ये दीनदयाल उपाध्याय आखिर है कौन ?
-अरुण माहेश्वरी
कल मुगलसराय जंक्शन पर भाजपा के अमित शाह ने जाकर मुगल सराय के नाम को पोंछ कर उसकी जगह ब्राह्मणत्व के सभी तत्वों को समेटे हुए एक दीर्घसूत्री नाम 'पंडित दीनदयाल उपाध्याय' लिख दिया । यह कुछ वैसा ही था जैसा दक्षिण के कुछ राज्यों में हिंदी-विरोधी तत्व बीच-बीच में हिंदी में लिखे साइनबोर्ड पर कालिख पोत आते हैं । यहां हिंदू सांप्रदायिक मानस ने निशाना 'मुगलसराय' को बनाया है !
बहरहाल, ये पंडित जी आखिर हैं कौन ?
बी डी सावरकर ने एक बार आरएसएस के स्थापनाकर्ता हेडगेवार को यह श्राप दिया था कि “ आर एस एस के स्वयंसेवक के समाधिलेख पर लिखा रहेगा कि उसने जन्म लिया, आर एस एस की शाखा में शामिल हुआ और बिना कोई कार्य किये मर गया ।” कहना न होगा, दीनदयाल जी एक ऐसे ही आर एस एस के शापित स्वयंसेवक थे ।
वे 1937 में आर एस एस के संपर्क में आए और 1942 में पचीस साल की उम्र में संघ के प्रचारक हो गये और 12 फरवरी 1968 के दिन मुगलसराय स्टेशन पर एक ट्रेन में मृत पाये गये । उस समय यूपी में संविद (संयुक्त विधायक दल) की सरकार थी जिसके मुख्यमंत्री थे चौधरी चरण सिंह और जिसमें जनसंघ एक प्रमुख घटक दल था, जिसके नेता दीनदयाल जी हुआ करते थे । उनकी रहस्यमय मृत्यु को संघ के लोग आज भी रहस्य बनाके इशारों-इशारों में उससे राजनीतिक लाभ उठाने की बेकार की कोशिश करते रहते हैं, लेकिन उन्होंने कभी भी उसकी गहराई से जांच कराने की कोशिश नहीं की । जब उनकी मृत्यु हुई, जनसंघ खुद यूपी की सत्ता में थी, फिर भी उसके कहीं कोई सुराग नहीं मिल पाएं । हत्या के सुरागों को पूरी तरह से मिटा देने में सचमुच कुछ लोगों को महारथ हासिल होता है !
जो भी हो, आर एस एस के एक वरिष्ठ नेता दत्तोपंत ठेंगड़ी ने 'पं. दीनदयाल उपाध्याय विचार-दर्शन' श्रृंखला की पहली कड़ी में उनकी 'तत्व जिज्ञासा' पर लिखते हुए उनका एक जीवन परिचय दिया है, जिसमें वे साफ बताते हैं कि आरएसएस में आने के पहले तक दीनदयाल का जीवन क्या था, इसे कोई नहीं जानता । जब वे आर एस एस में आए और प्रचारक बने, पचीस साल के हो चुके थे । 1942 का वह काल, 'भारत छोड़ो' आंदोलन का एक क्रांतिकारी काल था जब भारत का हर देशभक्त नौजवान के हृदय में आजादी के संघर्ष की आग जल रही थी । ऐन उसी समय, पहले कभी किसी अन्य सामाजिक गतिविधि से दूर रहने वाला दीनदयाल उस आर एस एस में शामिल हुआ, जिसे अंग्रेज सरकार का वरद्-हस्त प्राप्त था, और जिसे ब्रिटिश सरकार भारत में सांप्रदायिक बटवारे के एक औजार के रूप में प्रयोग करने पर विचार कर रही थी, क्योंकि आर एस एस भी मुस्लिम लीग का प्रतिपक्ष बन कर भारत के बटवारे की सूरत में अपने को अंग्रेजों की कृपा से हिंदू भारत का अधिकारी बनाने की तैयारी कर रहा था ।
बहरहाल, आर एस एस का वह सपना पूरा नहीं हुआ तो हमारी आजादी के रूपाकार गांधी जी को ही मौत के घाट उतार दिया गया । आरएसएस पर प्रतिबंध लगा । किसी प्रकार से मुचलकें आदि देकर इस प्रतिबंध के हटने के बाद आर एस एस के तत्कालीन सरसंघचालक और मूल सिद्धांतकार सदाशिवराव गोलवलकर ने 1952 में जनसंघ के नाम से अपना एक राजनीतिक दल गठित किया और उन्होंने यूपी की तरह के एक सबसे प्रमुख राज्य में जनसंघ के लिये काम करने का जिम्मा अपने सबसे विश्वस्त व्यक्ति दीनदयाल उपाध्याय को सौंपा ।
दत्तोपंत ठेंगड़ी ने दीनदयाल के बारे में लिखते वक्त बार-बार इसी बात का जिक्र किया है कि वे जनसंघ के अंदर हर मायने में गुरूजी (अर्थात गोलवलकर) की ही प्रतिमूर्ति थे । उनके शब्दों में “पंडित जी का सबसे महत्वपूर्ण एवं आत्मीयता का अलौकिक संबंध तत्कालीन सरसंघचालक परम पूजनीय श्री गुरूजी के साथ था ।...(जिसका) वर्णन करने में शब्द असमर्थ हैं।” कहना न होगा, वे गुरूजी की बातों को इशारों में समझ जाते थे और उन पर पूरी निष्ठा से अमल करते थे, यही उनका सबसे बड़ा गुण था । और गुरूजी के साथ उनके संबंधों में 'अलौकिकता' ! यह तो भाजपा-आरएसएस में प्रत्येक के आपसी संबंधों का एक प्रमुख तत्व है । जिस सभा में अमित शाह वसुंधरा राजे सिंधिया को अपने पद से हटाने की साजिश रचेंगे, उसमें भी वसुंधरा जी के साथ अपने संबंधों को 'अलौकिक' बताने से वे नहीं चूकेंगे !
बहरहाल, पंडित जी के भगवान ये 'अलौकिक' गुरूजी क्या थे ? इसे कोई भी उनकी लिखी, उनके अंतर की गोपनीयता को उजागर करने वाली, सबसे प्रमुख किताब 'वी और आवर नेशनहुड डिफाइन्ड' के जरिये जान सकता है ।
गुरू जी हिटलर के परम भक्त थे और मानते थे कि हिटलर ने जर्मनी में जो पथ लिया, वही दुनिया के सभी राष्ट्रों के लिये श्रेष्ठ पथ है । उन्होंने डंके की चोट पर यह ऐलान किया था कि 'न पूंजीवाद चलेगा, न समाजवाद चलेगा — संघवाद (मुसोलिनी के कारपोरेटिज्म) का डंका बजेगा । हिटलर के सुझाये रास्ते पर भारत को भी चलना चाहिए कहते हुए उन्होंने विस्तार के साथ हिटलर का गुणगान करते हुए यहां तक लिखा था कि ’’अब हम राष्ट्रीयता सम्बन्धी विचार के दूसरे तत्त्व जाति पर आते हैं जिसके साथ संस्कृति और भाषा अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं।...जर्मनों का जाति सम्बन्धी गर्वबोध इन दिनों चर्चा का विषय बन गया है। अपनी जाति और संस्कृति की शुद्धता बनाए रखने के लिए जर्मनी ने देश से सामी जातियों - यहूदियों का सफाया करके विश्व को चौका दिया है। जाति पर गर्वबोध यहाँ अपने सर्वोच्च रूप में व्यक्त हुआ है। जर्मनी ने यह भी बता दिया है कि सारी सदिच्छाओं के बावजूद जिन जातियों और संस्कृतियों के बीच मूलगामी फर्क हों, उन्हें एक रूप में कभी नहीं मिलाया जा सकता। हिन्दुस्तान में हम लोगों के लाभ के लिए यह एक अच्छा सबक है।’’ (गोलवलकर, उपरोक्त, पृ. 35)
गोलवलकर मुसोलिनी के जिस कॉरपोरेटिज्म को संघवाद बता कर उसका डंका बजा रहे थे, दीनदयाल जी उसे ही अपना एकत्मवाद बता रहे थे । उनके शब्दों में —“जब हमसे कोई पूछता है कि 'आप व्यक्तिवादी हैं समाजवादी ? तब मैं सदैव कहा करता हूं कि हम दोनों का विचार करते हैं । हम पूर्णतावादी, एकात्मवादी, आत्मवादी तथा संघवादी है ।” (पं. दीनदयाल उपाध्याय विचार-दर्शन, खंड – 3, पृष्ठ – 15)
मजे की बात यह है कि दत्तोपंत ठेंगड़ी ने दीनदयाल जी के भी गुणों की प्रशंसा करते हुए अन्य अनेक लोगों की अतिशयोक्तिपूर्ण बातों के उद्धरणों की खास संघी शैली में एक जगह हिटलर के कथन को उद्धृत करने में भी कोई हिचक महसूस नहीं की है, जिसमें वे लिखते हैं — “हिटलर ने अपनी आत्मकथा में कहा है, “ एक ही व्यक्ति में तत्वचिंतक, संगठक एवं नेता के गुण हों, यह विश्व की अत्यंत दुर्लभ घटना होगी ।” हिटलर के विचारों के बारे में गोलवलकर के उपरोक्त कथन में 'सामी जातियों' की जगह विधर्मियों (अर्थात गैर-हिंदू) रख दीजिए, आपको गोलवलकर के भारत के बारे में विचार समझ में आ जायेंगे और उनकी छाया दीनदयाल जी के विचारों में भी पूरी तरह से इन विचारों का अक्श दिखाई देगा ! वही इनकी मूल तात्विकता है, संघ के नेता की प्राणी सत्ता, बाकी सब बातें 'अलौकिक' की तरह ही तत्वहीन, कोरी अलंकारिकता हैं ।
हम सभी हिटलर की तत्व-चिंता को और पूरी मनुष्य प्रजाति पर आर्य नस्ल की श्रेष्ठता के आरोपण के उसके मानव-द्रोही अभियान को जानते हैं । और दीनदयाल जी, संघ विचारक के शब्दों में, वैसी ही एक 'दुर्लभ घटना' थी । दत्तोपंत ठेंगड़ी ने गुरू जी और दीनदयाल जी के विचारों के बीच साम्य के जिन तमाम विषयों का उल्लेख किया है, ये वही सब विषय हैं जिनके अंदर से पी एन ओक की तरह के सिरफिरे इतिहासकार पैदा होता हैं — ताजमहल को तेजोमहालय शिवमंदिर बताने वाले, आगरा के लाल किले को हिंदू भवन साबित करने वाले, दिल्ली के लाल किले को लाल कोट और लखनऊ के इमामबाड़े को हिंदू राजभवन घोषित करने वाले !
दीनदयाल जी जनसंघ के प्रथम अधिवेशन (1952, कानपुर) से उसके अखिल भारतीय महामंत्री थे । और आज, जब वे इस जगत में नहीं हैं, मुगलसराय स्टेशन के नाम के अधिकारी है !
-अरुण माहेश्वरी
कल मुगलसराय जंक्शन पर भाजपा के अमित शाह ने जाकर मुगल सराय के नाम को पोंछ कर उसकी जगह ब्राह्मणत्व के सभी तत्वों को समेटे हुए एक दीर्घसूत्री नाम 'पंडित दीनदयाल उपाध्याय' लिख दिया । यह कुछ वैसा ही था जैसा दक्षिण के कुछ राज्यों में हिंदी-विरोधी तत्व बीच-बीच में हिंदी में लिखे साइनबोर्ड पर कालिख पोत आते हैं । यहां हिंदू सांप्रदायिक मानस ने निशाना 'मुगलसराय' को बनाया है !
बहरहाल, ये पंडित जी आखिर हैं कौन ?
बी डी सावरकर ने एक बार आरएसएस के स्थापनाकर्ता हेडगेवार को यह श्राप दिया था कि “ आर एस एस के स्वयंसेवक के समाधिलेख पर लिखा रहेगा कि उसने जन्म लिया, आर एस एस की शाखा में शामिल हुआ और बिना कोई कार्य किये मर गया ।” कहना न होगा, दीनदयाल जी एक ऐसे ही आर एस एस के शापित स्वयंसेवक थे ।
वे 1937 में आर एस एस के संपर्क में आए और 1942 में पचीस साल की उम्र में संघ के प्रचारक हो गये और 12 फरवरी 1968 के दिन मुगलसराय स्टेशन पर एक ट्रेन में मृत पाये गये । उस समय यूपी में संविद (संयुक्त विधायक दल) की सरकार थी जिसके मुख्यमंत्री थे चौधरी चरण सिंह और जिसमें जनसंघ एक प्रमुख घटक दल था, जिसके नेता दीनदयाल जी हुआ करते थे । उनकी रहस्यमय मृत्यु को संघ के लोग आज भी रहस्य बनाके इशारों-इशारों में उससे राजनीतिक लाभ उठाने की बेकार की कोशिश करते रहते हैं, लेकिन उन्होंने कभी भी उसकी गहराई से जांच कराने की कोशिश नहीं की । जब उनकी मृत्यु हुई, जनसंघ खुद यूपी की सत्ता में थी, फिर भी उसके कहीं कोई सुराग नहीं मिल पाएं । हत्या के सुरागों को पूरी तरह से मिटा देने में सचमुच कुछ लोगों को महारथ हासिल होता है !
जो भी हो, आर एस एस के एक वरिष्ठ नेता दत्तोपंत ठेंगड़ी ने 'पं. दीनदयाल उपाध्याय विचार-दर्शन' श्रृंखला की पहली कड़ी में उनकी 'तत्व जिज्ञासा' पर लिखते हुए उनका एक जीवन परिचय दिया है, जिसमें वे साफ बताते हैं कि आरएसएस में आने के पहले तक दीनदयाल का जीवन क्या था, इसे कोई नहीं जानता । जब वे आर एस एस में आए और प्रचारक बने, पचीस साल के हो चुके थे । 1942 का वह काल, 'भारत छोड़ो' आंदोलन का एक क्रांतिकारी काल था जब भारत का हर देशभक्त नौजवान के हृदय में आजादी के संघर्ष की आग जल रही थी । ऐन उसी समय, पहले कभी किसी अन्य सामाजिक गतिविधि से दूर रहने वाला दीनदयाल उस आर एस एस में शामिल हुआ, जिसे अंग्रेज सरकार का वरद्-हस्त प्राप्त था, और जिसे ब्रिटिश सरकार भारत में सांप्रदायिक बटवारे के एक औजार के रूप में प्रयोग करने पर विचार कर रही थी, क्योंकि आर एस एस भी मुस्लिम लीग का प्रतिपक्ष बन कर भारत के बटवारे की सूरत में अपने को अंग्रेजों की कृपा से हिंदू भारत का अधिकारी बनाने की तैयारी कर रहा था ।
बहरहाल, आर एस एस का वह सपना पूरा नहीं हुआ तो हमारी आजादी के रूपाकार गांधी जी को ही मौत के घाट उतार दिया गया । आरएसएस पर प्रतिबंध लगा । किसी प्रकार से मुचलकें आदि देकर इस प्रतिबंध के हटने के बाद आर एस एस के तत्कालीन सरसंघचालक और मूल सिद्धांतकार सदाशिवराव गोलवलकर ने 1952 में जनसंघ के नाम से अपना एक राजनीतिक दल गठित किया और उन्होंने यूपी की तरह के एक सबसे प्रमुख राज्य में जनसंघ के लिये काम करने का जिम्मा अपने सबसे विश्वस्त व्यक्ति दीनदयाल उपाध्याय को सौंपा ।
दत्तोपंत ठेंगड़ी ने दीनदयाल के बारे में लिखते वक्त बार-बार इसी बात का जिक्र किया है कि वे जनसंघ के अंदर हर मायने में गुरूजी (अर्थात गोलवलकर) की ही प्रतिमूर्ति थे । उनके शब्दों में “पंडित जी का सबसे महत्वपूर्ण एवं आत्मीयता का अलौकिक संबंध तत्कालीन सरसंघचालक परम पूजनीय श्री गुरूजी के साथ था ।...(जिसका) वर्णन करने में शब्द असमर्थ हैं।” कहना न होगा, वे गुरूजी की बातों को इशारों में समझ जाते थे और उन पर पूरी निष्ठा से अमल करते थे, यही उनका सबसे बड़ा गुण था । और गुरूजी के साथ उनके संबंधों में 'अलौकिकता' ! यह तो भाजपा-आरएसएस में प्रत्येक के आपसी संबंधों का एक प्रमुख तत्व है । जिस सभा में अमित शाह वसुंधरा राजे सिंधिया को अपने पद से हटाने की साजिश रचेंगे, उसमें भी वसुंधरा जी के साथ अपने संबंधों को 'अलौकिक' बताने से वे नहीं चूकेंगे !
बहरहाल, पंडित जी के भगवान ये 'अलौकिक' गुरूजी क्या थे ? इसे कोई भी उनकी लिखी, उनके अंतर की गोपनीयता को उजागर करने वाली, सबसे प्रमुख किताब 'वी और आवर नेशनहुड डिफाइन्ड' के जरिये जान सकता है ।
गुरू जी हिटलर के परम भक्त थे और मानते थे कि हिटलर ने जर्मनी में जो पथ लिया, वही दुनिया के सभी राष्ट्रों के लिये श्रेष्ठ पथ है । उन्होंने डंके की चोट पर यह ऐलान किया था कि 'न पूंजीवाद चलेगा, न समाजवाद चलेगा — संघवाद (मुसोलिनी के कारपोरेटिज्म) का डंका बजेगा । हिटलर के सुझाये रास्ते पर भारत को भी चलना चाहिए कहते हुए उन्होंने विस्तार के साथ हिटलर का गुणगान करते हुए यहां तक लिखा था कि ’’अब हम राष्ट्रीयता सम्बन्धी विचार के दूसरे तत्त्व जाति पर आते हैं जिसके साथ संस्कृति और भाषा अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं।...जर्मनों का जाति सम्बन्धी गर्वबोध इन दिनों चर्चा का विषय बन गया है। अपनी जाति और संस्कृति की शुद्धता बनाए रखने के लिए जर्मनी ने देश से सामी जातियों - यहूदियों का सफाया करके विश्व को चौका दिया है। जाति पर गर्वबोध यहाँ अपने सर्वोच्च रूप में व्यक्त हुआ है। जर्मनी ने यह भी बता दिया है कि सारी सदिच्छाओं के बावजूद जिन जातियों और संस्कृतियों के बीच मूलगामी फर्क हों, उन्हें एक रूप में कभी नहीं मिलाया जा सकता। हिन्दुस्तान में हम लोगों के लाभ के लिए यह एक अच्छा सबक है।’’ (गोलवलकर, उपरोक्त, पृ. 35)
गोलवलकर मुसोलिनी के जिस कॉरपोरेटिज्म को संघवाद बता कर उसका डंका बजा रहे थे, दीनदयाल जी उसे ही अपना एकत्मवाद बता रहे थे । उनके शब्दों में —“जब हमसे कोई पूछता है कि 'आप व्यक्तिवादी हैं समाजवादी ? तब मैं सदैव कहा करता हूं कि हम दोनों का विचार करते हैं । हम पूर्णतावादी, एकात्मवादी, आत्मवादी तथा संघवादी है ।” (पं. दीनदयाल उपाध्याय विचार-दर्शन, खंड – 3, पृष्ठ – 15)
मजे की बात यह है कि दत्तोपंत ठेंगड़ी ने दीनदयाल जी के भी गुणों की प्रशंसा करते हुए अन्य अनेक लोगों की अतिशयोक्तिपूर्ण बातों के उद्धरणों की खास संघी शैली में एक जगह हिटलर के कथन को उद्धृत करने में भी कोई हिचक महसूस नहीं की है, जिसमें वे लिखते हैं — “हिटलर ने अपनी आत्मकथा में कहा है, “ एक ही व्यक्ति में तत्वचिंतक, संगठक एवं नेता के गुण हों, यह विश्व की अत्यंत दुर्लभ घटना होगी ।” हिटलर के विचारों के बारे में गोलवलकर के उपरोक्त कथन में 'सामी जातियों' की जगह विधर्मियों (अर्थात गैर-हिंदू) रख दीजिए, आपको गोलवलकर के भारत के बारे में विचार समझ में आ जायेंगे और उनकी छाया दीनदयाल जी के विचारों में भी पूरी तरह से इन विचारों का अक्श दिखाई देगा ! वही इनकी मूल तात्विकता है, संघ के नेता की प्राणी सत्ता, बाकी सब बातें 'अलौकिक' की तरह ही तत्वहीन, कोरी अलंकारिकता हैं ।
हम सभी हिटलर की तत्व-चिंता को और पूरी मनुष्य प्रजाति पर आर्य नस्ल की श्रेष्ठता के आरोपण के उसके मानव-द्रोही अभियान को जानते हैं । और दीनदयाल जी, संघ विचारक के शब्दों में, वैसी ही एक 'दुर्लभ घटना' थी । दत्तोपंत ठेंगड़ी ने गुरू जी और दीनदयाल जी के विचारों के बीच साम्य के जिन तमाम विषयों का उल्लेख किया है, ये वही सब विषय हैं जिनके अंदर से पी एन ओक की तरह के सिरफिरे इतिहासकार पैदा होता हैं — ताजमहल को तेजोमहालय शिवमंदिर बताने वाले, आगरा के लाल किले को हिंदू भवन साबित करने वाले, दिल्ली के लाल किले को लाल कोट और लखनऊ के इमामबाड़े को हिंदू राजभवन घोषित करने वाले !
दीनदयाल जी जनसंघ के प्रथम अधिवेशन (1952, कानपुर) से उसके अखिल भारतीय महामंत्री थे । और आज, जब वे इस जगत में नहीं हैं, मुगलसराय स्टेशन के नाम के अधिकारी है !
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