रविवार, 6 अगस्त 2017

कार्ल मार्क्स : जिसके पास अपनी एक किताब है (27)


-अरुण माहेश्वरी

धर्म-निरपेक्षता (लौकिकता) की कमियों की अभिव्यक्ति है धर्म

यहूदी प्रश्न पर इस लंबे विमर्श के बाद ही मार्क्स ने धर्म और राज्य के संबंधों की वस्तुनिष्ठ ढंग से जांच शुरू की और उस क्रम में उन्होंने जो विचार पेश किए वे धर्म के खिलाफ वास्तविक संघर्ष के बारे में मार्क्स की मूलभूत अवधारणा को अच्छी तरह व्यक्त करते हैं।

उत्तरी अमरीका के स्वतंत्र और धर्मनिरपेक्ष राज्यों में भी धर्म के फलने-फूलने की वास्तविकता के उदाहरण से वे यह सवाल उठाते हैं कि “धर्म के साथ पूर्ण राजनीतिक स्वतंत्रता का क्या संबंध है? यदि हम यह देखते हैं कि पूर्ण राजनीतिक स्वतंत्रता वाले देश में भी धर्म सिर्फ कायम ही नहीं है बल्कि एक नयी और जबरदस्त शक्ति का परिचय दे रहा है तो यह इस बात का प्रमाण है कि धर्म का अस्तित्व राज्य के आदर्श रूप का अंतर्विरोधी नहीं है। फिर भी चूंकि धर्म का अस्तित्व एक दोष के अस्तित्व का प्रमाण है, इस दोष के उत्स की तलाश में राज्य के चरित्र को टटोला जा सकता है। हम अब धर्म को कारण नहीं,  बल्कि धर्म-निरपेक्षता (लौकिकता- अ.मा.) की कमियों की अभिव्यक्ति मानते हैं। इसीलिए हम स्वतंत्र नागरिकों की धार्मिक सीमाओं को उनके लौकिक जीवन की सीमाओं से व्याख्यायित करते हैं। हम यह मांग नहीं करते कि अपने लौकिक जीवन की सीमाओं से उबरने के लिए उन्हें अपनी धार्मिक संकीर्णताओं से मुक्त होना होगा। हम लौकिक प्रश्नों को धर्मशास्त्रीय प्रश्नों में तबदील नहीं करते। हम धर्मशास्त्रीय प्रश्नों को लौकिक प्रश्नों में तब्दील करते हैं। इतिहास लम्बे काल से अंधविश्वासों में निमज्जित रहा है, अब हम इतिहास में अंधविश्वासों को निमज्जित करते हैं। राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ धर्म के संबंध का प्रश्न हमारे लिए राजनीतिक स्वतंत्रता से मानवीय स्वतंत्रता के संबंध का प्रश्न बन जाता है।''(MECW, Vol. -3 , page 150)

“इसीलिए यह संभव है कि राज्य अपने को धर्म से मुक्त कर ले फिर भी भारी बहुमत धार्मिक रह जाए।... राज्य की धर्म से मुक्ति का अर्थ वास्तविक मनुष्य की धर्म से मुक्ति नहीं है।''(MECW, Vol. -3 , page 152)


इन्हीं तर्कों के आधार पर राज्य और समाज के संबंधों के बारे में प्रचलित धारणाओं पर मार्क्स ने सवालिया निशान लगाए। समाज में धर्म के स्थान पर भी प्रचलित विचारों का दोष उन्हें साफ दिखाई देने लगा। राजनीतिक मुक्ति एक महान प्रगति होने पर भी उतनी महान नहीं है जितना बावर और अन्य दावा करते हैं। बावर का कहना था कि यदि सभी नागरिकों को समान नागरिक अधिकार मिल जाएं तो समाज में न्याय की प्रतिष्ठा हो जायेगी, लेकिन मार्क्स को समाज और राज्य का अस्तित्व इस प्रकार एकमेव नहीं दिखाई दे रहा था। उन्होंने स्वतंत्र राज्यों की सच्चाई को पहचानते हुए समझा कि इनमें राज्यों की मुक्ति का सार बुर्जुआ की सत्ता है। एक राज्य के मुक्त होने पर ही उसके सभी नागरिक मुक्त नहीं हो जाते। एक जनतांत्रिक राज्य बाहर से धर्मनिरपेक्ष होने पर भी अंदर से धार्मिक हो सकता है क्योंकि धर्म उस राज्य के नागरिकों का आदर्श, उनकी अलौकिक चेतना है।

बावर समझते थे कि सभी चर्चों को खत्म कर दो, धर्म खत्म हो जायेगा लेकिन मार्क्स ने कहा कि तब भी धर्म रह जायेगा। अपने आप में राजनीतिक स्वतंत्रता न सामाजिक स्वतंत्रता ही प्रदान करती है और न धर्म से स्वतंत्रता। इसीलिए सिर्फ राजनीतिक स्वतंत्रता का ढिंढोरा पीटने से काम नहीं चल सकता। एक यहूदी राजनीतिक तौर पर स्वतंत्र होकर भी एक पक्का यहूदी हो सकता है अर्थात् राजनीतिक स्वतंत्रता ही मानवीय स्वतंत्रता नहीं है। सिर्फ राजनीतिक ढांचे को नहीं समाज के समूचे अन्त:सार को बदलना होगा।

यह था मार्क्स के विचारों के विकास का क्रम। धर्म की आलोचना से वे राजसत्ता और पूरे समाज की आलोचना की ओर बढ़े थे। मनुष्य धर्म को बनाता है लेकिन इसलिए क्योंकि उसे इसकी आवश्यकता होती है, आवश्यकता इसलिए क्योंकि वह एक ऐसी समाज व्यवस्था में रह रहा है जिसमें सबकुछ गड्ड-मड्ड है। धर्म सामाजिक जीवन की बीमारी का लक्षण है। वह रोगी को ऐसी व्यवस्था को सहने की शक्ति देता है जो अन्यथा असहनीय है। चूंकि यह बीमारी को सहनीय बनाता है इसीलिए बीमारी के निदान की कोशिश और उसकी इच्छा-शक्ति को ही कुंद कर देता है।

यहां “यहूदी प्रश्न पर'' हमने इतने विस्तार के साथ इसलिए चर्चा की, क्योंकि इसी लेख में मार्क्स धर्म की ऐसी समग्र आलोचना की रूपरेखा पेश करते हैं जो आगे मार्क्स के पूरे चिंतन में स्थायी तौर से एक स्वयं-सिद्ध अवधारणा के रूप में कायम हो जाती है। इस लेख में मार्क्स धर्म को महज एक तात्विक प्रश्न के बजाय, सामाजिक और राजनीतिक प्रश्न के रूप में विवेचित करते हैं। इसके अलावा यह भी उल्लेखनीय है, मार्क्स ने यह लेख 1843 की पतझड़ में लिखा था और इसके बाद 1843 के अंत और 1844 के जनवरी महीने में उन्होंने “हेगेल के कानून के दर्शन की आलोचना में योगदान'' की वह प्रसिद्ध भूमिका लिखी थी जिसमें मार्क्स की यह उक्ति आयी थी कि “धर्म उसी प्रकार उत्पीड़ित प्राणी की आह, हृदयहीन विश्व का हृदय है जिस प्रकार आत्माविहीन परिस्थिति की आत्मा है । यह जनता की अफीम है।''(MECW, Vol. -3 , page 175)


इसके पहले वे गैर-धार्मिक आलोचना के बारे में शानदार विश्लेषण करते हुए कहते है — “गैर-धार्मिक आलोचना का आधार हैः मनुष्य ने धर्म को बनाया है, धर्म ने मनुष्य को नहीं । धर्म उस मनुष्य की आत्म- चेतना और आत्म-सम्मान है जिसने या तो अब तक अपने को पाया नहीं है या फिर से अपने को खो दिया है । लेकिन मनुष्य दुनिया के बाहर रहने वाला कोई अमूर्त प्राणी नहीं है । मनुष्य, राज्य, समाज की दुनिया मनुष्य है । यह समाज, यह राज्य धर्म की एक उल्टी विश्व-चेतना की उत्पत्ति करता है । धर्म उस दुनिया का सामान्य सिद्धांत है, उसका विश्वकोशीय सार-संग्रह, एक लोकप्रिय रूप में उसका तर्क, उसका आध्यात्मिक तरीके का सम्मान, उसका उत्साह, उसका नैतिक बल, उसका गाम्भीर्य, सांत्वना और औचित्य का उसका सार्वलौकिक स्रोत है। यह मानवीय सार की एक अनोखी उपलब्धि है क्योंकि मानवीय सार का कोई वास्तविक सत्य नहीं है । इसीलिये धर्म के खिलाफ संघर्ष परोक्ष रूप से उस दुनिया के खिलाफ लड़ाई है जिसमे धर्म उसकी आध्यात्मिक सुरभि है।“
इसके बाद ही मार्क्स का उपरोक्त कथन आता है — “धर्म उसी प्रकार उत्पीड़ित प्राणी की आह, हृदयहीन विश्व का हृदय है जिस प्रकार आत्माविहीन परिस्थिति की आत्मा है । यह जनता की अफीम है।''  (MECW, Vol. -3 , page 175)

'यहूदी प्रश्न पर' तथा 'हेगेल के कानून के दर्शन की आलोचना में योगदान' की भूमिका, ये दोनों लेख एक ही पत्रिका में एक साथ 1844 में  प्रकाशित हुए थे। इसीलिए “यहूदी प्रश्न पर'' लेख में मार्क्स के धर्म के बारे में विचार “धर्म जनता की अफीम'' के मार्क्स के प्राय: स्वयंसिद्ध कथन के पूरक का काम करते हैं और इनके बीच से ही मार्क्स की परवर्ती पूरी चिंतन विधि की भी तस्वीर उभरने लगती है। इन्हीं लेखों से मार्क्स के धर्म के बारे में विचार राजसत्ता के चरित्र के बारे में, सामाजिक व्यवस्था के बारे में, अर्थव्यवस्था के बारे में विचार की  ओर मुड़ जाते हैं। ब्रुनो बावर के आत्मनिष्ठ भाववाद पर 1844 में ही मार्क्स ने एंगेल्स के साथ मिलकर एक पूरी पुस्तक  “पवित्र परिवार'' लिखी और अपनी भौतिकवादी स्थापनाओं को और स्पष्ट किया।
(क्रमशः)

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