-अरुण माहेश्वरी
'युवा मार्क्स' की लंबी विचार यात्रा पर
इस प्रकार दर्शन, धर्म, राज्य और समाज से होते हुए राजनीतिक अर्थशास्त्र के अध्ययन की दिशा में मार्क्स की वैचारिक यात्रा के प्रस्थान की पूरी पृष्ठभूमि को हम बहुत साफ रूप में देख पा रहे हैं । मार्क्स के अध्येताओं ने उनके वैचारिक जीवन के इसी काल को युवा मार्क्स के काल के रूप में विवेचित किया है और बहुतेरे तो उनके इसी काल के लेखन पर इस हद तक फिदा है कि आगे के लगभग तीस साल के उनके महान कार्य को इसके सामने गौण समझते हैं । इसमें उन्हें एक बेहद प्रतिभाशाली युवक की वह ताजगी दिखाई देती है, जिसकी खुशबू और जिसकी संभावनाओँ के असीम विस्तार की कल्पना पर कौन नहीं मुग्ध होगा ! लेकिन सारी दुनिया जानती है कि यह तो किसी महान वैज्ञानिक की अनोखी परिकल्पनाओं की झलक भर थी । उनका आगे का समूचा कृतित्व जब इन परिकल्पनाओं की ठोस रूप में पुष्टि करता है, मनुष्य के द्वारा उसके भौतिक उत्पादन से उत्पन्न जीवन के जिन तमाम रूपों की साक्षात तस्वीर पेश करता है, तब मार्क्स हाथ में अपनी किताब थामे किसी सचमुच देवदूत से कम प्रतीत नहीं होते । आज भी जब हम नई से नई वैज्ञानिक खोजों के साथ बदलते मनुष्य के भौतिक उत्पादनों की संगति में सामाजिक संबंधों में आने वाले बदलावों की व्याख्या की कोशिश करते हैं तो उसके आधारभूत सूत्र मार्क्स के अलावा और कहीं नहीं मिलते । ये सूत्र कोई आधिभौतिक सूत्र नही, बल्कि परिवर्तन के नियम के सूत्र है । एंगेल्स ने लिखा था कि “(मनुष्य के इतिहास में ही नहीं) प्राकृतिक विज्ञान के क्षेत्र में हर युगांतकारी खोज के साथ भौतिकवाद को अपना रूप बदलना पड़ता है।“ इसीलिये मार्क्सवाद का यह तकाजा है कि प्राकृतिक-दार्शनिक प्रस्तावनाओं में भी मनुष्य द्वारा भौतिक उत्पादन की परिस्थितियों में परिवर्तन के अनुरूप हमेशा परिवर्तन किये जाते रहे । सचमुच विचारों की दुनिया में यह ऐसी कापरनिकस क्रांति है, जिसने आगे के सोच के पूरे परिप्रेक्ष्य और तौर-तरीकों को बुनियादी रूप से बदल दिया है ।
बहरहाल, अभी इन विषयों में जाने के पहले जरूरी है कि सन् 1838 से लेकर सन् 1844-45 तक के युवा मार्क्स की वैचारिक यात्रा के साथ ही हम इस काल के उनके जीवन की घटनाओँ के वृत्तांत पर से अपनी नजर न हटाए । अब तक के ब्यौरों से ही साफ है कि सन् '38-'39 के यंग हेगेलियन्स वाले काल में मार्क्स बॉन विश्वविद्यालय से बर्लिन पहुंच चुके थे, लेकिन 1843 में जब उन्होंने हेगेल के न्याय दर्शन पर काम शुरू किया और बावर बंधुओँ के जवाब देते हुए 'पवित्र परिवार' लिखा तब वे पेरिस में थे और फिर जब 'न्याय दर्शन की समीक्षा' वाली किताब की उन्होंने भूमिका लिखी, तब वे लंदन में जा बसे थे ।
इस प्रकार, मार्क्स का एक शहर से दूसरे शहर में ठौर खोजते हुए भटकना कभी उनका कोई स्वैच्छिक या पेशेवर चयन नहीं था, वे अपने लिये किसी कैरियर की तलाश में नहीं भटक रहे थे । इसके पीछे शुद्ध राजनीतिक कारण थे, जर्मनी, बेल्जियम, फ्रांस की सरकारों द्वारा उन्हें जलावतन की सजाएं थी । यह अकेला तथ्य इतना बताने के लिये काफी है मार्क्स के जरिये यूरोप के वैचारिक जीवन में पैदा हुए तूफानों का संपर्क सिर्फ मार्क्स के मस्तिष्क की हलचलों से ही नहीं था, भौतिक जीवन की उन सभी परिस्थितियों से भी था जो मानो किसी प्रयोगशाला की तरह उनकी प्रत्येक वैचारिक खोज को पुष्ट करती हुई उनका सैद्धांतिक निरूपण कर रही थी ।
इसके पहले कि हम सन् 1838 में मार्क्स के पिता हेनरिख की मृत्यु से लेकर 1844 तक के उनके घटना-बहुल जीवन की तफसील में जाएं, जिसमें 1843 में जेनी के साथ उनकी शादी का प्रसंग भी शामिल है, हम चाहते हैं कि इस काल में उनके विचारों की अब तक की श्रंखला में जिसमें हमने विस्तार के साथ धर्म के बारे में, और फिर न्याय दर्शन, समाज और राज्य के बीच संबंधों के पर दृष्टिपात किया, उसी क्रम में, संक्षेप में ही क्यों न हो, उनकी महत्वपूर्ण कृति 'पवित्र परिवार' के बारे में थोड़ी चर्चा कर लें। इसे भी मार्क्स के भौतिकवादी विचारों के द्वंद्वात्मक स्वरूप के निर्माण को सूचित करने वाली एक सबसे अहम कृति माना जाता है । इसके कुछ अंशों पर हम यदि सूक्ष्मता से नजर डालेंगे तो उनसे मार्क्स के लेखन की उस विशेष शैली का भी अनुमान मिलेगा जो हमें यह बताती है कि कैसे लेखक, कलाकार की शैली भी उसका एक प्रमुख परिचय हुआ करती है ।
(क्रमशः)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें