—अरुण माहेश्वरी
पिछले एक हफ्ते के सारे घटनाक्रम से ऐसा लगता है जैसे अब भारतीय राजनीति का यह 'गाय, गोबर, गोमूत्र, बीफ, बाबावाद, लव जेहाद, लींचिग और 'देशभक्ति' के शोर के युग के सारे लक्षण बिल्कुल प्रकट रोग के रूप में सामने आने लगे हैं और राष्ट्र के अस्तित्व के लिये ही इनका यथाशीघ्र इलाज करना जरूरी ही नहीं शुरू भी हो चुका है ।
इस हफ्ते सुप्रीम कोर्ट का पहला फैसला आया मुस्लिम धार्मिक कट्टरपंथ पर एक तमाचा जड़ने वाला तीन तलाक का फैसला । मुस्लिम कट्टरपंथ उसी दकियानूसी सोच के सिक्के का दूसरा पहलू है जो राजनीति में अभी के उपरोक्त 'गोबरवाद' के रूप में छाया हुआ दिखाई देता है — कह सकते हैं देश भर को कांग्रेस-विहीन बनाने के नाम पर गोबर और मूत्र से लीप देने का वाद । मुस्लिम कट्टरपंथ इसी के लिये खाद का काम करता रहा है । सुप्रीम कोर्ट ने उनकी इस औरत-विरोधी सामाजिक प्रथा को अतार्किक स्वेच्छाचार घोषित करके गैर-कानूनी करार दिया है ; इस प्रथा का पालन अब कानूनन अपराध होगा ।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर प्रधानमंत्री मोदी ने तो खुशी जताई । पिछले दिनों यूपी चुनाव के मौके पर वे इसे जिस प्रकार जोर-शोर से उछाल रहे थे, उस पर लगी वैद्यता की मोहर के जरिये उन्होंने अपनी राजनीति का झंडा भी लहराने की कोशिश की । लेकिन आम तौर पर भाजपा और आरएसएस के नेता इस पर लगभग चुप ही रहे । उनके लिये यह मसला मुसलमानों को लगातार लांक्षित और अपमानित करने का मुद्दा था, और इसीलिये वे इसे पूरी ताकत से पीट रहे थे । वे यह कल्पना ही नहीं कर पा रहे थे कि अपनी पीनक में 'हिंदुत्व को जीने का एक तरीका' बता देने वाला सुप्रीम कोर्ट इस विषय में भारतीय संविधान के मूलभूत विवेक, मनुष्यों की मर्यादा की रक्षा के पक्ष में खड़ा हो जायेगा ।
भारतीय संविधान में नागरिक संहिताओं के बारे में यह मूलभूत समझ है कि यह किसी न किसी प्रकार से इस समाज के धर्मीय वैविध्य से जुड़ी हुई है और इसलिये इसमें चली आ रहे रीति-रिवाजों, अलग-अलग प्रथाओं से जल्दबाजी में अनावश्यक छेड़-छाड़ करने की जरूरत नहीं है । लेकिन तीन तलाक का मसला अपने एक अजीब से बेहूदा आदिमपन के चलते देखते-देखते मुस्लिम महिलाओं की अस्मिता से जुड़ा उनके सम्मान-बोध का मसला बन गया था । खुद मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के पास इसके खिलाफ इतने आवेदन थे कि उन्होंने ही इसे जल्द बदल डालने की कसमें खानी शुरू कर दी थी । कहना न होगा, सुप्रीम कोर्ट का फैसला मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को इस सही दिशा में बढ़ने में सहायक होगा ।
और इसी आधार पर कहा जा सकता है कि समाज के सभी स्तरों पर पोंगापंथ के अग्रदूत आरएसएस की तरह के धार्मिक कट्टरपंथियों के लिये यह फैसला किसी बड़े धक्के से कम नहीं है । इसीलिये कट्टरपंथियों के इस पूरे परिवार को तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने काफी चिंतित कर दिया है क्योंकि कोई भी आंखों वाला आदमी इतना तो देख ही सकता है कि इससे अभी की 'गाय, गोबर, गोमूत्र...' को भी न्यायपालिका की ऐसी अनेक चपतें लग सकती है !
इसने फिर एक बार इतना तो बता ही दिया है कि केंद्र में किसी प्रकार सत्ता पा लेने के बावजूद भारतीय राज्य का संवैधानिक ढांचा ऐसा है कि इसके किसी भी एक अंग के लिये पूरी राजसत्ता को अपनी जकड़बंदी में लेना उतना आसान नहीं है । इसके पहले दो साल पहले ही, अक्तूबर महीने में 'नेशनल ज्यूडिशियल ऐपोयंटमेंट्स कमीशन' (एनजेएसी) के जरिये जजों की नियुक्ति में कार्यपालिका, अर्थात सरकार की प्रमुख भूमिका को तय करने के लिये कॉलेजियम के मामले में मोदी-जेटली की तख्ता-पलट की कोशिशों को सुप्रीम कोर्ट ने सही भाप कर उसे एक सिरे से खारिज करके अपनी दूरदर्शिता का परिचय दिया था । उस समय लेखकों द्वारा पुरस्कारों को लौटाने का दौर चल रहा था । तभी हमें याद है कि सुप्रीम कोर्ट के एनजेएसी के बारे में फैसले पर हमने लिखा था कि “भारत के सभी जनतंत्रप्रिय नागरिकों को सुप्रीम कोर्ट के प्रति हमेशा के लिये आभारी होना चाहिए कि उसने पूरी स्पष्टता और दृढ़ता के साथ एनजेएसी के प्रस्ताव को यमलोक पहुँचा कर भारत को संविधान के ज़रिये हिटलरी तानाशाही की जकड़ से बचा लिया है । यह अकेला उदाहरण इस बात का प्रमाण है कि भारत का राजनीतिक नेतृत्व इस प्रकार के भयानक ख़तरे की संभावना को समझने में पूरी तरह से विफल रहा है, वह भले दक्षिणपंथी हो या वामपंथी या मध्यपंथी । इनमें से कोई भी भारत में हिटलर के उदय के इस क़ानूनी रास्ते को नहीं देख पाया और सभी संसद की तथाकथित सार्वभौमिकता का राग अलापते रहें । भारत के सुप्रीम कोर्ट ने एनजेएसी के ज़रिये सारी सत्ता को हड़प कर निरंकुश शासक बनने की वर्तमान सरकार की आतुरता को बिल्कुल सही पकड़ा और उस पर हमेशा के लिये विराम लगा दिया ।“
अब, तीन तलाक पर फैसले के दूसरे दिन ही, 24 अगस्त 2017 को सचमुच सुप्रीम कोर्ट ने फिर वह कर दिखाया, जो आरएसएस और मोदी के लिये किसी कहर से कम नहीं था । इसे कह सकते हैं — भारत में एक नई संवैधानिक क्रांति । भारतीय संविधान के इतिहास में लगता है अब तक का एक सबसे महत्वपूर्ण मील का पत्थर ; निजता के अधिकार पर सर्वसम्मत (9-0) फैसला । ऐसा निर्णय जिसे वैश्विक परिप्रेक्ष्य में देखें तो कहना होगा कि अगर राजशाही के ज़माने में 1804 की नेपोलियन संहिता ने दुनिया में राज्य और नागरिक के अधिकारों के रूप को बदल डाला था तो आज भारत के सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला डिजिटल युग में सारी दुनिया में इन अधिकारों के पुनर्विन्यास का हेतु बनेगा ।
जाहिर है, हम जब यह कह रहे हैं, तब हमारे परिप्रेक्ष्य में परिस्थिति में किसी अन्य सामाजिक क्रांति-प्रतिक्रांति के प्रभाव शामिल नहीं है । वह एक नई परिस्थिति होगी, जब ढांचागत समायोजन की किसी चर्चा का ही कोई अर्थ ही नहीं होगा । लेकिन सभ्यता के वर्तमान चरण में अभी वह एक दूरस्थ बात है । भारत में मोदी की आक्रमकता में प्रतिक्रांति के सारे खतरे मौजूद है, और संभवतः इसीलिये यहां की जमीन से इस संवैधानिक क्रांति की फसल भी तैयार हुई है ।
बहरहाल, इधर मोदी सरकार ने आधार कार्ड से लेकर अपनी नाना योजनाओँ से भारत के नागरिकों को पूरी तरह से राज्य का गुलाम बना देने का जो जाल बुनना शुरू किया था, सुप्रीम कोर्ट ने एक झटके में उसे छिन्न-भिन्न कर दिया । येन केन प्रकारेण चुनाव जीत कर आई सरकार नागरिक के अधिकारों से ऊपर नहीं है, संविधान की रक्षा के लिये ज़िम्मेदार न्यायपालिका के लिये जनतंत्र और नागरिक की रक्षा जरूरी है — इस बात की सुप्रीम कोर्ट ने मकान की छत पर खड़े हो कर घोषणा की है। जिस सुप्रीम कोर्ट ने चंद महीनों पहले ही बहुत साफ सबूतों के होते मोदी पर जांच की मांग को संज्ञान लेने से इंकार कर दिया था, उसी ने उसके सारी सत्ता को हड़प लेने के और पूरे समाज को अपने इशारों पर नचाने के इरादों पर एक प्रकार की स्थायी बाधा पैदा कर दी । इसने एक बहुमतवादी समाज, कि कोई क्या पहनेगा, कोई क्या खायेगा इसे बहुमत के स्वघोषित प्रतिनिधि तय करेंगे की तरह की जघन्य और जंगली अवधारणा को भारत से दूर रखने का एक निर्णायक काम किया है ।
सच कहा जाए तो नाजुक स्थिति सिर्फ नागरिकों के अधिकारों के लिये ही नही हैं । आज सारी संवैधानिक संस्थाओं के लिये अस्तित्व का खतरा है । खुद न्यायपालिका के अस्तित्व पर सीधे प्रहार की कोशिश को वह कॉलेजियम के मामले में प्रत्यक्ष देख चुकी थी । इधर, नोटबंदी को मामले में मोदी ने रिजर्व बैंक की और भारत की मुद्रा नीति की जो दुर्गति कर रखी है, इसे भी सारी दुनिया देख रही है । सत्ता के शीर्ष पर बैठा एक तानाशाह, और बाकी सब कुछ, गले में पट्टा बांधे स्वामिभक्तों की भीड़ — हिटलर के अनुयायियों का यही सबसे बड़ा सपना होता है । निजता के अधिकार के मामले में मोदी की दलील थी कि चूंकि संविधान के मूलभूत अधिकार में निजता का अधिकार शामिल नहीं है, इसीलिये इसे संवैधानिक अधिकार नहीं माना जा सकता है । भारत सरकार के पूर्व एटर्नी जनरल रोहतगी ने सुप्रीम कोर्ट के सामने पूरी बेशर्मी से कहा था कि किसी भी नागरिक का अपने खुद के शरीर पर भी अधिकार नही है । और अभी के एटर्नी जनरल वेणुगोपाल ने और दो कदम आगे बढ़ते हुए कहा कि 'जो लोग सरकारी खैरातों पर पलते है, उनकी निजता का कोई अधिकार नही हो सकता हैं । यह सिर्फ संपत्तिवानों की चोचलेबाजी है ।'
इस पर न्यायमूर्ति जे चेलमाश्वर ने अपनी राय में लिखा है कि संविधान के बारे में यह समझ बिल्कुल 'बचकानी और संवैधानिक व्याख्याओं के स्थापित मानदंडों के विपरीत है' ।...“नागरिकों के अधिकारों और उनकी स्वतंत्रताओं के प्रति यह दृष्टिकोण हमारी जनता की सामूहिक बुद्धिमत्ता और संविधान सभा के सदस्यों के विवेक का अपमान है ।“
न्यायमूर्ति संजय किशन कौल ने कहा कि नागरिकों को उनके बारे में न सिर्फ झूठी बातों से नहीं, बल्कि उनके बारे में 'कुछ सच्ची बातों' से भी अपने सम्मान की रक्षा करने का अधिकार है । “यह नहीं कहा जा सकता है कि किसी के भी बारे में ज्यादा सही राय तभी कायम की जा सकती है जब उसके जीवन की निजी बातों जान लिया जाता है — लोग हमें गलत ढंग से समझते हैं, वे हमें हड़बड़ी में समझते हैं, संदर्भ से हट कर समझते हैं, वे बिना पूरी कहानी सुने राय बनाते हैं और उनकी समझ में मिथ्याचार होता है ।... निजता लोगों को अपने बारे में इन परेशान करने वाली रायों से सुरक्षा देती है । इस बात का कोई तुक नहीं है कि सारी सच्ची सूचनाओं को सार्वजनिक किया जाए ।... कौन से प्रसिद्ध व्यक्ति का किसके साथ यौन संबंध है इसमें लोगों की दिलचस्पी हो सकती है, लेकिन इसका जन-हित से कोई मतलब नहीं है और इसीलिये वह बात निजता का हनन हो सकती है । इसीलिये वह सच्ची बात जो निजता का हनन करती है, उससे भी सुरक्षा की जरूरत है ।...प्रत्येक नागरिक को अपने खुद के जीवन पर नियंत्रण और दुनिया के सामने अपनी छवि को बनाने के लिये काम करने का अधिकार है और अपनी पहचान के व्यवसायिक प्रयोग का भी।“
न्यायमूर्ति कौल ने आगे और कहा कि “निजता का अधिकार एक मूलभूत अधिकार है ; यह वह अधिकार है जो व्यक्ति के अंतरजगत में राज्य के और राज्य के बाहर के लोगों के हस्तक्षेप से उसे बचाता है और व्यक्ति को स्वायत्त हो कर जीवन में चयन की अनुमति देता है ।
“घर के अंदर की निजता में परिवार, शादी, प्रजनन, और यौनिक रुझान की सुरक्षा ये सब गरिमा के महत्वपूर्ण पहलू हैं ।“
सर्वोपरि, अपने अलावा अन्य चार जजों की ओर से भी लिखे गये न्यायमूर्ती डी वाई चंद्रचूड़ के फैसले ने इस विषय से जुड़े सभी अहम मुद्दों को समेटते हुए लिखा कि “ निजता का अधिकार मनुष्य के सम्मान-बोध का एक तत्व है । निजता की पवित्रता सम्मान के साथ जीवन से इसके कारगर संबंध में निहित है । निजता इस बात को सुनिश्चित करती है कि एक मनुष्य अपने मानवीय व्यक्तित्व के एकांत में बिना अवांछित हस्तक्षेप के सम्मान के साथ जी सकता है ।“
ट्रौल उद्योग के जरिये राजनीतिक लक्ष्यों को साधने की रणनीति बनाने वाले मोदी-शाह की तरह के राजनीतिज्ञों के मंसूबों पर सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले से पानी फेरने का काम किया है । नागरिक की गरिमा को केंद्रीय महत्व की बात घोषित करके यह फैसला गोस्वामी की तरह के चरित्र-हननकारी पत्रकारों-ऐंकरों पर आगे अंकुश लगाने का रास्ता आसान करेगा । जो ट्रौल बेझिझक गंदी गालियाँ देते थे और बेधड़क घूमते थे, आने वाले समय में सोशल मीडिया या अख़बारों में इन गाली-गलौज करने वालों पर एफआईआर की तलवार लटकती रहेगी । स्वाती चतुर्वेदी ने अपनी किताब ‘I am a Troll’ में जिन ट्रौल उद्योगों की सिनाख्त की थी उनके ठिकानों पर क़ानूनी कार्रवाई की संभावना बनेगी ।
पश्चिमी देशों के कानून में चरित्र-हनन को हत्या से कम बड़ा अपराध नहीं माना जाता । आगे यहां भी ट्रौलिंग एक बड़ा फ़ौजदारी अपराध होगा । इस प्रकार, सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला ट्रौल उद्योग और उस पर टिकी राजनीति की जड़ों में मट्ठा डालने का काम करेगा ।
इस महान फैसले पर प्रधानमंत्री की चट्टान की तरह की चुप्पी पर आज कोई भी सवाल करेगा कि निजता के अधिकार पर सुप्रीम के इस ऐतिहासिक फैसले पर बात-बात में ट्वीटर-प्रेमी प्रधानमंत्री ख़ामोश क्यों हैं ? और, भाजपा की चुप्पी क्या यह बताने के लिये काफी नहीं है कि वह पूरी नग्नता के साथ नागरिकों की निजता के हनन के पक्ष में है !
इस नये घटना-क्रम की बहुत सी कमियों और पूरा कर दिया गुरमीत राम रहीम मामले में 'तोता' मान ली गई सीबीआई की अदालत ने । जिस शैतान के सामने 'हर विरोधी का पत्ता साफ कर दो' की तरह की माफियाई तर्ज पर काम करने वाले अमित शाह अपने नेतृत्व में हरियाणा के मुख्यमंत्री खट्टर सहित पूरे मंत्रिमंडल को दंडवत करा आए थे, उस शैतान को सीबीआई की अदालत ने (शायद जीवन भर के लिये) जेल भेज दिया । आज सिर्फ डेरा वाले ही नहीं, आरएसएस की आत्मा के प्रवक्ता साक्षी महाराज जैसे भी यह मानते हैं कि उनके साथ धोखा हुआ है । सौदा यह हुआ था कि मुकदमे को हटा लिया जायेगा, क्योंकि ये सभी माने हुए थे कि मोदी की धौंस अब जिस जगह पहुंच गई है उससे पहले से ही सारे तोतों की सांसे फूली हुई है । एक मामूली स्वत्त्र उड़ान की भी उनमे ताकत नहीं है, इसीलिये उनको कुछ कहने की जरूरत नहीं है — 'बुद्धिमान को इशारा ही काफी होता है' ।
लेकिन नियति का तर्क देखिये कि डेरे के गुंडों की हिंसा के चरम रूप आने तक मौन बने रहे मोदी जी भी अब कह रहे हैं कि 'हिंसा को बर्दाश्त नहीं किया जायेगा' । व्यवस्था इसी प्रकार अपने विरोधियों की भी नकेल कस देती है ।
इधर राजनीति के मोर्चे पर जब अमित शाह कांग्रेस के सारे कूड़े से भाजपा को कांग्रेस का कूड़ाघर बना कर अपनी अपराजेयता का ढिंढोरा पीट रहे थे, उसी समय एड़ी-चोटी का पसीना एक कर देने, खुले आम विधायकों का भाव-तोल करके कुछ को खरीद लेने पर भी वे गुजरात से राज्य सभा में कांग्रेस के प्रत्याशी को जाने से रोक नहीं सके । और इस मामले में भी उनकी योजना को विफल बनाया उन्हीं के लाये हुए चुनाव आयुक्त ने, लेकिन वास्तव में एक और संवैधानिक संस्था ने ! कांग्रेस के दो दल-बदलू विधायकों के भ्रष्ट आचरण का संज्ञान ले कर उनके वोट को रद्द करने में उसने जरा भी संकोच नहीं किया ।
ये चाहते हैं बाबाओं के जरिये, गोरक्षक गुंडों के जरिये, तुगलकी आर्थिक नीतियों से जन-जीवन को अस्त-व्यस्त करके समाज के निकृष्टतम लोगों से व्यवस्था का एक पवित्र व्यूह तैयार करें और उसमें किसी सूरमा की तरह तानाशाह मोदी 2019 के चुनाव में सत्ता के शीर्ष पर बैठ जाए । इजारेदाराना पूंजीवाद में समाज के 'उद्धार' की सचमुच यह एक अनोखी प्रक्रिया है जिसमें सत्ता पर आसीन लोग जितने संकीर्ण और स्वार्थी होते जाते हैं, उसी अनुपात में समाज का 'उद्धार' होता जाता है । हमारे यहां जितनी नग्नता से खुद प्रधानमंत्री अंबानी, अडानी मात्र के हितों को जिस प्रकार साधते हैं, माना जाता है कि उसी अनुपात में समाज का उपकार हो रहा है ! इसमें स्वस्थ और जनतांत्रिक मूल्यों की छोटी से छोटी आवाज को देशद्रोह बता कर लांक्षित किया जाता है । और इसी उपक्रम में यह भी बार-बार देखने को मिलता है कि जिन बाबाओं, योगियों, धर्म के पंडों को, गली के लुच्चे-लफंगों को एक समग्र अराजकता पैदा करने के काम में नियोजित किया जाता है, एक समय के बाद उन्हें ही न सिर्फ लात मार कर धकियाया जाता है, बल्कि रात के अंधेरे में चारपाइयों से उठा कर जेल की काल कोठरियों में ठूस दिया जाता है । तब एक बार के लिये नौकरशाही, पुलिस और बाकी प्रशासन भी चंगा हो जाता है । डेरा सच्चा सौदा के अपराधियों को इस सचाई का स्वाद मिलने का समय आ गया था । उन्होंने जिस अमित शाह और उनके गुर्गे खट्टर को अपने शैतान गुरू का चेला मान रखा था, ऐसे चेले ही अब कभी उनकी गली में झांक कर भी नहीं देखेंगे । अपने पैदा किये गये ऐसे सभी तत्वों की पिसाई से ही तो आगे उनके चेहरे को चमकाने वाला लेप बनने वाला होता है !
बहरहाल, गोरखपुर में योगी की नाक तले आक्सीजन रोक कर की गई बच्चों की हत्या के बाद इनका मंत्री जब अगस्त के महीने के ऐसे शिशु-संहारक महात्म्य का बखूबी बखान कर रहा था तब हमें लगा कि वे शायद किसी प्राकृतिक दुर्योग का बात कर रहे हैं । लेकिन इस महीने के अंतिम हफ्ते में गूंगी नजर आती संवैधानिक संस्थाओं का एक साथ बोल उठना आने वाले दिनों की कुछ और ही कहानी के संकेत दे रहा है ।
भारत की संवैधानिक संस्थाएँ किसी बहुमत की सरकार की मुखापेक्षी न होकर अगर अपने दायित्वों को बेख़ौफ़ निभायें तो फासीवाद जरूर पराजित होगा । जीवन की परिस्थितियां कुछ भी क्यों न हो, व्यवस्था के ढांचे का अपना तर्क भी अंदर से कई संरचनाओं को बने रहने की शक्ति देता है ।
'निजता के अधिकार' पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले में कहा गया है कि 'मौन निजता के एक दायरे को तैयार करता है ।' इस ऐतिहासिक फैसले पर आज तक की प्रधानमंत्री मोदी की अटूट चुप्पी से लगता है कि सुप्रीम कोर्ट के इस कथन को उन्होंने पूरी आंतरिकता से ग्रहण किया है । और, मोदी की इस बेतार की चुप्पी ने पूरी भाजपा को तो गूँगा बना दिया है ! हमारी कामना है कि नागरिकों के गले में पट्टा लगाने की हसरत के कारण यह उनकी ज़ुबान पर किसी गहरी दुश्चिंता की वजह से मारा गया लकवा न हो, बल्कि मनन की गुहा में उतरने का उपक्रम हो ! यह हार्डवर्क वनाम हार्वर्ड की थोथी जुमलेबाजी से उनकी मुक्ति की साधना हो !
और भाजपा, जिसे गुमान है कि यह देश भारतवासियों का नहीं, उनकी निजी संपत्ति है, उसे समझ जाना चाहिए कि सच्चा जनतंत्र धार्मिक कट्टरपंथियों का कभी भी निजी क्षेत्र नहीं बन सकता । हर प्रकार के आशारामों, रामरहीमों की अंतिम और असली जगह जेल की सींखचों के पीछे ही होती है ।
आज सचमुच मोदी जी का 'मौन-मोहन सिंह' वाला जुमला बहुत याद आता है !
पिछले एक हफ्ते के सारे घटनाक्रम से ऐसा लगता है जैसे अब भारतीय राजनीति का यह 'गाय, गोबर, गोमूत्र, बीफ, बाबावाद, लव जेहाद, लींचिग और 'देशभक्ति' के शोर के युग के सारे लक्षण बिल्कुल प्रकट रोग के रूप में सामने आने लगे हैं और राष्ट्र के अस्तित्व के लिये ही इनका यथाशीघ्र इलाज करना जरूरी ही नहीं शुरू भी हो चुका है ।
इस हफ्ते सुप्रीम कोर्ट का पहला फैसला आया मुस्लिम धार्मिक कट्टरपंथ पर एक तमाचा जड़ने वाला तीन तलाक का फैसला । मुस्लिम कट्टरपंथ उसी दकियानूसी सोच के सिक्के का दूसरा पहलू है जो राजनीति में अभी के उपरोक्त 'गोबरवाद' के रूप में छाया हुआ दिखाई देता है — कह सकते हैं देश भर को कांग्रेस-विहीन बनाने के नाम पर गोबर और मूत्र से लीप देने का वाद । मुस्लिम कट्टरपंथ इसी के लिये खाद का काम करता रहा है । सुप्रीम कोर्ट ने उनकी इस औरत-विरोधी सामाजिक प्रथा को अतार्किक स्वेच्छाचार घोषित करके गैर-कानूनी करार दिया है ; इस प्रथा का पालन अब कानूनन अपराध होगा ।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर प्रधानमंत्री मोदी ने तो खुशी जताई । पिछले दिनों यूपी चुनाव के मौके पर वे इसे जिस प्रकार जोर-शोर से उछाल रहे थे, उस पर लगी वैद्यता की मोहर के जरिये उन्होंने अपनी राजनीति का झंडा भी लहराने की कोशिश की । लेकिन आम तौर पर भाजपा और आरएसएस के नेता इस पर लगभग चुप ही रहे । उनके लिये यह मसला मुसलमानों को लगातार लांक्षित और अपमानित करने का मुद्दा था, और इसीलिये वे इसे पूरी ताकत से पीट रहे थे । वे यह कल्पना ही नहीं कर पा रहे थे कि अपनी पीनक में 'हिंदुत्व को जीने का एक तरीका' बता देने वाला सुप्रीम कोर्ट इस विषय में भारतीय संविधान के मूलभूत विवेक, मनुष्यों की मर्यादा की रक्षा के पक्ष में खड़ा हो जायेगा ।
भारतीय संविधान में नागरिक संहिताओं के बारे में यह मूलभूत समझ है कि यह किसी न किसी प्रकार से इस समाज के धर्मीय वैविध्य से जुड़ी हुई है और इसलिये इसमें चली आ रहे रीति-रिवाजों, अलग-अलग प्रथाओं से जल्दबाजी में अनावश्यक छेड़-छाड़ करने की जरूरत नहीं है । लेकिन तीन तलाक का मसला अपने एक अजीब से बेहूदा आदिमपन के चलते देखते-देखते मुस्लिम महिलाओं की अस्मिता से जुड़ा उनके सम्मान-बोध का मसला बन गया था । खुद मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के पास इसके खिलाफ इतने आवेदन थे कि उन्होंने ही इसे जल्द बदल डालने की कसमें खानी शुरू कर दी थी । कहना न होगा, सुप्रीम कोर्ट का फैसला मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को इस सही दिशा में बढ़ने में सहायक होगा ।
और इसी आधार पर कहा जा सकता है कि समाज के सभी स्तरों पर पोंगापंथ के अग्रदूत आरएसएस की तरह के धार्मिक कट्टरपंथियों के लिये यह फैसला किसी बड़े धक्के से कम नहीं है । इसीलिये कट्टरपंथियों के इस पूरे परिवार को तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने काफी चिंतित कर दिया है क्योंकि कोई भी आंखों वाला आदमी इतना तो देख ही सकता है कि इससे अभी की 'गाय, गोबर, गोमूत्र...' को भी न्यायपालिका की ऐसी अनेक चपतें लग सकती है !
इसने फिर एक बार इतना तो बता ही दिया है कि केंद्र में किसी प्रकार सत्ता पा लेने के बावजूद भारतीय राज्य का संवैधानिक ढांचा ऐसा है कि इसके किसी भी एक अंग के लिये पूरी राजसत्ता को अपनी जकड़बंदी में लेना उतना आसान नहीं है । इसके पहले दो साल पहले ही, अक्तूबर महीने में 'नेशनल ज्यूडिशियल ऐपोयंटमेंट्स कमीशन' (एनजेएसी) के जरिये जजों की नियुक्ति में कार्यपालिका, अर्थात सरकार की प्रमुख भूमिका को तय करने के लिये कॉलेजियम के मामले में मोदी-जेटली की तख्ता-पलट की कोशिशों को सुप्रीम कोर्ट ने सही भाप कर उसे एक सिरे से खारिज करके अपनी दूरदर्शिता का परिचय दिया था । उस समय लेखकों द्वारा पुरस्कारों को लौटाने का दौर चल रहा था । तभी हमें याद है कि सुप्रीम कोर्ट के एनजेएसी के बारे में फैसले पर हमने लिखा था कि “भारत के सभी जनतंत्रप्रिय नागरिकों को सुप्रीम कोर्ट के प्रति हमेशा के लिये आभारी होना चाहिए कि उसने पूरी स्पष्टता और दृढ़ता के साथ एनजेएसी के प्रस्ताव को यमलोक पहुँचा कर भारत को संविधान के ज़रिये हिटलरी तानाशाही की जकड़ से बचा लिया है । यह अकेला उदाहरण इस बात का प्रमाण है कि भारत का राजनीतिक नेतृत्व इस प्रकार के भयानक ख़तरे की संभावना को समझने में पूरी तरह से विफल रहा है, वह भले दक्षिणपंथी हो या वामपंथी या मध्यपंथी । इनमें से कोई भी भारत में हिटलर के उदय के इस क़ानूनी रास्ते को नहीं देख पाया और सभी संसद की तथाकथित सार्वभौमिकता का राग अलापते रहें । भारत के सुप्रीम कोर्ट ने एनजेएसी के ज़रिये सारी सत्ता को हड़प कर निरंकुश शासक बनने की वर्तमान सरकार की आतुरता को बिल्कुल सही पकड़ा और उस पर हमेशा के लिये विराम लगा दिया ।“
अब, तीन तलाक पर फैसले के दूसरे दिन ही, 24 अगस्त 2017 को सचमुच सुप्रीम कोर्ट ने फिर वह कर दिखाया, जो आरएसएस और मोदी के लिये किसी कहर से कम नहीं था । इसे कह सकते हैं — भारत में एक नई संवैधानिक क्रांति । भारतीय संविधान के इतिहास में लगता है अब तक का एक सबसे महत्वपूर्ण मील का पत्थर ; निजता के अधिकार पर सर्वसम्मत (9-0) फैसला । ऐसा निर्णय जिसे वैश्विक परिप्रेक्ष्य में देखें तो कहना होगा कि अगर राजशाही के ज़माने में 1804 की नेपोलियन संहिता ने दुनिया में राज्य और नागरिक के अधिकारों के रूप को बदल डाला था तो आज भारत के सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला डिजिटल युग में सारी दुनिया में इन अधिकारों के पुनर्विन्यास का हेतु बनेगा ।
जाहिर है, हम जब यह कह रहे हैं, तब हमारे परिप्रेक्ष्य में परिस्थिति में किसी अन्य सामाजिक क्रांति-प्रतिक्रांति के प्रभाव शामिल नहीं है । वह एक नई परिस्थिति होगी, जब ढांचागत समायोजन की किसी चर्चा का ही कोई अर्थ ही नहीं होगा । लेकिन सभ्यता के वर्तमान चरण में अभी वह एक दूरस्थ बात है । भारत में मोदी की आक्रमकता में प्रतिक्रांति के सारे खतरे मौजूद है, और संभवतः इसीलिये यहां की जमीन से इस संवैधानिक क्रांति की फसल भी तैयार हुई है ।
बहरहाल, इधर मोदी सरकार ने आधार कार्ड से लेकर अपनी नाना योजनाओँ से भारत के नागरिकों को पूरी तरह से राज्य का गुलाम बना देने का जो जाल बुनना शुरू किया था, सुप्रीम कोर्ट ने एक झटके में उसे छिन्न-भिन्न कर दिया । येन केन प्रकारेण चुनाव जीत कर आई सरकार नागरिक के अधिकारों से ऊपर नहीं है, संविधान की रक्षा के लिये ज़िम्मेदार न्यायपालिका के लिये जनतंत्र और नागरिक की रक्षा जरूरी है — इस बात की सुप्रीम कोर्ट ने मकान की छत पर खड़े हो कर घोषणा की है। जिस सुप्रीम कोर्ट ने चंद महीनों पहले ही बहुत साफ सबूतों के होते मोदी पर जांच की मांग को संज्ञान लेने से इंकार कर दिया था, उसी ने उसके सारी सत्ता को हड़प लेने के और पूरे समाज को अपने इशारों पर नचाने के इरादों पर एक प्रकार की स्थायी बाधा पैदा कर दी । इसने एक बहुमतवादी समाज, कि कोई क्या पहनेगा, कोई क्या खायेगा इसे बहुमत के स्वघोषित प्रतिनिधि तय करेंगे की तरह की जघन्य और जंगली अवधारणा को भारत से दूर रखने का एक निर्णायक काम किया है ।
सच कहा जाए तो नाजुक स्थिति सिर्फ नागरिकों के अधिकारों के लिये ही नही हैं । आज सारी संवैधानिक संस्थाओं के लिये अस्तित्व का खतरा है । खुद न्यायपालिका के अस्तित्व पर सीधे प्रहार की कोशिश को वह कॉलेजियम के मामले में प्रत्यक्ष देख चुकी थी । इधर, नोटबंदी को मामले में मोदी ने रिजर्व बैंक की और भारत की मुद्रा नीति की जो दुर्गति कर रखी है, इसे भी सारी दुनिया देख रही है । सत्ता के शीर्ष पर बैठा एक तानाशाह, और बाकी सब कुछ, गले में पट्टा बांधे स्वामिभक्तों की भीड़ — हिटलर के अनुयायियों का यही सबसे बड़ा सपना होता है । निजता के अधिकार के मामले में मोदी की दलील थी कि चूंकि संविधान के मूलभूत अधिकार में निजता का अधिकार शामिल नहीं है, इसीलिये इसे संवैधानिक अधिकार नहीं माना जा सकता है । भारत सरकार के पूर्व एटर्नी जनरल रोहतगी ने सुप्रीम कोर्ट के सामने पूरी बेशर्मी से कहा था कि किसी भी नागरिक का अपने खुद के शरीर पर भी अधिकार नही है । और अभी के एटर्नी जनरल वेणुगोपाल ने और दो कदम आगे बढ़ते हुए कहा कि 'जो लोग सरकारी खैरातों पर पलते है, उनकी निजता का कोई अधिकार नही हो सकता हैं । यह सिर्फ संपत्तिवानों की चोचलेबाजी है ।'
इस पर न्यायमूर्ति जे चेलमाश्वर ने अपनी राय में लिखा है कि संविधान के बारे में यह समझ बिल्कुल 'बचकानी और संवैधानिक व्याख्याओं के स्थापित मानदंडों के विपरीत है' ।...“नागरिकों के अधिकारों और उनकी स्वतंत्रताओं के प्रति यह दृष्टिकोण हमारी जनता की सामूहिक बुद्धिमत्ता और संविधान सभा के सदस्यों के विवेक का अपमान है ।“
न्यायमूर्ति संजय किशन कौल ने कहा कि नागरिकों को उनके बारे में न सिर्फ झूठी बातों से नहीं, बल्कि उनके बारे में 'कुछ सच्ची बातों' से भी अपने सम्मान की रक्षा करने का अधिकार है । “यह नहीं कहा जा सकता है कि किसी के भी बारे में ज्यादा सही राय तभी कायम की जा सकती है जब उसके जीवन की निजी बातों जान लिया जाता है — लोग हमें गलत ढंग से समझते हैं, वे हमें हड़बड़ी में समझते हैं, संदर्भ से हट कर समझते हैं, वे बिना पूरी कहानी सुने राय बनाते हैं और उनकी समझ में मिथ्याचार होता है ।... निजता लोगों को अपने बारे में इन परेशान करने वाली रायों से सुरक्षा देती है । इस बात का कोई तुक नहीं है कि सारी सच्ची सूचनाओं को सार्वजनिक किया जाए ।... कौन से प्रसिद्ध व्यक्ति का किसके साथ यौन संबंध है इसमें लोगों की दिलचस्पी हो सकती है, लेकिन इसका जन-हित से कोई मतलब नहीं है और इसीलिये वह बात निजता का हनन हो सकती है । इसीलिये वह सच्ची बात जो निजता का हनन करती है, उससे भी सुरक्षा की जरूरत है ।...प्रत्येक नागरिक को अपने खुद के जीवन पर नियंत्रण और दुनिया के सामने अपनी छवि को बनाने के लिये काम करने का अधिकार है और अपनी पहचान के व्यवसायिक प्रयोग का भी।“
न्यायमूर्ति कौल ने आगे और कहा कि “निजता का अधिकार एक मूलभूत अधिकार है ; यह वह अधिकार है जो व्यक्ति के अंतरजगत में राज्य के और राज्य के बाहर के लोगों के हस्तक्षेप से उसे बचाता है और व्यक्ति को स्वायत्त हो कर जीवन में चयन की अनुमति देता है ।
“घर के अंदर की निजता में परिवार, शादी, प्रजनन, और यौनिक रुझान की सुरक्षा ये सब गरिमा के महत्वपूर्ण पहलू हैं ।“
सर्वोपरि, अपने अलावा अन्य चार जजों की ओर से भी लिखे गये न्यायमूर्ती डी वाई चंद्रचूड़ के फैसले ने इस विषय से जुड़े सभी अहम मुद्दों को समेटते हुए लिखा कि “ निजता का अधिकार मनुष्य के सम्मान-बोध का एक तत्व है । निजता की पवित्रता सम्मान के साथ जीवन से इसके कारगर संबंध में निहित है । निजता इस बात को सुनिश्चित करती है कि एक मनुष्य अपने मानवीय व्यक्तित्व के एकांत में बिना अवांछित हस्तक्षेप के सम्मान के साथ जी सकता है ।“
ट्रौल उद्योग के जरिये राजनीतिक लक्ष्यों को साधने की रणनीति बनाने वाले मोदी-शाह की तरह के राजनीतिज्ञों के मंसूबों पर सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले से पानी फेरने का काम किया है । नागरिक की गरिमा को केंद्रीय महत्व की बात घोषित करके यह फैसला गोस्वामी की तरह के चरित्र-हननकारी पत्रकारों-ऐंकरों पर आगे अंकुश लगाने का रास्ता आसान करेगा । जो ट्रौल बेझिझक गंदी गालियाँ देते थे और बेधड़क घूमते थे, आने वाले समय में सोशल मीडिया या अख़बारों में इन गाली-गलौज करने वालों पर एफआईआर की तलवार लटकती रहेगी । स्वाती चतुर्वेदी ने अपनी किताब ‘I am a Troll’ में जिन ट्रौल उद्योगों की सिनाख्त की थी उनके ठिकानों पर क़ानूनी कार्रवाई की संभावना बनेगी ।
पश्चिमी देशों के कानून में चरित्र-हनन को हत्या से कम बड़ा अपराध नहीं माना जाता । आगे यहां भी ट्रौलिंग एक बड़ा फ़ौजदारी अपराध होगा । इस प्रकार, सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला ट्रौल उद्योग और उस पर टिकी राजनीति की जड़ों में मट्ठा डालने का काम करेगा ।
इस महान फैसले पर प्रधानमंत्री की चट्टान की तरह की चुप्पी पर आज कोई भी सवाल करेगा कि निजता के अधिकार पर सुप्रीम के इस ऐतिहासिक फैसले पर बात-बात में ट्वीटर-प्रेमी प्रधानमंत्री ख़ामोश क्यों हैं ? और, भाजपा की चुप्पी क्या यह बताने के लिये काफी नहीं है कि वह पूरी नग्नता के साथ नागरिकों की निजता के हनन के पक्ष में है !
इस नये घटना-क्रम की बहुत सी कमियों और पूरा कर दिया गुरमीत राम रहीम मामले में 'तोता' मान ली गई सीबीआई की अदालत ने । जिस शैतान के सामने 'हर विरोधी का पत्ता साफ कर दो' की तरह की माफियाई तर्ज पर काम करने वाले अमित शाह अपने नेतृत्व में हरियाणा के मुख्यमंत्री खट्टर सहित पूरे मंत्रिमंडल को दंडवत करा आए थे, उस शैतान को सीबीआई की अदालत ने (शायद जीवन भर के लिये) जेल भेज दिया । आज सिर्फ डेरा वाले ही नहीं, आरएसएस की आत्मा के प्रवक्ता साक्षी महाराज जैसे भी यह मानते हैं कि उनके साथ धोखा हुआ है । सौदा यह हुआ था कि मुकदमे को हटा लिया जायेगा, क्योंकि ये सभी माने हुए थे कि मोदी की धौंस अब जिस जगह पहुंच गई है उससे पहले से ही सारे तोतों की सांसे फूली हुई है । एक मामूली स्वत्त्र उड़ान की भी उनमे ताकत नहीं है, इसीलिये उनको कुछ कहने की जरूरत नहीं है — 'बुद्धिमान को इशारा ही काफी होता है' ।
लेकिन नियति का तर्क देखिये कि डेरे के गुंडों की हिंसा के चरम रूप आने तक मौन बने रहे मोदी जी भी अब कह रहे हैं कि 'हिंसा को बर्दाश्त नहीं किया जायेगा' । व्यवस्था इसी प्रकार अपने विरोधियों की भी नकेल कस देती है ।
इधर राजनीति के मोर्चे पर जब अमित शाह कांग्रेस के सारे कूड़े से भाजपा को कांग्रेस का कूड़ाघर बना कर अपनी अपराजेयता का ढिंढोरा पीट रहे थे, उसी समय एड़ी-चोटी का पसीना एक कर देने, खुले आम विधायकों का भाव-तोल करके कुछ को खरीद लेने पर भी वे गुजरात से राज्य सभा में कांग्रेस के प्रत्याशी को जाने से रोक नहीं सके । और इस मामले में भी उनकी योजना को विफल बनाया उन्हीं के लाये हुए चुनाव आयुक्त ने, लेकिन वास्तव में एक और संवैधानिक संस्था ने ! कांग्रेस के दो दल-बदलू विधायकों के भ्रष्ट आचरण का संज्ञान ले कर उनके वोट को रद्द करने में उसने जरा भी संकोच नहीं किया ।
ये चाहते हैं बाबाओं के जरिये, गोरक्षक गुंडों के जरिये, तुगलकी आर्थिक नीतियों से जन-जीवन को अस्त-व्यस्त करके समाज के निकृष्टतम लोगों से व्यवस्था का एक पवित्र व्यूह तैयार करें और उसमें किसी सूरमा की तरह तानाशाह मोदी 2019 के चुनाव में सत्ता के शीर्ष पर बैठ जाए । इजारेदाराना पूंजीवाद में समाज के 'उद्धार' की सचमुच यह एक अनोखी प्रक्रिया है जिसमें सत्ता पर आसीन लोग जितने संकीर्ण और स्वार्थी होते जाते हैं, उसी अनुपात में समाज का 'उद्धार' होता जाता है । हमारे यहां जितनी नग्नता से खुद प्रधानमंत्री अंबानी, अडानी मात्र के हितों को जिस प्रकार साधते हैं, माना जाता है कि उसी अनुपात में समाज का उपकार हो रहा है ! इसमें स्वस्थ और जनतांत्रिक मूल्यों की छोटी से छोटी आवाज को देशद्रोह बता कर लांक्षित किया जाता है । और इसी उपक्रम में यह भी बार-बार देखने को मिलता है कि जिन बाबाओं, योगियों, धर्म के पंडों को, गली के लुच्चे-लफंगों को एक समग्र अराजकता पैदा करने के काम में नियोजित किया जाता है, एक समय के बाद उन्हें ही न सिर्फ लात मार कर धकियाया जाता है, बल्कि रात के अंधेरे में चारपाइयों से उठा कर जेल की काल कोठरियों में ठूस दिया जाता है । तब एक बार के लिये नौकरशाही, पुलिस और बाकी प्रशासन भी चंगा हो जाता है । डेरा सच्चा सौदा के अपराधियों को इस सचाई का स्वाद मिलने का समय आ गया था । उन्होंने जिस अमित शाह और उनके गुर्गे खट्टर को अपने शैतान गुरू का चेला मान रखा था, ऐसे चेले ही अब कभी उनकी गली में झांक कर भी नहीं देखेंगे । अपने पैदा किये गये ऐसे सभी तत्वों की पिसाई से ही तो आगे उनके चेहरे को चमकाने वाला लेप बनने वाला होता है !
बहरहाल, गोरखपुर में योगी की नाक तले आक्सीजन रोक कर की गई बच्चों की हत्या के बाद इनका मंत्री जब अगस्त के महीने के ऐसे शिशु-संहारक महात्म्य का बखूबी बखान कर रहा था तब हमें लगा कि वे शायद किसी प्राकृतिक दुर्योग का बात कर रहे हैं । लेकिन इस महीने के अंतिम हफ्ते में गूंगी नजर आती संवैधानिक संस्थाओं का एक साथ बोल उठना आने वाले दिनों की कुछ और ही कहानी के संकेत दे रहा है ।
भारत की संवैधानिक संस्थाएँ किसी बहुमत की सरकार की मुखापेक्षी न होकर अगर अपने दायित्वों को बेख़ौफ़ निभायें तो फासीवाद जरूर पराजित होगा । जीवन की परिस्थितियां कुछ भी क्यों न हो, व्यवस्था के ढांचे का अपना तर्क भी अंदर से कई संरचनाओं को बने रहने की शक्ति देता है ।
'निजता के अधिकार' पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले में कहा गया है कि 'मौन निजता के एक दायरे को तैयार करता है ।' इस ऐतिहासिक फैसले पर आज तक की प्रधानमंत्री मोदी की अटूट चुप्पी से लगता है कि सुप्रीम कोर्ट के इस कथन को उन्होंने पूरी आंतरिकता से ग्रहण किया है । और, मोदी की इस बेतार की चुप्पी ने पूरी भाजपा को तो गूँगा बना दिया है ! हमारी कामना है कि नागरिकों के गले में पट्टा लगाने की हसरत के कारण यह उनकी ज़ुबान पर किसी गहरी दुश्चिंता की वजह से मारा गया लकवा न हो, बल्कि मनन की गुहा में उतरने का उपक्रम हो ! यह हार्डवर्क वनाम हार्वर्ड की थोथी जुमलेबाजी से उनकी मुक्ति की साधना हो !
और भाजपा, जिसे गुमान है कि यह देश भारतवासियों का नहीं, उनकी निजी संपत्ति है, उसे समझ जाना चाहिए कि सच्चा जनतंत्र धार्मिक कट्टरपंथियों का कभी भी निजी क्षेत्र नहीं बन सकता । हर प्रकार के आशारामों, रामरहीमों की अंतिम और असली जगह जेल की सींखचों के पीछे ही होती है ।
आज सचमुच मोदी जी का 'मौन-मोहन सिंह' वाला जुमला बहुत याद आता है !
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