें।

अरुण माहेश्वरी  : यह बात सच भी है और झूठ भी है। मानव समाज कभी समस्याओं से मुक्त नहीं होता। उसके अन्तर्विरोध ही उसके विकास के कारण होते हैं। ऐसे में, कभी-कभी सामयिक तौर पर मनुष्य की यात्रा आगे के बजाय पीछे की ओर जाती भी दिखाई देने लगती है। ऐसे संकट के समय में सामाजिक अन्तर्विरोध और भी तीव्र दिखाई देने के कारण लगने लगता है जैसे जड़ों की खोज में आदमी सचमुच पीछे, जड़ों की ओर, जंगलों की ओर लौट रहा है। लेकिन हमारा मानना है कि इतिहास की पूरी प्रक्रिया में ये कुछ खास पड़ाव से ज्यादा मायने नहीं रखते। इन सबका संबंध चलते-चलते कुछ सुस्ताने से भी होता है। जैसे हम कहते हैं कि इतिहास में बड़े से बड़े युद्ध भी कोई मायने नहीं रखते लेकिन भौतिकी के क्षेत्र में होने वाला एक भी नया अनुसंधान हमेशा के लिये मनुष्यों के जीवन को बदल देता है। इसीलिये, धर्म आदि की तरह के विषय से गैर-धार्मिक विषयों की ही जीवन में प्रधानता होती है। अंतिम जीत इसीलिये मनुष्य के विवेक और तर्क की जीत में निहित होती है। सभ्यता उसी से बढ़ेगी, अंध-विश्वासों और विवेकहीनता को बढ़ाने वाली ताकतों से नहीं।

7. भारत में वामपंथी दल लगातार आधार खोते चले गए। पश्चिम बंगाल में सत्ता खो देने के बाद ऐसा लगता है कि अब इनका अस्तित्व तक ख़तरे में है। आप लंबे समय से वाम आन्दोलन से जुड़े रहे हैं, वामपंथी दलों की इस अधोगति के पीछे मूल कारण आपको क्या लगता है?

अरुण माहेश्वरी  : इसपर मैं पहले ही कह चुका हूं। वामपंथ की कुछ अपनी आंतरिक समस्याएं है जिनसे वे जूझ रहे हैं। इस पर अपने विस्तृत नोट में मैंने काफी चर्चा की है। कम्युनिस्ट पार्टियों का पुनर्विन्यास जरूरी है।


8. वामपंथी दलों ने लंबे समय तक सत्ता में भागीदारी की। मुख्य रूप से ये केंद्र में कांग्रेसी सरकारों को समर्थन देते रहे। काफी जन समर्थन के बावजूद वामपंथी दल स्वतंत्र रूप से एक शक्ति क्यों नहीं बन सके, इस पर कुछ प्रकाश डालें।

अरुण माहेश्वरी  : इस मामले में कुछ भारी उलझने हैं। वामपंथी दल सत्ता में रहे, सत्ता के साथ रहे और राज्य के बारे में अपनी कुछ बुनियादी समझ के कारण वे कभी भी सत्ता पर नहीं रहे ! लेकिन उनकी आज तक भारत में जो भी भूमिका रही, वह जनतंत्र को मजबूत करने, उसका विस्तार करने, सत्ता का विकेंद्रीकरण करने की ही रही है। पश्चिम बंगाल में लगातार 34 सालों तक सत्ता पर रहने का अपना एक मायने होता है। भारत में पंचायती राज से लेकर सत्ता के विकेंद्रीकरण और आम जनता को राहत पहुंचाने वाले जितने भी सांस्थानिक काम हुए हैं, उन्हें करने में कांग्रेस के साथ ही वामपंथी दलों की सबसे अहम भूमिका रही है। आज सारी दुनिया में अभी आम लोगों के लिये यूनिवर्सल बेसिक इन्कम की तरह की अवधारणाओं पर चर्चा चल रही है। भारत में मनरेगा की तरह का कार्यक्रम इसी का एक लघु कार्यक्रम है और इसे यूपीए-1 के काल में अपनाया गया था, जब सरकार पर वामपंथियों का दबाव रहता था।

9. आपने विपुल राजनीतिक और साहित्यिक लेखन किया है। वाम आन्दोलन में आपकी सक्रिय भागीदारी रही है। देश में वाम साहित्यिक-सांस्कृतिक आन्दोलन अपनी जड़ें जमा पाने में क्यों असफल रहा?

अरुण माहेश्वरी  : सचाई यह है कि आज भी साहित्य और संस्कृति के किसी भी मामले में दक्षिणपंथियों के पास सोच-विचार तक के न्यूनतम औजार नहीं है। वामपंथी ही अपने अनुभवों के बल पर अपने को अद्यतन करते रहते हैं और इसी से बहुतों को यह भ्रम होता है कि वामपंथ की साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र में कोई जड़ें नहीं है। प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्यकार अपने स्वभाव से ही प्रगतिशील होता है। और यह बात पूरी तरह से सच है। दक्षिणपंथी, पुरातनपंथी होते हैं, जड़बुद्धि के होते हैं। उनके पास कोई भविष्य दृष्टि नहीं होती । इसीलिये साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में उनका न कभी कोई स्थान था और न कभी होगा।

10. प्रगतिशील लेखक संघ के बाद जनवादी लेखक संघ का बनना, जिसमें आपकी सक्रिय भूमिका रही और फिर जन संस्कृति मंच का बनना क्या ये दिखाता है कि साहित्यिक संगठनों को राजनीतिक पार्टियों के अधीनस्थ संचालित करने की कोशिश की गई, ये कहाँ तक उचित था?

अरुण माहेश्वरी  : दरअसल साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में हर प्रकार की विचारधारात्मक लड़ाई का गहरा संबंध अपने समय के सामाजिक-विचारधारात्मक विषयों से जुड़ा होता है। हम जब साहित्यिक सिद्धांतों की लड़ाइयां लड़ रहे होते हैं, तब एक प्रकार से सामाजिक-राजनीतिक विचारधारात्मक लड़ाइयां भी लड़ रहे होते हैं। इसीलिये अलग-अलग लेखक संगठनों के बनने में कुछ भी अस्वाभाविक नहीं रहा है क्योंकि इनका संबंध कहीं न कहीं अपने समय के राजनीतिक-कार्यनीतिक विषयों से भी है। लेकिन इसमें कोई शक नहीं है कि कालक्रम में इन सभी संगठनों की आंतरिक संरचनाओं में वैसी की कमजोरियां पैदा हो गई जिनसे इनके संचालन के लिये जिम्मेदार कम्युनिस्ट पार्टियों भी जूझ रही है।


11. अब जनवादी लोकपरक सांस्कृतिक आन्दोलन की क्या संभावनाएँ आपको नज़र आती हैं?

अरुण माहेश्वरी  : साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में जनवादी लोकपरक ताकतों के अलावा किसी दूसरे का वास्तव में कोई स्थान ही नहीं हो सकता है तो फिर भविष्य क्या होगा।

12. हिन्दी क्षेत्र में पुनर्जागरण किस रूप में सामने आया, इसका स्वरूप क्या था और आज इसकी क्या संभवानाएं शेष रह गई हैं?

अरुण माहेश्वरी  : हिंदी नवजागरण की अवधारणा पूरी तरह से डा. रामविलास शर्मा का तैयार किया गया एक मिथक भर है। मिथक तभी बनते हैं जब सचाई को उसके उत्स से पूरी तरह से काट कर पेश किया जाता है। दुनिया में रैनेसांस का अपना सामाजिक-आर्थिक आधार था। वह कोरे विचारों की उपज नहीं था। डा. शर्मा उसे अपने लेखन कक्ष से पैदा कर रहे थे। अंत तक उन्होंने अपने उस प्रकल्प को त्याग दिया और हिंदी क्षेत्र के बजाय भारतीय नवजागरण की चर्चा करने लगे।

नवजागरण के पूरे प्रकल्प की अपनी ऐतिहासिकता होती है। इसका संबंध पूंजीवादी सामाजिक विकास से है। इसके लिये वामपंथियों के लड़ने का कोई तुक नहीं है। वामपंथी आंदोलनों में इसके सारे सकारात्मक संघटक तत्व पहले से ही मौजूद रहते हैं।

13. वर्तमान सत्ता का चरित्र पूरी तरह से निरंकुश होता हुआ दिखाई पड़ रहा है। पिछले दिनों कई लेखकों-विचारकों की हत्या, विरोध की आवाज़ को दबाने की कोशिश और तर्कपरकता का विरोध जिस रूप में सामने आया है, उसका प्रतिकार कैसे और किस रूप में संभव है? आज जनवादी लेखकों और बुद्धिजीवियों के सामने किस तरह की चुनौतियाँ हैं?

अरुण माहेश्वरी  : हिटलर और मुसोलिनी के आदर्शों पर तैयार हुए संगठनों से इससे भिन्न किसी चीज की उम्मीद नहीं की जा सकती है। आज के शासक दल का इससे अलग कोई रास्ता नहीं हो सकता था। सोचा गया था कि संभव है देश के प्रति जिम्मेदारियों का दबाव इनमें कुछ बदलाव लायेगा। लेकिन ये तो शुद्ध तत्ववादियों की तरह का व्यवहार कर रहे हैं। हर बीतते दिन के साथ ये अपने मूल फासिस्ट और आक्रामक रूप को दिखाने के लिये बेचैन हो रहे हैं। यहां तक कि इन्होंने क्षेत्रीय दादागिरी के नाजी आदर्शों को भी अपना लिया है।

इन सब का प्रतिकार लेखकों और सभी शुभबुद्धि-संपन्न लोगों की व्यापकतम एकता के अलावा और किसी तरह से नहीं हो सकता। यह अकेले लेखकों को मामला नहीं है। जैसा कि हमने कहा, लेखकीय मोर्चे की सभी लड़ाइयों का गहरा संबंध सामाजिक-राजनीतिक लड़ाइयों से होता है। राजनीति के क्षेत्र में भी ऐसी एकता कायम होगी। जो इसमें बाधाएं डालेंगे वे अपना ही अहित करेंगे।


14. यह कहा जा रहा है कि वर्तमान मोदी सरकार सर्वसत्तावादी है, यह तमाम जनविरोधी नीतियाँ लागू करती चली जा रही है। लोगों का मानना है कि इससे बेहतर कांग्रेस की सरकार थी। पर कांग्रेस के भ्रष्ट और निकम्मे शासन के कारण ही भाजपा सत्ता में आने में कामयाब हो सकी। क्या भाजपा आने वाले दिनों में और भी मजबूत होगी या इसका विकल्प सामने आएगा? विकल्प क्या हो सकता है? क्या कांग्रेस, वामपंथी दलों और अन्य दलों का कोई मोर्चा बन सकता है जो इस सरकार को अपदस्थ कर जनता को फौरी राहत दे सके?

अरुण माहेश्वरी  : यह सच है कि कांग्रेस सरकार की विफलताएं, जिसे हमने भारत में आधुनिकता के पूरे प्रकल्प की विफलताओं के तौर पर चिन्हित किया है, वे ही इस प्रकार की एक ताकत को सत्ता पर लाने के लिये मुख्य रूप से जिम्मेदार है। लेकिन आप भ्रष्टाचार और निकम्मेपन का जो आरोप कांग्रेस पर लगा रहे है, इस मामले में तो ये उनके बाप साबित होने वाले है। इन्होंने पूरे राष्ट्र के विध्वंस का जो रास्ता चुना है, उसपर हाल ही में मैंने एक लेख लिखा था। उसका लिंक भी आपको यहां दे रहा हूं।

https://chaturdik.blogspot.in/2016/10/blog-post_29.html

15. आखिरी सवाल। क्या समाजवाद यूटोपिया है जैसा कि बहुत से लोग कहते हैं। यदि नहीं, तो देश और दुनिया में इसका भविष्य क्या है? अतीत की क्रान्तियों की रोशनी में भावी क्रान्तियों की संभावना पर कुछ कहें। 

अरुण माहेश्वरी  : समाजवाद साम्यवाद की तरह कोई यूटोपिया नहीं है। न यह कोरी नैतिकता ही है। अभी हाल तक दुनिया की एक तिहाई आबादी समाजवादी राज्य-व्यवस्था के अंतर्गत वास कर रही थी। यह पूरी तरह से पूंजीवादी समाज के अपने अंतर्विरोधों की उपज है, उसकी एक गुणात्मक रूप से भिन्न उपज। लेकिन यह कत्तई हवाई नहीं है। पूंजीवादी उत्पादन पद्धति और उससे बनने वाले सामाजिक-संबंधों की यह एक निश्चित ऐतिहासिक उपज है। आज दुनिया में उत्पादन के साधनों के साथ ही उत्पादन प्रणालियों में क्रांतिकारी परिवर्तन हो रहे हैं। यह कृत्रिम बुद्धि के युग के आगमन का समय है। ऐसे काल में स्वाभाविक तौर पर कोई भी भावी सामाजिक क्रांति कभी भी अतीत की क्रांति को प्रतिबिंबित नहीं करेगी। आज एक ओर जहां यूनवर्सल बेसिक इनकम (UBI) की बात हो रही है, वहीं Fully Automated Luxury Communism (FALC) की चर्चा करने वाले भी पैदा हो गये है। इन सारी बातों का संबंध उत्पादन के औजारों और उत्पादन के सामाजिक-संबंधों से है। जिस व्यवस्था में रोजगार नहीं होंगे, वहां मनुष्य का ऐसे उपायों के बारे में सोचना अस्वाभाविक नहीं है। यह सब कब और कैसे होगा, इसका कोई तयशुदा रास्ता नहीं है। लेकिन मनुष्यों के जीवन की लड़ाई अगर जारी है तो वे अपने लिये अपने भविष्य का कोई न कोई सही रास्ता तैयार करेंगे ही। इसमें पार्टियों की भूमिका भी पहले की तरह की नहीं रहेगी।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें