-अरुण माहेश्वरी
बाबा शिरोमणि, बाबा रामदेव । बाबाओं की अभी की सारी कीर्तियों के अंधेरे आकाश में टिमटिमाते क़िस्सों के बीच यदि किसी एक बाबा की कहानी की हैसियत इस आसमान के चाँद की तरह हो सकती है तो वह रामदेव के अलावा शायद ही दूसरे किसी की होगी ।
जब तक इन बाबाओं की गुफ़ाओं के राज नहीं खुलते है, ये सब परम संन्यासी होते हैं, अपरिग्रह और उसके आनंद-तत्त्व की जीवित मूर्ति । इनके सत्संग में दुनिया के परम भोगी भी ब्रह्मानन्द की दशा में अपना होश-हवास गँवा इस 'माया जगत' के बाहर पहुंच जाते हैं । आशाराम बापू के मंच पर हमने मोदी जी को उनके इशारों पर मंत्रों को बुदबुदाते देखा हैं , वाजपेयी को उनकी प्रशंसा में गदगद होते और आडवाणी को हाथ जोड़ कर सियाराम की भक्ति की हनुमान-मुद्रा में बार-बार देखा है ।
और इन सब गुरुओं में जिसे गुरुघंटाल कहा जा सकता है, उस बाबा रामदेव को तो राजनीतिक नेताओं को चाबुक की फटकार से हाँकते इधर कई सालों से देखा जा रहा है । एक समय, जब मनमोहन सिंह सरकार के खिलाफ अन्ना हज़ारे का आंदोलन अपने शीर्ष पर था, प्रनब मुखर्जी समेत केंद्र के चार-चार मंत्री इसके स्वागत के लिये हवाई अड्डे पहुंच गये थे क्योंकि उन्हें इस बाबा के रोष को शांत करना था । हांलाकि उसकी आगे की कहानी थोड़ी अलग रही ।
लेकिन जहाँ तक मोदी जी का सवाल है, इनका मंत्रिमंडल तो इस बाबा को गायत्री मंत्र के रचयिता ब्रह्मर्षि विश्वामित्र से कम नहीं मानता । इसने पतंजलि के योगदर्शन का शाप-मोचन कर उसे कसरत का नया रूप देकर इस सरकार के तो जैसे काम की पूरी दिशा ही बाँध दी ; हमेशा सस्ते और आसान रास्ते से बाजीमात करने की फिराक में रहने वाले मोदी जी को भारत को विश्वगुरु के रूप में स्थापित करने का एक 'अचूक' नुस्ख़ा दे दिया । बाक़ी सारे कामों को व्यर्थ जान, पिछले तीन सालों से वे इस कसरत-योग के प्रचार में ही तन-मन-धन देकर पूरे भक्तिभाव से लगे हुए हैं ।
इसी बाबा ने भारत के संकट-मोचन के लिये पिछले चुनाव प्रचार के दौरान आयकर नामक चीज को ही उठा देने का जो मंत्रोच्चार किया था उससे सबसे अधिक मंत्र-मुग्ध आज की मोदी-जेटली जुगल जोड़ी ही हुई थी । भले इस जोड़ी ने बाद में वह काम तो नहीं किया लेकिन ऐसी प्रेरणा से ही भारत के इतिहास के उस अध्याय की पुनरावृत्ति जरूर की, जो तुगलकीपन के नाम से बदनाम है - नोटबंदी के एक धक्के से पूरी अर्थ-व्यवस्था को गर्त में डाल दिया और जिस बेहूदगी पर आज तक ये मंदबुद्धि लोगों की तरह तालियाँ बजा कर नाच रहे हैं कि देखो जो काम दूसरा कोई शासक नहीं कर सकता था, उसे हमने कर दिया । एक धक्के में भारत की अर्थ-व्यवस्था के पूर्ण मोक्ष का मार्ग खोल दिया !
आज के इस बाबा-युग में ऐसे बाबा शिरोमणि की गुफ़ा में किसी छोटे से सुराख से भी ताक-झाँक करने के लोभ का भला कोई भी लेखक-पत्रकार कैसे संवरण कर सकता है । प्रियंका पाठक-नारायण भी नहीं कर पाई । वह पिछले दस सालों से इस गेरुआधारी के चमत्कारी करतबों को देख रही थी, उसके पास के बहुत सारे लोगों से, प्रत्यक्ष विरोधियों से भी मिलने, बात करने का उसे मौका मिला है । उसके सेवादारों को भी उसने देखा-जाना । और अंत में फिर जब वे अपने देखे-सुने को लिखने बैठी तो सामने आई यह बाबा शिरोमणि की कथा - बाबा रामदेव के जीवन पर आधारित 'GODMAN To TYCOON :The untold story of Baba Ramdev'
यह किताब आज एक सबसे चर्चित किताबों में एक है । इसकी बिक्री 4 अगस्त 2017 के दिल्ली कोर्ट के एक आदेश के बावजूद नहीं रुक पाई है । बाबा ने इसे आदेश की अवमानना बताते हुए फिर से कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, किताब की लेखिका, प्रकाशक 'जगरनौट' और अन्य को कारण बताओ नोटिस जारी किया, लेकिन यह किताब किसी वर्चुअल स्पेश में नहीं, ठोस ज़मीनी यथार्थ में वायरल की तरह पसरती जा रही है । आज भी 'एमेजन' पर यह आसानी से उपलब्ध है । उच्च अदालत में इसके सर्कुलेशन पर रोक के दिल्ली की अदालत के आदेश को चुनौती दी गई है। बाबा कहते हैं, इसमें उनके जीवन के तथ्यों को अपमानजनक ढंग से पेश किया गया है। रामदेव की याचिका पर दिल्ली की अदालत ने 4 अगस्त को अपने आदेश में कहा था कि पहली नजर में देखने से साफ है कि विवादित किताब पढ़ने पर पाठकों को लगेगा जैसे बाबा रामदेव एक अपराधी किस्म के व्यक्ति हैं, जिन्होंने प्रसिद्धि, सफलता और पैसा पाने के लिए हर हद पार कर दी है । ऐसी स्थिति में निश्चित रूप से याचिकाकर्ता की छवि को अपूरणीय क्षति होगी।और इसीलिये बाबा को राहत देते हुए इस किताब के प्रकाशन और बिक्री पर रोक लगा दी । अब अदालत का यह फ़ैसला भी उच्चतर अदालत में एक विवादित विषय है । जो बाबा शिरोमणि भारतीय राज्य के शीर्ष पर होने, और किसी को भी देख लेने का का दंभ भरता है, उसे भारतीय पाठकों का गुरिल्ला युद्ध बुरी तरह से परेशान किये हुए हैं। इस किताब की आज चर्चा चारों ओर चल पड़ी है ।
एक के बाद एक, उनके जीवन के सोपानों के रहस्यों से गूँथ कर बनाई गई इस अढ़ाई सौ पन्नों की रहस्य गाथा में वैसा ही प्रवाह है जैसा हम अक्सर तिलस्मी कहानियों या जासूसी उपन्यासों में पाते हैं । हरियाणा के सैद अलिपुर गाँव के एक किसान का मरियल बेटा, जो खेती के काम का नहीं था, किसी रोगवश टेढ़ा देखने के कारण बचपन में गाँव का 'काणिया' रामकिशन यादव आज बाबा शिरोमणि बन कर भी अपना असली जन्म दिन किसी को नहीं बताता । 9 अप्रैल 1995 के दिन जब हरिद्वार में कनखल के कृपालुबाग आश्रम में प्रवेश के लिये उसने आश्रम के मालिक शंकर देव जी महाराज से गेरुआ वस्त्र धारण किया था, उस दिन को ही वह अपना जन्मदिन मानता है ।
लेकिन प्रियंका की कहानी से ही आगे पता चलता है कि शंकर देव तो रामदेव के मित्र कर्मवीर से प्रभावित होकर उसे अपनी विरासत सौंपना चाहते थे । कर्मवीर आदर्शनिष्ठ आर्य समाजी था, उसे ऐसे आश्रम की ज़िम्मेदारी स्वीकार्य नहीं थी क्योंकि वह उसके आर्यसमाजी विचारों के विपरीत मूर्ति-पूजा की, घंटा-घड़ियालों की जगह थी । उसने शंकरदेव के प्रस्ताव को विनम्रता से ठुकरा दिया ।
लेकिन कुछ दिनों बाद असम के अपने किसी सेवा शिविर के दौरान रामदेव ने कर्मवीर को समझाया कि सेवा के अपने काम को चलाने के लिये ही हमें अपने पैरों के नीचे ज़मीन चाहिए ; क्यों न हम कृपालुबाग में घुस जाते हैं !
और वहीं से कर्मवीर, रामदेव और बालकृष्ण तीनों मित्र शंकर देव के पास पहुंच गये । आश्रम की एक समस्या थी कि उसकी ज़मीन पर बने घरों में कई पुराने किरायेदार रहते थे, और शंकरदेव को चिंता थी कि उनके आँख मूँद लेने के बाद ये किरायेदार ही पूरे आश्रम की ज़मीन पर क़ब्ज़ा कर लेंगे । इसीलिये उन्होंने इन तीन मित्रों से एक करारनामा करके सभी किरायेदारों को उजाड़ने का इन्हें ठेका दे दिया । दिव्य योग मंदिर ट्रस्ट का गठन हुआ जिसमें कर्मवीर ने रामदेव को अध्यक्ष बनवा दिया । हरिद्वार में जब बिल्कुल शुरू में अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद रामदेव आया था, तब कर्मवीर के पास ही उतरा था और उसी ने अपनी कोठरी में रामदेव को यह शपथ दिलाई थी कि वह किसी भी सेवा कार्य के लिये कभी किसी से पैसे नहीं लेगा ।
कहना न होगा, रामदेव के दिव्य योग मंदिर की आधारशिला रखी गई थी कृपालुबाग आश्रम की ज़मीन पर सालों से रह रहे किरायेदारों को उजाड़ने के ठेके के साथ । कृपालुबाग आश्रम में ही रामदेव ने शंकरदेव का बाक़ायदा वारिस बनने के लिये अपने आर्यसमाजी सिद्धांतों की तिलांजलि देकर 9 अप्रैल 1995 के दिन शंकर देव के हाथ से गेरुआ वस्त्र धारण करके संन्यास लिया । उनकी नज़र टिकी हुई थी कृपालुबाग आश्रम की संपत्ति पर । अर्थात् संन्यास भी लिया संपत्ति के लिये ! इस किताब से ही यह भी पता चलता है कि बारह साल बाद 14 जुलाई 2007 के दिन अत्यंत रुग्ण अवस्था में वृद्ध और लगभग कंगाल शंकर देव, अर्थात रामदेव के मानस पिता जब अपने आश्रम से अचानक ग़ायब हो गये, उस समय अमेरिका के शिकागो शहर में डालर गिन रहे रामदेव के पास देश लौट कर इस विषय की सुध लेने की भी फ़ुर्सत नहीं थी ! और उसी का वारिस घोषित करने के दिन को रामदेव अपना असली जन्मदिन बताते हैं !
रामदेव के दिव्या फ़ार्मेसी का लाइसेंस जिस विधिवत वैद्य योगानंद आश्रम के स्वामी योगानंद के नाम पर था उस दीन-असहाय वैद्य की 27 दिसंबर 2004 की रात के अंधेरे में छुरा मार कर तब हत्या कर दी गई जब दिव्या फ़ार्मेसी की दवाओं का अपना एक बाजार बन चुका था और इसके साल भर पहले ही 2003 में रामदेव ने उनकी जगह अपने कुछ गुमाश्तों वैद्यों के नाम से दिव्या फ़ार्मेसी के लाइसेंस का पंजीकरण करवा लिया था । अंत तक पुलिस को इस हत्या का कोई सुराग़ ही नहीं मिल पाया ।
रामदेव का सबसे क़रीबी दोस्त, एक प्रकार से पथ प्रदर्शक और शंकर देव के कनखल के कृपालुबाग आश्रम में रामदेव को ले जाने वाले कर्मवीर ने उसके क्रमश: खुल रहे रामदेव के लोभी चरित्र को देख कर उसका साथ छोड़ दिया । 25 मार्च 2005 के दिन बिना किसी से कहे एक गाड़ी में बैठ कर वह कृपालुबाग़ आश्रम से चला गया ।
कृपालुबाग आश्रम में ही 1997 में दस-बारह लोगों को लेकर कर्मवीर की देखरेख में रामदेव का पहला योग शिविर लगा था । जड़ी-बूटियों और आयुर्वेदिक दवाओं के जानकार बालकृष्ण के च्यवनप्रकाश को साइकिल पर घर-घर बेचने के बाद उसकी दवाओं का उत्पादन दिव्या फ़ार्मेसी के लेबल में यहीं पर शुरू हुआ था ।
हरिद्वार के तमाम मठों-आश्रमों में बैठे कई साधु-संन्यासियों के एक खास प्रकार के जीवन की तरह ही रामदेव और उसकी मित्र-मंडली का जीवन अपनी एक गति से चलने लगा । इसके साथ दिव्या फ़ार्मेसी में डाक्टर के मुफ्त देखने की व्यवस्था ने उस क्षेत्र के ज़रूरतमंद लोगों को आकर्षित किया और उसी सिलसिले में देहरादून की कम्प्यूटर प्रोग्रामर राधिका नागर्थ का बालकृष्ण से परिचय हुआ और उसने दिव्या फ़ार्मेसी का एक लोगों और वेबसाइट भी तैयार कर दिया । रामदेव और कर्मवीर योगा शिक्षक के रूप में धीरे-धीरे उस क्षेत्र में नाम कमाने लगे थे ।
इसी काल में सन् 2002 में रामदेव के जीवन में एक बड़ा और नया मोड़ आया जब मुंबई में 'आस्था' और 'संस्कार' के धार्मिक चैनलों से उसका संपर्क हुआ । ये चैनल इलाहाबाद के एक पत्रकार माधव मिश्रा के मस्तिष्क की उपज थे, जिसने सीएमएम ब्रोडकास्टिंग के सीईओ किरीत मेहता को इस प्रकार के धार्मिक चैनल के लिये प्रेरित किया था । इसी वर्ष महाकुंभ मेला के प्रसारण में 'आस्था' को ज़बर्दस्त सफलता मिली । 'आस्था' के महीने भर बाद ही दिलीप काबरा ने एक और धार्मिक चैनल 'संस्कार' शुरू कर दिया था । 'आस्था' ने देखते-देखते अपनी अन्तरराष्ट्रीय शाखाएँ भी खोल ली।
इसी माधव मिश्रा ने ही हरिद्वार में रामदेव और कर्मवीर के एक योगशिविर में रामदेव की पेट को घुमाने की नौली क्रिया को देखा और उसने इस क्रिया के प्रदर्शन के बाजार मूल्य को भाँप लिया । वह रामदेव को मुंबई ले गया । 'आस्था' वालों को तो इस साधू का खेल समझ में नहीं आया लेकिन 'संस्कार' वाले इसे मौका देने लिये तैयार हो गए और देखते ही देखते टेलिविजन के नये माध्यम पर सवार होकर पेट घुमाता हुआ रामदेव देश और सारी दुनिया में फैलता चलता गया । देश-विदेश में उसके शिविरों में भीड़ उमड़ने लगी और रामदेव योग कसरत के तूफ़ानी दौरों से दोनों हाथों से रुपये बटोरने लगा । नाना प्रकार के चंदे रामदेव की झोली में आने लगे । ख़ास तौर पेट को घुमाने वाली नौली क्रिया उसके प्रदर्शन के इस खेल में खूब काम आई । घूमता हुआ पेट दर्शकों को चकरा देने के लिये काफ़ी था । सोलह सौ साल पहले की पतंजलि की प्राणिक क्रियाओं का बाजार के एक लोकप्रिय बिकाऊ माल के रूप में पुनरावतार हुआ । राजनीतिज्ञों ने भी उसके दरबार में हाज़िरी लगा-लगा कर उसे प्रकृत अर्थों आज के काल का बाबा शिरोमणि बना दिया । रंगीन तबियत के कांग्रेस के उत्तराखंड के मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी और समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह यादव रामदेव के प्रमुख संरक्षक बन गये ।
प्रियंका ने इस किताब में आगे काफी विस्तार के साथ 'आस्था' चैनल के मालिक किरीत मेहता और 'संस्कार' के काबरा आदि के साथ रामदेव के व्यवहार की, हरिद्वार बुला कर एक बंद कमरे में डरा-धमका कर किरीत मेहता से उसके चैनल के सारे शेयरों को अपने नाम लिखा लेने की कहानी सुनाई है । आज इन दोनों चैनलों की पूरी मिल्कियत रामदेव की कंपनियों के पास ही है ।
इस किताब में एक बहुत ही दिलचस्प चरित्र आता है राजीव दीक्षित का । योग कसरत गुरू का कायांतर एक स्वदेशी के प्रचारक गुरू के रूप में करने वाले राजीव दीक्षित का । वह रामदेव के संपर्क में 2008 में आता है । उसके साथ मिल कर 'भारत स्वाभिमान आंदोलन' का प्रारंभ होता है जो राजनीति के क्षेत्र में रामदेव के सीधे प्रवेश की सूचना थी । इसके साथ मिल कर ही रामदेव ने भारत स्वाभिमान यात्रा की । लेकिन इस यात्रा के दो महीने बाद ही 30 नवंबर 2010 को अपने 42 वें जन्मदिन पर छत्तीसगढ़ के बेमेतारा में आर्य समाज के एक होस्ट हाउस में राजीव मरा हुआ पाया जाता है । प्रियंका ने राजीव की इस असमय मृत्यु और हरिद्वार में उसके दाह-संस्कार के विषय पर विस्तार से लिखा है जिससे पता चलता है कि राजीव के क़रीबी लोगों की तीव्र माँग के बावजूद रामदेव ने सिर्फ अपनी ताकत के बल पर राजीव के शव का पोस्ट मार्टम नहीं होने दिया ।
इसी प्रकार इस किताब में और भी कई चरित्र आते हैं जिनके बयानों से पता चलता है कि रामदेव अपने संपर्क में आने वाले लोगों को चूस कर, मसल कर कैसे अपने कारोबार का विस्तार करता चला गया है । इनमें एक प्रमुख नाम है जबलपुर के भानु फ़ार्म्स के सीईओ एस के पात्र। उसके मार्फ़त पतंजलि में मज़दूरों के लिये काम की परिस्थिति का जो चित्र मिलता उससे इस बाबा की बेशुमार सत्ता लिप्सा का ही नहीं, उसके धोखा और बेईमानी से भरे वाणिज्यिक व्यवहार का अभी पता चलता है, जिससे आतंकित होकर पात्रा इस संगठन से अंत में भाग खड़ा था । पतंजलि के कारख़ाने के मजदूर की औसत मजूरी सिर्फ 6000 रुपये प्रति माह बताई गयी है ।
इसमें एक अध्याय 'बृंदा करात का प्रवेश' शीर्षक से है जिसमें पतंजलि के कर्मचारियों के साथ घनघोर अन्याय के विरोध में सीआईटीयू के साथ बृंदा की रामदेव से टक्कर होती है । कर्मचारियों के सहयोग से ही बृंदा रामदेव की औषधियों में अघोषित पदार्थों के प्रयोग का मुद्दा भी उठाती है । रामदेव ने मीडिया और राजनीतिज्ञों के बीच अपने असर और पैसों के बल पर बृंदा को विदेशी कंपनियों का दलाल बताते हुए उसके खिलाफ जो अभियान चलाया, उससे रामदेव ने राजनीतिक विरोधियों पर हावी होने का गुर सीख लिया जो आगे भी उसके काम आता रहा । और इसी घटना से यह भी जाहिर हुआ कि अपने उत्पादों में मिलावट करने से रामदेव को जरा भी परहेज़ नहीं है । उनकी यह प्रवृत्ति कैसे उनके कारोबार के विस्तार के साथ प्रबल से प्रस्तर होती चली गई, प्रियंका पतंजलि के कई उत्पादों , खास तौर उसके घी, मंजन आदि की गड़बड़ियों के ब्यौरे से बताती है । दूसरी जगहों से सफ़ेद मक्खन को मँगा कर उसे पिघला कर वह गाय के दूध से बने शुद्ध घी के तौर पर बेचता है । इस सफ़ेद मक्खन में गाय, भैंस, बकरी और दूसरे किसी जानवर का दूध मिला हो सकता है, इसकी उसे कोई परवाह नहीं है । विभिन्न जगह से बटोर कर लाये गये उत्पादों पर अपना ठप्पा लगा कर बेचना, रामदेव का आज प्रमुख धंधा है ।
2016 के दिसंबर महीने में हरिद्वार की ज़िला अदालत ने पतंजलि आयुर्वेद पर झूठे विज्ञापन और दूसरे के उत्पाद को अपना उत्पाद बताने के अपराध में 11 लाख रुपये का जुर्माना लगाया तो 18 अप्रैल 2017 में हरियाणावासियों के फुड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने पतंजलि के गाय के घी को घटिया और स्वास्थ्य के लिये हानिकारक पाया। इसी प्रकार पतंजलि के नूडल्स में कीड़े पाये गये । सेना के लोगों को सामान बेचने वाले कैन्टीन स्टोर्स डिपार्टमेंट (सीएसडी) ने पतंजलि के ऑवला के जूस को घटिया और हानिकारक पाया । पतंजलि के अधिकांश उत्पाद अन्य स्थानों से खरीद कर उन पर पतंजलि की छापेगा कर बेचे जाते हैं और इनकी गुणवत्ता पर नियंत्रण के लिये उनके पास कोई वैज्ञानिक और सही व्यवस्था नहीं है ।
इस पूरी किताब का सबसे दिलचस्प चरित्र है - बालकृष्ण, रामदेव का दाहिना हाथ और पतंजलि की सभी कंपनियों के लगभग 90 प्रतिशत शेयर का मालिक । रामदेव ने अपने संन्यासी रूप की प्रामाणिकता को कायम रखने के लिये अपने और अपने परिवार के लोगों के नाम एक प्रतिशत शेयर भी नहीं रखा है, लेकिन इस किताब का हर पन्ना उनके लोभी और षड़यंत्रकारी अपराधी प्रवृत्ति वाले चरित्र की गवाही देता है । ऐसे में आज रामदेव और बालकृष्ण के बीच का संबंध हमें एक बहुत बड़े रहस्य की गुत्थी जैसा लगता है, और हमारी नज़र में इस बाबा शिरोमणि की आगे क्या गति रहेगी, इसका अनुमान इस संबंध की गति से ही सबसे प्रकट रूप में सामने आयेगी ।
कुल मिला कर बाबा रामदेव की यह कहानी प्रेम, सेक्स , धोखा की तरह की ही एक लोमहर्षक कहानी की तरह है । वैसे भी बाबाओं का हर मामला ऊपर से जितना सुलझा हुआ दिखाई देता है, भीतर से उतना ही उलझा हुआ होता है ।
प्रियंका ने रामदेव के बारे में शुरू में ही लिखा है कि "उसके साथ घंटे भर की बैठक के बाद आपको एक करीबीपन के साथ ही एक धुँधलापन महसूस होने लगता है, और तब आपको लग सकता है कि आप तो बेवक़ूफ़ बन गये , कि रामदेव के बारे में आप कुछ भी नहीं जान पाएँ । "
इसीलिये इसके हर अंश के आख्यान में रहस्यों से जुड़ा रोमांचकारी आकर्षण शुरू से अंत तक बना रहता है । इसमें कोई शक नहीं है कि इस बाबा शिरोमणि का जब भी पूरा भांडा फूटेगा, रामरहीम की तरह ही उसके विस्फोट के धक्के में राजनीतिक गलियारों के भी अनेक कोने हिलते हुए दिखाई देंगे ।
हम जानते हैं इन बाबाओं का अनियंत्रित लोभ और इनकी बेक़ाबू वासनाएँ इनके अंत का प्रमुख कारण होती है । रामदेव ने बाक़ायदा एक बड़े व्यापारी घराने का रूप ले लिया है । इसीलिये उसके पास यह रास्ता खुला हुआ है कि कभी भी वह अपने को शुद्ध व्यापारी घोषित करके संन्यास की चादर को उतार फेंके । अन्यथा उनके चरित्र की अभी से प्रकट हो रही विसंगतियाँ कब उन्हें आशारामों, रामपालों और गुरमीतों की पंगत में बैठा देगी, ख़ुद उन्हें पता भी नहीं चलेगा ।
प्रियंका ने इस किताब में रामदेव को आज एमएमसीजी ( फ़ास्ट मूविंग कंज्यूमर गुड्स ) की दुनिया में एक तूफान मचा देने और इस क्षेत्र के देशी-विदेशी तमाम खिलाड़ियों की सजी-सजायी बगिया को तहस-नहस कर देने वाला एक भंजक व्यक्ति कहा है । हम एक व्यापारी रामदेव की इस भूमिका में कोई दोष नहीं देखते हैं । अमेरिकी बहु-राष्ट्रीय कंपनियों ने भी उचित-अनुचित का बिना कोई लिहाज किये सारी दुनिया पर अपने वाणिज्यिक वर्चस्व को कायम कर रखा है । इसमें अनेक प्रकार की अनैतिकता, करों की चोरी से लेकर उपभोक्ताओं को भरमाने और गलाकाटू प्रतिद्वंद्विता आदि को व्यापार के सामान्य नियम मान लिया गया है । इजारेदारी की पूरी प्रक्रिया हमेशा संपत्तिहारकों के संपत्तिहरण के जरिये ही चला करती है ।
लेकिन यहाँ भी रामदेव की एक अतिरिक्त समस्या है । उसे अपने उत्पादों की गुणवत्ता के बजाय अन्यों के उत्पादों को बदनाम करने पर ज्यादा भरोसा है । मोदी-राजनीति का व्यापारिक प्रतिरूप । अपने निकम्मेपन और भ्रष्टाचार पर पर्दादारी के लिये दूसरों पर मनमाना लांक्षण । नोटबंदी की तरह की भयंकर रूप से विफल नीति की पैरवी में वे दूसरों पर भ्रष्टाचार का समर्थक होने की बेबुनियाद तोहमतें लगाते रहते हैं ।
बहरहाल, रामदेव की सबसे बड़ी समस्या है कि वह अपने को साधू-संन्यासी कहता है, लोभ-लालच से कोसों दूर, नीति-नैतिकता का प्रतीक । व्यापार और संन्यासीपन तत्त्वत: दो विरोधी चीज़ें हैं । इसीलिये बाबा रामदेव की व्यापारिक अनियमितताएँ, नाना प्रकार से लोगों को ठगने और दूसरों के धन को हड़पने की उनकी तिकड़में दुहरा अपराध हो जाती है । ऐसी मानसिकता के व्यक्ति का और बड़े-बड़े अपराधों की दिशा में बढ़ने की प्रवृत्ति उसकी शक्ति के विस्तार के समान अनुपात में बढ़ती जाती है । आने वाले दिनों में अपराधों की दुनिया में आकंठ डूबे व्यक्ति के रूप में बाबा को देखने की हम सहज ही कल्पना कर सकते हैं और यहभारत के आस्थावान अविवेकशील लोगों के लिये किसी आघात से कम नहीं होगा ।
आज आशाराम, रामपाल और राम रहीम की तरह के भारी समर्थकों वाले बाबाओं के ताज़ा अनुभवों से बेशक यह कहा जा सकता है कि इन बाबाओं ने पूरे समाज को नष्ट कर रखा है । लेकिन सवाल है कि क्या किया जा सकता है ? आम लोगों का सांस्कृतिक जीवन ऐसे तत्वों से ही भरा हुआ है । ज़रूरत है वैकल्पिक विवेकसंगत रुचियों के पूरे धीरज के साथ विकास की । इन पर कोरे हमले से आम लोगों का एक हिस्सा अपने को अकेला और सांस्कृतिक लिहाज से विरेचित पाने लगता है ।
यह सच है कि अभी के राजनीतिक समर्थन से इनके अपराधी चरित्र में एकाएक बहुत वृद्धि हो गई है । अन्यथा ऐसे भी अनेक बाबा और संत लोग हैं जो कोरे प्रदर्शनकारी कामों से दूर लोगों को शान्ति से कुछ आध्यात्मिक सरोकारों से बाँधे रखते हैं ; समाज को इतना नुक़सान नहीं पहुँचाते हैं । लेकिन इस प्रकार के प्रदर्शन प्रेमी और लोभी बाबाओं के सरोकार भिन्न होते है, मुख्य रूप से अपराधी सरोकार ।
प्रियंका पाठक नारायण ने कड़ी मेहनत से, तमाम प्रामाणिक स्रोतों को आधार बना कर इस बाबा-व्यापारी शिरोमणि की जो कहानी कही है, उसके लिये उन्हें साधुवाद ।
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