मंगलवार, 1 अगस्त 2017

कार्ल मार्क्स : जिसके पास अपनी एक किताब है (21)



-अरुण माहेश्वरी

'यंग हेगेल' की पृष्ठभूमि

इतिहास को किसी एक सार्वलौकिक चेतना के सूत्र से जोड़ने के हेगेलीय नजरिये से देखने पर कहा जा सकता है कि सन् 1830 से 1840 के दौर की जर्मन क्रांतिकारिता , गणतंत्रवाद और समाजवाद – ये सभी उसी विवेकवाद के नये रूपों को विकसित करने के प्रयत्न थे जिन्हें प्रशिया के राजा फ्रेडरिक-II (1740-86) की महत्वाकांक्षाओं की प्रेरणा कहा जा सकता था, जिनसे फ्रांस के जैकोबिन्स के आदर्श परिभाषित होते हैं, जिनसे कांट और फिख्ते के दर्शन ने अपना रूप लिया, और जिनसे 'सुधार युग' की सभी प्रमुख विशेषताओं को बल मिला था । कहना न होगा, कार्ल मार्क्स का मानस भी कमोबेस इसी विवेकवादी परंपरा की विरासत के बीच से निर्मित हुआ था, जिसके बीच से 1830 और 1840 के काल में धर्म की सत्ता से संघर्ष करते हुए समाजवाद की अवधारणा भी अपना रूप ले रही थी ।



जर्मनी में इस प्रक्रिया की जो अपनी विशेषता थी, उसके मूल में 17वीं सदी से ही चली आ रही वहां के अनास्थावाद की भी एक बड़ी भूमिका थी । नीदरलैंड के सुधारवादी चिंतक बरूक स्पिनोजा के चलते 'अनास्थावाद' ने जैसे एक नई आस्था का रूप ले लिया था । जर्मनी पर इसका इतना व्यापक असर था कि 1830 में हाइने ने स्पिनोजावाद को जर्मनी का गोपनीय धर्म घोषित कर दिया था । जर्मनी की तुलना में ब्रिटेन और फ्रांस में धर्म के साथ चले विवेकवादियों के संघर्ष का रूप थोड़ा अलग होने पर भी दोनों में एक बात सामाऩ्य थी कि ईसाई धर्म में जिस प्रकार मनुष्य के मूल पाप पर बल दिया जाता था, उसकी तुलना में इनमें मनुष्य को एक प्राकृतिक प्राणी माना जाता था जिसके विचारों का गठन उसकी ऐंद्रिक अनुभूतियों से होता है और जो अपनी कामना और सुख की प्राप्ति की इच्छा से चालित होता है ।



इसी पृष्ठभूमि में जर्मनी में 18वीं सदी के अंतिम तीस सालों में दर्शन की एक तीसरी प्रमुख धारा विकसित हुई । यह रूसो की एक आत्म-विधान के रूप में मुक्ति की अवधारणा से कांट के 'आलोचनात्मक' दर्शन के आदर्शवाद के तौर पर विधिवत रूप में सामने आई । ईश्वर द्वारा प्रकट धर्म के प्रति शंकित इस आदर्शवाद ने मानवीय स्वतंत्रता, ज्ञान के निर्माण में मस्तिष्क की सक्रिय भूमिका और प्राकृतिक आकांक्षाओं पर काबू पाने की विवक की सामर्थ्य पर बल दिया । इसी आदर्शवाद ने मनुष्य की एक प्राकृतिक प्राणी के रूप में सीमाओं से परे जाकर विवेक के प्रयोग के जरिये, जिसमें मनुष्य को खुद के अलावा दूसरे के किसी आदेश पर न चलने की बात कही जाती थी, पूर्णता की एक आदर्श स्थिति और आदर्शवाद (Utopianism) की दिशा में विचार के रास्ते को खोला । मानव मुक्ति की इस स्पष्ट तौर पर आदर्शवादी अवधारणा के निर्माण और धर्म के विचार में आपस में कोई लेना-देना नहीं है, ये बातें कांट के परवर्ती दिनों के लेखन में आने लगी थी । मृत्यु के बाद के जीवन के बारे में चली आ रही ईसाई अवधारणा की जगह अब इस धरती की मुक्ति की एक प्रकार की धर्म-निरपेक्ष तस्वीर सामने आने लगी ।

कांट ने 1781 की अपनी 'शुद्ध बुद्धि मीमांसा' (The Critique of pure reason) में इस बात पर बल दिया कि ईश्वर के अस्तित्व के बारे में जानकारी के सभी दावों को वे इसलिये खारिज करना चाहते थे ताकि आस्था के लिये जगह बना सके । लेकिन वास्तविकता में ऐसा करते हुए उन्होंने ईश्वर की स्थिति को और भी कमजोर ही कर दिया । पारंपरिक पराविद्या (Metaphysics) में नैतिकता को आधार ईश्वर प्रदान करता था, लेकिन इस नये सिद्धांत में नैतिकता के लिये जरूरी हो गया कि ईश्वर का अस्तित्व हो । कांट के सारे तर्क-वितर्क से यह साफ हो गया था कि वे 'व्यवहारिक विवेक' के स्वयंसिद्ध सिद्धांत के रूप में ईश्वर को स्थापित नहीं कर पाये थे । ईश्वर के बारे में किसी नैतिक तर्क की रक्षा का एक मात्र उपाय यह था कि नैतिक दुनिया को ही ईश्वर मान लिया जाए । कांट के वारिस फिख्ते ने बिल्कुल यही किया ।


इस प्रकार, 19वीं सदी में प्रवेश के पहले ही क्रमशः पूरी बहस ईसाई धर्म की बातों की ऐतिहासिकता से हट कर इस बात पर आ गई थी कि क्या ईसाई धर्म में यह क्षमता है कि वह नैतिक जीवन का आधार प्रदान कर सके । हेगेल के लिये ईसाई धर्म की श्रेष्ठता निर्विवादित थी क्योंकि वह अकेला ऐसा धर्म था जो इस विश्वास पर टिका था कि सभी लोग स्वतंत्र है । इसी के आधार पर हेगेल ने प्रोटेस्टेंट ईसाई धर्म को एक आधुनिक संस्कृति और विवेकशील राज्य का आधार बताया और कहा कि इस संस्कृति के अभाव की वजह से ही आतंक और युद्ध से जुड़ी फ्रांसीसी क्रांति हुई । अपरिवर्तित धर्म प्रबोधन के अधार्मिक हमलों से अपनी रक्षा में असमर्थ था । हेगेल की मान्यती थी कि उसके दर्शन ने ईसाई धर्म को विस्तृत और समृद्ध किया है ।

लेकिन जाहिर है कि ईसाई धर्म के दायरे में हेगेल के इस दावे का कोई मूल्य नहीं था । धर्म ग्रंथ की मान्यता पर किसी प्रकार के प्रश्न चिन्ह के लिये वहां कोई जगह नहीं थी । 1820 के जमाने में ही हेगेल पूरी तरह से अलग-थलग पड़ गये थे । उन पर चारों ओर से हमले होने लगे । हेगेल पर स्पिनोजा के अनास्थावाद तक का आरोप लगाया गया । इन हमलों के सामने हेगेल बचाव की मुद्रा में आ गये और वे ज्यादा से ज्यादा अपने संरक्षणवादी अनुयायियों से घिर गये ।
(क्रमश:)
   

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