(भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक पर एक टिप्पणी)
—अरुण माहेश्वरी
नई दिल्ली में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की दो दिवसीय बैठक (8-9 सितंबर) संपन्न हुई । इसके दूसरे दिन ही कांग्रेस सहित देश के लगभग समूचे विपक्ष ने पेट्रोल-डीजल के बेतहाशा बढ़ते दामों, मोदी के रफाल खरीद की तरह के भारत के अब तक के सबसे बड़े महाघोटालों और आकाश छूती महंगाई के खिलाफ भारत बंद का आह्वान कर रखा है । दो दिनों से खास दिल्ली में देश भर के किसानों, मजदूरों और महिलाओं के विशाल विरोध प्रदर्शन चल रहे थे । महंगाई और राफेल खरीद के खिलाफ पूरे देश में प्रदर्शनों का तांता लगा हुआ है । आम लोगों की मनोदशा त्राहिमाम वाली है । और देश के शासक दल की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने जनता की समस्याओं और उनके दिलों में उमड़-घुमड़ रहे सवालों की ओर एक नजर डालने तक की जरूरत नहीं महसूस की !
पहले दिन की बैठक के बाद संवाददाता सम्मेलन में कार्यकारिणी की बैठक का ब्यौरा देने आई निर्मला सीतारमण से जैसे ही रफाल, पेट्रोल, सवर्णों के गुस्से आदि पर सवाल पूछे जाने लगे, 'आनंदबाजार पत्रिका' लिखता है — 'वे भाग खड़ी हुई' ।
भाजपा के सांगठनिक चुनाव टले, पेट्रोल डीजल की कीमतों में लगी आग पर विचार टला, मोदी की गिरती साख पर सवाल ही नहीं उठा - पर कहते हैं पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक दो दिन चली ! लगता है जैसे उपस्थित सबने वहां एक स्वर में बस एक ही मंत्र का जाप किया - ‘अजेय‘ भाजपा ! जिसका असली मायने था - अजेय अमित शाह ! मोदी ने संगठन के चुनाव टलवा कर अमित शाह को अजेय घोषित किया और कार्यकारिणी के काठ के उल्लुओं से ‘अजेय’ भाजपा का संकल्प कराया ! बैठक के अंत में मोदी ने कहा — हम हर बूथ पर जीतेंगे । शाह ने कहा भाजपा को पचास साल तक कोई हरा नहीं सकता । राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने सुन लिया और बैठक खत्म हो गई !
सवाल उठता है कि जनतंत्र में कोई भी शासक राजनीतिक दल जन-जीवन को इस कदर त्रस्त बना कर उसके प्रति इतना संवेदनहीन, अश्लील और पशुवत व्यवहार कैसे कर सकता है ?
भाजपा की ट्रौल वाहिनी और उसके स्वरों में स्वर मिला कर हुआ-हुआ करने वाले भक्तजन तो 'अजेय ! अजेय !' की धुन का जाप करेंगे ही, कुछ दूसरे भले, मासूम और इनसे डरे हुए लोग भी कहने लगते हैं कि 'इनकी बात को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए । मोदी हैं, अंत में ही कुछ न कुछ तो जादू करेगा ही ! आज के हालात में इन्हें हराना आसान नहीं होगा ।'
सवाल है कि जिन्हें 'हालात' कहा जा रहा है उन्हें मापने का बैरोमीटर क्या है ? इनका कोई ठोस आधार भी है या बस यह एक कोरा अहसास है, जिसे हम एक कोरी मनोदशा या डर से पैदा होने वाला मनोरोग भी कह सकते हैं । जिनका जन-समर्थन लगातार गिर रहा है और गुजरात से लेकर कर्नाटक और तमाम उपचुनावों में जो बिल्कुल स्पष्ट रूप से जाहिर हो चुका है और आने वाले चार राज्यों के चुनावों में इनकी बुरी पराजय के सारे अनुमान सामने आ चुके हैं, तब फिर ‘हालात’ इस यथार्थ में नहीं, क्या कहीं और ही जाहिर होते हैं ?
मोदी-शाह सहित कुछ और लोग भी 'राजनीतिक पंडिताई' का दिखावा करते हुए इस विषय को विपक्ष की स्थिति से, उसकी एकता, अनेकता के एक अकेले मानदंड पर आंकते हुए दिखाने की भी कोशिश करते हैं । जनता के असंतोष को फलीभूत करने में विपक्ष की एक स्पष्ट रणनीति की महत्ता को स्वीकारते हुए भी हम इस विषय को सिर्फ उसी के संदर्भ में देखने-समझने के पक्ष में नहीं है । जनतंत्र का ही यह एक मूलभूत तकाजा है कि इस विषय को भाजपा और विपक्ष के समीकरण में देखने के बजाय भाजपा और जनता के बीच के संबंधों के आधार पर देखा जाना चाहिए ।
नोटबंदी के कुछ दिनों बाद यूपी में अपनी जीत के बाद ऐसा लगता है जैसे मोदी-शाह ने मान लिया कि जनता इनके विकृत, अप्राकृतिक, उत्पीड़क कामोत्तेजक खेल का इनके साथ उपभोग करने लगी है । फ्रायड ने इस प्रकार के 'फेटिश' कहे जाने वाले कामोत्तेजना के खेल को अपने अस्तित्व के प्रति चिंताग्रस्त (castration anxiety) आदमी की एक रक्षामूलक फैंटेसी कहा था, एक डरे हुए आदमी की पूरी तरह से अप्राकृतिक, विकृत कल्पना और अपराधपूर्ण क्रियाशीलता, जिसमें आदमी वास्तव में जिसके साथ सहवास करता है उसीके शरीर की सुध को खोकर उसे महज एक मांस का लोथड़ा समझने लगता है । ऐसे लोगों की समाज में यदि यथार्थ सूरत देखनी हो तो आप निर्भया कांड के बलात्कारियों को याद कर सकते हैं । यह शुद्ध पर-पीड़क और अपराधपूर्ण पशुवत उन्माद है, जिसके मूल में भयजनित हताशा होती है । भय (phobia) और कामोत्तेजक विकृत कल्पना (fetish) अविभाज्य हैं, जब व्यक्ति का वस्तु-बोध, जिससे वह डरा हुआ है, खत्म हो जाता है । प्रसिद्ध मनोविश्लेषक जाक लकान ने इस पर आदमी के दिमाग से वस्तु के बोध के खत्म हो जाने (lack of object) के रूपों के तहत बहुत गहराई से विचार किया है । (The seminar of Jacques Lacan, Book IV, The object Relation)
गुजरात, अनेक उपचुनावों, कर्नाटक आदि में भारत के लोगों ने इनके इन भयजनित पशुवत पंजो को झटक कर इनके प्रति अपना रोष और नफरत जाहिर किया हैं । लेकिन ये ऐसी विकृत हताश दशा में पहुंच गये हैं कि लोगों के ऐसे किसी भी संकेत को समझ कर अपनी आदतों को सुधारने के लिये जरा भी तैयार नहीं है । राष्ट्रीय कार्यकारिणी की यह बैठक फिर एक बार इसे ही प्रमाणित करती है । इसीलिये हमारा मानना है कि विपक्ष को तो अपनी भूमिका अदा करनी ही है, लेकिन वास्तव में उस पर ही अब सब कुछ निर्भर नहीं करेगा । 2019 में जनतंत्र की आत्मा, अर्थात जनता खुद दहाड़ कर बोलेगी और पूरी ताकत से इस राजनीतिक पशुता के पंजों से अपने को मुक्त करके इन्हें हमेशा के लिये इतिहास के कूड़ेदान में फेंक देगी । ये जनतंत्र की मूल प्रकृति ही नहीं जानते । ये पैसों और संसाधनों के बल उछल रहे हैं, लेकिन नहीं जानते कि जिन्हें जनता अपनाती है, संसाधन उनकी तरफ अपने आप बह कर आने लगते हैं । आगे जब चुनाव की असली प्रक्रिया शुरू होगी, प्रचार में भी विपक्ष इनसे उन्नीस नहीं रहेगा । जनतंत्र में सारे मामले पार्टियों और जनता के बीच संबंधों से ही अंत में तय होते हैं । बाकी सारी बातें राजनीतिक गप हुआ करती हैं ।
कुछ लोग पूछ रहे हैं, उनका यह अहंकार कहाँ से आता है ? दरअसल, अहंकार एक मनोदशा है । मनोविज्ञान में इसके तमाम कारणों पर चर्चा की जाती है । इसके वस्तुनिष्ठ तार्किक कारण नहीं होते कि अहंकार तभी आयेगा जब जीत निश्चित होगी ! मनोदशा के कोई निश्चित, तयशुदा कारण नहीं होते । शासक की हेकड़ी आम तौर पर उसके शासन का एक बड़ा अस्त्र मानी जाती रही है । लेकिन यह मान्यता राजतंत्र के काल की है । मोदी-शाह, अपने फासीवादी रूझानों के कारण जनतंत्र में भी उसी हेकड़ी के बल शासन करना चाहते हैं । जनतंत्र के लिये जरूरी संस्कृति का अभाव है इनमें ।
मोदी समर्थकों को यह भरोसा है कि सारे अन्याय के बाद भी चुनाव आते आते मोदी अंत में कोई जादू जरूर कर देंगे। जनतंत्र में ऐसे जादूगर अक्सर अंतिम वक्त में पूरी ताकत से भागते दिखाई देते हैं - विजय माल्या, नीरव मोदी और मेहुल भाई की तरह ।
—अरुण माहेश्वरी
नई दिल्ली में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की दो दिवसीय बैठक (8-9 सितंबर) संपन्न हुई । इसके दूसरे दिन ही कांग्रेस सहित देश के लगभग समूचे विपक्ष ने पेट्रोल-डीजल के बेतहाशा बढ़ते दामों, मोदी के रफाल खरीद की तरह के भारत के अब तक के सबसे बड़े महाघोटालों और आकाश छूती महंगाई के खिलाफ भारत बंद का आह्वान कर रखा है । दो दिनों से खास दिल्ली में देश भर के किसानों, मजदूरों और महिलाओं के विशाल विरोध प्रदर्शन चल रहे थे । महंगाई और राफेल खरीद के खिलाफ पूरे देश में प्रदर्शनों का तांता लगा हुआ है । आम लोगों की मनोदशा त्राहिमाम वाली है । और देश के शासक दल की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने जनता की समस्याओं और उनके दिलों में उमड़-घुमड़ रहे सवालों की ओर एक नजर डालने तक की जरूरत नहीं महसूस की !
पहले दिन की बैठक के बाद संवाददाता सम्मेलन में कार्यकारिणी की बैठक का ब्यौरा देने आई निर्मला सीतारमण से जैसे ही रफाल, पेट्रोल, सवर्णों के गुस्से आदि पर सवाल पूछे जाने लगे, 'आनंदबाजार पत्रिका' लिखता है — 'वे भाग खड़ी हुई' ।
भाजपा के सांगठनिक चुनाव टले, पेट्रोल डीजल की कीमतों में लगी आग पर विचार टला, मोदी की गिरती साख पर सवाल ही नहीं उठा - पर कहते हैं पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक दो दिन चली ! लगता है जैसे उपस्थित सबने वहां एक स्वर में बस एक ही मंत्र का जाप किया - ‘अजेय‘ भाजपा ! जिसका असली मायने था - अजेय अमित शाह ! मोदी ने संगठन के चुनाव टलवा कर अमित शाह को अजेय घोषित किया और कार्यकारिणी के काठ के उल्लुओं से ‘अजेय’ भाजपा का संकल्प कराया ! बैठक के अंत में मोदी ने कहा — हम हर बूथ पर जीतेंगे । शाह ने कहा भाजपा को पचास साल तक कोई हरा नहीं सकता । राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने सुन लिया और बैठक खत्म हो गई !
सवाल उठता है कि जनतंत्र में कोई भी शासक राजनीतिक दल जन-जीवन को इस कदर त्रस्त बना कर उसके प्रति इतना संवेदनहीन, अश्लील और पशुवत व्यवहार कैसे कर सकता है ?
भाजपा की ट्रौल वाहिनी और उसके स्वरों में स्वर मिला कर हुआ-हुआ करने वाले भक्तजन तो 'अजेय ! अजेय !' की धुन का जाप करेंगे ही, कुछ दूसरे भले, मासूम और इनसे डरे हुए लोग भी कहने लगते हैं कि 'इनकी बात को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए । मोदी हैं, अंत में ही कुछ न कुछ तो जादू करेगा ही ! आज के हालात में इन्हें हराना आसान नहीं होगा ।'
सवाल है कि जिन्हें 'हालात' कहा जा रहा है उन्हें मापने का बैरोमीटर क्या है ? इनका कोई ठोस आधार भी है या बस यह एक कोरा अहसास है, जिसे हम एक कोरी मनोदशा या डर से पैदा होने वाला मनोरोग भी कह सकते हैं । जिनका जन-समर्थन लगातार गिर रहा है और गुजरात से लेकर कर्नाटक और तमाम उपचुनावों में जो बिल्कुल स्पष्ट रूप से जाहिर हो चुका है और आने वाले चार राज्यों के चुनावों में इनकी बुरी पराजय के सारे अनुमान सामने आ चुके हैं, तब फिर ‘हालात’ इस यथार्थ में नहीं, क्या कहीं और ही जाहिर होते हैं ?
मोदी-शाह सहित कुछ और लोग भी 'राजनीतिक पंडिताई' का दिखावा करते हुए इस विषय को विपक्ष की स्थिति से, उसकी एकता, अनेकता के एक अकेले मानदंड पर आंकते हुए दिखाने की भी कोशिश करते हैं । जनता के असंतोष को फलीभूत करने में विपक्ष की एक स्पष्ट रणनीति की महत्ता को स्वीकारते हुए भी हम इस विषय को सिर्फ उसी के संदर्भ में देखने-समझने के पक्ष में नहीं है । जनतंत्र का ही यह एक मूलभूत तकाजा है कि इस विषय को भाजपा और विपक्ष के समीकरण में देखने के बजाय भाजपा और जनता के बीच के संबंधों के आधार पर देखा जाना चाहिए ।
नोटबंदी के कुछ दिनों बाद यूपी में अपनी जीत के बाद ऐसा लगता है जैसे मोदी-शाह ने मान लिया कि जनता इनके विकृत, अप्राकृतिक, उत्पीड़क कामोत्तेजक खेल का इनके साथ उपभोग करने लगी है । फ्रायड ने इस प्रकार के 'फेटिश' कहे जाने वाले कामोत्तेजना के खेल को अपने अस्तित्व के प्रति चिंताग्रस्त (castration anxiety) आदमी की एक रक्षामूलक फैंटेसी कहा था, एक डरे हुए आदमी की पूरी तरह से अप्राकृतिक, विकृत कल्पना और अपराधपूर्ण क्रियाशीलता, जिसमें आदमी वास्तव में जिसके साथ सहवास करता है उसीके शरीर की सुध को खोकर उसे महज एक मांस का लोथड़ा समझने लगता है । ऐसे लोगों की समाज में यदि यथार्थ सूरत देखनी हो तो आप निर्भया कांड के बलात्कारियों को याद कर सकते हैं । यह शुद्ध पर-पीड़क और अपराधपूर्ण पशुवत उन्माद है, जिसके मूल में भयजनित हताशा होती है । भय (phobia) और कामोत्तेजक विकृत कल्पना (fetish) अविभाज्य हैं, जब व्यक्ति का वस्तु-बोध, जिससे वह डरा हुआ है, खत्म हो जाता है । प्रसिद्ध मनोविश्लेषक जाक लकान ने इस पर आदमी के दिमाग से वस्तु के बोध के खत्म हो जाने (lack of object) के रूपों के तहत बहुत गहराई से विचार किया है । (The seminar of Jacques Lacan, Book IV, The object Relation)
गुजरात, अनेक उपचुनावों, कर्नाटक आदि में भारत के लोगों ने इनके इन भयजनित पशुवत पंजो को झटक कर इनके प्रति अपना रोष और नफरत जाहिर किया हैं । लेकिन ये ऐसी विकृत हताश दशा में पहुंच गये हैं कि लोगों के ऐसे किसी भी संकेत को समझ कर अपनी आदतों को सुधारने के लिये जरा भी तैयार नहीं है । राष्ट्रीय कार्यकारिणी की यह बैठक फिर एक बार इसे ही प्रमाणित करती है । इसीलिये हमारा मानना है कि विपक्ष को तो अपनी भूमिका अदा करनी ही है, लेकिन वास्तव में उस पर ही अब सब कुछ निर्भर नहीं करेगा । 2019 में जनतंत्र की आत्मा, अर्थात जनता खुद दहाड़ कर बोलेगी और पूरी ताकत से इस राजनीतिक पशुता के पंजों से अपने को मुक्त करके इन्हें हमेशा के लिये इतिहास के कूड़ेदान में फेंक देगी । ये जनतंत्र की मूल प्रकृति ही नहीं जानते । ये पैसों और संसाधनों के बल उछल रहे हैं, लेकिन नहीं जानते कि जिन्हें जनता अपनाती है, संसाधन उनकी तरफ अपने आप बह कर आने लगते हैं । आगे जब चुनाव की असली प्रक्रिया शुरू होगी, प्रचार में भी विपक्ष इनसे उन्नीस नहीं रहेगा । जनतंत्र में सारे मामले पार्टियों और जनता के बीच संबंधों से ही अंत में तय होते हैं । बाकी सारी बातें राजनीतिक गप हुआ करती हैं ।
कुछ लोग पूछ रहे हैं, उनका यह अहंकार कहाँ से आता है ? दरअसल, अहंकार एक मनोदशा है । मनोविज्ञान में इसके तमाम कारणों पर चर्चा की जाती है । इसके वस्तुनिष्ठ तार्किक कारण नहीं होते कि अहंकार तभी आयेगा जब जीत निश्चित होगी ! मनोदशा के कोई निश्चित, तयशुदा कारण नहीं होते । शासक की हेकड़ी आम तौर पर उसके शासन का एक बड़ा अस्त्र मानी जाती रही है । लेकिन यह मान्यता राजतंत्र के काल की है । मोदी-शाह, अपने फासीवादी रूझानों के कारण जनतंत्र में भी उसी हेकड़ी के बल शासन करना चाहते हैं । जनतंत्र के लिये जरूरी संस्कृति का अभाव है इनमें ।
मोदी समर्थकों को यह भरोसा है कि सारे अन्याय के बाद भी चुनाव आते आते मोदी अंत में कोई जादू जरूर कर देंगे। जनतंत्र में ऐसे जादूगर अक्सर अंतिम वक्त में पूरी ताकत से भागते दिखाई देते हैं - विजय माल्या, नीरव मोदी और मेहुल भाई की तरह ।
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