-अरुण माहेश्वरी
'पवित्र परिवार', या आलोचनात्मक आलोचना की आलोचना
(ब्रुनो बावर एंड कंपनी के खिलाफ)
हम पहले ही उस कहानी का बखान कर चुके है कि कैसे पेरिस में समाजवादियों के साथ एक बैठक में मार्क्स और एंगेल्स की मुलाकात हुई और उन्होंने संयुक्त रूप से ब्रुनो बावर और उनके शागिर्दों की दर्शनशास्त्रीय बकवासों का एक भरपूर जवाब लिखने का फैसला किया । 'पवित्र परिवार' उनके इसी निर्णय की उपज है । इसीसे से यह भी पता चलता है कि जिन परिस्थितियों में यह किताब लिखी गई वह तब यूरोप चल रहे सामाजिक-राजनीतिक संघर्षों और विचारधारात्मक विमर्शों में परंपरागत सोच से बिल्कुल अलग रूप में अपने विचारों को रखने की मार्क्स-एंगेल्स की एक खास जद्दोजहद का काल था । यही वजह है कि इस किताब का उनके दर्शनशास्त्रीय और सामाजिक-राजनीतिक दृष्टिकोण के निर्माण में एक महत्वपूर्ण स्थान माना जाता है ।
इसमें वे यंग हेगेलियन्स के आत्मनिष्ठ भाववाद से टकराये, वे हेगेल के जिस भाववादी दर्शन पर आधारित थे, उसके समग्र रूप से भी टकराये और दोनों पर ही सुसंगत भौतिकवादी नजरिये से कस कर प्रहार किये । बावर कंपनी के तर्कों का खंडन करते हुए उन्होंने दिखाया कि युवा हेगेलपंथियों का आत्मनिष्ठ भाववाद हेगेल के दर्शन से भी पीछे की ओर बढ़ाया गया कदम है ।
हम यह पहले ही बता चुके हैं कि किस प्रकार यहूदी प्रश्न और हेगेल के कानून का दर्शन की समीक्षा से लेकर '1844 की आर्थिक और दर्शनशास्त्रीय पांडुलिपियों' की तरह की कृतियों में वे धर्म संबंधी चर्चा से इतिहास की भौतिकवादी अवधारणा के सिद्धांतों की दिशा में कदम बढ़ा चुके थे । 'पवित्र परिवार' को इस दिशा में उनका एक बहुत बड़ा कदम कहा जा सकता है । इसमें उन्होंने '1844 की पांडुलिपियों' की तुलना में सामाजिक विकास में भौतिक उत्पादन की निर्णायक भूमिका को और भी साफ तौर पर रखा है । मार्क्स ने अब इसमें समूची मानवता की ऐतिहासिक प्रगति के आधार को देख लिया था । वे बहुत ही साफ ढंग से यह कह पाये थे कि किसी भी एक ऐतिहासिक काल को तब तक समझना असंभव है जब तक कि “उस काल के उद्योग को, खुद जीवन के उत्पादन के तात्कालिक रूप को नहीं जाना जाता है ।“ (MECW, Vol. 4, page – 150)
किसी भी समाज विशेष की राजनीतिक व्यवस्था उसके आर्थिक ढांचे से कैसे संबद्ध रहती है, इनके बीच किस प्रकार के द्वंद्वात्मक संबंध होते हैं और कैसे ये परस्पर को प्रभावित करते हैं, इन सबके बारे में मार्क्स के गहन सोच का रूप इस कृति में साफ तौर पर देखने को मिलता है । इतिहास की भौतिकवादी अवधारणा के इस सिद्धांत के साथ ही ऐतिहासिक विकास में जनता की निर्णायक भूमिका, और विकास के फलस्वरूप इस भूमिका में वृद्धि के बारे में भी इसमें उनकी साफ समझ दिखाई देती है । मार्क्स ने कहा था कि मनुष्य के सामने और भी गहरे सामाजिक रूपांतरणों का दायित्व है, जिसके निर्वाह के बीच से “ऐतिहासिक आंदोलन की गहनता के साथ ही इस आंदोलन से जुड़ी जनता की तादाद भी बढ़ेगी ।“ (वही, पृष्ठ – 82)
'पवित्र परिवार' के तीक्ष्ण वैचारिक विवाद के बीच से ही मार्क्स ने समाजवादी समाज के निर्माण में सर्वहारा की विश्व-ऐतिहासिक भूमिका के विचार को रखा था । “सर्वहारा के जीवन की परिस्थितियां आज समाज में जीवन की परिस्थितियों को उनके सबसे अमानवीय रूप में पेश करती है ।“ एक वर्ग के तौर पर अपने ऐतिहासिक अस्तित्व की बदौलत ही सर्वहारा “खुद को मुक्त कर सकता है और करेगा ।“ (वही, पृष्ठ – 36-37) मार्क्स के ये प्रसिद्ध कथन इसी पुस्तक में आए थे । उन्होंने यह भी बताया कि सर्वहारा की सामाजिक मुक्ति का अर्थ होगा समूचे समाज की शोषण से मुक्ति । इस प्रकार उन्होंने सर्वहारा के वर्ग संघर्ष के सार्वलौकिक मानवीय महत्व पर, उसके सच्चे मानवीय अर्थ पर बल दिया । 'पवित्र परिवार' में ही पहली बार पूंजीवाद-विरोधी क्रांतिकारी और मुक्ति संघर्ष में मार्क्स ने सर्वहारा की नेतृत्वकारी भूमिका के मूलभूत मार्क्सवादी विचार को रखा था । लेनिन कहते हैं कि 'पवित्र परिवार' में “सर्वहारा की क्रांतिकारी भूमिका के बारे में मार्क्स की दृष्टि लगभग पूरी तरह से विकसित हो चुकी थी ।“ (V.I.Lenin, Collected Works, Vol.38, page – 26)
क्रांतिकारी संघर्ष में सर्वहारा की नेतृत्वकारी भूमिका के निष्कर्ष के अलावा यही वह कृति है जिसमे मार्क्स-एंगेल्स ने इतिहास में विचारों की भूमिका की भी भौतिकवादी व्याख्या पेश की थी। हेगेल के न्याय दर्शन की समीक्षा के प्रयास में मार्क्स ने बताया था कि कैसे सिद्धांत एक भौतिक शक्ति का रूप ले लेते हैं, जिसका हम पहले जिक्र कर चुके हैं । इसी बात की और गहराई से व्याख्या करते हुए 'पवित्र परिवार' में वे बताते हैं कि कैसे विचार जब वास्तविक जीवन की जरूरतों से संगति रखते हुए प्रगतिशील वर्गों के हितों को व्यक्त करते हैं, वे समग्र सामाजिक विकास की प्रभावशाली शक्ति बन जाते हैं । इसे वे सत्रहवीं सदी से लेकर उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ तक के दर्शनशास्त्र के इतिहास के उदाहरणों के जरिये पुष्ट करते हैं । भौतिकवाद और भाववाद की दो बुनियादी धाराओं के बीच के संघर्ष का विश्लेषण करते हुए वे सामाजिक जीवन में एक प्रगतिशील दर्शन के रूप में भौतिकवाद के महत्व को बताते हैं ; खास तौर पर 1789 की फ्रांसीसी बुर्जुआ क्रांति के लिये एक विचारधारात्मक जमीन तैयार करने में भौतिकवाद की भूमिका को रेखांकित करते हैं । भौतिकवादी विचारों और प्राकृतिक विज्ञानों के क्षेत्र की उपलब्धियों के बीच कैसा जैविक संबंध होता है, वह भी इस पुस्तक में मार्क्स के तर्कों के बीच से निकल कर आता है । वे जोर देकर कहते हैं कि भौतिकवादी दार्शनिक चिंतन का आगे और रचनात्मक विकास निश्चित रूप से दर्शनशास्त्र को कम्युनिस्ट निष्कर्षों तक ले जायेगा ।
इसमें सबसे दिलचस्प, गौर करने लायक बात यह है कि मार्क्स और एंगेल्स अतीत की प्रगतिशील दार्शनिक धाराओं का विवेचन करते हुए सिर्फ अतीत तक ही सीमित नहीं रह जाते हैं । 'पवित्र परिवार' में उन्होंने हेगेल के दर्शन के तार्किक तत्वों, उसकी द्वंद्वात्मकता को जिस प्रकार भौतिकवादी दृष्टि से विकसित करके पुनर्व्याख्यायित किया और पहले के भौतिकवादियों में जिस चीज की कमी थी, उसे दूर करते हुए उसके साथ द्वंद्वात्मकता को जैविक रूप से उससे जोड़ा, इसे भी 'पवित्र परिवार' में बखूबी देखा जा सकता है । ध्यान से देखने पर पता चलता है कि किस प्रकार 'पवित्र परिवार' के पूरे पाठ में द्वंद्वात्मकता का कितने रचनात्मक तरीके से प्रयोग किया गया है । सामाजिक-आर्थिक और विचारधारात्मक विषयों पर द्वंद्वात्मक दृष्टि के साथ किस प्रकार बढ़ा जाता है और सामाजिक तथा बौद्धिक प्रक्रियाओं में द्वंद्ववाद के मूलभूत वस्तुवादी नियम, खास तौर पर विरोधों की एकता और संघर्ष के नियम किस प्रकार काम करते है, इन्हें इस किताब के पूरे विन्यास में साफ देखा जा सकता है ।
(क्रमशः)
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