-अरुण माहेश्वरी
प्रकाश करात ने फिर एक बार परिस्थितियों के नये संयोग से उत्पन्न नये वृत्त का क़यास लगा कर उसमें से कांग्रेस को अलग रखने की बात को जिस प्रकार दोहराया है, उसमें नरेंद्र मोदी की तरह की ही इस ज़िद को देख कर पता चलता है कि यदि मोदी को वर्तमान संसदीय जनतंत्र रास नहीं आ रहा है, तो क्रांतिकारी प्रकाश करात भी इसे खुले मन से स्वीकारने के लिये तैयार नहीं है । प्रकाश करात राजनीतिक संयोग के इस नये बिंदु को कुछ इस प्रकार रख रहे हैं कि भाजपा ने कांग्रेस को हटाकर अपना शासन कायम किया, अब भाजपा के खिलाफ भी जन-असंतोष के बीज पड़ चुके हैं और यह मान लिया जा रहा है कि मोदी शासन का भी अवश्यंभावी अंत होगा और उसकी जगह एक नया शासन कायम होगा । प्रकाश इस नये शासन की रूप-रेखा कुछ इस प्रकार रख रहे हैं जिसमें कांग्रेस के लिये कोई जगह नहीं होगी । ( देखे, ‘हिंदू’ के 29 नवंबर 2017 के अंक में ‘CPI(M) cannot be part of an alliance with the Congress: Prakash Karat’ )
इस सोच की सबसे बड़ी कमी यह है कि इसने कांग्रेस की पराजय को उसी प्रकार उसका अंत मान लिया है जैसे अब भाजपा की आसन्न पराजय को भी उसका अंत मान कर चला जा रहा है । जय-पराजय के ये वृत्त स्वयं में कितने ही सार्वभौम क्यों न हो, संसदीय जनतंत्र के राजनीतिक महा-व्योम के क्षितिज से इन्हें अलग करके नहीं देखा जा सकता है । इसे कभी नहीं भूलना चाहिए कि ये सारी प्रक्रियाएँ अपने चक्र को पूरा करके अंतत: उसी में विलीन हो रही है और उसे ही संपुष्ट करती है । मोदी की आसन्न पराजय यदि इस वृत्त से अलग होकर फासीवादी शासन के अपने वृत्त में प्रवेश करने में असफल होती है तो उसी प्रकार अभी किसी समाजवादी समाज-व्यवस्था के नये वृत्त का निर्माण तो इतना दूरस्थ है कि उसकी चर्चा कोरे क्रांतिकारी बचकानेपन के अलावा और कुछ नहीं कहला सकती है ।
मोदी अपने उद्दंड स्वभाववश संसदीय जनतंत्र को फासीवाद से अपसारित करने को व्याकुल है तो प्रकाश अपनी बचकानी ‘क्रांतिकारिता’ के स्वभाववश उसे समाजवाद से अपसारित करना चाहते हैं। यहाँ सबसे मजे की, और गौर करने की बात यह है कि दोनों के ही अपने कल्पित और इप्सित नये वृत्त में भारत के दूसरे सभी दलों के लिये जगह हो सकती है लेकिन जिसके लिये कोई जगह नहीं है, वह है कांग्रेस के लिये ।
कहना न होगा, मोदी और प्रकाश के मनोगत संसार का यही सच भारतीय राजनीति में कांग्रेस की स्थिति को सबसे ठोस रूप में परिभाषित करता है । कांग्रेस का जन्म, उसका जीवन और उसका अंत भारत में समाज-व्यवस्था के जिस वृत्त का प्रमाण और प्रमेय है वह संसदीय जनतंत्र है । आज मोदी और प्रकाश की व्याकुलता के पीछे उनके कार्यों का अपना कोई भी क्षितिज हो सकता है, लेकिन यथार्थ यह है कि अभी तक उनके इस क्षितिज की अपनी कोई सार्वभौम सत्ता नहीं बन पाई है । इसीलिये तो प्रकाश की तरह के तत्व-ज्ञानी भ्रमवश मोदी को पूरी तरह फासीवादी नहीं मानते, जैसे अनेक लोग सीपीएम को पूरी तरह से क्रांतिकारी नहीं मानते और सीपीएम के अंदर भी प्रकाश के गुट के लोग अन्यों को संसदीय विभ्रमों के शिकार मान कर पूरी तरह से क्रांतिकारी नहीं समझते ।
देखना सिर्फ यह है कि प्रकाश करात की यह क्रांतिकारिता कितनी यथार्थ-सम्मत है, यह उस राजनीतिक विवेक के कितना अनुरूप और संगतिपूर्ण है जिसे हासिल करके समाजवाद नहीं, ‘जनता का जनवाद’ (People’s Democracy) की स्थापना के लिये सीपीआई(एम) का जन्म हुआ और वह आज तक जिस पर घोषित रूप से कार्यरत है । जिस राजनीतिक विवेक ने भारतीय राजनीति के इस सत्य को भी अंगीकार किया है कि जनता का जनवाद एकदलीय नहीं, बहु-दलीय राजनीतिक व्यवस्था होगी । इसके अलावा, देखना यह भी है कि क्या सीपीआई(एम) का ‘जनता का जनवाद’ का काम पूरा हो गया है, अर्थात उसका पूर्ण काम हो चुका है और अब उसे बिल्कुल नई समाज-व्यवस्था, संसदीय जनतंत्र से पूरी तरह स्वतंत्र, समाजवादी व्यवस्था के लिये काम करना है ?
हम जानते हैं कि प्रकाश करात के पास पूरे विषय की इन गहराइयों में प्रवेश करके अपने विकल्प का संस्कार करने, उसे दुविधाओं से मुक्त करके उसमें क्या छोड़े और क्या अपनाए के लिये जरूरी विवेक की कमी है । वे अर्से से एक ऐसे मठ के महंत बने हुए है जिसके अनुयायियों का बहुमत मंत्रों के जाप से आगे बढ़ कर वैविध्यमय यथार्थ को साधने की स्वतंत्र दृष्टि से परहेज़ करता हैं । इसीलिये न उन्हें वामपंथ की सही शक्ति का कोई अनुमान है और न उनके पास अपनी शक्ति के विकास के लिये जरूरी उपायों को साधने की कोई सही रणनीति की परिकल्पना है ।
हाल में दिल्ली में हुए मज़दूरों के महापड़ाव और किसानों के प्रदर्शनों के बावजूद यही सच है कि भारतीय वामपंथ की इतनी स्वतंत्र शक्ति नहीं है कि वह अपनी किसी अभीष्ट दिशा में इस प्रकार बढ़ सके जिसमें उसके लिये किसी उपयांतर की ज़रूरत नहीं है । वामपंथ की सारी रणनीति उपयांतर सापेक्ष है, अपने पक्ष में शक्ति-संतुलन कायम करने की व्यवहारिक राजनीति की कार्यनीति के सापेक्ष है । इसमें भटकावों के सभी ख़तरों के बावजूद वह अपने क्रांतिकारी विचारों की विश्वमयता और शुद्धता की स्वातंत्र्य शक्ति के जरिये इन ख़तरों से पैदा होने वाली जड़ताओं को तोड़ पाती है ।
सच यही है कि कोई भी रचनाशील विचार का उसके मूर्त रूपों से कभी कोई विरोध नहीं होता है । वह हमेशा इनकी अनुमति देता है, इसीलिये उसका सर्वत्र संक्रमण भी हो पाता है । व्यवहारिक राजनीति के अपने इन मूर्त रूपों से ही वह दृश्यमान होता है, अन्यथा वह कोरा वाग्जाल बना हुआ हमेशा अदृष्ट ही रहेगा ।
क्रांतिकारी लक्ष्य को सिद्धांततः मान कर चलना कोई मुश्किल काम नहीं है, लेकिन जब वे लक्ष्य व्यवहारिक राजनीति में किसी प्रकार मूर्त या दृष्ट ही नहीं होंगे तो ये लक्ष्य अदृष्ट, और बिना किसी काम के ही बने रहेंगे । उग्रवादी वामपंथ की गतिविधियों और लफ्फाजियों के हश्र से ही कम से कम इतना तो सीखा ही जा सकता है ।
इसीलिये यथार्थ-विमुख अनुत्तर सिद्धांत चर्चा निरर्थक है । जरूरी होता है एकाग्रचित्त हो कर प्रत्यक्ष यथार्थ से अपने लक्ष्य का एकात्म्य करना । इसी से खुद वामपंथ को अपनी जड़ता से मुक्त होने का नया रास्ता भी मिल पायेगा ।
मोदी की जीत भी शुद्ध कांग्रेस-विहीनता अर्थात संसदीय जनतंत्र के अंत पर आधारित नहीं थी । इसके पीछे कांग्रेस शासन की अपनी विफलताएँ रही हैं । जीतने के बाद मोदी ने उदार जनतंत्र की जगह अपने फासीवाद लक्ष्य को साधने के लिये कांग्रेस-विहीनता का थोथा नारा देना शुरू कर दिया, जो अब सिर्फ तीन साल में ही खोखला साबित हो रहा है । प्रकाश इसे ही संयोग का एक ऐसा बिंदु मान रहे हैं जब मोदी का अंत वामपंथ के उदय का हेतु बनेगा और उनकी नज़र में जिस कांग्रेस को मोदी ने ‘खत्म’ कर दिया है, वह आगे भी ‘ख़त्म’ ही रहेगी !
लगता है प्रकाश करात आज के हालात में ऐसी बातें करके वामपंथ को खोखला करने की अपनी ऐतिहासिक भूमिका को उसके स्वाभाविक अंत तक पहुँचाना चाहते हैं, और इसे वे योग के प्रथम चरण में योगी के द्वारा अपने को अपनी ही सभी उपलब्धियों के संस्कारों तक से मुक्त कर लेने की शून्यावस्था तक पहुंच कर नये योग चक्र में प्रवेश की साधना समझ रहे हैं ।
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