- अरुण माहेश्वरी
कोई भी चीज पहली नज़र में जैसी दिखाई देती है, उसे वैसे ही ग्रहण करना हो, तो अलग से कहने के लिये कुछ नहीं होता है । लेकिन थोड़ा सा विषय पर अपने को केंद्रित करके विचार करने से ही वे किसी स्थिर तस्वीर के बजाय अजीब प्रकार से गतिशील दिखाई देने लगेगी । उनके अंदर के परिघटनामूलक सच का बिल्कुल भिन्न चेहरा सामने आने लगेगा । उनकी अपनी वैश्विकता का एक परिप्रेक्ष्य निर्मित होगा, उनका अपना संसार बहुत साफ दिखाई देने लगेगा ।
दरअसल कोई भी आयोजन जब गतानुगतिक, पारंपरिक और लगभग कर्मकाण्डी रूप ले लेता है, उसके पालन का रोमांच जितना भी सुखदायी या गौरवशाली क्यों न हो, उसका एक स्थायी प्रकार का ढाँचा ही उसमें नये रचनात्मक सोच के प्रवेश में बाधक बनने लगता है, वह अपनी जीवंतता को गँवा देता है ।
हमने लेखक संगठन के सम्मेलनों में काफी शिरकत की है , लेकिन जेएलएफ में कभी नहीं गये, इसीलिये वहाँ की गतिविधियों के बारे में जिसे सटीक कहा जा सके, वैसी हमारी कोई अवधारणा भी नहीं है । लेकिन उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर यह साफ है कि ऐसा उत्सव अपने समय की ज्वलंत सामाजिक- सांस्कृतिक समस्याओं पर कभी केंद्रित हो ही नहीं सकता ह, क्योंकि इसके आयोजन का वैसा कोई लक्ष्य ही नहीं है, कह सकते हैं कि उसके अस्तित्व के पीछे ऐसी कोई कामना ही नहीं है । इसीलिये इससे किसी कठिन से कठिन काल में भी एक साहित्यिक-सांस्कृतिक आलोड़न या आंदोलन की उम्मीद करना, खुद को उस पर लादने की एक बलात् कोशिश होगी । वह खुद ऐसा कभी नहीं चाहता। यह मूलत: बड़ी निजी पूँजी के सहयोग से साहित्य के पर्यटन का एक व्यापार है । कोई भी इसका लुत्फ़ उठा सकता है, मौक़ा मिले तो इसमें अपने करतब भी दिखा सकता है । जेएलएफ के इस पहलू को दरकिनार करके आप उस पर किसी सही चर्चा के अधिकारी भी नहीं हो सकते हैं । यह उसके अस्तित्व की प्राथमिक शर्त ही नहीं, समग्र रूप में यह वही है । इसके बाद इसके अंदर सक्रिय नाना तत्वों की गतिविधियों की अपनी परिघटना का सवाल आता है ।
जेएलएफ की तुलना में, पीएलएफ बिल्कुल अलग था । जेएलएफ की उत्सवधर्मिता के बाह्य रूप को इसमें अपनाया गया , लेकिन किसी पर्यटन व्यापार के लिये नहीं, विभिन्न जनोन्मुखी लेखक संगठनों के सम्मेलनों के बंद ढाँचे को तोड़ कर उनकी आत्मा को एक नया रूप देने के लिये । यह आंदोलनमूलक लेखक संगठनों की वैश्विकता के परिप्रेक्ष्य में आंदोलन का एक अलग मुक्त संसार तैयार करने की कामना से प्रेरित आयोजन था । यह पूरी तरह से साहित्य और समाज के ज्वलंत प्रश्नों पर केंद्रित एक साहित्य और विचारों का उत्सव था । प्रतिवादीसाहित्य की बहुलता का उत्सव। मुद्दों पर आधारित साहित्यकारों-कलाकारों का एक प्रकार का सार्वजनिक आयोजन ।
यह सच है कि आज जब समाज में प्रगतिशील विचारों और संस्कृति के सामने अस्तित्व मात्र का एक बड़ा संकट है, उस समय किसी लेखक संगठन के झंडे तले चंद लेखकों की निजी पहल पर ऐसा एक उत्सव आयोजित करना दुस्साहस का काम ही कहलायेगा । इस आयोजन को किसी भी कारणवश ग़लत साबित करने या विवादास्पद बनान की तमाम कोशिशें भी इसी बात की पुष्टि करती है कि प्रगतिशील और जनवादी चिंतन के सामने अस्तित्व का एक बड़ा भारी संकट है । इसमें जो ऊपर से दिखाई देता है, वह भले ही किसी को नापसंद या नागवार लगे, लेकिन जब भी कोई इसकी गतिशीलता के अपने तर्क को पकड़ेगा, उसे इसकी ‘कुरूपता’ उतनी ही मानीखेज और आकर्षक लगने लगेगी, जैसा एक नज़र में कुरूप लगने वाली अनेक महान कलाकृतियों के मामले में हम हमेशा देखते आए हैं ।
जयपुर में पीएलएफ के कार्यक्रम में शामिल होकर हमें इसी एक बहुत ही सुंदर पहलकदमी में शामिल होने की अनुभूति हुई । हमें इसकी व्यवस्था की पारिस्थितिकी को लेकर यह चिंता जरूर हुई कि आख़िर इसका साल-दर-साल अपनी सार्थक भूमिका के साथ टिके रहना कैसे संभव होगा ! इसके ढाँचे में इसकी जीवंतता की रक्षा के लिये जरूरी खुलापन है, इसमें साहित्य और कला की सामाजिक भूमिका की वैश्विकता भी है, लेकिन इसके अपने अर्थशास्त्र का स्वरूप क्या होगा ?
इसमें कोई शक नहीं है कि पूरे हिंदी भाषी क्षेत्र के व्यापक सांस्कृतिक आंदोलन के एक केंद्रीय आयोजन के रूप में इसके विकास में ही इसका भविष्य है । लेकिन अगर वह आंदोलन ही देश में कहीं न दिखाई दे, तो किसकी शक्ति के बूते यह समानांतर साहित्य उत्सव अपने अस्तित्व की रक्षा कर पायेगा ?
इसके अतिरिक्त, जो लोग इसके आयोजन में किसी प्रकार की दूसरी कोई कुमंशा को देख रहे हैं, या दिखा रहे है, हम उनसे सहमत नहीं होना चाहते । हम सिर्फ ऐसे आयोजन की आगे और सफलता की ही कामना कर सकते हैं ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें