- अरुण माहेश्वरी
अभी गुजरात और हिमाचल प्रदेश का चुनाव प्रचार समाप्त हुआ है । और हम फिर एक बार साक्षी हुए भाषाई प्रयोग के ऐसे अतिचार के जिन्हें चालू शब्दों में भाषाई मर्यादा का अतिक्रमण कहा जा सकता है ।
यह सच है कि सामाजिक मर्यादाओं की अगर किसी एक धरातल पर सूक्ष्मतम अभिव्यक्ति होती है तो वह भाषाई धरातल है । जब भी कोई विचार या दर्शन उपलब्ध भाषा की मर्यादा की सीमा में ही बंधा रहता है, यह तय है कि वह अपने को स्वीकृत मान-मूल्यों से परे जाने की संभावनाओं से काट लेता है । वह जो उपलब्ध है उसे ही सार्वभौम सत्य मान कर उससे जकड़ा रहता है ।
लेकिन जब विचार किसी एक मान-मूल्य से बाहर जाकर किसी दूसरे सार्वभौम सत्य की दिशा में बढ़ता है, उसका रूप स्वाभाविक तौर पर बदलने लगता है । यह भाषा में जीवन के चालू ढर्रे की अस्वीकृति का पहला संकेत होता है ।
इसीलिये राजनीति में भाषा के प्रयोग में आने वाले परिवर्तनों से हम राजनीति के सार्वभौम सच में हो रहे परिवर्तनों का संकेत भी पा सकते हैं । यह महज कोई एक सामयिक भटकाव नहीं होता है बल्कि बहुत गहरे जाकर नई सामाजिक स्थितियों को भी दर्शाता है ।
सन् 2014 में जब मोदी के उदय के साफ संकेत दिखाई देने लगे थे, तो उनके साथ आने वाले राजनीतिक परिवर्तनों और उनकी पृष्ठभूमि में काम कर रहे सामाजिक बदलावों का सबसे बड़ा प्रमाण मिला था राजनीति में ट्रौल वाहिनी के प्रवेश के साथ । यह सिर्फ इंटरनेट के जरिये राजनीतिक प्रचार में किसी संगठित शक्ति के उतरने की सचाई नहीं थी । इसके साथ सार्वजनिक तौर पर अकल्पनीय गाली-गलौज से भरी एक राजनीतिक भाषा का भी हमारे जीवन में प्रवेश हुआ था । स्त्रियों के प्रति बलात्कार की धमकियों से लेकर किसी को भी माँ-बहन की गालियाँ देना इसमें आम बात दिखाई दे रही थी ।
स्वाती चतुर्वेदी ने अपनी पुस्तक ‘आई एम अ ट्रौल’ में इस घटना-क्रम को तमाम साक्ष्यों के साथ नोट किया है और यह भी बताया है कि किस प्रकार खुद नरेन्द्र मोदी की सीधी कमान में भाजपा के आईटी सेल का गठन हुआ है जो प्राय: एक ट्रौल उद्योग की शक्ल ले चुका है । इसमें हज़ारों लोगों को बाक़ायदा वेतनभोगी कर्मचारियों के रूप में नियुक्त किया गया है ।
स्वाती चतुर्वेदी एक खोजी पत्रकार है जो अभिव्यक्ति की आजादी को ही अपनी रोजी-रोटी बताती है। अब तक उनके खिलाफ सरकारी गोपनीयता कानून के तहत भारत सरकार की ओर से कई मुकदमें दायर हो चुके हैं। स्वाती ने अपनी किताब में सोशल मीडिया के ट्रौल्स को ऑनलाइन गुंडे बताया है, जो भड़काऊ बातों अथवा तस्वीरों के जरिये लोगों से पंगा लिया करते हैं, गाली-गलौज करके सामने वाले के मिजाज को खराब करते हैं। खुद स्वाती आरएसएस और भारतीय जनता पार्टी के ऐसे गुंडों की शिकार बनती रही है, जो स्वाती के बारे में न जाने कितने प्रकार कामुक कहानियां बना-बना कर, गंदी से गंदी बातों की झड़ी लगाते रहे हैं। अपने अलावा टीवी के एंकर बरखा दत्त और राजदीप सरदेसाई की तरह के लोगों के खिलाफ इनके द्वारा चलाये गये अभियानों का बयान करते हुए स्वाती ने बताया है कि कैसे इस प्रकार के काम में बौलीवुड के गायक अभिजीत की तरह के लोग भी शामिल होते हैं।
स्वाती ने अभिजीत के गंदे और धमकी भरे ट्विट सहित ढेर सारे अन्य ट्विट को अपनी किताब में संकलित किया है। इसमें एक महत्वपूर्ण कहानी आरएसएस की इंटरनेट शाखाओं के बारे में है। और उसमें सबसे ज्यादा उल्लेखनीय तथ्य यह है कि खुद हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इस पूरी गुंडा वाहिनी के सरगना की तरह काम करते हैं। भाजपा के इस आईटी सेल का प्रमुख है -अमेरिका से आया हुआ अरविंद गुप्ता, जो सीधे नरेन्द्र मोदी के संपर्क में रहता है। 2014 के चुनाव के वक्त वह हर रोज रात के समय नरेन्द्र मोदी से बात करके यह तय करता था कि कल किसके खिलाफ घिनौना अभियान चलाना है और दूसरे दिन ट्विटर, फेसबुक और व्हाट्सअप पर लगी हुई सैकड़ों लोगों की अपनी सेना को वह पूरी कहानी बना कर उस पर लग जाने के लिये दे देता। इन संवादों में वे अपने शिकार के खिलाफ गंदी से गंदी बातों, गालियों आदि का प्रयोग करते थे और खास तौर पर यदि शिकार कोई स्त्री हो तो इनका रूप और भी वीभत्स हो जाता था। फोटो शॉप पर उस स्त्री की गंदी से गंदी तस्वीर तैयार करके किस प्रकार पोस्ट की जाती थी इसकी पूरी कहानी तमाम तथ्यों के साथ स्वाती ने अपनी इस किताब में दर्ज की है।
इसी प्रकार अमेरिका में भी ट्रंप के चुनाव के पहले रूस के पैसों से ऐसा ही एक ऑनलाइन अभियान चलाया गया था जिसमें हिलैरी क्लिंटन के प्रति ऐसे-ऐसे मनगढ़ंत क़िस्सों की बाढ़ ला दी गई थी जिनकी सामान्य मस्तिष्क का आदमी कल्पना भी नहीं कर सकता है ।
स्वाती चतुर्वेदी की किताब की समीक्षा करते हुए इस लेखक ने लिखा था कि इस किताब से फिर एक बार साफ होता है कि भारत में आरएसएस नामक ‘हिदुत्व’ के प्रचार में लगा एक ऐसा गोपनीय संगठन है जिसके पास समाज को देने के लिये कोई स्वस्थ मूल्य नहीं है। यह आज भी अपने पुराने छल, छद्म, धोखाधड़ी, साजिश, हत्या और सांप्रदायिक नफरत के कामों में लगा हुआ है। नई तकनीक का प्रयोग करके इस काम को इसने नई गति दी है।
कहने का तात्पर्य सिर्फ यह है कि राजनीतिक प्रचार की भाषा में दिखाई देने वाला साफ परिवर्तन सिर्फ तात्कालिक राजनीतिक परिस्थिति का ही संकेतों नहीं है, ये एक नई राजनीतिक व्यवस्था और उसकी मर्यादाओं की भी सूचक है । भारत में पिछले साढ़े तीन साल से जो चल रहा है और भाषा के स्तर पर सभी राजनीतिक दलों के प्रचार की भाषा में जो बदलाव दिखाई दे रहे हैं वे किसी न किसी रूप में उदार जनतांत्रिक व्यवस्था के अंत का और गोपनीय संगठनों द्वारा चालित ग़ैर-जनतांत्रिक व्यवस्था के उदय का भी संकेत देते हैं । इस परिस्थिति में उदार जनतांत्रिक चेतना के दायरे की भाषाई मर्यादाओं की रक्षा की लड़ाई भी किसी मायने में कम महत्वपूर्ण नहीं है । फिर भले उस मर्यादा का उलंघन मणिशंकर अय्यर करे या खुद प्रधानमंत्री करे ।
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